बहुआयामी प्रतिभा की धनी :सुदर्शन रत्नाकर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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बहुआयामी प्रतिभा की धनी श्रीमती सुदर्शन रत्नाकर का जन्म 1सितम्बर, 1942 ई. को अविभाजित भारत में जिला माँटगोमरी के चीचावतनी स्थान पर, एक शिक्षित एवं उदारवादी जमींदार -परिवार में हुआ था। पानीपत में रहकर पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ से आपने स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की। तदुपरांत हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से हिन्दी में परास्नातकीय उपाधि अर्जित की। केन्द्रीय विद्यालय, फरीदाबाद में अड़तीस वर्ष सेवा करने के पश्चात्‌, फरीदाबाद में रहकर ही, अब आप पूर्ण रूप से साहित्य -सेवा में रत हैं।

सुदर्शन के पितामह श्री मानकचंद बजाज एक प्रतिष्ठित संगीतकार ओर कवि थे। उनके गुण इन्हें विरासत में मिले हैं। पिता चौधरी राजकृष्ण बजाज एवं बड़े भैया श्री चमनलाल बजाज ने इनकी प्रतिभा और रुचि को देखकर सदैव आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। विवाहोपरांत कई वर्षों तक आपका लेखन -कार्य अवरुद्ध रहा, लेकिन पति डॉ. मोहनलाल रत्नाकर, जो स्वयं एक आलोचक, शोधार्थी और कथा-साहित्य के विशेषज्ञ थे, ने इनको प्रेरित किया और आगे बढ़ने में सहयोग दिया।

सुदर्शन रत्नाकर एक संवेदनशील व्यक्तित्व हैं, लेकिन उनका कला-प्रेमी व्यक्तित्व एक अनुशासित जीवन का पक्षधर है। समय का सदुपयोग उनके जीवन में विशेष महत्त्व रखता है। किसी भी काम में ढील उन्हें पसंद नहीं है। वह एक सोचने -समझने वाली कर्मवादी महिला हैं। उनका दृष्टिकोण स्वस्थ एवं यथार्थवादी है तथा चिंतन-पक्ष मानवीय मूल्यों को प्रश्रय देता है।

बच्चों के लिए कहानी प्रतियोगिता में प्रथम आने पर आपका लेखन के प्रति झुकाव बढ़ता गया। सन् 1960 में आपकी पहली रचना ‘शीला’ हिन्दी मिलाप में हुई और फिर उसके बाद साठ वर्षों से अधिक साहित्य सृजन में अनवरत रूप से लिखने का सिलसिला चल रहा है।

रचनाकर्म : सुदर्शन रत्नाकर ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपना रचना संसार रचा है। अब तक इनकी इक्कीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । जिनका विवरण निम्न प्रकार है-

दो उपन्यास: यादों के झरोखे, क्या वृंदा लौट पाई!

नौ कहानी संग्रह: फूलों की सुगंध दोष किसका था, बस, अब और नहीं, मैंने क्या बुरा किया है, नहीं, यह नहीं होगा ,मैं नहीं जानती ,कितने महायुद्ध, चुनिंदा कहानियाँ, अलकनंदा।

नौ कविता संग्रह: युग बदल रहा है, आसमान मेरा भी है, एक नदी एहसास की, उठो, आसमान छू लें(कविता-संग्रह),तिरते बादल(माहिया- हाइकु-संग्रह), मन पंछी-सा, लहरों के मन में (हाइकु-संग्रह), मन मल्हार गाए (सेदोका-सग्रह), हवा गाती है(ताँका-सग्रह)

लघुकथा संग्रह:साँझा दर्द

आलेख: नारी विमर्श एवं विद्यार्थियों के लिए उपयोगी आलेख पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित

संयुक्त संकलन:- छह दर्जन से अधिक संयुक्त संकलनों में रचनाएँ संगृहीत

अनुवाद: पंजाबी,उर्दू ,नेपाली,अवधी,गढ़वाली,अंग्रेज़ी एवं सिन्धी में कुछ रचनाएँ अनूदित

