बांसगांव की मुनमुन / भाग - 10 / दयानंद पाण्डेय

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‘देखो मैं जिस जगह और जिस झा परिवार से आता हूं। वहां दो ही तरह के लोग पैदा होते हैं। या तो आई.ए.एस. होते हैं या नचनिया। और मैं हूं आई.ए.एस. जो बिगाड़ना हो मेरी बिगाड़ लेना।’ कह कर एस.डी.एम. ने उन को एक और लात रसीद कर दिया। बाहुबली के सारे हथियार बंद साथी और बाज़ार के लोग टुकुर-टुकुर देखते रह गए। और एस.डी.एम. मय फ़ोर्स के वहां से चला गया। भीड़ में गिरधारी राय भी थे। एस.डी.एम. के जाते ही वह मूंछों में मुसकुराए और बड़ी फुर्ती से लेटे पड़े बाहुबली विधायक को जा कर उठाया ज़मीन से और उस की धूल झाड़ते हुए बुदबुदाए, ‘का बाबू साहब किस से उलझ गए आप भी। सब को गिरधारी राय समझ लेते हैं आप भी! हरदम ठकुराई ठोंकने से नुक़सान भी हो जाता है।’

बाहुबली ने अचकचा कर गिरधारी राय को देखा और उन्हें आग्नेय नेत्रों से घूरा। गिरधारी राय फिर बुदबुदाए, ‘रस्सी जल गई, पर ऐंठ नहीं गई।’ कह कर गिरधारी राय सरक गए। बाहुबली भी अपमान से आहत पर अकड़ते हुए लाव-लश्कर समेत चले गए। पहुंचे लखनऊ। मुख्यमंत्री से मिले। और जो कहते हैं, पुक्का फाड़ कर रोना, तो पुक्का फाड़ कर रोए। और फिर लौटे तो एस.डी.एम. को ट्रांसफर करवा कर ही। फिर उस एस.डी.एम. ने जो कहा था कि हमारे परिवार में दो ही लोग होते हैं, एक आई.ए.एस और एक नचनिया। तो उस बाहुबली ने उसे नचा दिया और भरपूर। हर तीन महीने, चार महीने पर उस का ट्रांसफर होता रहा। और दुर्गम से दुर्गम स्थानों पर। उन दिनों उत्तराखंड उत्तर प्रदेश में ही था सो सारा पहाड़ नचवा दिया। गिरधारी से किसी ने इस बात की चर्चा की तो उन्हों ने साफ़ कह दिया कि, ‘अब वह नचनिया बने चाहे पदनिया हमसे क्या?’ वह बोले, ‘हमारा काम तो हो गया न?’

और सचमुच उस दिन के बाद उस बाहुबली पूर्व विधायक ने मारे अपमान के बांसगांव की ज़मीन पर फिर पैर नहीं रखा। सो गिरधारी राय बात ही बात में जिस-तिस से शेख़ी बघारते हुए कहते, ‘बड़े-बड़े चंद को चांद बना दिया तो तुम क्या चीज़ हो जी?’ चंद को चांद बनाने के बाद अब वह मुनमुन को भी मून बनाना चाहते थे पर कोई तरकीब निकाले नहीं निकल रही थी। उन को विवेक भी दिख नहीं रहा था। उन्हों ने सोचा कि क्यों न एक बार विवेक सिंह के घर हो कर हालचाल ले लिया जाए। लेकिन फिर उन्हों ने सोचा कि कहीं उन की पोल न खुल जाए और फिर लेने के देने पड़ जाएं। एक तो घर और पट्टीदारी का मामला था दूसरे, मुनमुन के भाई जज और अफ़सर थे ही। सो वह डर गए और मन मसोस कर रह गए। वैसे भी अब वह बूढ़े हो चले थे। पिता का कमाया पैसा समाप्त हो चुका था और बेटे नाकारा हो चले थे। अपनी परेशानियां कुछ कम नहीं थीं उन की पर दूसरों को परेशान करने में उन्हें जो सुख मिलता था उस का भी वह क्या करें?’

