बह गई बैगिन नदी / गीताश्री

Gadya Kosh से
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सुबह से अन्ना की आंधी आई हुई है। सुना है, देशभर से अन्ना समर्थक रामलीला ग्राउंड पर जुड़ने वाले हैं। सारे टीवी चैनल चीख-चीखकर घोषणा कर रहे हैं।

ये देखिए... लोगों का हुजूम उमड़ा चला आ रहा है। 'मैं भी हूं अन्ना' की टोपी पहने, बच्चे, औरतें, मर्द सब उत्साह से भरे हैं।

भ्रष्टाचारियों के खिलाफ आम आदमी की जंग शुरू हो गई है...

अन्ना आर-पार की लड़ाई लड़ रहे हैं...

कुमार विश्वास गा रहे है... कोई दीवाना कहता है... कोई पागल समझता है...

अरविंद केजरीवाल सरकार को लिखी गई चिट्ठी पढ़कर जनता को सुना रहे हैं।

डॉक्टरों की टीम अन्ना की हेल्थ बुलेटिन जारी कर रही है...

मैं ठीक उस वक्त रामलीला मैदान में खड़ा हूं... आप देख रहे हैं... मैं सौरभ, कैमरामैन संजय खन्ना के साथ... समाचार चैनल, दिल्ली।

रिपोर्टर फिर चीखता है, मैं कैमरामैन संजय को कहता है, वो कैमरा उधर घुमाएं जिधर देश के कोने-कोने से आए अन्ना के समर्थक हुंकार भर रहे हैं...

आप कहां से आए हैं?

कैसे प्रेरणा मिली?

आपको क्या लगता है?

सरकार झुकेगी?

अन्ना सफल होंगे?

देश में भ्रष्टाचार का खात्मा होगा?

आप लोकपाल बिल के बारे में क्या जानते हैं...

सवालों की बौछार और जनता में उबाल।

हम अन्ना के साथ हैं।

हम भ्रष्टाचार का खात्मा चाहते हैं -

अन्ना ने मशाल जलाई है...

सारे भ्रष्टाचारी भस्म हो जाएंगे...

मैंने टीवी का वोल्यूम और तेज किया।

दो लोग जवाब दे रहे थे, उत्साह और उत्तेजना में चीख रहे थे। वो आवाज और शक्ल कुछ जानी-पहचानी सी लग रही थी। देखी देखी सी, सुनी सुनी सी। कैमरा पास आया तो मैं चौक पड़ा।

ओह! तो आप हैं। सरकारी बाबू! सिर से लेकर पांव तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए।

कैसे-कैसे कारनामे किए... ये सब अन्ना को पता हो ना हो, हम जिला संवाददाताओं से क्या छुपेगा? और मैं तो तेरा ही मारा हूं - स्साले डी.एफ.ओ. शंकर खरे। अन्ना की आंधी में तेरे सारे गुनाह उड़ गए, साफ हो गए क्या? आंधी में उड़ा देने की ताकत होती है, दाग मिटाने की नहीं। ये दाग लिए मैं घूम रहा हूं बहनचो...खरे।

आंखों से चैनल की कवरेज, जयकार की गूंज और उत्तेजित भीड़... सब गायब।

सुबह आठ बजे। कर्र-कर्र... बेसुरी बेल की आवाज ने उठा दिया। छोटे शहरो में किराए के मकान में एक बेल तक ढंग की लगाने की तमीज नहीं होती... बेसुरी बेल से कोफ्त, कौन है... करता हुआ मैं दरवाजे की तरफ बढ़ा। एक अनजाना से आदमी ने पूछा - आप ही हैं सुभाष त्यागी जी।

जी, क्यों?

बड़े साहब ने भेजा है। आपके लिए एक पैकेट भेजा है। देख लीजिए...।

वह लिफाफा थमाते हुए वहीं खड़ा रहा। छोटे कद का सामान्य सा इनसान। भावहीन चेहरा।

मैं असमंजस में पड़ा। इस श्यामगढ़ शहर के लिए बिल्कुल नया था। छोटे शहर के नए अखबार को जमाने के लिए मैनेजमेंट की तरफ से यहां भेजा गया था। शहर में अभी अपनी पहचान बनाई नहीं थी। सारा दिन-रात अखबार के कंटेन्ट और विज्ञापन के स्रोतों पर माथा खप रहा था। इससे लिपटकर कुछ वक्त रिपोर्टिंग में भी लगाना चाहता था ताकि जमीनी पत्रकारिता का भी मजा लिया जा सके।

'फिर यह लिफाफा क्या - किस लिए?' दांत चिआरे हुए वह ढीठ आदमी वहां खड़ा रहा।

लिफाफे के अंदर 25000 रु. का एक बंडल था।

मैं हैरान! ये क्यों?

