बहुवर्णी भावों का गुलदस्ता / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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हाइकु के विषय में मूल बात यह है कि यह कविता है। संरचना के आधार पर बात करें, तो वर्णिक व्यवस्था इसका मूल है, जिसे अज्ञानता के कारण आक्षरिक संरचना मान लिया जाता है। कुछ ने केवल वर्णिक व्यवस्था के अनुपालन को ही काव्य समझ लिया। जो छन्दोबद्ध या मुक्त छन्द की असफल रचना करने वाले थे, वे भी हाथ आजमाने ले लिए हाइकु -रचना में कूद पड़े। डॉ. सुधा गुप्ता, नीलमेन्दु सागर, डॉ. गोपालबाबू शर्मा, डॉ.कुँवर दिनेश सिंह जैसे कुछ सक्षम लोगों को यदि छोड़ दें , तो इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक तक यह अराजकता बनी रही। अज्ञेय जी ने आत्मनेपद( पृष्ठ-42) में कहा है-‘साधारण का साधारण वर्णन कविता नहीं है; कविता तभी होती है, जब साधारण पहले निजी होता है और फिर व्यक्ति से छनकर साधारण होता है।’ भाव और शिल्प दोनों के आधार पर भारतीय काव्य -परम्परा में जो काव्यशास्त्रीय आधार हैं, हाइकु में वे निषिद्ध नहीं हैं, बल्कि वे मापदण्ड ही हाइकु को हिन्दी -जगत् में स्थापित करते हैं। जून 2010 में डॉ. हरदीप कौर सन्धु द्वारा हिन्दी हाइकु नेट पत्रिका का शुभारम्भ किया गया। विश्व-पटल पर हाइकु के योगदान में ‘हिन्दी हाइकु’ (https://hindihaiku.wordpress.com) का महत्त्व सर्वोपरि है। कारण -इसके आज तक 2246 अंक प्रकाशित हो चुके हैं। इस अन्तर्जाल पत्रिका का 116 देशों तक विस्तार है। आज तक हिट्स 4, 73, 951 इस पठनीयता का प्रमाण है। नए और पुराने सभी सक्षम हाइकुकारों की रचनाएँ यहाँ मिल जाएँगी, जिनकी संख्या लगभग 40 हज़ार होगी। इसमें प्रकाशित हस्ताक्षरों में हिन्दी साहित्य-जगत् की विदुषी डॉ. मीना अग्रवाल एक महत्त्वपूर्ण नाम है, जो गद्य की विभिन्न विधाओं के साथ हाइकु के क्षेत्र में भी समान रूप से सक्रिय हैं। उच्च कक्षाओं में हिन्दी -साहित्य के अध्यापन का दीर्घकालीन अनुभव इनके हाइकु में परिलक्षित होता है।

हाइकु की विषयगत सीमा केवल प्रकृति नहीं ; बल्कि मानव की प्रत्येक अनुभूति है। डॉ. मीना अग्रवाल के हाइकु में यह तथ्य पूरी तरह परिलक्षित होता है। हम सबसे पहले प्रकृति की बात करते हैं-चाहे वह आलम्बन रूप में प्रकृति-चित्रण हो, चाहे प्रतीक रूप में हो या मानवीकरण के रूप में, सभी के दर्शन आपके हाइकु में होते हैं-

शिशिर रात / काँप रही चाँदनी /ठिठुरा प्रात चिड़िया के लिए उस्का चूजा स्वयं से पहले है। प्रकृति में सहज मातृत्व का यह रूप देखिए-

उड़ी चिड़िया/ लिये चोंच में दाना/चूजे को दिया प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण-

सर्द है रात/ सीजता तन-मन/ठिठुरा प्रात

कवयित्री ने अपने सामाजिक सरोकार का भी हाइकु में निर्वाह किया है। प्रजा का भेड़ के प्रतीक के रूप में चित्रण आज के जन सामान्य की स्थिति का परिचायक है-

भेड़ है प्रजा/ जब करे मनमानी।पाती है सजा

मानव-मन कितना भी व्यावहारिक बन जाए, विगत स्मृतियाँ उसे अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। वे मधुर स्मृतियाँ, उसे अपनी सुगन्ध से रससिक्त कर देती हैं। यादों की कानाफूसी का मिश्री घोलना, नया प्रयोग तो है ही, साथ ही यादों का मुखर होना भाषिक दृष्टि से बहुत ही प्रभावशाली प्रयोग है-

