बांसगांव की मुनमुन / भाग - 13 / दयानंद पाण्डेय
‘मत रोइए बाबू जी।’ मुनमुन बोली, ‘अब सो जाइए। सब ठीक हो जाएगा।’
मुनक्का राय फिर से लेट गए। लेटे-लेटे रोते रहे। पर मुनमुन नहीं रोई। पहले बात बे बात रोने वाली मुनमुन ने अब रोना छोड़ दिया था।
गिरधारी राय का निधन हो गया है।
अंतिम समय में उन की बड़ी दुर्दशा हुई। बेटों ने दवाई, भोजन तक नहीं पूछा। बिस्तर साफ़ करने वाला भी कोई नहीं था। कोई नात-रिश्तेदार ग़लती से उन्हें देखने जाता तो फ़ौरन भागता। देह में उन के कीड़े पड़ गए थे। दूर से ही बदबू मारते थे। कोई नाक दबा कर बैठ भी जाता तो उस से वह दस-पांच रुपए भी मांगने लगते। रुपए मांगने की आदत उन की पहले भी थी। बिना संकोच वह किसी से भी पैसा मांग लेते। पट्टीदार, रिश्तेदार, परिचित, अपरिचित जो भी हो। कोई दे देता, कोई नहीं भी देता। फिर भी उन का मांगना नहीं रुकता। अब वह जब चले ही गए तो शव यात्रा में भी उन की ज़्यादा लोग नहीं गए। पर मुनक्का राय गए हैं। लाश उन की जला दी गई है पर ठीक से जल नहीं पा रही है। बीमारी वाली देह है, तिस पर लकड़ी भी गीली है। श्मशान घाट पर बैठे लोग उन की अच्छाइयां-बुराइयां बतिया रहे हैं। और उन की लाश है कि लाख यत्न के बावजूद ठीक से जल नहीं पा रही है। डोम, पंडित, परिजन सभी परेशान हैं। परेशान हैं मुनक्का राय भी। एक पट्टीदार से बतिया रहे हैं, ‘चले गए गिरधारी भाई पर मुझ को लाचार कर के। मुझे बरबाद करने में उन्हों ने अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।’
‘तो भुगत भी तो रहे हैं।’ पट्टीदार बोला, ‘देखिए मरने के बाद भी जल नहीं पा रहे हैं। देह में कीड़े पड़ गए थे सो अलग। दाने-दाने के लिए तरस कर मरे हैं। भगवान सारा स्वर्ग नरक यहीं दिखा देते हैं। जस करनी तस भोगहू ताता, नरक जात फिर क्यों पछताता! क्या वइसेही कहा गया है?’
‘सो तो है!’ मुनक्का राय कहते हुए जम्हाई लेने लगते हैं। वह कहना चाहते हैं कि गिरधारी भाई के साथ एक युग समाप्त हुआ की तर्ज पर गिरधारी भाई के साथ एक दुष्ट समाप्त हुआ। पर सोच कर ही रह जाते हैं। यह मौक़ा नहीं है यह सब कुछ कहने का। पर अपने मन की चुभन और टीस का वह क्या करें? इन को कहां दफ़न करें? किस चिता में जलाएं इसे? और मुनमुन? मुनमुन की
चिंता उन्हें चिता से भी ज़्यादा जलाए दे रही है। वह क्या करें?
वह क्या करें? किंकर्त्तव्य विमूढ़ हुआ एक वृद्ध पिता सिवाय अफ़सोस, मलाल और चिंता के कर भी क्या सकता था? लोग समझते थे कि उन का परिवार प्रगति के पथ पर है। पर उन की आत्मा जानती थी कि उन का परिवार पतन की पराकाष्ठा पर है। वह सोचते और अपने आप से ही कहते कि भगवान बच्चों को इतना लायक़ भी न बना दें कि वह माता पिता और परिवार से इतने दूर हो जाएं। अपने आप में इतना खो जाएं कि बाक़ी दुनिया उन्हें सूझे ही नहीं। अख़बारों में वह पढ़ते थे कि अब दुनिया ग्लोबलाइज़ हो गई है। जैसे एक गांव हो गई है समूची दुनिया। पर उन को लगता था कि अख़बार वाले ग़लत छापते हैं।
बेटियों से तो कोई उम्मीद थी नहीं। पर उन के चारों बेटे जाने किस ग्रह पर रहते थे कि उन का दुख, उन की यातना उन्हें दिखती ही न थी। बेटों की इस उपेक्षा और अपमान की बाबत वह किसी से कुछ कह भी नहीं पाते थे। मारे लोक लाज के। कि लोग क्या कहेंगे? वह सोचते यह सब और अपने आप से ही पूछते कि, ‘क्या इसी को ग्लोबलाइजे़शन कहते हैं?’
