बहुत-कुछ / महेश दर्पण
ताई मेरे लिए अतीत और वर्तमान के बीच एक पुल की तरह थी। मैं उन्हें देखता तो मुझे पुराने दिन एक-एक कर याद आने लगते। मैं अपने किशोर दिनों में उतर जाता।
मुझे याद है अच्छी तरह से कि ताई जब शादी के बाद घर आई थीं तो कैसे भीतर आकर उन्होंने सबसे पहले मुझे ही अपनी गोद में बैठाया था। फिर कुछ बरस बाद मैं भले ही उनसे अलग हो गया होऊँ, लेकिन यह वह भी मानती थीं कि माँ बनने से पहले उनका सारा दुलार मुझ पर ही रहा था। वह मुझे अपना बेटा ही तो मानने लगी थीं। उनकी वजह से बहुत कम समय में मैं यह भूल गया था कि अपने माँ-बाबू को होश संभालने से पहले ही खो चुका हूँ। किसे पता था कि बरसों बाद फिर हमें एक ही मुहल्ले में रहने का मौका मिलेगा। दर-दर की ठोकरें खाने के बाद मेरे मुहल्ले में आने तक ताई बहुत कुछ खो चुकी थीं।
वह ताऊ जी को किस कदर चाहती थीं, यह ताऊ जी के न रहने पर ही पता चला। बहन की शादी करने के बाद जब उनके बेटों ने उनसे कहा कि यह घर अब जर्जर हो चुका है, इसे बेच-बाच कर किसी ठीक-ठीक जगह कोई फ्लैट देख लेते हैं तो वह बिफर ही पड़ीं, तुम्हारे लिए हो गया होगा जर्जर। यह मेरे लिए जीने का सबसे बड़ा सहारा है, समझे। तुम लोगों को जहाँ जाना है, शौक से जाओ, मैं मरते दम तक यहीं रहूँगी। मुझे किसी के सहारे की जरूरत नहीं है। शंकर ने एक रोज मुझे बताया था कि माँ घंटों अपना कमरा बंदर किए बैठी रहती हैं। कोई इस दौरान उन्हें छेड़ नहीं सकता। कई-कई बार तो खाने का वक्त निकल जाता है और हम लोग भूखे बैठे उनके बाहर आने का इंतजार करते रहते हैं।
'क्या करती हैं अकेले में दरवाजा बंदर करके वह ?' -मेरी जिज्ञासा जाग उठी थी।
शंकर ने बताया, “अरे, बहुत दिनों तक तो हम खुद हैरान थे यही सोच-सोच कर। एक दिन राज खुद खुल ही गया। हुआ यह कि बंटी ने ‘दादी खोलो, दादी खोलो’ कहते हुए उनका दरवाजा जोरों से भड़भड़ा दिया। शायद सिटकनी ठीक से नहीं लगी थी, खटाक की आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। जब तक हम लोग बंटी को रोकते, वह जाकर दादी की गोद में बैठ गया– ‘दादी, ये इतनी सारी चिट्ठियाँ कहाँ से आ गईं तुम्हारे पास ?’ उसी बात का जवाब दिए बगैर हड़बड़ाहट में माँ फर्श पर बिखरी चिट्ठियाँ बटोर कर अपने थैले में रखने लगीं। इस वक्त दद्दा तुम उनकी फुर्ती देखते जरा। उन्होंने बंटी के हाथ से छीनते वक्त भी यह एहतियात रखा कि कहीं कोई चिट्ठी फट न जाए। यह तो हम समझ ही गए थे कि ये तमाम चिट्ठियाँ बाबू जी ने उन्हें समय-समय पर लिखी होंगी। अब समझ में आने लगा था कि आखिर क्यों उन्हें यह पसंद नहीं था कि बहुएं उनके कमरे की सफाई करें। अलमारी में हाथ लगाने का तो खै़र सवाल ही नहीं उठता... वह हम सबके लिए एक वर्जित प्रदेश की तरह है...।
शंकर जाने क्या-क्या बोलता रहा था उस रोज और मैं था कि ताई के साथ बीते दिनों में जा पहुँचा था। ताऊ जी हर वक्त अपने लिखने पढ़ने में ही लगे रहते थें और ताई जी मुझे पढ़ाने लिखाने में। चाय के वक्त चाय, नाश्ते के वक्त नाश्ता। बहुत हो गया तो रात को खाने के वक्त थोड़ी बातचीत ये हो गई कि आज दिनभर क्या किया तुम लोगों ने। कभी ताई मेरी शैतानियों की शिकायत करती, कभी कहती– ‘कभी कभार आप भी तो देख लिया कीजिए इसका काम-काज। आजकल पढ़ने में मन बिलकुल नहीं लगता इसका।’
ताऊ जी दो-एक रोज पढ़ाने की कोशिश जरूर करते, लेकिन मेरी मूढ़ताओं के चलते उनका टीचर बेहद कमजोर साबित होता। वह मुझे पहाड़ा याद न होने पर घंटे भर दरवाजे के पीछे खड़े होने का दंड देते। मैं सहर्ष खड़ा हो जाता। मुर्गा बना देते, मैं झट बन जाता। थोड़ी देर बाद वह फिर पहाड़ा सुनाने का कहते, मैं न सुना पाता। आखिरकार, ताई झुंझला कर कहतीं, ‘दिनभर से लड़के को भूखा मार रखा है, जान ही लोगे क्या उसकी। तुम्हारे बस का नहीं है बच्चों को पढ़ाना। मुझे टुन्नी को न देखना होता तो तुमसे कहती भी नहीं...।'
