बहुभाषिकता का सच / जीतेन्द्र वर्मा

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भाषाविज्ञान की एक धारा का मानना है कि किसी देश में भाषा की अधिकता उस देश के विकास में बाधक तत्त्व की भूमिका निभाती है। अगर कोई व्यक्ति भी बहुभाषिक है तो उसका भी विकास सही ढंग से नहीं हो पाता है। यस्पर्सन और फिशमैन जैसे भाषावैज्ञानिक इस विचार के पोषक हैं।

इस विचार को हम विस्तारित करें तो यह बात निकलेगी कि संसार में भाषा की बहुलता संसार के विकास में बाधक तत्त्व है। पूरी दुनिया की भाषा एक होनी चाहिए। और आज की तारीख में वैश्विक स्तर पर संपर्क भाषा के रूप में स्थापित अंग्रेजी को सभी लोगों को स्वीकार करना चाहिए।

यद्यपि इसका एक दूसरा रूप भी है। जो भाषा जहाँ बड़ी है वहाँ अपने से छोटी भाषाओं को निगलने का प्रयास करती हैं। इसके पीछे भी एक भाषा वाला तर्क दिया जाता है। भारत में हिंदी, चीन में मंदारिन सहित विश्व के सभी भागों में कमोवेश ऐसा प्रयास दिखता है।

एक मोटा अनुमान है कि हिंदी क्षेत्र में 49 जनभाषाएँ हैं। यद्यपि इसकी संख्या और अधिक है। हिंदी के अति उत्साही समर्थक इन भाषाओं को मान्यता दिये जाने का विरोध करते हैं। उनकी चिंता इस बात को लेकर है कि जब इन सभी भाषाओं को मान्यता मिल जाएगी, उनके शब्दों में ‘अलग हो जायेंगी’ तो हिंदी कहाँ जाएगी! ऐसी चिंता करने वाले चिंतकों की बुद्धि के अनुसार जिस भाषा का क्षेत्र और जनसंख्या जितना ही अधिक होगा वह भाषा उतनी ही अधिक समृद्ध होगी !

यहाँ पर हमें एक बात पर गौर करना चाहिए हिंदी को पूरे उत्तर भारत की भाषा के रूप में प्रचारित करने का उल्टा परिणाम भी हुआ दक्षिण भारत के लोगों को लगता है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने से उन लोगों को परीक्षाओं तथा अन्य जगहों पर अधिक लाभ होगा जिनकी मातृभाषा हिंदी है। वे प्रयास के साथ कितनी भी हिंदी सीखेंगे तो मातृभाषा वालों की तुलना में पीछे ही रहेंगे। सच्चाई यह है कि उत्तर भारत की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा आज भी प्रयास के साथ हिंदी सीखती है। उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है।असल में हिंदी के इस फैलाव के बीज आजादी की लड़ाई में छिपे हैं। अंग्रेज यह प्रचारित कर रहे थे कि भारत एक राष्ट्र है ही नहीं। उनके हिसाब से एक राष्ट्र के लिए कई अन्य चीजों के साथ एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए थी। इसके जबाब में भारतीय राष्ट्रवादियों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में पेश किया जो आजादी की लड़ाई का अभिन्न अंग बन गई। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी का खूब विस्तार हुआ। पूरे उत्तर भारत के लोगों ने अपनी मातृभाषा की जगह हिंदी को आगे बढ़ाया।

हिंदी क्षेत्र हरदम बहुभाषिक रहा है। यहाँ आदिकाल में डिंगल (राजस्थानी) पिंगल (ब्रजभाषा) और मैथिली साहित्य-सृजन की भाषा रही है। भक्तिकाल और रीतिकाल में एक साथ कई-कई भाषाओं में साहित्य सृजन हुआ। भक्तिकाल तो मातृभाषाओं के आंदोलन सरीखा ही था। इस काल में सभी कवियों ने अपनी-अपनी मातृभाषाओं में लिखा। कई कवियों ने एक अधिक भाषाओं में लिखा। भक्तिकाल से रीतिकाल तक साहित्य-सृजन की मुख्य भाषा ब्रजभाषा और अवधी रही । भक्तिकाल मंष कृष्णभक्त कवियों की मुख्य भाषा ब्रजभाषा और रामभक्त मधुरोपासक कवियों की मुख्य भाषा अवधी रही। परंतु अधिकांश कवियों ने एक से अधिक भाषाओं में सृजन किया। अमीर खुसरो ने फारसी, खड़ीबोली, उर्दू सहित कई भाषाओं में साहित्य -सृजन किया।

आधुनिक काल की शुरुआत भारतेन्दु युग से होती है। यह युग भी बहुभाषिक रहा है। इस युग में मुख्यतः ब्रजभाषा और खड़ी बोली में साहित्य-सृजन हुआ। इन दोनों भाषाओं के अलावा इस युग में उर्दू में भी साहित्य-सृजन हुआ। इस युग में शुरू में प्रमुखता ब्रजभाषा की रहीं, खड़ीबोली का स्थान उसके बाद रहा। धीरे-धीरे खड़ीबोली की प्रधानता बढ़ते गई। ब्रजभाषा, खड़ीबोली के साथ-साथ इस काल में उर्दू में भी सृजन होने लगा। भारतेन्दु स्वयं ‘रसा’ नाम से उर्दू में शायरी करते थे। इसी तरह प्रताप नारायण मिश्र और उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रमघन’ क्रमशः ‘बरहमन’ और ‘अब्र’ नाम से उर्दू में लिखते थे।

द्विवेदी युग में गया प्रसाद शुक्ल स्नेही सहित कई लेखक खड़ी बोली, ब्रजभाषा के साथ-साथ उर्दू में लिखते थे। रामनरेश त्रिपाठी उर्दू बहर में लिखा करते थे। खड़ी बोली के प्रथम कवि माने जाने वाल श्रीधर पाठक खड़ी बोली के साथ-साथ ब्रजभाषा में लिखा करते थें द्विवेदी युग के एक महत्त्वपूर्ण कवि नाथूराम शर्मा खड़ी बोली के साथ-साथ ब्रजभाषा में भी लिखते थे। इसी तरह जगदंबा प्रसाद हितैषी खड़ी बोली और उर्दू दोनों में लिखा करते थे।

तुर्क और मुगल शासन के दौरान केंद्रीय राजकाज की भाषा फारसी रही । परंतु सामंतों के यहाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं को संरक्षण मिला । कई सामंतों के दस्तावेज, सनद आदि यहाँ की स्थानीय भाषाओं में मिलते हैं। बहुभाषिकता का प्रतिभा से विरोध नहीं है। इसका सबसे सटीक उदाहरण राहुल सांकृत्यायन हैं।

बहुभाविकता एक सहज स्थिति है। आधुनिक युग में विभिन्न भाषा-भाषियों में आपसी संवाद तेज हुआ है। ऐसी स्थिति में बहुभाषिक होना अनिवार्य हो गया है।