'सर। वो... साहब ने कहा है कि वह बसई डैम बह गई है जिसे आप देखने गए जा चुके थे। कुछ नुकसान हुआ है जान माल का... साब चाहते हैं कि यह खबर आपके अखबार में छपे। लोकल एडीशन और दिल्ली एडीशन दोनों में।'

व्हाट?

'कल लोकल अखबारों में ये खबर छपेगी सर... सब इंतजाम कर लिया गया है। सब मैनेज हो गया। बस आप बचे थे। अतीक भाई ने आपके बारे में बताया तो चला आया।'

वह अपनी रौ में बोले जा रहा था।

'सर, यहां हम पत्रकारों को पहले खबर छापने के लिए नहीं, रोकने के लिए पैसे देते थे। अब मामला उलट गया है। अब साहेब ने नई पॉलिसी बनाई है... हें हें हें... आप नए हैं न धीरे-धीरे जानने लगेंगे।' वह पलटा, और हां, इतना ज्यादा पैसा देखकर हैरान न होइए। आपका अखबार बहुत बड़ा है, दिल्ली से भी छपता है। इसीलिए आपका 'रेट' लोकल से ज्यादा है।

'सर... ध्यान रखिएगा...।'

इस विश्वास से भरा कि खबर तो छपेगी ही, वह रूम से बाहर निकल गया।

मेरी हथेलियों में बंडल गर्म होता रहा। ना मैं लौटा पाया, ना उसे डांट पाया और ना बहुत गुस्सा आया। कुछ देर समझ नहीं आया कि क्या और कैसे रिएक्ट करूं। लिफाफा टेबल पर रखकर सोच में डूब गया।

'हमारा शहर घने जंगलों से घिरा है - पहाड़ियां और जंगल। ये घने जंगल के बीच आदिवासी गांव है। वहां कई नदियां हैं, नाले हैं। उन पर डैम बनाए जाते हैं, ताकि जमा किए गए पानी का...।' असगर मुझे भौगोलिक ज्ञान दे रहा था।

बसई गढ़ डैम देखने चले हम। जंगल के अंदर और अंदर... ऊबड़ खाबड़ सड़कें, कच्चे मकान और छोटी-छोटी पुलिया। दूर-दूर तक बस्ती नहीं। कितना सुंदर होता है - जंगल भी। ऊपर ऊपर शांत, भीतर भीतर हलचल। किसी संन्यासी स्त्री जैसा। कोई याद आया। कोई स्मृति घुमड़ आई। लेकिन जंगल के रास्ते जीवन से भी ज्यादा कठिन होते हैं, वे आपको सोच में डूबने नहीं देते। चौकन्ना करते चलते हैं।

हमारी बोलेरो गाड़ी ही टिक सकती है इस तरह की सड़कों पर। हिचकोले खा-खा कर हड्डियां करकरा रही थीं। असगर ने दूर से दिखाया - एक नदी चमक रही थी। पास ही बैगाओं का गांव। पतली, लेकिन गहरी नदी, लबालब भरी हुई, आदिवासी युवती जैसी।

'यहां पर डैम बनना था। नहीं बना।'

'क्यों?'

'नहीं, डैम है यहां पर... आपको, हमको नहीं दिख रहा। लेकिन सरकार मानती है कि बैगिन नदी के ऊपर डैम है। आप डीएफओ (डिस्ट्रिक्ट फोरेस्ट ऑफिसर) के पास चलिए वह कागज पर कई ऐसे डैम 'शो' कर देगा कि आप जंगल में सारी जिंदगी घूम कर भी उसे ढूंढ़ नहीं पाएंगे।' असगर हंस रहा था।