पास बैठककर शंकर मुझे माँ के बारे में समझाने-समझने आया था और मैं था कि उसे अब भी टुन्नी ही समझे बैठा था। मैंने शंकर को समझाते हुए कहा, “ये ऐसी चीजें होती हैं शंकर, जिन पर किसी का जोर नहीं चलता। मेरी मानों तो तुम ताई को एकदम उन पर छोड़ दो। जैसा चाहें, करने दो। कभी-कभी आदमी अपने वर्तमान से ऊब जाता है तो उसे बीता हुआ समय स्मृति बनकर उबार लेता है। ताई जब चाहें, तुम उन्हें वहाँ जाने से मत रोको। कुछेक दिन में सब ठीक हो जाएगा।"
शंकर के जाते ही पत्नी बाजार से लौट आई। मन न माना तो मैंने उससे ताई के पास चलने का आग्रह किया। वह थकी तो थी ही, रात का खाना भी बनाने की तैयारी में जुट जाना चाहती थी। लेकिन मेरे आग्रह के स्वर में उसे शायद मेरी बेचैनी भी नजर आ गई थी। बोली, “चलो, लेकिन एक घंटा से ज्यादा नहीं रुकेंगे। और हाँ, लौटते वक्त डोसा सेंटर से डोसे लेते आएंगे। आज घर के खाने की छुट्टी। ठीक है ?”
“हाँ-हाँ।" कहते हुए हम दोनों निकल पड़े।
ताई हमें देखकर खिल उठी थीं। देर तक बतियाती रहीं। कभी-कभी तो मुझे लगता जैसे वह मुझमें ताऊ जी की छवि देख रही हैं। बस, बात-बात पर कहतीं, “बिलकुल अपने ताऊ जी पर गया है रे तू।"
बातें करते-करते उन्हें लगा कि वही बोले जा रही हैं, तो बोलीं– “तू भी कुछ बोलेगा या अपने ताऊ जी की तरह चुप्प बना बैठा रहेगा।"
ताई की बातें सुन कर उनकी बहुएं मुँह छिपा कर हँसे जा रही थीं और मैं उन्हें गंभीरतापूर्वक सुनने का नाटक कर रहा था। नाटक इसलिए कि अगर आप मेरी जगह होते तो शायद यही करने पर मजबूर हो जाते। ताई के पास आए हमें बमुश्किल आधा घंटा ही हुआ होगा कि इस बीच उन्होंने छह-सात बार एक ही किस्सा सुना दिया। पहली बार सुनाया तो हम लोग खूब हँसे थे।
ताई की बात उन्हीं की जबान में सुन लीजिए– ‘हम लोग जब एनसीसी में थे तो एक बार हमारा टेस्ट लिया गया। कौन हवाई जहाज में जाने लायक है करके। जहाज जब ऊपर को उड़ा तब तो ठीक था, लेकिन जब उतरने लगा तो मेरी तो धड़कन ही तेज हो गई। मशीन में यह सब साफ दिखाई दे रहा था। टेस्ट लेने वालों को बस, फिर क्या था, मेरी छुट्टी हो गई। वरना मैं भी जहाज उड़ाती फिरती...।'
किस्सा खत्म करने के बाद ताई जाने कहाँ गुम हो गई थीं। बातें होती रहीं, ताई बैठी रहीं। ताई बोली नहीं, बातें होती रहीं। सबके पास अपने-अपने किस्से थे, लेकिन ताई जब भी बोलतीं, वहीं हवाई जहाज वाला किस्सा दुहरा देतीं। पहली बार तो मुझे लगा कि शायद भूल गई हैं, लेकिन जब यह सिलसिला ही चल निकला तो मुझे लगा, ऐसा होने की कोई खास वजह होनी चाहिए। क्या बुढ़ापे में सचमुच स्मृति दोष हो जाता होगा। क्यों होता होगा स्मृति दोष ? या फिर इंसान एक ही बात को दुहराते हुए कहीं अपने वह सब न कर पाने की हीनता-ग्रंथि से ही तो नहीं जूझता रहता जीवन भर।
इधर मैं सोचते हुए गहरे में उतरा ही था और उधर कुछेक बातों के बाद ताई जी फिर उसी किस्से के साथ हाजिर थीं। मैंने गौर किया कि ऐसा करते हुए उनमें वही विश्वास मौजूद था जो प्राय: पहली बार कहने वाले में नजर आता है। वह सुना रही थीं कि आज वह भी जहाज उड़ा रही होतीं... अगर टेस्ट में उन्हें फेल न कर दिया गया होता... और उधर मेरी और शंकर की पत्नी फिस्स से मुँह दबा कर हँसने लगीं। एकाध बार तो मैं उनकी यह हरकत न भांप पाया, लेकिन फिर साफ पकड़ में आ गया कि ये दोनों आज कुछ हटकर बैठी क्यों हुई हैं।
ताई यह बात कई मर्तबा बता चुकी हैं, यह उन्हें बताना मुझे ठीक न लगा। उल्टे मैंने उनसे फिर पूछ ही लिया, “तो ताई फिर कभी जहाज में बैठीं कि नहीं तुम?”