वेब -साइट पर प्रकाशन: अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्य कुंज, त्रिवेणी, सहज साहित्य,लघुकथा.कॉम, हिन्दी हाइकु, साहित्य सुषमा, पुष्पांजलि , शब्द सृष्टि, नीलाम्बरा, उदंती आदि में रचनाएँ का प्रकाशन।

देश-विदेश की प्रतिष्ठित एवं स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ।

प्रसारण:आकाशवाणी रोहतक ,शिमला,दिल्ली,अम्बर रेडियो एवं कांशी रेडियो यू.के से कहानी, कविता,वार्ता, चर्चाओं का प्रसारण होता रहता है।

पाठ्य पुस्तकें: संपादन- सहयोग एवं रचनाएँ संकलित

स्वर- संगम एवं भाषा मंजरी: पाठ्य पुस्तकें कक्षा एक से आठ तक ,भाषा चंद्रिका-व्याकरण-कक्षा छह से आठ तक।

पुरस्कार -सम्मान:

सुदर्शन रत्नाकर कई साहित्यिक, शिक्षण-संस्थानों द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हुई हैं । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा ‘महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना सम्मान’ 2019, ‘श्रेष्ठ महिला रचनाकार’ से 2013 में सम्मानित।

‘दोष किस का था’ कहानी- संग्रह, श्रेष्ठ कृति सम्मान 1994-95. हरियाणा साहित्य अकादमी से चार बार कहानियाँ पुरस्कृत ।

हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित हरिगंधा पत्रिका का हाइकु विशेषांक 2017 एवं महिला विशेषांक 2022 का सम्पादन।

शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्रीय विद्यालय संगठन द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित ।लाँयस क्लब द्वारा आदर्श अध्यापिका से सम्मानित।

दो दर्जन से अधिक देश की विभिन्न साहित्यिक,सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत।

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पाँच विद्यार्थियों द्वारा एम. फ़िल तथा दो के द्वारा पी.एच.डी की उपाधि हेतु शोध कार्य सम्पन्न।

सुदर्शन रत्नाकार का कहानी -संसार एक विस्तृत वैचारिक कैनवस पर यथार्थवाद के विविध रंग बिखेरता दृष्टिगोचर होता है। इनकी कहानियों में महानगरीय जीवन की जटिलताएँ, विडम्बनाएँ और असंगतियाँ विद्यमान हैं। ये नारी-मन की विभिन्‍न वेदनाओं और उत्पीड़न की परतों को खोलने का सफल प्रयास करती हैं। इनका अन्तर्जगत इतना सक्ष्म और गहरा है कि एक -एक रेशा निजी स्पन्दन समेटे हुए है। अधिकांश कहानियाँ एक खास किस्म की बेचेनी से भरी हैं। यह बेचेनी विभिन्‍न स्तरों पर प्रकट होती है -कहीं आत्मसंघर्ष के रूप में, तो कहीं मानसिक तनाव के रूप में। ये परिवेश की विश्वसनीय एवं अनुभूति की प्रामाणिक, छटपटाहट को स्वरूप प्रदान करने में समर्थ हैं। प्रत्येक कहानी के माध्यम से जहाँ जीवन -मूल्यों की खोज का प्रयास किया गया है, वहीं टूटते सामाजिक मूल्यों के दुखद स्वर को भी रेखांकित किया गया है। शहरी विस्तार के दुष्परिणामों ने सौन्दर्य -बोध और संवेदना को अर्थ-बोध के रूप में इतना जकड़ दिया है कि सारे सम्बंध विसर्जन या भावनाओं की अर्थी में चरमरा गए है। रिश्तों की जमीन बंजर एवं संवेदनाशून्य होती जा रही है। मानसिक खोखलेपन की पीड़ा हिला देने वाली होती है।

