बहुआयामी यर्थाथ को अभिव्यक्त करती कविताः रुक्मिनी / महेश चंद्र पुनेठा

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हिन्दी कविता में चरित्र-सृष्टि के अभाव की शिकायत अक्सर सुनने को मिलती है। यह शिकायत एक हद तक सही प्रतीत हो सकती है। पर कविवर विजेन्द्र के कविता संसार से गुजरने के बाद यह ग़लत लगने लगती है। जितनी चरित्र-प्रधान कविताएं उनके यहाँ मिलती हैं शायद ही अन्य किसी कवि के यहाँ हों। इस दृष्टि से वे हिन्दी के विरले कवि हैं।

उनकी चरित्र प्रधान कविताओं में अपने पात्रों के प्रति पूरी संबद्धता और तटस्थता दिखाई देती है। वे अपने पात्रों को पाँचों इंद्रियों से जानने-समझने की कोशिश करते हैं। उनके क्षरित होते मन की आवाज सुनते हैं। भीतर से अर्थ-ध्वनि पकड़ लाते हैं। उनकी चरित्र सृष्टि लोक-क्रियाओं में बँधी और लोक के अटल संघर्ष की अभिव्यक्ति हैं। उनके पात्र जीने की सबल इच्छा से भरपूर हैं। 'रुक्मिनी' उनकी एक चर्चित चरित्र-प्रधान कविता है। जिसमें जन-जनपद और जमीन से प्रेम तो मिलता ही है साथ ही उसका जीवन-संघर्ष भी।

'रुक्मिनी' कालाहाँडी के अकालग्रस्त क्षेत्र से आई हुई एक लड़की है जिसे भूख की ज्वाला थार तक ले आई है। जिसका कोई सगा भी नहीं है।घरबार छोड़ना जिसकी आदत-सी बन गई है। अब कुछ अजूबा-सा नहीं लगता उसे। कवि उससे संवाद स्थापित करता है। उसके बारे में अधिकाधिक जानना चाहता है।कवि पूछकर जानता है कि वह उड़़ीसा से आई है। जो बोलती है थके होंठों से। उसके चेहरे पर हँसी भी नहीं है।रंग साँवला है। आँखें बड़ी गड्ढे में धँसी. बाँए गाल में मस्सा।घने-काले बाल कमर तक छितरे। पलती-दुबली कृश-काया कुपोषण ग्रस्त। मैली-कुचैली, फटी-पुरानी बिना पल्लू की धोती पहने। उसके नाक-नक्श, वेश-भूषा और चेहरे के भाव उसके जीवन की अनकही गाथा को कह देती है। उसके देश की तबाही उसके हाव-भाव और चेष्टाओं में झलक उठती है।वह अपने अतीत को जितना छुपाना चाहती है, उतना मुखर हो आता है। उसके रूप और भाव से चीखती है तवाही भूख की, अकाल और पीड़ा की। उसकी इस दयनीय दशा को देख कवि को खुद पर शर्म आती है।वह अपराध बोध से ग्रस्त हो जाता है। कवि को अपनी गुलदस्ता सजी डाइनिंग टेबिल पर ताजा गमकते पकवान याद हा आते हैं।कविता बिन कहे कह देती है कि एक ओर इस तरह भूख की त्रासदी है और दूसरी तरफ गमकते पकवान। कवि दो विपरीत दृश्यों को आपने-सामने खड़ा कर इस दुनिया में फैली असमानता को दृश्यमान कर देता है।