सवाल तो उन के पास कई थे। पर इन का जवाब एक भी नहीं। कहा जाता है कि दिल पर जब बोझ बहुत हो तो किसी से शेयर कर लेना चाहिए। दिल का बोझ कुछ कम हो जाता है। पर मुनक्का राय यह सोचते कि किस से वह अपने बेटों की शिकायत करें? वह मर न जाएंगे जिस दिन अपने बेटों की शिकायत किसी से करेंगे। उलटे वह तो जब भी कहीं बेटों का ज़िक्र आता तो कहते कि, ‘हमारे बेटे तो सब रत्न हैं रत्न!’
पर यह बेटे सब जाने किस राजा के रत्न बन बैठे थे कि माता पिता के दुखों को देखे बिना बिसार बैठे थे। एक बार धीरज से फ़ोन पर उन्हों ने कहा भी था कि, ‘बेटा जब तुम अध्यापक थे तो ज़्यादा अच्छे थे। हम लोगों का दुख-सुख ज़्यादा समझते थे। तुम्हें याद होगा उन दिनों तुम्हारे नियमित मदद के वशीभूत मैं ने तुम्हारा नाम कभी नियमित प्रसाद तो कभी सुनिश्चित प्रसाद रखा और कहा करता था।’ पर वह इस पर कुछ बोला नहीं उलटे अपनी व्यस्तताएं और ख़र्चे बताने लगा था।
चुप रह गए थे मुनक्का राय। उन्हीं दिनों टी.वी. पर आ रहे कवि सम्मेलन पर एक कवि ने कविता सुनाई थी, ‘कुत्ते को घुमाना याद रहा पर गाय की रोटी भूल गए/साली का जनम दिन याद रहा पर मां की दवाई भूल गए।’ सुन कर वह फिर अपने आप से बोले, ‘हां, ज़माना तो बदल गया है।’ बाद में पता चला धीरज की दो-दो सालियां उस के साथ नियमित रह रही हैं। और वह ससुराल पर ख़ासा मेहरबान है। एक बड़ा सा कुत्ता भी रख लिया है। शायद इसी लिए वह अपने नियमित प्रसाद और सुनिश्चित प्रसाद को भूल गया। भूल गया कि अम्मा बाबू जी खाना भी खाते हैं और दवाई भी। बाक़ी ज़रूरतें भी अलग हैं। नातेदारी, रिश्तेदारी, न्यौता हकारी। सब भूल गया नियमित प्रसाद उर्फ सुनिश्चित प्रसाद उर्फ धीरज राय।
क्या डिप्टी कलक्टरी ऐसे ही होती है?
ऐसे ही होते हैं न्यायाधीश?
ऐसे ही होते हैं बैंक मैनेजर?
और ऐसे ही होते हैं एन.आर.आई?
क्या एन.आर.आई. राहुल भी गाता होगा, ‘हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चांद।’ और वो पंकज उधास का गाना सुनता होगा कभी क्या कि, ‘चिट्ठी आई है, वतन से चिट्ठी आई है! सात समंदर पार गया तू हम को जिंदा मार गया तू!’ सुनता होगा क्या, ‘मैं तो बाप हूं मेरा क्या है/तेरी मां का हाल बुरा है।’ सुनता होगा इस गाने की तासीर, ‘कम खाते हैं, कम सोते हैं बहुत ज़ियादा हम रोते हैं।’ क्या पता सुनता हो? सुनते हों बाक़ी भी। न्यायाधीश भी, डिप्टी कलक्टर भी और बैंक मैनेजर भी। या हो सकता है यह गाना सुनते ही बंद कर देते हों। सुनना ही नहीं चाहते हों। जैसे कि धीरज अब फ़ोन भी नहीं सुनता। मोबाइल या तो उठता नहीं या स्विच आफ़ रखता है। लैंड लाइन फ़ोन कोई कर्मचारी उठाता है और किसी मीटिंग या बाथरूम में बता देता है। कितनी भी ज़रूरी बात हो वह नहीं सुनना चाहता। क्या वह अपने क्षेत्र की जनता की भी ऐसे ही अनसुनी करता होगा? सोच कर मुनक्का राय कांप जाते हैं।
कांप गई थी मुनमुन भी जब एक दिन अचानक उस का पति राधेश्याम बांसगांव उस के घर आ गया। मुनमुन और अम्मा दोनों ही बाहर दरवाजे़ पर ओसारे में बैठी एक पड़ोसन से बतिया रही थीं। मुनमुन को बुख़ार था। इस लिए स्कूल नहीं गई थी। राधेश्याम आया। मोटरसाइकिल दरवाजे़ पर खड़ी कर ओसारे में आया। ख़ाली कुर्सी पर धप्प से बैठ गया। मुनमुन से बोला, ‘चलो मेरे साथ और अभी चलो!’
