बहुमंजिला खंजरें और धरती से उगे भवन / जयप्रकाश चौकसे

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बहुमंजिला खंजरें और धरती से उगे भवन
प्रकाशन तिथि : 09 जुलाई 2020


दो विदेशी पर्यटक खजुराहो पहुंचे। लॉकडाउन के कारण उन्हें लंबे समय तक होटल में रहना पड़ा। 7 जून 2020 को उन्हें खजुराहो देखने का अवसर मिला। वर्षों की चाह पूरी हुई। चंदेल राजवंश ने इनका निर्माण 12वीं सदी में किया था। कहा जाता है कि 85 मंदिर बनाए गए थे। समय के साथ उस पर मिट्टी जमती गई व सामूहिक स्मृति में मंदिरों का विलोप हो गया। फिर एक अंग्रेज अफसर ने उनकी सफाई का आदेश दिया और 25 मंदिर उभरकर निकले। ये मंदिर परिसर 20 कि.मी. में पसरा हुआ है। एक भाषा विशेषज्ञ कहते हैं कि परिसर के मुख्य द्वार पर दो खजूर के वृक्षों की आकृतियां पत्थर पर अंकित हैं और यहीं से राह प्रारंभ होती है, इसलिए नाम पड़ा खजुराहो। उस क्षेत्र में खजूर के वृक्ष नहीं होते। अनुमान है कि मूर्तिकार के अवचेतन या कल्पना में खजूर का वृक्ष रहा होगा।

यूनेस्को ने खजुराहो की कृतियों को विश्व सांस्कृतिक धरोहर माना है। इनपर पहले भी आक्रमण हुए व आज भी जारी हैं, जिनमें व्यवस्था भी शामिल है। मंदिरों के बाहरी भाग पर यौन संबंध दिखातीं आकृतियां गढ़ी गई हैं। संभव है कि यौन शिक्षा देने के लिए उन्हें रचा गया हो। इस विषय पर पहली किताब वात्सायन ने लिखी है। वात्सायन का संक्षिप्त विवरण शशि कपूर की गिरीश कर्नाड निर्देशित फिल्म ‘उत्सव’ में है। इस प्रसंग के कलाकार रहे नीना गुप्ता, अमजद खान और शंकरनाग। फिल्म में वसंत देव के गीत व लक्ष्मी-प्यारे का संगीत यादगार है।

गौरतलब यह है कि खजुराहो व अजंता एलोरा की कृतियां लंबे समय तक बनती रहीं। एक पीढ़ी ने कृति का एक अंग बनाया, तो दूसरी पीढ़ी ने काम आगे बढ़ाया यूं कलाकारों की अन्य पीढ़ियों ने सृजन किया। मूल कल्पना कायम रही है। महिला आकृतियां पृथ्वी की तरह रची गईं, जिनमें पहाड़, घाटियां, नदियों व बारहमासी बसंत का आभास है। सारी पुरुष आकृतियां याचक मुद्रा में हैं व उनके चेहरे पर विस्मय का भाव कान से कान तक पसरा है। वैचारिक संकीर्णता ब्रह्मचर्य के फेर में पड़ी है। क्या वे खुले दिमाग से इन कृतियों द्वारा दिए संदेश को समझ सकते हैं?

लोकप्रिय उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर केदार शर्मा के संस्करण में साहिर लुधियानवी का गीत है, ‘संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे, इस लोक को भी अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे, ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो, अपमान रचेता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे।’ खजुराहो निर्माता लोग संसार को भोग चुकने वाले थे, वे खूब जानते थे कि भोग-विलास के भव्य भवन में ही एक दरवाजा आध्यात्मिकता का है। पूरा ब्रह्मांड ही मानव में सिमटा है, वह ही इस विराट का लघु स्वरूप है।

समय की परीक्षा में उत्तीर्ण हुईं इन कृतियों की बुनियाद इतनी ठोस है कि समय इनका कुछ बिगाड़ नहीं पाता। बुनियाद में इस्पात का कंक्रीट नहीं है, परंतु संभवत: शाश्वत विचार ही बुनियाद है। समय इस सांस्कृतिक विचार को मजबूत करता हुआ आगे बढ़ता है। नश्वर मानव शरीर के आईने में उभरे ये प्रतिबिंब अनश्वर हैं। आश्चर्य होता है, उस महान चित्रकार पर जिसने इसे गढ़ा है। सारा ब्रह्मांड एक विराट कलाकृति है। इस पर वी. शांताराम की फिल्म ‘बूंद जो बन गई मोती’ में कवि भरत व्यास का गीत, हरी-भरी वसुंधरा पर नीला-नीला ये गगन, के जिस पे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन,दिशाएं देखो रंगभरी, चमक रही उमंग भरी, ये किसने फूल-फूल से किया श्रृंगार है, ये कौन चित्रकार है। आधुनिक बहुमंजिला भवन धरती के सीने में ठोंके हुए इस्पात हैं, परंतु खजुराहो और उसी तरह के भवन धरती से उगे हुए वृक्षों की तरह स्वाभाविक लगते हैं। सब कुछ प्राकृतिक स्वाभाविक और ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ समान है। दुनिया भर के लोग भारत आकर हमारी सांस्कृतिक धरोहर देखना चाहते हैं, परंतु संदिग्ध सुरक्षा व्यवस्था के चलते सहम जाते हैं।