देश में व्याप्त सामाजिक समस्याओं, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिक उन्माद, आतंकवाद, अशिक्षा, रूढिवादिता, अलगाववाद, जाति-भेद,नारी -उत्पीडन, नारी मुक्ति -आंदोलन, नई सभ्यता और पाश्चात्य उपभोक्तावाद की चकाचौंध में भ्रमित नई पीढ़ी, टूटते-बिखरते पारिवारिक -कौटुम्बिक नाते-रिश्ते तथा गिरते नैतिक मूल्यों का बेबाक विवेचन -विश्लेषण लेखिका की कहानियों में द्रष्टव्य है।

सुदर्शन रत्नाकर की अधिकतर कहानियाँ नारी-प्रधान हैं। वह मध्यवर्गीय नारी -जीवन की विसंगतियों को उकेरने में सफल रही हैं। ये नारी पात्र जहाँ मुक्ति के लिए अदम्य छटपटाहट, बेचैनी और तड़प रखते हैं, वहाँ चरित्रवान एवं जागरूक सोच भी रखते हैं। सुदर्शन की नारियाँ सामाजिक बंधनों, परम्पराओं, रुढ़ियों को तोड़ती तो हैं, परन्तु एक सम्मानजनक ढंग से परिपक्व सोच और परिवर्तन की अहमियत में इस प्रकार सामंजस्य बिठाते हुए कि उनका दुस्साहसल भी सहज-स्वीकार्य तथा मान्य प्रतीत होने लगता है। नई रोशनी उन्हें चकाचौंध करती है, पर भटकाती नहीं। प्रेम की सोंधी मीठी सुगंध से भरपूर कहानियों की नायिकाएं उच्छृंखल नहीं हैं। वे प्रेम को गहराई से जीती हैं। उनका प्रेम निस्वार्थ है। वे त्याग करना जानती हैं; पाना नहीं, खोना भी जानती हैं।

प्रकृति -चित्रण में लेखिका की विशेष रुचि है। पर्वतीय प्रदेश, धरती, घटाओं, वातायन में झाँकती बदली, शीतल -मंद समीर के झोंकों का बहना,पेड़-पौधों ,पक्षियों का कलरव एवं पुष्पों का सजीव वर्णन इनकी कहानियों में प्राय: दृष्टिगोचर होता है।

सुदर्शन रत्नाकर : कवयित्री : सुदर्शन रत्नाकर की कविताओं में कवयित्री के संवेदनशील भाव, जीवन की विडम्बना, निराशा, दुःख, संकल्प -विकल्प और विश्वास के विविध उद्गम मिलते हैं। यहाँ मानव -जीवन से सम्बंधित गहरे प्रश्नों की अभिव्यक्ति प्राप्त होती है। इनकी कविताओं में विविध भाव, रंग, विचार और चिंतन मिलता है। कविताओं को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि कविता पढ़ी जा रही है, वरन्‌ लगता है कि कविता को जिया जा रहा है, इस कविता से हम बातचीत कर रहे हैं और हर कविता के चेहरे पर अलग-अलग भाव आ रहे हैं। कवयित्री की रचनाओं में एक और व्यष्टि -चेतना और दूसरी ओर समष्टि -चेतना की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। इस सम्बन्ध में कवयित्री का कथन द्रष्टव्य है - “बाहरी आँखें बहुत सारे दर्द देखती हैं, मन की आँखें उसे महसूस करती हैं।अनुभूत किए यही पल, भाव जब सहे नहीं जाते तब शब्दों के माध्यम से मवाद बनकर बह निकलते हैं। कविता इसी दर्द की अभिव्यक्ति है। दर्द, जो अपना भी है और दूसरों का भी है।

यह दर्द कई रूपों में जन्म लेता है; लेकिन अनचाहा दर्द जब सालता है तो कविता झरने की तरह फूट पड़ती है। इसमें कहीं प्यार की मिठास है, कहीं रिश्तों के टूटने का अहसास है, कहीं बेबसी की पुकार है, तो कहीं नवयुग के निर्माण का संदेश भी।”