'ऐसा क्यों है यार?' मैं झुंझलाया।

असगर ने एक कहानी सुनाई।

'अभी जो डी एफ ओ साहब हैं, उनके ठीक पहले जो थे, उनने डैम बनने का प्रस्ताव दिया। 8 लाख रुपए का खर्च दिखाया पैसा आया, डैम नहीं बना और दोनों डकार गया।'

हें... फिर? मैं हैरान हुआ।

'उनका ट्रांसफर हुआ। ये अभी वाले आए। उन्होंने कागज मंगवाकर देखा, यहां डैम बना था, 8 लाख रुपए के कागज पर डैम जगमगा रहा था। उन्हें डैम का पानी सड़ा हुआ दिखा। उन्होंने सरकार को पत्र लिखा कि 'डैम में पानी सड़ गया है। कई तरह की बीमारियां फैल रही हैं। पानी साफ करवाना होगा, और टूट-फूट की मरम्मत भी। 5 लाख का बजट बनाया और पास करा लिया।'

व्हाट?

जी सर... आपको डैम दिखे या न दिखे... अभी-अभी पांच लाख रुपए से इसकी सफाई हुई है...। असगर हंसे जा रहा था।

तीसरा डीएफओ आएगा उसे दिखेगा कि डैम पुराना, जर्जर हो गया है, इसकी मरम्मत जरूरी है... वो सरकार को लिखेगा और...।

यार... कुछ भी हो जाए, मैं इस अफसर का स्टिंग ऑपरेशन करके बेनकाब कर दूंगा। क्या तुम मेरा साथ दोगे?

मैं बुरी तरह झल्लाया हुआ था। असगर ने हंसी रोकी और मुझे घूरा।

'आप क्यों करेंगे ये सब? ना लिखना, ना कोई आंदोलन... अपन को क्या मतलब?'

उसने बात रफा-दफा करने की कोशिश की।

उस वक्त मैं चुप रहा।

क्या मुझे उस डैम के पास वाले गांव में ले चलोगे?

बिल्कुल... आइए... चलिए... मिलिए, इन बेचारों से, जिन्हें कुछ पता ही नहीं - जंगली नाले में पानी भरा रहे, नदी छलकती रहे, इनका 'महुआ' पकता रहा, सूरज अस्त... आदिवासी मस्त... असगर बोले जा रहा था। मेरे मन में एक जिहादी योजना जन्म ले चुकी थी।

असगर के लाख मना करने के बावजूद मैंने 'कथित' डैम का फोटो उतारा, हर कोने से गांव के कुछ समझदार पुरुषों के साथ-साथ शाम बिताई। उनका नेता मोहर धुर्वे गांव का सबसे समझदार आदमी निकला।

...यहां पर महुआ के नशे में गोदने से भरी मांसल औरत का जिक्र... फिर लोक संगीत... गाने के बोल, अर्थ समेत...

'महुआ' के दौर में मैंने उनके हलक से डैम घोटाले वाली बात उतार दी। असगर छत्तीसगढ़िया बोली में माहिर था। हिंदी को दुरुस्त करके उन्हें समझाता रहा। वह मस्ती में था। उसे लग रहा था कि सुबह हुई, और डैम फिर ओझल। ये शहरी पत्रकार यूं ही में अपना माथा खराब कर रहा है। मैं शहर लौट आया और अपने पेंडिंग कामों को पूरा करने में उलझ गया। एक दिन मार्केटिंग वालों के साथ सिर खफा ही रहा था कि असगर सिर पर सवार हो गया।

'आपने क्या कर दिया सर। बसई डैम वाली बस्ती के 40 आदिवासी मीलों पैदल चलकर शहर आ गए है। उन्होंने कलेक्टर के घर को घेर लिया है... गजब हो गया...।' असगर की घबराहट देखने लायक थी।

मैं भी दंग रह गया।

'चलो... मुझे वहां ले चलो, जहां ये सारा हंगामा हो रहा है... ।' मैंने असगर का हाथ पकड़ा, मार्केटिंग मैनेजर रोहित पाल को बाद में बात करने को बोलते हुए दन्न से निकल गया। कलेक्टर के घर के बाहर सन्नाटा। एक भी आदिवासी नहीं। सामान्य भीड़, रोज की तरह हाथों में आवेदन पत्र लिए भटकते स्थानीय लोग।

कहां गए सारे के सारे लोग... असगर चौंका। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। 40 लोग एकदम से कहां गायब?

