बहुरूपिया / मनीषा कुलश्रेष्ठ

Gadya Kosh से
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पहली बार गफूरिये को जब मैं ने देखा था मैं बामुश्किल 6 साल की होऊंगी। राजस्थान के एक मध्यम दर्जे ज़िले चित्तौड़गढ़ की बात है। एक ऐतिहासिक शहर… एक शान्त और कम हलचलों वाला शहर…ऐसे में आकर्षण बन उस शहर में कमला सर्कस आया हुआ था‚ हम तीनों भाई बहन पूरे उत्साह के साथ पापा मम्मी के साथ सर्कस के पाण्डल में बैठे थे कि तभी महिलाओं वाले हिस्से में चीखो पुकार मची हुई थी… एक पुलिस वाले से एक काफी सुन्दर सी महिला‚ सभ्रान्त तरीके से पहनी साड़ी पहने हाथ चला चला कर झगड़ रही थी‚ "हाय‚ यहाँ न बैठूं तो क्या वहाँ मर्दों में जाकर बैठूं?" और महिलाओं का समवेत ठहाका गूंजा था।

यह मेरा गफूरिये से पहला परिचय था। न ना ऽऽ गफूरिया कोई शिखण्डी वगैरह कुछ नहीं था। न ही नटनिया या नचकऊआ था। वह बकायदा एक खाता पीता‚ थोड़ा पढ़ा लिखा मुसलमान पुरुष था जो कि आठ बच्चों का पिता और दो अदद बीबियों का पति था। ये मुझे बाद में पता चला। चाहे तो आप उसे कुछ भी कह लें … ये कुछ कुछ आधुनिक पाश्चात्य ट्र्रान्सवेस्टाईट की परिभाषा में आता था। घर के खानदानी छोटे मोटे व्यवसाय से ठीक ठाक आमदनी थी और शादियों में नाचना‚ अदाएं दिखाना उसका शौक था जिससे कभी कुछ मिल जाता था तो वह मना नहीं करता था।

दूसरा परिचय भी कम रोचक नहीं था‚ हमारे मकानमालिक एडवोकेट नाहर साहब याने काका साब के बड़े बेटे की शादी में गफूरिया आया था‚ महिला संगीत का कार्यक्रम था‚ शहर के सभी सभ्रान्त अच्छे परिवारों की महिलाएं वहां उपस्थित थीं। तभी बढ़िया फिरोज़ी कामदार गरारा पहन‚ हाथ की अंगूठियों को घुमाता‚ बालों की घूंघरदार लटें सहलाता‚ कुण्डल ठीक करता शर्माता‚ सलीके गरारा समेट मम्मी के पास आकर बैठ गया …

"नमस्ते मैडम… हाय अल्ला‚ ज़रा देर हो गई‚ अभी गीत शुरु तो नहीं किये ना ? "

क्या तो ढोलक बजाता था और नाचने में फिल्मी हीरोईन्स की अदाओं को मात करती उसकी अदाएं। कभी पांव की बिछिया झुक के ठीक करता‚ कभी जूड़े की पिन मुंह में दबा जूड़ा सहेजता। कंकरिया मार के जगाया…‚ झुमका गिरा रेऽ ‚ पान खाये सैंया हमार… जैसे जाने कितने गानों पर लगातार नाचा और सलीके से बिना हीलहुज्जत के काकी सा ने जो उसे बख्शीश दी लेकर मटकता हुआ चला गया।

तीसरी बार मैं जब उससे मिली‚ मैं साईकिल से स्कूल जा रही थी‚ कि बैलबॉटम – टॉप में चौड़ा हेयर बैण्ड लगा कर एक गोरी आधुनिका मेरे साथ साथ साईकिल चलाने लगी। आंखों पर चश्मा। खुले कान्धों तक लहराते बाल।

" कैसे हो बेटे? मैडम और साहब कैसे हैं? "

"……"