‘कहां?’ मुनमुन अचकचा गई। पूछा, ‘आप कौन?’
‘तो अब अपने मर्द को भी नहीं पहचानती?’ राधेश्याम मां की गाली देते हुए बोला, ‘पहचान लो आज से मैं तुम्हारा हसबैंड हूं।’
‘अरे?’ कह कर वह घर में भागी। राधेश्याम शराब के नशे में धुत था। आवाज़ लड़खड़ा रही थी पर उस ने लपक कर, मुनमुन को झपट्टा मार कर पकड़ लिया। बोला, ‘चल कुतिया अभी मेरे साथ चल!’
अम्मा ने हस्तक्षेप किया और हाथ जोड़ कर बोलीं, ‘भइया पहले चाय पानी तो कर लीजिए।’
‘हट बुढ़िया!’ अम्मा को राधेश्याम ने ढकेलते हुए कहा, ‘चाय पीने नहीं आया हूं। आज इस को ‘लेने’ आया हूं।’
अम्मा का सिर दीवार से टकरा कर फूट गया। और वह गिर कर रोने लगीं, ‘हे राम कोई बचाओ मेरी बेटी को।’ मुनमुन ने प्रतिरोध किया तो राधेश्याम ने उसे भी बाल पकड़ कर पीटना शुरू कर दिया। वहां बैठी पड़ोसन बचाव में आई तो उसे भी मां बहन की गालियां देते हुए लातों जूतों से पिटाई कर दी। चूंकि यह मार पीट घर के बाहर घट रही थी सो कुछ राहगीरों ने भी हस्तक्षेप किया और राधेश्याम से तीनों औरतों को छुड़ाया। राधेश्याम को दो तीन लोगों ने कस कर पकड़ा और औरतों से कहा कि, ‘आप लोग घर में चली जाइए।’
मुनमुन और उसकी अम्मा ने घर में जा कर भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिया। पड़ोसन अपने घर भागी। फिर राहगीरों ने राधेश्याम को छोड़ा। राधेश्याम ने राहगीरों की भी मां बहन की। और बड़ी देर तक मुनमुन के घर का दरवाज़ा पीटता गरियाता रहा। फिर चला गया। घर का दरवाज़ा शाम को तभी खुला जब मुनक्का राय कचहरी से घर आए। उन्हों ने जब यह हाल सुना तो माथा पकड़ कर बैठ गए। बोले, ‘अब यही सब देखना बाक़ी रह गया है इस बुढ़ौती में? हे भगवान कौन सा पाप किया है जो यह दुर्गति हो रही है?’
थोड़ी देर में वह गए एक डाक्टर को पकड़ कर लाए। मां बेटी की सुई, दवाई, मरहम पट्टी कर के वह चला गया। देह के घाव तो दो चार दिन में सूख जाएंगे पर मन पर लगे घाव?