सुदर्शन रत्नाकर की कविता उस दर्द को व्यक्त करती है, जो इनकी अन्तश्चेतना में छुपा हुआ है। वह दर्द व्यष्टि और समष्टि, दोनों से सम्बद्ध है। जीवन मूल्यों के परिवर्तन के साथ जीवन के जहाँ अर्थ बदले हैं, वहाँ कविता के मूल में भी परिवर्तन आया है। एक व्यक्ति की समस्या पूरे समाज की समस्या है। यही कारण है कि कवि की आवाज़ सब की आवाज़ बन गई है, उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति है ,जो सबको समान रूप से कचोटती है।

सुदर्शन रत्नाकर का काव्य-शिल्प, वस्तु-तत्त्व को व्यवस्थित करने तथा अनुभूतियों को सशक्त अभिव्यक्ति देने में अपनी सार्थकता समझता है । वह परम्परागत रूढ़ियों और छंद-योजना को नहीं अपनाता, बल्कि मूल संवेदना ही उसके स्वरूप का निर्धारण करती है। इनका कवि नये प्रतीकों और उपमानों को अपनाता है। वह किसी विशिष्ट विचार-धारा से कविता को मुक्ति दिलाता है। वह मानवीय अनुभूतियों की अभिव्यंजना के लिए मानवीय शब्दावली को प्रश्रय देता है। उसमें विविधता, अनेकरूपता और मौलिकता मिलती है। वह कहीं सरल एवं सहज है और कहीं गहन एवं प्रौढ़ है। उसमें व्यंग्यात्मकता का सौष्ठव भी मिलता है तो उसके कोमल स्वर शर भी बन जाते हैं। प्रतीकों, बिम्बों, उपामानों तथा शब्द -शक्तियों के आयोजन में आप माहिर हैं।

सुदर्शन रत्नाकर की कविताओं में ‘मैं’ का प्रयोग नारी के लिए और ‘तुम’ का प्रयोग पुरुष के लिए हुआ है। पुरुष के अभिमान और दमन का शिकार बनी नारी शताब्दियों तक मौन रही, पर अब वह सब उसके लिए असह्य हो उठा है। तभी तो वह कह उठती है – “तुम्हारी ऊँचाई अधिक हो सकती है, तुम्हारे हाथ भी ऊँचे हो सकते हैं, जिससे तुम आसमान को पहले छू सकते हो, पर बौनी तो में भी नहीं हूँ।”

सुदर्शन रत्नाकर कविता और कथा- जगत् की चर्चित एवं सम्मानित हस्ताक्षर हैं इसके साथ ही इन्होंने 1989 से हाइकु,ताँका चोका ,सेदोका जापानी कविता छंद में रचना कर साहित्य में अभिवृद्धि की है। इन छंदो में जीवन और प्रकृति की विविध रूपी झाँकी मिलती है। हाइकु का प्रमुख विषय नानाविध प्रकृति रही है। इनके प्रकृतिपरक हाइकु में शुद्ध रूप से प्रकृति का आलम्बन रूप के साथ उतनी ही पूर्णता के साथ उद्दीपन,मानवीकरण,प्रतीक आदि के दर्शन भी होते हैं।प्रकृति के प्रति सुदर्शन जी का अकुण्ठ अनुराग अनेक रूपों में दृष्टिगोचर होता है।

विषय वस्तु का वैविध्य,भाषा की प्रांजलता,भावों की गहनता और सजग चिंतन का आधार सुदर्शन रत्नाकर के हाइकु,ताँका,सेदोका में मिलता है।