" पहचाना नहीं मैं गफूरिया भैया सही सलामत घर पहुंच गया था न। क्या बताऊं पार्क के बाहर खड़ा रो रहा था‚ वो तो मैं पहचान गई …अपने मैडम का बच्चा है। मैं ने छोड़ा साईकिल पर।"

हालांकि उसके अकसर खड़े किये तमाशों पर भीड़ जमा हो जाती थी‚ वह हंसाता था और लोग हंसते थे। महिलाओं के लिये वह बहुत मज़ेदार विषय था। उस सत्तर के दशक के आरंभिक दौर में शहर की कुछ आधुनिका कॉलेज जाने वाली युवतियों का प्रतिद्वन्द्वी भी था वह फैशन के मामले में। कभी कपड़ों की दुकान पर स्लैक्स कुर्ता पहने‚ कभी पार्क में अम्ब्रैला घेर की मैक्सी पहन फ्रेन्च रोल बनाये मिल जाता। लड़कियां कहतीं — वह अपनी शॉपिंग बॉम्बे जाकर करता है।

जब तक उस शहर में रही गफूरिया को अलग अलग ड्रेसेज़ और स्टाईल में‚ पिक्चर हॉल‚ बाज़ार में देखती रही। एक बार पापा से पता चला कि जब वे शहर के मुस्लिम बहुल इलाके से गुज़र रहे थे तब उन्होने गफूरिये को लुंगी और बनियान में देखा था। पहचान न सके तो वह खुद आया‚ अपने घर ले जाने का आग्रह करने लगा। बाहर से ही पापा ने देखा‚ अच्छा खासा दुमंजिला घर‚ घर में बीबियां – बच्चे। तब पापा के कुतुहल पर उसने बताया साहब पैसे की क्या कमी है? वह मेरा दूसरा रूप तो मेरा शौक है। गफूरिया अच्छा खासा बकायदा पक्का मुसलमान क्लीनशेव्ड युवक था। बल्कि हर शुक्रवार को वह शहर की मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ने अपने पुरुष भेष में ही जाया करता था। पर वह समाज का अभिन्न हिस्सा था। कोई उसे अपमानित नहीं करता था। बल्कि एक अंधविश्वास के तहत कोई उसका दिल तक नहीं दुखाना चाहता था कि उसके अन्दर कोई पवित्र स्त्री की आत्मा घर कर गई है।

पर कभी नर्तकी बन‚ कभी सभ्रान्त महिला बन‚ कभी कॉलेज गर्ल बन कर घूमना उसका एक अनन्य शौक था। मैं ने उसे बूढ़े होते भी देखा था‚ गोरे चेहरे झुर्रियां झांकने लगीं थीं‚ अब शायद रोज़ दाढ़ी बनाते उसे आलस आने लगा था सो कहीं कहीं खिचड़ी बाल चेहरे पर दिख जाते थे। लम्बे घूंघरदार बाल भी एक पतली चोटी में सिमट कर रह गये थे‚ पर उसकी अदाओं में कमी नहीं आई थी। शायद वह बहुरूपिया कला का एक उम्दा कलाकार था। आज पता नहीं वह जीवित भी है या नहींॐ

आज बहुरूपिया कला लगभग विलुप्त प्राय है। उत्तरभारत के अधिकांश राज्यों में यह कला कभी समाज का हिस्सा हुआ करती थी। लोगों के मनोरंजन और कला के जरिये जीविकोपार्जन करने वालों के लिये आय का साधन थी। आये दिन मुहल्लों में कभी कोई पुलिस चोर चले आ रहे हैं अपने मज़ेदार सम्वादों के साथ‚ कभी पत्नी से सड़क पर पिटता पति‚ कभी नर्तकी‚ तो कभी डॉक्टर… तो कभी नेता‚ कभी मोटी लड़ाक भटियारिन… बन ये कलाकार कुछ पैसों या दो कटोरी आटे के बदले घर के काम काज से ऊबी गृहणियों के लिये बीच बीच में गली या मोहल्ले के चौक में ही मनोरंजन जुटा देते थे। खिड़की से झांक या गलियारों‚ अहातों‚ छतों पर आ कर वे कुछ पल हंस लिया करती थीं और दान का पुण्य भी उठा लिया करती थीं। ये उस जमाने के नुक्कड़ नाटक हुआ करते थे जिनमें समाज प्रतिबिम्बित हुआ करता था।