विवश थे। अवश थे वह। इस सुख के आगे। मुनमुन को मून बनाने की तड़प में वह एक विज्ञापन का स्लोगन भी गुनगुनाते- ये दिल मांगे मोर! बिलकुल किसी बच्चे की तरह। उधर मुनमुन की, मुनक्का की, मुनमुन की अम्मा की तकलीफें़ बढ़ चली थीं। ख़र्चे बढ़ चले थे। साथ ही बीमारियां भी। ख़ास कर मुनमुन की टी.बी. ने उसे परेशान कर दिया था। अब उस की खांसी में कभी कभार ख़ून भी आने लगा था। हालां कि टी.बी. अब कोई असाध्य बीमारी नहीं रह गई थी। लेकिन इलाज और दवाई जो नियमित होनी चाहिए थी, नहीं हो पा रही थी। डाक्टर कहते कि एक दिन भी अगर दवाई का गैप हो गया तो बेकार। दवाई का पूरा कोर्स बिना किसी गैप के पूरा करना था। पर दवाई में आर्थिक थपेड़ों के चलते, कभी लापरवाही के चलते गैप हो जाती। मामला बिगड़ जाता। बाबू जी समझाते भी कि, ‘सारा कुछ छोड़ कर दवाई लग कर करो।’ फिर पत्नी से भनभनाते भी, ‘मुनमुन की मनमानी बढ़ गई है। उसे रोको। नहीं किसी दिन वह अपनी जान ले लेगी।’

‘मेरी भी वह अब कहां मानती है?’ मुनमुन की अम्मा भी भनभनातीं।

धीरे-धीरे दिन बीते। दिन, ह़ते और महीना, महीनों में बीता। मुनमुन की ससुराल से गौने का दिन आ गया। मुनमुन थोड़ा मुनमुनाई। कि, ‘अभी नहीं। पहले मेरी बीमारी ठीक हो जाए।’ पर मुनक्का नहीं माने। गौने का दिन स्वीकार कर लिया। एक महीने बाद का दिन। बेटों को भी सूचना दे दी। राहुल ने हमेशा की तरह फिर हवाला से बीस हज़ार रुपए भेज दिए और बता दिया कि, ‘मैं नहीं आ सकता।’ तरुण ने कहा, ‘मुश्किल है पर कोशिश करूंगा।’ धीरज ने कुछ स्पष्ट नहीं कहा। पर रमेश ने कहा कि, ‘आऊंगा। पर कुछ घंटे के लिए। सिर्फ़ विदाई के समय।’

सो सारी तैयारी मुनक्का ने अकेले की। ख़रीददारी से ले कर मिठाई-सिठाई तक की। पर पहला काम उन्हों ने यह किया कि राहुल के भेजे पैसों से मुनमुन की टी.बी. की दवा डेढ़ साल के लिए इकट्ठे ख़रीद दी। और उसे हिदायत दे दी कि बिना नागा वह दवा खाए। आधी अधूरी तैयारियों के बीच गौना हुआ। ऐन विदाई के आधा घंटे पहले रमेश बांसगांव सुबह-सुबह पहुंचा। और मुनमुन की विदाई करवा कर अम्मा, बाबू जी को बिलखता छोड़ कर चला गया। अम्मा ने कहा भी कि, ‘बाबू तुम पहले तो इतने निष्ठुर नहीं थे?’ जवाब में वह मौन ही रहा। बाद में चौथ भी ले कर मुनक्का राय अकेले ही गए। लेकिन मुनमुन उन्हें ससुराल में ख़ुश नहीं दिखी। वह चिंतित हुए। भारी मन से बांसगांव लौट आए। गौने के कोई पंद्रह दिन बाद ही मुनमुन का फ़ोन आया कि, ‘बाबू जी, अगर हमें ज़िंदा चाहते हैं तो फ़ौरन आ कर हमें लिवा ले चलिए।’ कह कर उस ने फ़ोन काट दिया।