जब वह लड़की थोड़ा विचलित होकर संकोच से बताती है कि कालाहाँडी से आई है। उसके मन में वहाँ का जीवन कौंधता है-सूखती नदियाँ / उखटते खेत / मुरझाकर अवनत हुई / धान की अधभरी बालें। हृदय के गहनतम त्रास से कहती है कि ऐसा सूखा वहाँ सदा पड़ता है। हर समय भयानक अकाल की छाया सिर पर मंडराती रहती है। अकाल के चलते-देखते-देखते भूस्वामी हुए कंगाल / छोटे किसानों ने / खो दिए पशु, बालक और घरबार / जो भूख में / खोदकर खाते जड़ें / पत्ते / पेड़ की छालें। इस अकाल, सूखा, महामारी की कहावतें और भयानक चित्र वहाँ के लोकगीतों में रच गए हैं। रुक्मिनी के कथन की लय से कवि को लगता है जैसे खुद को समझाती हुई कह रही है-कहाँ तक रोएँ / गत है यही / वहाँ के जन की। वहाँ के जन की इस गत पर कवि सोचता है-क्या वह नहीं जनपद मेरे देश का / क्या वहाँ के जन में / धड़कता दिल नहीं। पर कवि को लगता है क्या होगा इस सोचने से? क्या अश्रु करूणा से? कवि खुद से संवाद करने लगता है-कैसा है तीन खन वाला / यह अनोखा मन / जो सोचता हूँ / उसे कहता नहीं / जो कहता उसे सोचा नहीं / जो कहा- / उसके कारकों को / कभी जाना नहीं / यह त्रिभंग मेरा मन... / अरे कैसा है! / अमिट भूख में गाता / छिदे को छेदता आर से निर्मम / कहाँ है समाधान / कहाँ है विकल्प / इन लोक-गायन कथा-गीतों में। कविता में आगे कवि उन बुद्धिजीवियों को कटघरे मंे खड़ा करता है जो कालाहाँडी जाकर दुर्भिक्ष के कारण तो खोजते, आँकडे जुटाते और पोथियाँ लिख-लिखकर अपना नाम कमाते हैं पर वहाँ आई मौत का सामना नहीं करते। कवि का मानना है कि भूख के गाने, गाने की नहीं उनसे लड़ने की आवश्यकता है। उन्हें सूक्तियों और सुभाषितों की ज़रूरत नहीं है बल्कि उनके भीतर धधकते अंगारे को देखने की ज़रूरत है।साथ ही देखने की ज़रूरत है भूख, ताप और कुपोषण से मरते-बिलखते बच्चों को। अभावों और कठिन रोगों से दम तोड़ते लोगों को। कवि इस बात को अच्छी तरह जानता है कि इन हालातों के चलते ही रिश्तों में तल्खी और आत्मीयता में कमी आ रही है। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है-छीनकर खाता बाप बच्चे से / स्वयं जीने को / कहाँ है नेह माता का / कहाँ है बाप की ममता। भूख पैसे की हो या अन्न की दोनों ही रिश्तों को बदल देती है। एक मानव का दूसरे मानव के साथ, सामाज के साथ और प्रकृति के साथ रिश्तों को बदल देती है। कवि प्रश्न करता है-क्या कह रहा / यह सब काव्य में / जो कहा जाता रहा / लोकगीतों...मिथकों / और आख्यानों में।

रुक्मिनी की सुनते-सुनते कवि को लगता है यह केवल कालाहाँडी के सामान्य जन की जीवन समर की महागाथा ही नहीं बल्कि-कहता मेरा थार भी यही सब। कवि कालाहाँडी से थार की समानता स्थापित करता है। वह जानता है, कालाहाँडी हो या थार सामान्य जन की स्थिति सभी जगह कमोबेश एक-सी ही हैं। हर जनपद और लोक के दुःख-दर्द एक समान है-जुड़े हैं भारत के सभी जनपद / दुःख-सूत्र में पोए / मनके भिन्न रंगों के / जी रहा मानस जहाँ / त्रासद अभावों में।

कवि अपने थार को देखता है- अकाल की काली दरारें / खुदी किसान के माथे पर / सूखते-जलते / काटे जा रहे पेड़-रूख / कहाँ से लाऊँ छाया घनी तुमको / धरती के गर्भ में जल स्तर / खिसकता नीचे / और नीचे / कहाँ हैं जलधार / पीने को / दिखीं छायाएं घनी / मौत की / मुड़े मेरी ओर पैने नखर / इसके. ये पंक्तियाँ उन कारणों की ओर संकेत करती हैं जो अकाल के लिए जिम्मेदार हैं।

कवि झिझकर रुक्मिनी से नाम पूछता है पर उसे अपना नाम बताने में कोई उत्साह नहीं है फिर भी अंततः वह गर्दन झुकाकर बताती है अपना नाम। कवि को नाम सुनकर याद आती है- 'रुक्मिणी री बेलि' / भिन्नता में ंिडंगल रची रनिवास की गाथा। यहाँ पर एक बार फिर कवि को अभिजात्य जीवन याद हो आता है। एक रूक्मिणी वह थी जो महलों में रहती थी और जिसकी गाथा शास्त्रीय संगीत में आज भी गाई जाती है और दूसरी यह जो दर-दर भटकने और भीख माँगने को मजबूर है। कवि विजेंद्र उस महलों वाली रूक्मिणी को अपनी कविता का विषय नहीं बनाते हैं। उसकी सौंदर्य गाथा नहीं गाते हैं। उनका अपना पक्ष साफ है-मैं हूँ जनतंत्र का कवि / दूर हूँ दरबार से / लिखता हूँ मुक्त छंद लयवान / चरित्र सृष्टि को / लोक-क्रियाओं में बाँधकर / कर रहा प्रवाह प्राणों का निर्बाध।