असगर मुझसे घूर कर कलेक्टर के गार्ड के पास भागा। दोनों कुछ फुसफुसाए, असगर लपकते हुए आया।

'सबको बस स्टैंड ले गए हैं, टै्रक्टर में भरकर। वहां से उनके गांव रवाना कर देंगे।'

असगर को यही जानकारी थी।

मैंने कहा, बस स्टैंड चलो। मोटर साइकिल उधर ही मुड़ी। बस स्टैंड में कोई गाड़ी सवारी नहीं थी। जमीन पर सारे आदिवासी बैठे थे। शाम की छायाएं उनके चेहरे पर थीं। भीतर-भीतर खदखदाए से - जैसे महुआ उनके तसले में शराब बनने से पहले खदखदाती है। मैं बिशन धुर्वे के पास धीरे से जाकर बैठा। यही लीडर था सबका। मैंने इसे ही भड़काया था सबसे ज्यादा। मैं मामला समझने लगा और इधर असगर मोटर साइकिल लेकर फरार।

मैं चिंतित और चौकन्ना हुआ।

कहां गया, क्यों गया...

कलेक्टर जी, डैम वहां बनेगी नहीं, किसने भड़का दिया, तुम लोगों को। अगर तुम लोग चाहते हो, तो सर्वे करा लेते हैं और फिर डैम भी बन जाएगी - क्या दिक्कत है। किसने भड़काया, किसने आग लगाई?

धुर्वे बोल रहा था।

बाबू साहेब... वो आपका नाम पूछ रहे थे।

हम तो तुम्हें जानते नहीं, सो हमने बस कहा कि दो पत्रकार आए थे। अब हम वापस जाते हैं, फालतू में हम सबका टैम खराब हुआ। कुछ खेत में काम कर लेते, शाम हो रही है कुछ इंतजाम भी नहीं यहां। सब भूखे हैं। पैदल चलकर आए, वापस जाने की हिम्मत नहीं बची...।

धुर्वे की बात सुनते-सुनते मैंने चारों तरफ नजर दौड़ाई, कहीं कुछ खाने को मिल जाए तो उन्हें दिया जाए। असगर से तो बाद में निपटूंगा।

दूर से असगर मोटर साइकिल आती दिखी। राहत मिली।

लौट आया, थैंक गॉड। भीतर का खौफ थोड़ा कम हुआ।

असगर ने अपनी मोटर साइकिल से एक बड़ा झोला सा उतारा और धुर्वे को दिया - चचा, ये तो अभी यहां इतना ही हो सकता है रुपए को बांट दो, कुछ खा लो। रात को यहीं सो जाओ, भोर में पैदल ही निकल जाना झोले में नमकीन और कुछ पानी की बोतलें थीं।

धुर्वे समेत सभी गदगद। खाने पीने को जो मिल गया था।

मुझे थोड़ा चैन मिला, लेकिन भीतर भीतर एक खुराफाती योजना पनप रही थी।

इन्हें वापस तो जाने नहीं देना...।

इनका यहां आना व्यर्थ नहीं जाने दूंगा - चाहे जो हो जाए।

मैंने धुर्वे को कहा, चचा आप मुझ पर यकीन रखो, मैंने आपको जो कुछ बताया, एकदम सही था। आपको भड़काने से मुझे क्या मिला? आप सुबह वापस नहीं जाओगे। आप एक और मेरी बात मान लो। मैं अभी एक घंटे में आता हूं। आप देखना, प्रशासन हिलाकर रख देंगे। बस अभी जाने के बारे में मत सोचो।

असगर ने मेरी तरफ सवालिया निगाह से देखा। वह मेरे दिमाग को पढ़ नहीं पा रहा था।

मेरे साथ चुपचाप ऑफिस तक हो लिया।

मैं सीधा प्रेस पहुंचा। बड़े-बड़े सादे कागज मंगवाए। और वापस बस स्टैंड लौट आया।

सुबह-सुबह छोटे से शहर में मार्निंग वॉक करते लोगों ने देखा, हाफ पैंट पहनकर दौड़ते हुए कलेक्टर ने देखा, ऊंघते हुए डयूटी पर लौटते हुए सिपाहियों ने देखा, अखबार बांटने वाले हॉकरो ने देखा, काम पर जाती दाइयों ने देखा, एक बड़ा सा जुलूस हाथों में तख्तियां लिए सीधे कलेक्टर का घेराव करने बेखौफ चली आ रही है।