मुनक्का राय ने किसी से राय मश्विरा भी नहीं किया और सरपट भागे मुनमुन की ससुराल। लौटे तो मुनमुन को ले कर ही। मुनमुन की अम्मा मुनमुन को अचानक देखते ही हतप्रभ रह गईं। बोली, ‘ई क्या हुआ?’ मुनमुन अम्मा से लिपट गई और दहाड़ मार-मार कर रोने लगी। रोते-रोते ही अपने दुख की गाथा बताने लगी। रोना-धोना सुन कर आस-पड़ोस की औरतें भी जुटीं। शाम तक सारे बांसगांव को मुनमुन के ससुराल से बैरंग वापस आ जाने की ख़बर मालूम हो गई। मुनमुन के घर उस रात चूल्हा नहीं जला। मुनक्का राय पर इस बुढ़ौती में जैसे वज्र टूट पड़ा था। जैसे काठ मार गया था उन्हें। रात भर उन्हें नींद भी नहीं आई। सुबह एक पड़ोसन ही चाय नाश्ता ले कर आईं। कुछ शुभचिंतक, हित-चिंतक और मज़ा लेने वाले जन भी आए। किसी से न तो मुनक्का कुछ बोले, न मुनमुन न ही मुनमुन की अम्मा। मुनमुन और मुनमुन की अम्मा हर सवाल पर जवाब में बस रोती ही रहीं। और जब बहुत हो गया तो मुनक्का राय एक शुभचिंतक के बार-बार पूछने पर कि, ‘आखि़र हुआ क्या?’ के जवाब में बस इतना ही बुदबुदाए, ‘अब क्या बताएं कि क्या हो गया?’ और सिर झुका लिया।

कई लोगों ने पीठ पीछे कहा, ‘जो भी हो इतनी जल्दी बेटी को वापस नहीं ले आना चाहिए था मुनक्का राय को।’ किसी ने कहा, ‘किसी से राय मश्विरा भी नहीं किया।’ तो किसी ने अंदाज़ा लगाया, ‘लगता है बेटों को भी अभी नहीं बताया।’ तरह-तरह की बातें, तरह-तरह के लोग। ‘वकील हैं भइया। ख़ुद समझदार हैं। दूसरों को सलाह देते हैं, ख़ुद नहीं लेते।’ एक एक्सपर्ट कमेंट भी आया जो मुनक्का राय के कानों तक भी गया। पलट कर उन्होंने सिर्फ़ घूर कर देखा इस टिप्पणीकार को तो वह धीरे से उठ कर खिसक गया। कि कहीं वकील साहब का सारा गुस्सा उसी पर न बरस जाए! ख़ैर, लोगों का आना जाना कम हुआ। और बात धीरे-धीरे खुली। खुली और खुलती गई। तिल का ताड़ बन कर बांसगांव में गीले उपले के धुएं की तरह सुलगती हुई फैलती गई। बात विवेक तक भी पहुंची। पर वह चाह कर भी नहीं आया। मारे डर के। कि कहीं फिर पिट-पिटा गया तो?