उनका चेहरा कायदे में बुझ जाना चाहिए था, लेकिन इसके ठीक उलट वह खिल पड़ा, “अरे, अब तुझे क्या बताऊँ, जब शादी हुई तो तेरे ताऊ जी ने सबसे पहले तो मेरी नौकरी छुड़वा दी। कहते थे– हमारे यहाँ औरत की कमाई नहीं खाई जाती। औरतें काम करती हैं तो घर का सत्यानाश हो जाता है। तू बतइयो जरा, तेरे घर में बहू रोज काम पै जाती है कि नहीं। क्या हुआ आज तक ? उलटे कमाने वाले एक से दो हो गए तुम। मैं तो कहती हूँ, जो मर्द औरत को हमेशा अपने नीचे रखना चाहते हैं, वही छुड़वाते हैं नौकरी उसकी। घर तो बनाने से बनता है, घर में बैठे रहने से नहीं। अब तू ही जान, ताऊ जी तो चले गए। बच्चों को पढ़ा-लिखा के अपने पैरों पर खड़े होने लायक किसने बनाया। ट्यूशन पढ़ा-पढ़ा के। पढ़ी-लिखी ना होती तो कैसे होता संभव... बता तो जरा। पढ़ाई क्या घर में बैठ के हो जाती है... लेकिन तेरे ताऊ जी की बात मान कर, घर से बाहर मैं फिर भी नहीं निकली।"
ताई बोले जा रही थीं और हल्की हो रही थीं। मुझे लगा, उनकी सबसे बड़ी बीमारी तो दरअसल वह अबोला है जो घर में बना हुआ है। उनकी एक जैसी बातें सुन-सुनकर बेटा बाहर निकल जाता है और बहू उन पर कान नहीं देती। ताई कुछ करना चाहती हैं तो बहू फौरन रोक देती है– ‘माँ जी, आप नहीं कर पाएंगी, छोड़ दीजिए। मैं हूँ न।'
ताई से बस यही वाक्य बर्दाश्त नहीं होता। वह बिफर पड़ती हैं– ‘लो भैया, तुम्हारा काम काम ठहरा, मैं भला कैसे कर पाऊँगी अब...।'
हमारे सामने भी यही तो हुआ था। बहू चाय बनाकर ले आई तो ताई ‘बिस्कुट का डिब्बा ले आती हूँ’ कहकर उठने को हुई ही थीं कि बहू ने रोक दिया, “माँ जी, आप रहने दीजिए। मैं ले आती हूँ।"
बोलती-बोलती ताई इसके बाद एकदम खामोश हो गईं। बहू बिस्कुट ले आई थी, लेकिन उन्होंने बिस्कुट छुए तक नहीं। मैंने माहौल को सहज करने की कोशिश में शंकर से कहा– “अरे भई, तुम लोग भी खाओगे या हम ही खाते रहेंगे।" इस बीच बंटी ने वह चमत्कार किया जो कोई और शायद ही कर पाता। उसने एक बिस्कुट उठाया और पीछे से आकर जबरदस्ती अपनी दादी के मुँह में ठूंस दिया। ताई ‘ना-ना’ करती रहीं, लेकिन बंटी कहाँ मानने वाला था।
यह देखकर हम सब के सब एकसाथ हँस पड़े। आधा बिस्कुट उनके मुँह के भीतर और आधा बाहर देखकर बंटी को बड़ा मजा आ रहा था। वह ताली बजा-बजा कर नाचने लगा। बिस्कुट खा कर हमारे साथ-साथ ताई भी हँसने लगीं और बंटी से बोलीं, “ठहर बदमाश, तुझे तो मैं अभी बताती हूँ...।"
बैठे-बैठे पत्नी ने घड़ी दिखाते हुए इशारा किया कि अब चलने का वक्त हो गया है। हमने ताई के पैर छुए और विदा ली। गेट तक छोड़ने आया शंकर कहने लगा, “दद्दा आप आ जाया करो न। आपके आने से बड़ा अच्छा लगता है। आपके आने से माँ भी खुश हो जाती हैं...।"ताई पीछे खड़ी थीं चुपचाप, लेकिन उनकी पनीली आँखें बहुत कुछ कह रही थीं। इस बहुत कुछ में ऐसी तमाम चीजें थीं जो मैं और वह बगैर बोले भी समझ रहे थे।