शायद कभी नहीं सूखेंगे। देह के घाव अभी ठीक से भरे भी नहीं थे कि अगले ह़ते राधेश्याम फिर आ धमका। अब की वह मोटरसाइकिल दरवाज़े पर खड़ी कर ही रहा था कि मां-बेटी भाग कर घर में घुस गईं और भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिया। लेकिन राधेश्याम माना नहीं दरवाज़ा पीट-पीट कर गालियां बकता रहा और कहता रहा, ‘खोलो-खोलो आज ले कर जाऊंगा।’
लेकिन मुनमुन ने दरवाज़ा नहीं खोला। फिर राधेश्याम बगल के एक घर में गया। वहां भी गाली गलौज की। वह लोग जानते थे कि यह मुनक्का राय का दामाद है सो हाथ जोड़ कर उसे जाने को कहा। वह फिर मोटरसाइकिल ले कर गिरधारी राय के घर गया। जब उसे पता चला कि गिरधारी राय मर गए तो भगवान को संबोधित कर के कुछ गालियां बकीं। और चाय पीते-पीते उन की एक बहू को पकड़ लिया और बोला, ‘मुनमुन नहीं जा रही है तो तुम्हीं चलो। तुम पर भी हमार हक़ बनता है।’
गिरधारी राय के बेटे भी पियक्कड़ थे सो उन की बहू पियक्कड़ों से निपटना जानती थी। सो बोली ‘हां-हां क्यों नहीं पहले कपड़ा तो बदल लूं। आप तब तक बाहर बैठिए।’ कह कर उस ने राधेश्याम को बाहर बैठा कर भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिया। राधेश्याम ने फिर यहां भी तांडव किया। दरवाज़ा पीट-पीट कर गालियों की बरसात कर दी। फिर तो आए दिन की बात हो गई राधेश्याम के लिए। वह पी-पा कर आता। उस को देखते ही औरतें घर के भीतर हो कर दरवाज़ा बंद कर लेतीं। मुनमुन के घर वह दरवाज़ा पीट-पीट कर गालियां बकता, पड़ोसियों के घर और फिर गिरधारी राय के घर भी। जैसे यह सब उस का रूटीन हो गया था। मुनमुन के घर तो वह पलट-पलट कर आता। कई-कई बार। जैसे मुनमुन के घर गाली गलौज कर पड़ोसी के घर जाता। फिर पलट कर मुनमुन के घर आता। फिर गिरधारी राय के यहां जाता। फिर मुनमुन के यहां आता। फिर किसी पड़ोसी, फिर मुनमुन। जब तक उस पर नशा सवार रहता वह आता-जाता रहता।
एक दिन राधेश्याम गाली गलौज के दो राउंड कर के जा चुका था कि मुनमुन का फुफेरा भाई दीपक आ गया मुनमुन के घर। यह फुफेरा भाई दिल्ली में रहता था और दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कालेज में पढ़ाता था। दीपक बहुत दिनों बाद दिल्ली से अपने घर आया था तो सोचा कि मामा-मामी से भी मिलता चले। क्यों कि वह बचपन में अकसर मामा-मामी के पास आता था और मामी बड़े शौक़ से किसिम-किसिम के पकवान बना-बना कर उसे खिलाती रहती थीं। वह मामी के पास ह़फ्ते-ह़फ्ते रह जाता था गरमियों की छुट्टियों में। मामी उसे मानती भी बहुत थीं। तब मामी ख़ूब भरी-पुरी और ख़ूब सुंदर सी दीखतीं थीं। बिलकुल फ़िल्मी हिरोइनों की तरह सजी संवरी रहतीं। मामा भी सब के सामने ही उन से हंसी ठिठोली करते रहते। मुनमुन तब छोटी सी नटखट सी थी। मामा की प्रैक्टिस तब ख़ूब चटकी हुई थी। फ़ौजदारी और दीवानी दोनों में उन की चांदी थी। लक्ष्मी जी की अगाध कृपा थी उन दिनों मामा-मामी पर। कहने वाले कहते कि मुनमुन बड़ी भाग्यशाली है। बड़े भाग ले कर आई है। साक्षात लक्ष्मी बन कर आई है। ऐसा लोग कहते। ज़िले में उन दिनों बाह्मण-ठाकुर बाहुबलियों का बोलबाला था। और बांसगांव के पास सरे बाज़ार एक गुट के सात लोग जीप से उतार कर मार दिए गए थे। अगले ह़फ्ते ही दूसरे गुट ने अगले ग्रुप के नौ लोगों को एक बाज़ार में घेरा। पांच मार दिए सरे बाज़ार और चार नदी में कूद कर तैरते हुए जान बचा कर भाग गए। शहर में सरे शाम एक छात्र नेता की हत्या मुख्य बाज़ार में हो गई तो एक विधायक की हत्या सुबह-सुबह रेलवे स्टेशन पर हो गई। यह सारी ताबड़तोड़ हत्याएं बांसगांव के लोग ही कर करवा रहे थे।
