बांसगांव की मुनमुन / भाग - 2 / दयानंद पाण्डेय

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'क्या इन सब की तरह आप हम को भी जाहिल समझ रहे हैं?' लेक्चरर डपटा, 'यह संभव ही नहीं है। दोनों की उम्र का फ़ासला आप को मालूम भी है? कम से कम दस साल का गैप है। और यह कह रहे हैं कि दोनों इन के क्लसाफ़ेलो रहे हैं, यह भला कैसे संभव है?'

'मैं समझ गया, मैं समझ गया।' खरे साहब ने दोनों हाथ जोड़ कर उस लेक्चरर से कहा, 'देखिए आप की दुविधा भी सही है, और इन का कहना भी सही है।'

'मतलब?' लेक्चरर अचकचाया, 'दोनों ही कैसे सही हो सकते हैं?'

'हैं न?' खरे साहब ने हाथ जोड़े हुए कहा, 'देखिए गिरधारी राय जी जब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी गए तो बहुगुणा जी इन के क्लासफे़लो थे। बहुगुणा जी पढ़ कर चले गए। पर गिरधारी राय जी पढ़ते रहे। पढ़ते रहे। पढ़ते ही रहे कि नारायण दत्त तिवारी जी पढ़ने आ गए। तब नारायण दत्त तिवारी भी इन के क्लासफे़लो हो गए!'

'फिर नारायण दत्त तिवारी पढ़ कर चले गए। और यह पढ़ते रहे।' लेक्चरर ने बात पूरी करते हुए मुंह गोल कर मुसकुराते हुए कहा, 'तो यह बात है!'

'तब?' खरे साहब ने जैसे समाधान का क़िला जीतते हुए कहा, 'मतलब यह कि गिरधारी राय जी झूठ नहीं बोल रहे हैं।' फिर वह ज़रा रुके और अंगरेज़ी में उस से पूछा, 'इज़ इट क्लीयर?'

'एब्सल्यूटली क्लीयर!' लेक्चरर मुसकुराते हुए बोला, 'इन के सच पर तो कोई चाहे रिसर्च पेपर तैयार कर सकता है।'

'मतलब गिरधारी चाचा फ़ुल फ़ेलियर हैं!' एक टीन एजर लड़का छुट से बोला।

'भाग सारे यहां से!' खरे साहब ने लड़के को झिड़का।

बाद में मुनक्का बाबू ने इस पूरे प्रसंग का फुल मज़ा लिया। और गिरधारी राय ने बहुत सूंघा कि कहीं इस सब के पीछे मुनक्का की साज़िश तो नहीं थी? क्यों कि उन को लग रहा था कि इस पूरे प्रसंग में उन का अपमान हो गया है। बाद के दिनों में उन्हों ने मुनक्का बाबू और उन के परिवार को कई पारिवारिक खु़राफ़ातों से तंग किया। फिर तो उन की खु़राफ़ातें गांव के स्तर पर भी शुरू हो गईं। गांव हर बार बाढ़ में डूब जाता था। बांध बनाने की योजना बनी, बजट आया। पर बांध नहीं बना। जिस-जिस के खेत बांध में पड़ते थे उन्हों ने उन में से कुछ लोगों को ऐसे कनविंस किया कि तुम्हारा खेत तो बांध में जाएगा ही, गांव में भी विनाश आ जाएगा। तीन चार मुक़दमे हो गए। बहुत बाद में गांव वालों को गिरधारी राय की खु़राफ़ात और साज़िश दिखी तो उन को समझाया-बुझाया। सब कुछ सुन समझ कर गिरधारी राय बोले, 'दो शर्तों पर बांध बन सकता है। एक तो हमें प्रधान बनवाओ निर्विरोध, दूसरे बांध का पेटी ठेकेदार मैं ही होऊंगा कोई और नहीं।'

गांव वालों ने उन की दोनों शर्तें नामंज़ूर कर दीं। उलटे कुछ लड़कों ने उन्हें एक रात रास्ते में घेर लिया। उन के साथ बदतमीज़ी से पेश आए और धमकाया कि, 'अपना शैतानी दिमाग़ अपने पास रखिए, नहीं ले चल कर नदी में मार कर गाड़ देंगे। पंचनामे के लिए भी लाश नहीं मिलेगी।'

गिरधारी राय डर गए। गांव छोड़ बांसगांव रहने लगे। बांसगांव में उन का परिवार भी था और मुनक्का राय भी। अब वह मुनक्का राय से खटर-पटर करने लगे। पिता ने समझाया भी गिरधारी राय को कि, 'मुनक्का को परेशान मत करो।'