यादें पुरानी / भीनी-भीनी ख़ुशबू/ लगे सुहानी

यादें बोलतीं/ करतीं कानाफूसी/ मिश्री घोलतीं

जीवन अनन्त सम्भावनाओं से भरा है। दिन और रात के आशा भरे उजाले से प्रेरणा लेने की बात की गई है। निराशा में डूबकर तारे गिनकर समय काटने का निषेध किया है। मन को पतंग की तरह उड़ान भरने और जीवन को उल्लास से भरने की प्रेरणा दी है। मन को उदासी में डुबोने से कुछ नहीं होगा; क्योंकि मन के लिए कंचन -सा बहुमूल्य समय कभी नहीं रुकता, वह सदा आगे ही बढ़ता जाता है। मन का अँधेरा अगर निराशा में ढकेलता है, तो मन का उजास तन और मन को अपूर्व सुगन्ध से भर देता है-

सोने-सा दिन/ चाँदी बिखरी रातें/ तारे न गिन

मन-पतंग/ जीवन में भरती/विविध रंग

उदास मन/ नहीं रुका समय/ जो था कंचन

मन उजास/ तन है जगमग/ उर सुवास

अगर सार्थक जीवन जीना है, तो निराशा के अंधकार से बाहर निकलना पड़ेगा। मीना जी ने उन सपनों का परित्याग करने को कहा है, जो पूरे नहीं सके। उन पुराने सपनों के गुंजलक में लिपटे रहने से कोई लाभ नहीं। ‘ पलीता लगाना’ मुहावरे के सार्थक प्रयोग ने इस हाइकु को और अधिक ऊँचाई प्रदान की है-

समय बीता/ पुराने सपनों में/ लगा पलीता

जाड़े के मौसम का आलम्बन और उद्दीपन रूप में एक ही हाइकु में चित्रण और अधिक कठिन है, वह भी केवल 17 वर्णों में। मीना जी ने सहज भाव से इस हाइकु में अल्पतम शब्दों में प्रस्तुत कर दिया है-

काँपता तन/ जाड़े में थर-थर/ सीजता मन

आलम्बन रूप में ग्रीष्म की भीषणता टप-टप पसीने से आरम्भ हुई, तो उसकी परिणति कुँओं के सूखने पर जाकर हुई। ताल -तलैया भी सूखे , तो प्यास से व्याकुल गैया का रँभाना प्यास की गहनता को इंगित करता है। धूप का थकना और पसीना पोंछना सरल शब्दावली में विशेषण विपर्यय के माध्यम से किया गया मनोहारी मानवीकरण हाइकु को गहनता प्रदान करता है। धूप का ‘शावक रूप में उछलना -कूदना’ अद्भुत सौन्दर्य का दिग्दर्शन कराता है। इस तरह के बिम्ब हाइकु की गरिमा बढ़ा देते हैं-

खिली है धूप/ टप-टप पसीना/ सूखे हैं कूप

गर्मी है भैया/ सूखे ताल-तलैया/रँभाती गैया

थकी है धूप/ पोंछ रही पसीना/ अनोखा रूप

शावक धूप/ उछलती-कूदती/ बदले रूप

चाँदनी रात में तारों का बतियाना, वर्षा ॠतु के बूँदों से झिलमिल लहँगे और चारों ओर छाई हरियाली की धानी चुनरिया का चित्रण मनमोहक बन गया है-

चाँदनी रात/ टिमटिमाते तारे/ करते बात

बरखा रानी/ झिलमिल लहँगा/ चुनरी धानी

वासन्ती सौन्दर्य जड़-चेतन सभी को रससिक्त कर देती है। पलाश का फूलना पूरे वनांचल को रँग देता है। लगता है, जैसे किसी के हृदय में अग्नि प्रज्वलित हो रही हो। पलाश का साम्य अंगार तरु से भी किया जाता है। तुकान्तता यद्यपि हाइकु के लिए कोई अनिवार्य तत्त्व नहीं है, फिर भी कवयित्री ने सहज रूप से हाइकु को तुकान्त रूप मे भी प्रस्तुत किया है-

रंगों में बोर/ तन-मन भिगोती/ वासंती भोर

फूले पलाश/ हृदय में आग की/ करो तलाश

नारी का सौन्दर्य अपने आप में अद्भुत है। प्रकृति और पुरुष का यह स्वरूप यदि समझ लिया, तो मन को अपूर्व शान्ति मिल जाती है-