ह़फ्ते भर बाद घनश्याम राय दो लोगों के साथ आए और मुनक्का राय से बोले, ‘वकील साहब उस वक्त आप गुस्से में थे इस लिए आप से तब कुछ नहीं कहा और आप की बेटी को विदा कर दिया। अब गुस्सा शांत कीजिए और निवेदन है कि हमारी बहू को विदा कर दीजिए!’ पर मुनक्का राय शांत रहे। कुछ बोले नहीं। बोलीं मुनमुन की अम्मा और दरवाज़े की आड़ से ख़ूब बोलीं, ‘आप का लड़का जब लुक्कड़ और पियक्कड़ था तो आप क्यों झूठ बोले कि पी.सी.एस. की तैयारी कर रहा है? आप का लड़का जब पगलाया-पगलाया घूमता है यहां-वहां तो आप ने बताया कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ता है? और इतने बड़े घर में मेरी बेटी को उपवास कर के रहना पड़ा। आप के घर में भरपेट खाना खाने तक के लिए तरस गई मेरी बेटी। आप का बेटा अभी तक मेरी बेटी का चेहरा तक नहीं देख पाया। यह सब क्या है? आप की पत्नी और बेटी मेरी बेटी को सताती हैं और ताने मारती हैं? नई नवेली बहू से कैसे-कैसे तो काम करवाए आप लोगांे ने? और चाहते हैं कि अपनी बेटी को उस दोज़ख में भेज दूं। मरने के लिए? लांछन और अपमान भुगतने के लिए?’

‘देखिए समधिन जी आप नाहक गुस्सा हो रही हैं। बात इतनी बड़ी नहीं है जितनी आप समझ रही हैं।’

‘मैं सब समझ रही हूं।’ मुनमुन की अम्मा दरवाज़े की आड़ से ही बोलीं, ‘मेरी बेटी ऐसे नहीं जाएगी बस कह दिया।’

‘चलिए जब आप की ऐसी ही राय है समधिन जी तो मैं क्या कर सकता हूं?’ घनश्याम राय ने मुनक्का राय से मुख़ातिब होते हुए कहा, ‘वकील साहब आप ही कुछ विचार कीजिए और समधिन जी को समझाइए।’

पर मुनक्का राय चुप रहे। बोलीं उन की पत्नी ही, ‘समझाइए पहले आप अपने घर में लोगों को और अपने बेटे को पहले सुधारिए। फिर आइए।’

‘हमारे घर में तो वकील साहब औरतें घर आए मर्दों से इस तरह नहीं बोलती हैं।’ घनश्याम राय बोले, ‘क्या आप के घर में औरतें ही बोलती हैं, मर्द नहीं।’

‘ख़ैर, मनाइए कि मर्द अभी हमारे घर के आप की करतूतों को जान नहीं पाए हैं।’ मुनमुन की अम्मा दरवाज़े की ओट से ही बोलीं, ‘जिस दिन हमारे बेटे जान गए आप की करतूतों को तो कच्चा चबा जाएंगे। अभी आप जानते नहीं हैं कि किस परिवार से आप का पाला पड़ा है?’

‘जानते हैं समधिन जी, जानते हैं। आप के घर में सब लाट गवर्नर हैं। इतने बड़े लाट गवर्नर कि एक बहन को संभाल नहीं पाए। कि बहन आवारा हो गई। बूढ़े मां बाप को देख नहीं पाते हैं कि वह मर रहे हैं कि जी रहे हैं।’ घनश्याम राय बोले, ‘हम भी जानते हैं आप के परिवार की लाट गवर्नरी!’

‘अब आप कृपा कर के चलिए और, विदा लीजिए!’ मुनक्का राय बिलकुल शांत स्तर में हाथ जोड़ कर घनश्याम राय से बोले, ‘आप कुछ ज़्यादा ही बोल रहे हैं।’

‘अब आप अपने दरवाज़े पर हमारा अपमान कर रहे हैं वकील साहब!’ घनश्याम राय और भड़के।

‘जी नहीं, मैं पूरे सम्मान सहित आप से विनती कर रहा हूं कि कृपया आप विदा लें और तुरंत प्रस्थान करें।’ मुनक्का राय ने फिर से विनयवत हाथ जोड़े शांत स्वर में घनश्याम राय से कहा।

‘चलिए जा तो रहा हूं पर आप के दरवाज़े का यह अपमान मैं फिर नहीं भूलूंगा।’

‘मत भूलिएगा और फिर मत आइएगा।’ पूरी सख़्ती और पूरी शांति से मुनक्का राय ने कहा।

‘तो यह अंतिम है हमारी ओर से?’ घनश्याम राय तड़के।

‘जी हां, ईश्वर करे यह अंतिम ही हो।’ मुनक्का राय अब अपना धैर्य खो रहे थे।

‘आखि़र परेशानी क्या हो गई वकील साहब?’ घनश्याम राय हथियार डालते हुए बोले, ‘आखि़र हम लड़के वाले हैं!’