पर गिरधारी राय कहां मानने वाले थे। मुनक्का परेशान हो गए। रामबली राय के पास गए फ़रियाद ले कर और कहा कि, 'मैं अब अपने रहने का अलग इंतज़ाम करना चाहता हूं। आप की इजाज़त चाहता हूं।'

'देखो मुनक्का तख़ता तो तुम्हारा मैं ने पहले ही अलग कर दिया था यह सोच कर कि अब तुम लायक़ वकील हो गए। कब तक मेरे जूनियर बन कर मुझे ढोओगे?' वह बोले, 'पर अभी इतने लायक़ नहीं हो गए हो कि घर से भी अलग कर दूं। कम से कम जब तक हम दोनों भाई ज़िंदा हैं तब तक तो अलग होने की कभी सोचना नहीं। सोचो कि लोग क्या कहेंगे? हां, रही बात गिरधारी से तुम्हारी मतभिन्नता की तो उस का भी मैं कुछ सोचता हूं। और फिर तुम जानते ही हो कि ख़ाली दिमाग शैतान का घर है।'

मुनक्का मन मसोस कर रह गए। लेकिन बीच का रास्ता उन्हों ने यह निकाला कि शाम को कचहरी के बाद ज़्यादातर दिनों में गांव जाने लगे। फिर तो धीरे-धीरे वह गांव से ही आने-जाने लगे। आने-जाने की दिक्क़त अलग थी, मुवक्किलों की अलग। प्रैक्टिस गड़बड़ाने लगी। इसी बीच एक नई तहसील बन गई गोला। रामबली राय ने मुनक्का को बुलवाया और कहा कि, 'देख रहा हूं तुम्हारी दिक्क़त यहां बढ़ती जा रही है। तुम गोला क्यों नहीं चले जाते?'

मुनक्का बांसगांव नहीं छोड़ना चाहते थे। पर अब चूंकि रामबली राय का संकेतों भरा आदेश था तो वे बेमन से गोला चले गए। लेकिन गोला में उन की प्रैक्टिस ठीक से नहीं चली। बच्चे बड़े हो रहे थे और ख़र्च भी। दो ढाई साल में ही वह फिर से बांसगांव लौट आए। रामबली राय भी अब वृद्ध हो रहे थे। पर मुनक्का की प्रैक्टिस शुरू हो गई। उन्हीं दिनों मुनमुन पैदा हुई।

मुनमुन जैसे लक्ष्मी बन कर आई मुनक्का और उन के परिवार के लिए। गृहस्थी की गाड़ी चल क्या दौड़ पड़ी। गिरधारी राय के लिए यह सब कुछ बहुत ही अप्रिय था। ख़ास कर इस लिए भी कि वह भले वकील नहीं बन पाए पर सोचे थे कि बच्चों को वकील बना कर इस की भरपाई करेंगे। ताकि पिता की वकालत की विरासत मुनक्का के हाथ न चली जाए। लेकिन उन का बड़ा बेटा शहर में चाचा गंगा राय के सानिध्य में घनघोर पियक्क्ड़ और औरतबाज़ निकल गया। उस के लिए बी.ए. पास करना ही मुश्किल हो गया। गिरधारी राय में झूठ बोलने, दिखावा करने और तमाम खुराफात और साज़िश करने की बीमारी भले थी पर शराब-औरत वग़ैरह की अय्याशी में वे कभी नहीं पड़े। न वह, न मुनक्का राय।

जो हो बड़े बेटे ने गिरधारी राय का सपना तोड़ दिया था। अब उन्हें दूसरे नंबर के बेटे से उम्मीद बढ़ी। वह पढ़ने लिखने में बहुत तेज़ नहीं, औसत ही था। दो चार बार फे़ल होने के बावजूद उस ने एल.एल.बी. कंपलीट किया। गिरधारी राय की खु़शी का ठिकाना नहीं था। पर गिरधारी राय का यह दूसरा बेटा तहसील में नहीं, ज़िला अदालत मेें प्रैक्टिस करना चाहता था। रामबली राय भी यही चाहते थे। उन्हों ने तर्क भी दिया कि, 'तेली का बेटा तेली ही बने आज के दौर में ज़रूरी नहीं है।' और कि, 'तहसील में अब कुछ नहीं रखा है।' वह ज़िला अदालत या हाई कोर्ट भेजना चाहते थे नाती को प्रैक्टिस के लिए। पर रामबली राय की नहीं चली, नाती की नहीं चली। गिरधारी राय की ज़िद चली।