प्रकृति-नारी/ दे मन को सुकून/ है मनोहारी

नारी का मन/ महके ऐसे, जैसे / चंदन-वन

साहित्य का धर्म जितना आवश्यक है, मर्म उससे भी अधिक अपरिहार्य है। लघु कलेवर के धर्म का अनुपालन करते हुए , हाइकु के मर्म का अनुसंधान कवयित्री का प्रयास रहा है, जिसमें वे सफल रही हैं।प्रेम की व्यावहारिक परिभाषा देखिए, प्रेम में तर्क -वितर्क नहीं, अन्तरंगता और आस्था आवाश्यक है। नदी की धारा भी तभी अबाध रूप से बहती है, जब वह किनारों के प्रेमपाश में बँधी होती है। मानव की इच्छाएँ अनन्त हैं। कुछ भी कितना भी मिल जाए, तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती। कारण वही है-तृष्णा संयम के किनारों से नहीं बँधी होती। सब कुछ पास होने पर भी उदास होने में मनुष्य का अतृप्ति भाव ही प्रमुख है-

प्रेम की सुनो/ रहो तर्क से दूर/ सपने बुनो

नदी की धारा/ बहती प्रतिपल/ बाँध किनारा

कोई न अंत/कितना ही तुम लो/इच्छा अनंत

सब है पास/ फिर क्यों रहता/ मन उदास

प्रेम का जीवन में बहुत महत्त्व है। प्रिया का आना ऐसा ही है, जैसे पतझर बीत जाने पर बहार का आना सुखद होता है-

प्रिया है आई/ ज्यों पतझर बीता/ बहार छाई

हमारा जीवन न केवल पुष्पवाटिका है और न केवल शूलों का बीहड़ वन। जीवन इन सभी से मिलकर बना है। मन में कभी उल्लास और हास होता है, तो कभी व्यथा का मन्थन उदासी भरता है। इन सभी के बीच जीवन की अनवरत सरिता बहती रहती है-

मन की पीर। बहकर निकला/ नयन-नीर

हैं खाली हाथ/ सफर है अकेला/ न कोई साथ

है ठिठुरन/ गल रही हड्डियाँ/ टूटता मन

डॉ. मीना अग्रवाल जी के हाइकु भारतीय काव्य शास्त्रीय परम्परा पर खरे उतरते हैं। इनके हाइकु में बिम्ब इस तरह समाविष्ट हैं, जैसे किसी दक्ष फोटोग्राफ़र ने एकाग्रता के साथ स्नैप शॉट लिया हो। बाहें फैलाना, टुक-टुक देखना जैसे प्रयोग के साथ कुछ उदाहरण देखिए-

पास बुलाते। पेड़ बाँहें फैलाए/ झूला झुलाते

नन्हा फ़रिश्ता/ देखता टुक-टुक/ जोड़ता रिश्ता

पहले वाले न गाँव रहे, न उनमें रहने वाले रहे। सब सिमट गए। चौपालें खो गईं। उनमें जो आत्मीयता का रस बहता था, वह सूख गया-

खोए हैं गाँव/ फैला है प्रदूषण/ नहीं पीपल-छाँव

खोई चौपाल/ मन सिमट गए/ गीत न ताल

पर्यावरण के प्रति कवयित्री की चिन्ता उनके सामाजिक सरोकारों और चिन्ता को उजागर करती है-

रोई धरती/ दुखियारी नदिया/ आहें भरती

देखो मंजर/ लहलहाता खेत/ हुआ बंजर

साहित्य का उद्देश्य है मन को ऊर्ध्वगामी बनाना, प्रकाश फैलाना, निम्नलिखित हाइकु में यही कल्याण -कामना की गई है। सबके लिए आने वाली सुबह संगीतमयी हो, हर तरह का शीत दूर हो जाए-

बाँटो प्रकाश/ चम-चम चमकें/ पृथ्वी-आकाश

भोर- संगीत/ फैला किरण-जाल/ भागा है शीत

इस संग्रह में विभिन्न विषयों पर आधारित हाइकु अलग-अलग तेवरों के साथ अनुस्यूत हैं। मैं आशा करता हूँ कि डॉ. मीना अग्रवाल का बहुवर्णी भावों का यह गुलदस्ता आपको अवश्य लुभाएगा।

8 अप्रैल 2022, नोएडा