एक बार इस कला का बेहतरीन स्वरूप मैं ने चित्तौड़गढ़ के मीरां महोत्सव में देखा था। पूरे भारत से प्रतिष्ठित कलाकार मीरां बाई के प्रति अपनी श्रद्धा प्रस्तुत करने एकत्रित हुए थे। शहर के गणमान्य जन ही नहीं‚ राजस्थान के भी कुछ मंत्रीजन उपस्थित थे। कत्थक नृत्य की प्रस्तुति चल रही थी कि एक मोटी सी गाड़िया लुहारिन मंच के नीचे बीचों बीच ऊंचा घाघरा‚ गन्दा ओढ़ना पहने हाथ में लोहे के घरेलू औज़ार खुरपी‚ चिमटा‚ हंसिया लेकर बेचने लगी। बीच बीच में घाघरा थोड़ा उठा कर मोटी जांघ खुजा लेती। लोगों को जुगुप्सा होने लगी… एस पी साहब दौड़े‚ पुलिस वालों ने खदेड़ा तो अपनी भाषा में गलियाने लगी हाथ नचा नचा के। फिर जाकर कलेक्टर की माननीया पत्नी के पास जा बैठी। वो उसकी गन्दी वेशभूषा से घृणा कर रही थीं। तो चीखने लगी और इस आशय में विलाप करने लगी कि "यहाँ इतने बड़े बड़े लोग हैं‚ हमारी दशा पर तरस खाने वाला कोई नहीं‚ अरेॐ ये नहीं बेचूंगी तो शाम को चूल्हा कैसे जलेगा। नेता जी‚ मंत्री जी नाच देख रहे हैं और हम जैसे लोग भूखे मर रहे हैं।"

पुलिस वालों के लिये बर्र का छत्ता थी वह। बड़ी मुश्किल से उसे शान्त बिठाया एक कोने में। थोड़ी देर बाद वह गायब हो गई। कार्यक्रम सुचारू रूप से चल पड़ा। कार्यक्रम के अन्त में एक घोषणा हुई कि अब आप मिलें राज्य के सर्वश्रेष्ठ और बहरूपिया कला के अन्तिम वृद्ध कलाकार " मांगीलाल जी जाट "। अब सबके चौंकने की बारी थी। सब मुस्कुरा रहे थे। तब पर्यटन मंत्री जी ने उस विलुप्तप्रायÁ कला के महान कलाकार को 25000 रू। का पुरस्कार देने की घोषणा की थी। किन्तु दुÁखद तो यह है कि अब इस कला का लगभग अवसान हो चुका है। समाज के बदलते मानदण्डों के साथ अब इस लोककला के लिये समाज में भी स्थान नहीं रहा है। राजस्थान में गवरी का खेल‚ वीर तेजाजी के खेल‚ भवाई नृत्य आदि ऐसी अनेकों लोककलाएं हैं जो विलुप्त होती जा रही हैं।

अब बहुत कम दिखाई देती है गलियों में भिक्षा मांगती नीला चेहरा पोते‚ गले में नकली मुण्डों की माला पहने‚ लाल कपड़े की जीभ निकाले हुए काली माई… जिसे देख बच्चे डर के रोने लगते थे। अब हनुमान जी बन कर भी ये लोककलाकार नहीं निकलते। संस्कृति पर उपभोक्तावाद का वर्चस्व है। मनोरंजन पर टी वी हावी है‚ तो लोककलाएं कहाँ जायें? सरकार आखिर किस किस लोककला को संरक्षण दे?