‘लड़के वाले हैं तो हमारे सिर पर मूतेंगे?’ मुनक्का राय बोले, ‘हम ने अपनी बेटी की असुविधाओं के बारे में बात की और आप ने हमारी बेटी को आवारा घोषित कर दिया। हमारे रत्न जैसे बेटों पर जिन पर हमें ही नहीं पूरे बांसगांव और पूरे गांव जवार को नाज़ है, उन पर छिछली टिप्पणी कर दी। इस लिए कि आप लड़के वाले हैं और हम लड़की वाले? और पूछ रहे हैं कि परेशानी क्या है? मैं बात टालने के लिए चुप हूं तो आप कह रहे हैं कि मेरे घर में मर्द नहीं बोलते हैं? आप का बेटा पी.सी.एस. क्या बला है की ए.बी.सी.डी. नहीं जानता और आप उसे झूठी पी.सी.एस. की तैयारी का ड्रामा रच कर हमारी फूल सी बेटी का जीवन तहस-नहस कर देते हैं और मर्द बनते हैं? यह कहां की मर्दानगी है?’ मुनक्का राय ने अपनी संजीदगी फिर भी मेनटेन रखी और हाथ जोड़ते हुए फिर से कहा, ‘कृपया प्रस्थान करें।’ उन के इस ‘प्रस्थान’ करें संबोधन में ध्वनि पूरी की पूरी यही थी कि जूता खा लिए और अब जाएं। घनश्याम राय और उन के साथ आए दोनों परिजनों के चेहरे का भाव भी जाते समय ऐसा ही लगा जैसे सैकड़ों जूते खा कर वह जा रहे हों। घनश्याम राय को समधियान में ऐसे स्वागत की उम्मीद नहीं थी। वह हकबक थे।

उन के साथ आए परिजन भी अपने को कोस रहे थे कि वह घनश्याम राय के साथ यहां इस तरह अपमानित होने क्यों आ गए? एक परिजन घनश्याम राय को रास्ते में कोसते हुए कह भी रहा था कि, ‘बांसगांव के लोग वैसे ही दबंग और सरकश होते हैं। तिस पर इस के बेटे जज और अफ़सर। करेला और नीम चढ़ा! किस ने कहा था कि बेटे की शादी बांसगांव में करिए?’ दूसरा परिजन भी पहले के सुर में सुर मिला कर बोला, ‘बांसगांव थाना कचहरी, मार-झगड़ा की जगह है। रिश्तेदारी करने की जगह नहीं है।’

‘अब आप लोग चुप भी रहेंगे? कि ऐसे ही बांसगांव के सांप से डसवाते रहेंगे?’ घनश्याम राय आजिज़ आ कर बोले, ‘वैसे ही दिमाग़ ससुरा बौखलाया हुआ है।’

घनश्याम राय सचमुच होश में नहीं थे। दो दिन बाद उन्हों ने रमेश को फ़ोन किया और रो पड़े, ‘जज साहब हमारी इज़्ज़त संभालिए! हमारी इज़्ज़त अब आप के हाथ है!’

‘अरे हुआ क्या घनश्याम जी? कुछ बताएंगे भी या औरतों की तरह रोते ही रहेंगे?’