वर्तमान जीवन की आपाधापी एवं भागदौड़ में आदमी अपनी सुख -सुविधाओं को जुटाने की होड़ में अविराम संघर्षरत है। जीवन की इस गहमा -गहमी एवं अंधी भागदौड़ ने साहित्य को पूरी त्तरह प्रभावित किया है। सुदर्शन रत्नाकर के उपन्यास इस दिशा में एक सार्थक पहल हैं। छोटे से कैनवस पर, थोड़े -से पात्रों को लेकर, सीधे एवं सहज रूप में लिखा गया ‘यादों के झरोखे’ एक अत्यन्त मार्मिक उपन्यास है। इस सामाजिक उपन्यास की विशेषता इसकी पठनीयता एवं प्रभावकारिता है। साधारण -सी परिस्थितियाँ एवं घटनाएँ कैसे असाधारण एवं प्रभावी हो जाती हैं? यह उपन्यास इसका ज्वलन्त प्रमाण है। पति द्वारा उपेक्षित नारी की अन्तहीन यातना एवं जीवन की अवसान -बेला में, तिनके के रूप में, नरेन का मिला सहारा, नीरा द्वारा जीवन को नये ढंग से जीने का संघर्ष, अपने पैरों पर खडे होने का संकल्प इस उपन्यास की धुरी है, जिसकी परिधि पर मुक्ता , नरेन, विमल दिव्यांश एवं कनु सरीखे चरित्र इस कहानी को, अपने ढंग से, पूरा करते हैं।

इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में पुरुष एवं स्त्री की समानता को सैद्धान्तिक रूप से स्वीकारा जा चुका है। क्या व्यावहारिक रूप से यह सच है? नहीं । आज भी पति द्वारा उपेक्षित नारी, कितनी नीरा, गुमनामी की ज़िंदगी जी रही हैं। इनके दुःख-दर्द को हम देखते अवश्य हैं, लेकिन हमारी संवेदनाएँ इतनी कुंठित हो चुकी हैं कि हम उससे समवेदित नहीं हो पाते। “लेखिका ने नारी के बहाने ऐसी ही उपेक्षित नारियों की त्रासदी पर रोशनी डालने का सार्थक प्रयास किया है, जो पति की स्वेच्छाचारिता का शिकार हैं। विमल की नीरा से दूरी का मुख्य कारण अनमेल-विवाह नहीं, वरन्‌ विमल की स्वार्थी एवं स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति है” (डॉ. हृदयनारायण उपाध्याय )।

“नीरा और मुक्ता अभावों एवं समस्याओं के भंवर में ऐसी फँस चुकी थीं कि बर्बादी के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं था। तब, तिनके की तरह, अनजान नरेन का निर्मल स्नेह जेसे अथाह सागर में डूबते इन निरीह -असहाय प्राणियों को बचा ही नहीं लेता, बल्कि एक निश्चित छोर तक पहुँचने में सहायक भी होता है - जहाँ से एक नए क्षितिज के द्वार खुलते हैं। जहाँ आत्मग्लानि नहीं, आत्मगौरव है , आत्म निर्भरता है। अपने पाँवों पर खड़े होकर आकाश को छूने का अवर्णनीय संतोष।” (हिमांशु जोशी)

दूसरा उपन्यास - क्या वृंदा लौट पाई!-- एक ऐसे भारतीय समाज की कथा है, जो नैतिकता एवं प्रतिष्ठा की श्रृंखलाओं में जकड़ा हुआ है। यह नैतिकता एवं प्रतिष्ठा सहज कम, आरोपित अधिक है। इसके डर से न आदमी जी पाता है और न मर पाता है। वृन्दा, गौतमी, कृष्णा, शाम ऐसे ही पात्र हैं। ये अधूरा जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं, मर्यादाओं से बंधे हैं, मर्यादाओं को तोड़ना चाहते हैं, परन्तु ऐसा कर नहीं पाते। कृष्ण पंजाबी है, वृन्दा बंगाली नवजागरणवादी विचारधारा से प्रेरित है, परन्तु घर के बड़े बुज़ुर्गों को ठेस नहीं पहुँचाना चाहती ।वृन्दा कहती है - “अभी हमारे समाज से दकियानूसीपन नहीं गया। जात-पात और भाषा प्यार में बाधक नहीं, लेकिन विवाह में बाधक है।” वृन्दा के पिता शिक्षित हैं, फिर भी उनका मानना है - “बांग्लाला-समाज में पंजाबी का आगमन नहीं हो सकता।” यही कारण है कि वृन्दा, चाहकर भी, कृष्ण से विवाह नहीं कर पाती। बीजी की मृत्यु के बाद घर सँभालने के लिए कोई महिला होनी चाहिए। कृष्ण के बड़े भाई शाम को, न चाहते हुए भी, गौतमी से विवाह करना पड़ता है। गौतमी सर्वगुण सम्पन्न है, लेकिन कम पढ़ी-लिखी है।