उन पर लिखा था - 'हमारा बांध वापस करो, झूठा कलेक्टर... हाय-हाय, वन्य अधिकारी को गिरफ्तार करो' भीड़ के आगे वीडियोग्राफर अपने काम पर लगा हुआ था। मैं और असगर सबसे पीछे। हमें तो असर देखना था।

थोड़ी देर बाद हम कलेक्टर के दफ्तर में बैठे थे। भीड़ को बाहर ही रोक दिया गया था।

कलक्टर ने गेटकीपर को कहा, दरवाजा बंद करो। थोड़ी देर किसी को आने ना देना। धड़ाम से दरवाजा बंद करके गार्ड गया और हमारे दिल धक-धक। एकदम से इस तरह सामना करने को हम तैयार नहीं थे। मोबाइल दीजिए।

क्यों?

दोनों लोग दीजिए। जोर से डपटा।

हमने आज्ञाकारी बालक की तरह मोबाइल उनकी तरफ बढ़ा दिए। दोनों मोबाइल अपने ड्राअर में रख लिए और मुखातिब हुआ।

मैं खौल रहा था। मन हुआ एक झापड़ दूं और चिल्लाने लगूं।

असगर जैसे मुझे रोक रहा हो... आप तो निकल जाएंगे, दिल्ली। हमें तो जिले की रिपोर्टिंग करनी है। कलेक्टर का दिमाग फिर गया तो कहीं का नहीं छोड़ेगा...।

तो इन सबके पीछे आप लोग हैं? क्या चाहते है? क्यों कर रहे हैं ये सब?

इन भोले भाले आदिवासियों के साथ अन्याय हुआ है।

तो... क्या आपने ठेका ले रखा है इनका? वाह।

नहीं... फिर भी एक जागरूक नागरिक होने के...

कल रात आपने इन्हें रोका और खाना पानी भी दिया... क्यों?

सब भूखे थे, थके थे, हमारा फर्ज...।

गार्ड... हमारी बात बीच में ही रुक गई। वह चीखा।

जी सर... गार्ड अदब के अपने मशीनी अंदाज में आकर खड़ा हो गया।

इस शहर में और भी लोग हैं भूखे प्यासे सोते हैं रात को, उन्हें क्यों नहीं खिलाते खाना?

सुनो... आज से ये दोनों लोग हमारे कलेक्टेरिएट के सभी कर्मचारियों को खाना खिलाएंगे मुफ्त... सबको बता दो।

जी सर... गार्ड घूमा और चला गया। क्या बकवास है? मैं बौखला उठा। असगर का चेहरा पल भर के लिए बुझा।

और ये तख्तियां... क्या मालूम है आपको डैम के बारे में? दिल्ली से आए हैं ना आप... मि. सुभाष त्यागी जी? लाला के अखबार में काम करते हैं ना... वह दांत पीस रहा था।

जी... इससे आपको मतलब?

अगर मुझे इससे मतलब नहीं तो आपको डैम से क्या मतलब?

यह बोलते हुए उसके भाव थे कि बेट्टा... अब करो तर्क... ना पछाड़ दूं तो कहना...।

क्या मतलब... डैम को लेकर घोटाला हुआ है, आप जानते हैं, मानने के बजाए हमें धमका रहे हैं।

तो लिखिए ना आप... कोई सबूत है आपके पास? उसने धमकी दी।

है ना... हमने वहां की तस्वीरें ली हैं, गांव वालों से बात की है... दिल्ली के अखबार में छप जाए तो हंगामा हो जाए...।

अच्छा...? धमकी...? गुड... वेरी गुड... वेल डन...। उसने घंटी बजाई

अब आप लोग तशरीफ ले जाएं। ये लीजिए अपना झुनझुना... इस मुद्दे पर कल बात करते हैं। मैं छानबीन करवाता हूं... आपको पूरी रिपोर्ट दी जाएगी, इंतजार करें... नमस्ते। हाथ जोड़ा और बाहर जाने का इशारा किया।

उसके रुख के अचानक नरम पड़ जाने पर मैं भौंचक रह गया। असगर के चेहरे पर कोई हैरानी नहीं थी। जैसे उसे इस तरह के वार्तालाप की आदत हो।