‘आप को कुछ पता ही नहीं है?’ घनश्याम राय ने बुझक्कड़ी की।

‘अरे बताएंगे भी या पहेली ही बुझाते रहेंगे?’ रमेश खीझ कर बोला।

‘अरे आप के बाबू जी नाराज हो कर हमारी बहू को पंद्रह दिन बाद ही लिवा ले गए और अब बात करने को भी तैयार नहीं हैं। मैं बांसगांव गया, लड़का वाला हो कर भी। छटाक भर भी हमारी इज़्ज़त नहीं की।’ घड़ियाली आंसू बहाते हुए वह बोले, ‘और बताइए कि आप को कुछ पता ही नहीं है।’

‘पता तो नहीं है पर बाबू जी हमारे इस स्वभाव के हैं नहीं, जैसा कि आप बता रहे हैं।’ रमेश बोला, ‘फिर भी अगर ऐसा कुछ हुआ है तो आप के यहां से ज़रूर कोई भूल-चूक हुई होगी। फिर भी मैं पता करता हूं पहले कि आखि़र बात क्या है? तभी कुछ कह सकूंगा।’

‘हां, जज साहब अब आप ही हमारी आस, हमारे माई-बाप हैं।’

‘ऐसा मत कहिए और धीरज रखिए।’ कह कर रमेश ने फ़ोन काट दिया।

वह चिंतित हो कर थोड़ी देर अवाक बैठा रहा। दुनिया भर के पेंचदार मामले निपटाने और फ़ैसले सुनाने वाला रमेश अपने घर के मामले में घबरा गया। पत्नी को बुला कर बैठाया और घनश्याम राय के फ़ोन वाली बात बताई। रमेश की पत्नी भी चिंतित हुई और बोलीं, ‘पहले बांसगांव फ़ोन कर सारी बात जान लीजिए फिर कुछ कीजिए।’

‘वह तो करूंगा ही पर इस तरह रिश्ते में खटास आने से डर लग रहा है कि कहीं रिश्ता टूट न जाए।’

‘मुनमुन बहिनी शादी के पहले से ही कुछ संदेह में थीं इस रिश्ते को ले कर। पर किसी ने उन की बात को गंभीरता से नहीं लिया। सब मज़ाक में टालते रहे।’

‘तो तुम ने हम को क्यों नहीं बताया तब?’ रमेश ने पूछा।

‘क्या बताती जब सब कुछ तय हो गया था। ऐन तिलक में क्या बताती?’

‘हां, चूक तो हुई।’ रमेश बोला, ‘चलो देखते हैं।’ फिर उस ने बांसगांव फ़ोन मिलाया। फ़ोन पर अम्मा मिलीं। रोने लगीं। बोलीं, ‘अब जब सब कुछ बिगड़ गया तब तुम्हें सुधि आई है?’

‘फिर भी अम्मा हुआ क्या?’

‘सब कुछ क्या फ़ोन पर ही जान लेना चाहते हो?’ अम्मा ने पूछा, ‘क्या मुक़दमों के फ़ैसले फ़ोन पर ही लिखवा देते हो?’

‘नहीं अम्मा फिर भी?’

‘कुछ नहीं बाबू अगर बहन की तनिक भी चिंता है तो दो दिन के लिए आ जाओ। मिल बैठ कर मामला निपटाओ।’

‘ठीक है अम्मा!’ कह कर रमेश ने फ़ोन काट कर धीरज को मिलाया और मामला बताया और कहा कि, ‘अम्मा चाहती हैं कि बासंगांव पहुंच कर मिल बैठ कर मामला निपटाया जाए।’

‘तो भइया मेरे पास तो समय है नहीं। घनश्याम राय आप का पुराना मुवक्किल है। समझा-बुझा कर मामला निपटवा दीजिएगा।’ धीरज बोला, ‘और मुझे लगता है कि मुनमुन की वही नासमझियां होंगी, शादी के पहले वाली। बातचीत कर के ख़त्म करवा दीजिएगा।’