शाम उच्च पद पर पहुँचकर गौतमी से दूर होता चला जाता है। गौतमी गाँव में ही परिवार को संभालने में अपना जीवन गुज़ारने लगती है। शाम के साथ रहे, तो बूढ़े बाऊजी की देखभाल कौन करे? इस कर्त्तव्यपरायणता में वह अपने जीवन की सारी उमंग खो बैठती है। कृष्ण के छोटे भाई हरि का विवाह होने पर वह-और उपेक्षित हो जाता है। संतान न होने पर उपेक्षा और एकांत घने होते जाते हैं तथा वह उदासी-भरा जीवन जीने के लिए बाध्य हो जाती है। हरि की पत्नी सरला और बच्चों से भी उसको व्यथा ही मिलती है। कृष्ण ही उसका ध्यान रखता था। इसी कारण उसे सरला ने लांछित भी किया। बाऊ जी का चले जाना उसे और-अकेला कर जाता है। उपन्यास में एक अन्य धारा आज़ादी के संघर्ष की है। यह मुख्य कथा के साथ-साथ चलती है। आज़ादी मिली, पर अनगिनत घावों के साथ, आँसुओं के दरिया के साथ। स्वतंत्रता की अनुगूँज बड़ी शिद्दत से चित्रित की गई है। राजनीति हृदयहीन एवं क्रूर होती है। राजनीति चाहे जीते, चाहे हारे; जनता सदैव हारती है। वैवाहिक संस्थाएँ आदमी के लिए बनी हैं। आदमी इन संस्थाओं में पिसने के लिए नहीं बना है। यही उद्घोष इस उपन्यास के मुख्य पात्रों की परिणति में प्रकट होता है। देश और काल बदल जाते हैं, शोषण के तरीके बदल जाते हैं, लेकिन शोषित प्रत्येक युग में शोषित ही बना रहता है। ‘क्या वृन्दा लौट पाई’ में यह अनुगूँज आद्यन्त सुनाई पड़ती है। हिमांशु जोशी के शब्दों में, “लेखिका के पास अपनी मौलिक शैली ही नहीं, पारदर्शी दृष्टि भी है। यही कारण है कि सरल-सहज शैली ही नहीं, कथ्य एवं तथ्य के धरातल पर भी उपन्यास गंभीर रूप से बाँधता है। जब किसी एक की यादें न रहकर यथार्थ लगे, तब साधारण-सी लगने वाली रचना भी असाधारण बन जाती है।”

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सुदर्शन रत्नाकर ने जीवन में खट्टे -मीठे अनुभवों और विशेषकर नारी-मन की संवेदनाओं – भावनाओं को केन्द्र में रखकर आधुनिक भावबोध से सजी-संवरी अनेक विधाओं में अमूल्य रचनाएँ हिन्दी -साहित्य को दी हैं। उनके पास अपनी मौलिक शैली ही नहीं, पारदर्शी दृष्टि भी है। लेखिका का दृष्टिकोण सकारात्मक है, भाषा पर उनका अनूठा अधिकार है। वह सोच-समझ कर भाषा को नहीं सजाती, बल्कि भाषा उनके हृदय से प्रवाह-रूप में स्वतः निकलती चली आती है। लेखिका की रचनाओं में उनका बहुमुखी व्यक्तित्व भी झलकता है।

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