बाहर फिर भीड़ गायब। तख्तियां जमीन पर धराशायी पड़ी थीं जिन्हें पुलिस के सिपाही उठा उठा कर एक तरफ जमा कर रहे थे। पता चला कि एक बस में सबको ठूंसकर वापस गांव भेज दिया गया है। किसी ने ये भी बताया कि धुर्वे को पता नहीं क्या पट्टी पढ़ाई गई कि वह सुभाष और असगर को गाली देता, कोसता हुआ गया। मैं इस पूरे मामले में पक गया था। असगर ने भी हाथ जोड़ लिए। उसे अपनी दुकान बंद होती नजर आ रही थी। सारी योजना पर पानी फिर चुका था। हमारे हाथ फिलहाल सिर्फ पराजय थी। रह रह कर कलक्टर के चेहरे पर आश्वस्ति के भाव बुरी तरह खल रहे थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैंने क्या गलत किया। जो किया, वो करना चाहिए था या नहीं, क्या गलत हाथ जला बैठा... अपने काम से मतलब रखना चाहिए था, स्टोरी लिखनी थी, चुपचाप, हंगामा करवा देना चाहिए था... इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहिए था। क्या जरूरत थी एक्टिविस्ट बनने की। पता नहीं इसके क्या दूरगामी परिणाम होंगे।

पहली बार अहसास हुआ कि सत्ता कितनी ताकतवर होती है। असगर मुझसे पीछा छुड़ाकर तीर की तरह निकल गया। मैं अकेले श्यामगढ़ की सड़क पर टहलता हुआ चला जा रहा था।

असगर कहां गया... अचानक तंद्रा टूटी।

असगर... हां उसे पकड़ना जरूरी है। वही एकमात्र गवाह है इन सारी चीजों का।

दफ्तर में असगर मस्ती में इधर उधर फड़फड़ा रहा था। कुछ ज्यादा ही चहक फहक थी उसके व्यवहार में।

यार, मैं यहां बिल्कुल नया हूं। ये क्या हो रहा है... कल दिन की घटनाएं दिमाग से हटी नहीं थी। मैं तो बसई डैम की स्टोरी प्लान ही कर रहा था कि ये...।

असगर को पहले से सारा अनुमान था। वो भांप गया।

जानता हूं सर, जानता हूं। आप तक भी पहुंचा ना माल... सबके पास पहुंच गया होगा। आज तो सबकी सुबह बन गई। ऐश करिए, क्या करना है। डैम बहती है तो बहे... बहती रहती है, बिना बने बह गई तो क्या हुआ। छोटी सी खबर सिंगल कॉलम लगा देंगे... कल सारे लोकल पेपर में होगा। हम नहीं छापेंगे तो दिल्ली से... असगर मुझे समझा रहा था। मेरा माथा घूम रहा था। अब तक प्रेस कांफ्रेंस में गिफ्ट चेक या गिफ्ट तक ही सीमित था अपना मामला। किसी ने खबर रोकने के लिए इतनी मोटी रकम नहीं दी।

डैम की तस्वीरें कहां हैं? मैं व्याकुल हो उठा।

वो तो सर जी... डीएफओ साहेब को दे दी। अब उसका करना क्या सर जी... डैम तो गई...।

तुम्हें क्या मिला असगर?

मैंने तो सर जी, पहले तो मैं पैसा ही लेता था। लेकिन हमारी अम्मी हराम का पैसा घर लाने को मना करती हैं। सो मैंने सड़क पर ईंट-रोड़ी-सीमेंट की सप्लाई का ठेका ही मांग लिया... असगर अपने पराक्रम के किस्से बेहिचक सुना रहा था और मेरा माथा घूम रहा था। ये क्या जगह है दोस्तो... ये कौन सा दयार है...। दिमाग में एक अनजानी सी डैम की छवि, डैम बहने की सूचना देने वाले प्रेस रिलीज पर कलेक्टर समेत आदिवासियों के लोकल नेता धुर्वे का बयान सब गड्डमड्ड हो रहा है। आंखो में एक जंगल भर रहा है... कोई बैगिन गा रही है...।

टीवी पर कुमार विश्वास गा रहे हैं... कोई दीवाना कहता है... कोई पागल समझता है...।