इस कविता में कवि दोहरा संवाद करता है-पहला, रुक्मिनी से और दूसरा, खुद से।कवि प्रश्न करता है- क्या होगा तेरे गीत लिखने से / क्या छंद लिखने से। इन पंक्तियों से यह ध्वनि निकलती है कि इस स्थिति के खिलाफ संघर्ष करना होगा क्योंकि यह स्थिति पूरी तरह से प्रकृति जनित नहीं है बल्कि अकाल के नाम पर जो राहत का खेल चलता है उसमें एक वर्ग को लूट का मौका मिल जाता है-गरीबों की टूटी कमर / धनिकों को लूट का मौका। धनिकों की यह लूट की अकालग्रस्त जन की स्थिति को और पीड़ादायी बना देती है। यह कविता प्रश्न खड़ा करती है कि आखिर यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें उसके 'लोक' को प्राकृतिक आपदा की मार से दर-दर भीख माँगने को भटकना पड़ता है। यह तंत्र उसे बाढ़, अकाल, महामारी जैसी आपदाओं से भी सुरक्षा प्रदान नहीं कर पाता है।'लोक' को तात्कालिक राहत प्रदान करने तक की मंशा नहीं रखता है। दिखाने के लिए जो किया भी जाता है वह प्रभावितों को राहत कम, धनिकों को लूट का मौका अधिक देता है। इस 'खेल' के खिलाफ जो बोलता है उसे 'राजनीति करना' या 'ध्वज का प्रचार' करना कहा जाता है। कवि का यह कहना ग़लत नहीं है-कविता में यदि कहा / यह मैंने- / अभिजन कहेंगे / प्रचार है धज का।

कविता में हम आगे पाते हैं कि पहले-पहले जो लड़की कुछ कहने से झिझक रही थी अब कवि की आत्मीयता पाकर उसकी झिझक दूर हो गई. वह अपनी पीड़ासनी कथा कहती जाती है और कालाहाँडी के लोकजीवन और मान्यताओं के बारे में बताने लगती है- जैसे जीते हैं जीने को / मन मारकर हर बार / नहीं बरसा तो भी रचाए / ब्याह देवी-देवताओं के / यदि प्रसन्न हैं इंद्र / करेंगे महर जल की। यहाँ कविता संकेत करती है कि चाहे अभाव हों या अकाल लोक को अंधविश्वास जकड़े ही रहते हैं और यह जकड़न उनके कष्ट को बढ़ा देती है।

रुक्मिनी की पीड़ासनी कथा सुनते-सुनते कवि को उड़िया के प्रख्यात कवि सीताकांत याद हो आते हैं। कवि पूछता है-खोजता हूँ तुम्हारी कविता में / वे झुर्रियाँ, वे सिकड़नें, वे धँसी आँखें- / कहाँ हैं-बोलो / सदागत नदियाँ / सूखी खड़ी निर्पात फसलें / घर के घर हुए बारहबाट / चला करता खेल यह / हरदम मृत्यु-जीवन का। कवि-कलाकारों की स्थिति भी यह है कि उन्हें अपनी रचना के लिए सस्ते और ऐसे विषयों की तलाश रहती है जो सुर्खियाँ बटोर सकें। पीड़ित जन और उसकी पीड़ा उन्हें कम ही दिखाई देती है।

इस लंबे संवाद के बाद रुक्मिनी का इस तरह चला जाना भी बहुत कुछ कह जाता है-कुछ खाया अन्न / कुछ पिया पानी / अपनी भाषा में बड़बड़ाई / देखा तक नहीं मुझको / पलक भर / बिना पाए उत्तर / बिना चाहे दीठ करुणा की / चली गई अगली गली में / उधर मुड़कर। रूक्मिनी का बड़बड़ाते हुए कवि की ओर देखे बिना चले जाना उसके प्रति अभिजन समाज के प्रति बैठे आक्रोश का प्रतीक है। वह इस वर्ग से किसी तरह की करुणा की अपेक्षा नहीं करती। यह भाव रूक्मिनी के व्यक्तित्व में शुरू से अंत झलकता है। उसके कहन से अभिजन के प्रति एक उदासीनता का भाव निर्झरित होता है।