‘चलो देखते हैं।’ कह कर रमेश ने फिर तरुण को फ़ोन मिलाया और सारा मसला बताया। कहा कि, ‘तुम भी साथ रहते तो बातचीत में आसानी रहती। क्यों कि सारी बात मैं ही करूं तो मामले की गंभीरता टूटेगी। तू-तू-मैं-मैं से भी मैं बचना चाहता हूं। धीरज आ नहीं पाएंगे और राहुल इतनी दूर है। किसी और को घर के मामले में डालना ठीक नहीं है।’

‘ठीक है भइया कोई लगातार दो दिन की छुट्टी देख कर दिन तय कर लीजिए। और बता दीजिए, पहुंच जाऊंगा।’

रमेश ने दिन तय कर के तरुण को बता दिया और घनश्याम राय को भी। और साफ़-साफ़ कह दिया कि, ‘बातचीत में आप और आप का बेटा दोनों रहेंगे। तीसरा कोई और नहीं।’

‘तो क्या पंचायत का प्रोग्राम बनाए हैं का जज साहब, कि इजलास लगवाएंगे?’ घनश्याम राय बिदक कर बोले।

‘देखिए घनश्याम जी अगर मामला निपटाना हो तो इस तरह बात मत करिए। मुझे फिर आने में दिक्क़त होगी। बोलिए आऊं कि आना कैंसिल करूं?’

‘अरे नहीं-नहीं जज साहब आप तो ज़रा से मज़ाक पर नाराज़ हो गए!’ घनश्याम राय जी हुज़ूरी पर आ गए।

‘आप जानते हैं कि हमारा आप का मज़ाक का रिश्ता नहीं है।’ रमेश पूरी सख़्ती से बोला, ‘आइंदा इस बात का ख़याल रखिएगा। और हां, अभी बात क्या हुई है मैं बिलकुल नहीं जानता। बासंगांव आ कर ही बात जानूंगा, समझूंगा और फिर कुछ कहूंगा। यह बात एक बार फिर जान लीजिए कि बातचीत में आप और आप का बेटा ही होगा। तीसरा कोई और नहीं। हां, अगर आप चाहें तो राधेश्याम की माता जी को ला सकते हैं। बस। और यह भी बता दूं कि हमारे यहां से भी मेरी बहन, मेरा एक भाई और अम्मा, बाबू जी ही होंगे। कोई और नहीं।’

‘जी जज साहब!’

‘और हां, बातचीत के लिए खुले मन से आइएगा। पेशबंदी वग़ैरह मुझे पसंद नहीं है पारिवारिक मामलों में।’

‘जी, जज साहब!’ कह कर घनश्याम राय घबरा गए। यह सोच कर कि अपने लड़के की नालायक़ी को वह कैसे कवर करेंगे? तिस पर जज साहब ने कह दिया था कोई पेशबंदी नहीं। जज की निगाह है तड़ तो लेगी ही पेशबंदी! फिर भी वह पेशबंदी में लग गए। बिना इस के चारा भी क्या था? पहली पेशबंदी उन्हों ने यह की कि अकेले ही बांसगांव जाने की सोची। और तय किया कि बहुत ज़रूरत हुई तो बेटे से फ़ोन पर बातचीत करवा देंगे। ज़रूरत हुई तो पत्नी से भी फ़ोन पर ही बातचीत करवा देंगे। पर जाएंगे अकेले ही। जो भी इज़्ज़त-बेइज़्ज़त लिखी होगी, अकेले ही झेलेंगे। फ़ोन पर संभावित सवालों के जवाबों को भी पत्नी और बेटे को रट्टा लगवा दिया। और समझा दिया कि विनम्रता पूरी बातचीत में रहनी चाहिए। बस एक बार जज की बहन आ जाए घर में फिर उस की सारी जजी के परखचे उड़ा देंगे। बस एक बार आ जाए।