बांसगांव तब तहसील नहीं, अपराध की भट्ठी बन गया था। धर पकड़ की जैसे महामारी मची थी। और इन्हीं दिनों मुनक्का राय की प्रैक्टिस जमी हुई थी। ज़मानत करवाने में वह माहिर थे। उन का कोर्ट में खड़ा होना मतलब ज़मानत पक्की! पर वह और दिन थे, यह और दिन। अब तो मामा की प्रैक्टिस चरमरा गई थी और वह हिरोइन सी दिखने वाली मामी की भरी-पुरी देह हैंगर पर टंगे कपड़े सी हो गई थी। देह क्या हड्डियों का ढांचा रह गई थीं-मामी। उन की देह की ढलान एक बेटे की मृत्यु के बाद जो शुरू हुई तो फिर नहीं रुकी। मामी के आज चार बेटे हैं पर पहले पांच बेटे थे। तरुण और राहुल के बीच का शेखर। शेखर ने बस हाई स्कूल विथ डिस्टिंक्शन पास किया ही था कि उस की तबीयत ख़राब रहने लगी। बांसगांव के डाक्टर इलाज कर-कर के थक गए तो शहर के डाक्टरों को दिखाया मुनक्का राय ने शेखर को। दुनिया भर की जांच पड़ताल के बाद पता चला कि शेखर की दोनों किडनी फेल हो गई हैं। डायलिसिस वग़ैरह शुरू हुई। और अंततः तय हुआ कि बनारस जा कर बी.एच.यू. में किडनी ट्रांसप्लांट करवाया जाए।
मुनक्का राय ख़ुद अपनी एक किडनी देने को तैयार हो गए। बोले, ‘बेटे के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं मैं।’ फिर भी वह बेटे से कहते, ‘बाबू शेखर जो भी खाना हो खा लो, जो भी पहनना हो पहन लो फिर पता नहीं क्या हो? पर तुम्हारी कोई इच्छा शेष नहीं रहनी चाहिए। सारी इच्छाएं पूरी कर लो।’ पर शेखर अम्मा-बाबू जी की परेशानी देख कर कहता, ‘नहीं बाबू जी हम को कुछ नहीं चाहिए।’ फिर वह जैसे जोड़ता कि, ‘बाबू जी मत करवाइए हमारा आपरेशन। बहुत पैसा ख़र्च हो जाएगा।’ वह दरअसल देख रहा था कि बाबू जी की लगभग सारी कमाई उस के आपरेशन में दांव पर लगने जा रही थी। क़र्जा अलग से। सो वह कहता, ‘आपरेशन के बाद भी जाने मैं ठीक होऊंगा कि नहीं। रहने दीजिए।’
तो भी मुनक्का राय ने शेखर के किडनी ट्रांसप्लांट में होने वाले ख़र्च के लिए पूरी व्यवस्था जब कर ली तो एक दिन वह शहर गए। शेखर को ले कर। एक हार्ट स्पेशलिस्ट थे डाक्टर सरकारी। वह बी.एच.यू. के ही पढ़े हुए थे। उन के कोई परिचित डाक्टर बी.एच.यू. में थे जो किडनी ट्रांसप्लांट करते थे। उन के लिए सिफ़ारिशी चिट्ठी डाक्टर सरकारी से लिखवाने के लिए मुनक्का राय गए थे उन के पास। डाक्टर सरकारी के सामने शेखर को लिए वह बैठे हुए थे। बातचीत के बाद डाक्टर सरकारी चिट्ठी लिख ही रहे थे कि शेखर की छाती में अचानक ज़ोर से दर्द उठा। वह छटपटाने लगा। डाक्टर सरकारी ने चिट्ठी लिखनी छोड़ दी। दौड़ कर उसे अटेंड किया। उन का पूरा अमला लग गया शेखर को बचाने के लिए। लेकिन सोलह साल का शेखर जो किडनी का पेशेंट था, हार्ट स्पेशलिस्ट के सामने हार्ट अटैक का शिकार हो गया था। और वह हार्ट स्पेशलिस्ट लाख कोशिश के उसे बचा नहीं पाया। शेखर जब मरा तो मुनक्का राय की बाहों में ही था। वह रोते-बिलखते शेखर का शव लिए बांसगांव आए। शेखर की मां पछाड़ खा कर गिर पड़ीं। कई दिनों तक बेसुध रहीं। जवान बेटे की मौत ने उन्हें तोड़ दिया था। मुनक्का राय ख़ुद भी कहते, ‘जिस बाप के कंधे पर जवान बेटे की लाश आ जाए उस से बड़ा अभागा कोई और नहीं होता।’ टूटे फूटे मुनक्का राय बहुत दिनों तक कचहरी नहीं गए।
पर धीरे-धीरे वह संभले। जाने लगे कचहरी-वचहरी। पर शेखर की अम्मा नहीं संभलीं। शेखर की याद में, शेखर के ग़म में वह गलती गईं। फिर पारिवारिक समस्याएं एक-एक कर आती गईं और वह किसी मकान के किसी कच्ची दीवार की तरह धीरे-धीरे भहराती रहीं। गलती रहीं। फिर उन की सुंदर देहयष्टि उन से जैसे बिसरने लगी। रूठ गई। वह बीमार रहने लगीं। रही सही कसर मुनमुन की तकलीफ़, बेटों की उपेक्षा और अचानक आई दरिद्रता ने पूरी कर दी। वह किसी हैंगर पर टंगी कमीज की मानिंद चलता फिरता कंकाल हो गईं। जैसे वह नहीं, उन का ढांचा चलता था। उन की मांसलता, उन की सुंदरता, उन का बांकपन उन से विदा हो गया था। उन की कंटली चाल, उन के गालों के गड्ढे और उन की आंखों की शोख़ी जैसे किसी डायन ने सोख ली थी। तो भी इस मामी का ममत्व दीपक नहीं भूल पाता था। उन के वह सुख भरे दिन याद करता और जब-जब अपने गांव आता मामी के भी चरण छूने ज़रूर आ जाता बांसगांव।
तो इस बार भी आया दीपक बांसगांव। बड़ी देर तक दरवाज़ा पीटने पर धीरे से मुनमुन की मिमियाई हुई आवाज़ आई, ‘कौन?’
‘अरे मैं दीपक!’
‘अच्छा-अच्छा।’ मुनमुन ने पूछा, ‘कोई और तो नहीं है आप के साथ?’
‘नहीं तो मैं अकेला हूं।’
‘अच्छा-अच्छा!’ कहती हुई मुनमुन ने किसी तरह दरवाज़ा खोला। बोली, ‘भइया अंदर आ जाइए।’
दीपक के अंदर जाते ही उस ने तुरंत दरवाज़ा बंद कर लिया। मुनमुन और मामी दोनों के चेहरे पर दहशत देख कर दीपक ने पूछा कि, ‘आखि़र बात क्या है?’
‘बात अब एक हो तो बताएं भइया।’
कहती हुई मामी फफक पड़ीं। बोलीं, ‘बस यही जानो कि मुनमुन का भाग फूट गया और क्या बताएं?’ फिर मामी और मुनमुन ने बारी-बारी आपनी यातना और अपमान कथा का रेशा-रेशा उधेड़ कर रख दिया। सब कुछ सुन कर दीपक हतप्रभ हो गया। उस ने मुनमुन से कहा, ‘अगर ऐसा था तो तुम ने हम को बताया होता मैं चला गया होता शादी के पहले जांच पड़ताल कर आया होता।’
‘कहां भइया आप तो दिल्ली में थे। और फिर मैं ने यहां जितेंद्र भइया से कहा था पर वह भी टाल गए।’ जितेंद्र दीपक का छोटा भाई था और यहीं शहर में रहता था। रेलवे में काम करता था।
‘अच्छा!’ दीपक बोला, ‘ऐसा तो नहीं करना चाहिए था उसे। फिर भी तुम एक बार फ़ोन या चिट्ठी पर हमें बता तो सकती ही थी। और फिर जब शादी में आया था तब भी कह सकती थी।’
‘अब शादी के समय आप भी क्या कर सकते थे?’
‘खै़र, रमेश, धीरज या तरुण को यह सब जो कुछ हो रहा है बताया?’
‘वही लोग जो हम लोगों का ख़याल रखते तो उस पियक्कड़ की हिम्मत थी जो हम लोगों के साथ यह सब करता?’ दीपक के सामने चाय का कप रखती हुई मुनमुन बोली, ‘और फिर जो इतना मेरा ख़याल रखा होता तो यह पियक्कड़ और पागल मेरी जिंदगी में आया ही क्यों होता?’