कविता पाठक को भूख, प्यास जैसे घने आघात को सहती जीवन- समर की महागाथा को महसूस करने और आँखों के उस नील जल को देखने की अपील करती है जो सूखकर जमा है खार-सा कहीं भीतर की दीवारों पर।यह कविता अपने आसपास को गहराई से देखने-सुनने और उस पर सोचने के लिए अनुप्रेरित करती है। समाज और प्रकृति के साथ उसके संबंधों को बताती है। विजेंद्र रुक्मिनी के बहाने भारतीय जनपदों की व्यथा-कथा कहते हैं। यह केवल कालाहाँडी या थार की बात नहीं है, अधिकांश जनपदों और जन की यही दुर्दशा है।यह दूसरी बात है कि उसके कारण अलग-अलग होंगे लेकिन उनमें समानता है कि अभिजन का लोक के प्रति दृष्टिकोण एक-सा ही है।यह अकेली रूक्मिनी नहीं है हजारों-हजार रूक्मिनियाँ हैं जो बाढ़-सूखे-अकाल-भूस्खलन से विस्थापित हो शहर-शहर भटकने को अभिशप्त हैं जिनको उनकी मिट्टी बार-बार बुलाती है। उनका मन लौटने को कलपता है। वे लौटना चाहती हैं पर कैसे, भूख की आग लौटने ही नहीं देती। वे हर बार मन मारकर रह जाते हैं। यहाँ तक कि वे जीते भी हैं मन मारकर।

यह कविता आख्यानात्मक न होकर बिम्बात्मक है। कविता यथार्थ प्रश्नों से टकराती है। बहुआयामी यर्थाथ को अभिव्यक्त करती है। इस कविता में रूक्मिनी के बहाने सामान्य जन की स्थिति, कालाहाँडी और थार के बहाने जनपदीय जीवन की स्थिति का चित्रण और खुद से संवाद के बहाने कवि दायित्व की पड़ताल की गई है। यह कविता कवि केे लोक और जनपद के प्रति प्रतिबद्धता को प्रकट करती है। इस कविता से साफ झलकता है कि विजेन्द्र का लोक गाँव का पर्याय नहीं बल्कि कुलीन का विपर्यय है। कविता समाधान और विकल्प की तलाश करती है।'क्या करोगे पूछकर', 'क्या होगा इस सोचने से', 'क्या अश्रु करुणा से', 'तो क्या होगा तेरे गीत लिखने' से 'फिर भी गा रहा भूख के गाने' जैसी पंक्तियाँ यथास्थिति के खिलाफ संघर्ष की अपील करती हैं। केवल पूछकर, करुणा के आँसू बहाकर, गीत लिखकर या भूख के गाने गाकर कुछ नहीं बदलेगा बल्कि उसके लिए संगठित होकर संघर्ष करना पड़ेगा। यहाँ कहे से अधिक उसकी ध्वनियों को पकड़ने की ज़रूरत है। रुक्मिनी की 'चुप्पी की मुखरता' को पढ़ने और उसके अनकहे को समझने की। कविता व्यर्थ को अर्थ देने की की पूरी कोशिश करती है। पात्र के रूप में रुक्मिनी का चयन इस बात का प्रतीक है कि कवि समाज के सबसे अधिक उपेक्षित और संघर्षशील जन को अपनी कविताओं के केंद्र में रखता है।सामान्य जन की स्थिति को बताने के लिए एक स्त्री पात्र का चयन यूँ ही नहीं है। स्त्री हमारे समाज में हमेशा हाशिए में रही है उस पर भी गरीब स्त्री।उनके यहाँ स्त्री सर्वहारा के प्रतिनिधि के रूप में आती है मात्र एक स्त्री के रूप में नहीं।विजेंद्र स्त्री को अलग करके नहीं देखते हैं।उसे वर्गीय रूप में ही देखते हैं। ऐसा नहीं कि वे केवल स्त्री जीवन और समस्याओं की बात करते हों। उनकी कविता में जीवन समग्रता में आता है। स्त्री जिस समय और समाज में रहती है वह पूरा समय और समाज उनकी कविता में आता है। ये बात हमें गंगोली, तस्वीरन अब बड़ी हो चली, मीना, मिस मालती, आदि सभी कविताओं में दिखाई देती है। कविवर विजेन्द्र की खासियत है कि वे अपनी बात को प्रभावशाली तरीके से कहने के लिए प्रकृति और पूरे परिवेश को मजबूती से खड़ा करते हैं। इस कविता में भी हमें यह दिखाई देता है।