गिरधारी राय की ज़िंदगी में यह उन की पहली फ़तह थी। अपने दूसरे नंबर के बेटे से उन्हों ने मुनक्का राय को शह दे दी थी। पर मुनक्का राय इस से बेख़बर थे। प्रैक्टिस उन की चटकी हुई थी, यह सब देखने सुनने की उन को फ़ुर्सत कहां थी? उन्हों ने तो फ़राख़दिली दिखाते हुए भतीजे का कचहरी में वेलकम किया और कहा कि, 'चलो कचहरी में हमारे परिवार की ताक़त और बढ़ गई। दो से अब हम तीन हो गए।'

'लेकिन तीन टिकट महाविकट!' एक वकील ने चुटकी ली।

'शुभ-शुभ बोलिए वकील साहब!' मुनक्का राय ने आंख तरेर कर कहा तो वह वकील सटपटा गया। पर गिरधारी राय का यह लड़का ओम जिसे घर में सब लोग ओमई कहते थे बड़ी तेज़ी से मुनक्का राय की घेरेबंदी में लग गया। वह वकालत के पेंच कसना कम सीखता, मुनक्का राय को कहां-कहां और कैसे-कैसे मात दिया जा सकता है, इस के पेंच ज़्यादा ढंूढता। पहले दौर में उस ने मुनक्का राय के कुछ होशियार जूनियर तोड़े। फिर मुंशी तोड़ा। पर इन को ओमई ने तोड़ा मुनक्का राय को इस की भनक नहीं लगी। मुनक्का राय तो अपनी प्रैक्टिस, बच्चों की अच्छी पढ़ाई और सुखी पारिवारिक जीवन में मस्त थे। उधर रामबली राय का स्वास्थ्य बिलकुल साथ नहीं दे रहा था। आखें भी लाचार हो गई थीं। दिखाई कम देता था। अब ज़्यादातर मामलों में वह नाती को राय दे कर मुक़दमे निपटाते। कभी कोई बहुत ख़ास मुक़दमा होता तभी वह कोर्ट जाते। कोर्ट में उन का खड़ा हो जाना ही मुक़दमा जीतने की गारंटी हो जाता। लोग उन्हें चलती फिरती कोर्ट कहते। ओमई उन की इस गुडविल को जितना एक्सप्लाइट कर सकता था, करता।

मुनक्का राय की ज़मीन अब उन के नीचे से खिसक रही थी। उन के पुराने मुक़दमे भी अब ओमई के पास जा रहे थे, नए मुक़दमों की आवग कम हो गई थी। मुनक्का राय का बड़ा बेटा रमेश तब एम.एस.सी. की पढ़ाई कर रहा था और सिविल सर्विस की तैयारी भी। पर मुनक्का राय ने उस से कहा कि, 'अब तुम एल.एल.बी. करो।'

'पर मैं तो सर्विसेज़ की तैयारी कर रहा हूं।'

'सर्विसेज़ छोड़ो।' मुनक्का राय ने स्पष्ट आदेश दे दिया, 'जो मैं कहा रहा हूं, वह करो।'

'पर बाबू जी.......!'

'कुछ नहीं!' मुनक्का राय बोले, 'बाप मैं हूं कि तुम?'

'पर बाबू जी यह एम.एस.सी. तो कंपलीट कर लूं?'

'हां, यह कर लो!'

पिता के इस व्यवहार पर मुनक्का राय का यह बड़ा बेटा हतप्रभ था। क्यों कि अभी तक की ज़िंदगी में पिता ने कभी उस से ऐसी और इस तरह बात नहीं की थी। ख़ैर, रमेश ने एम.एस.सी. मैथ का इम्तहान डिस्टिंक्शन के साथ पास किया और अगले सेशन में एल.एल.बी. में एडमिशन ले लिया। इसी बीच उस का एक बैंक में भी सेलेक्शन हो गया। पर मुनक्का राय ने मना कर दिया। कहा कि, 'जो बात वकालत में है, वह बैंक में कहां?' मुनक्का राय को गिरधारी के बेटे को शिकस्त देने के सिवाय कुछ सूझता ही नहीं था उन दिनों। उन्हें लगता था कि उन का बेटा रमेश ओमई से पढ़ने लिखने तथा तमाम और मामलों में अव्वल है। वह कचहरी में आएगा और आते ही ओमई को पस्त कर के मुनक्का राय का झंडा फिर से लहरा देगा।

इसी बीच गिरधारी का छोटा भाई गंगा राय भी मर गया। उस की मौत को ले कर बहुतेरे सवाल उठे। कुछ लोगों ने संदेह जताया कि प्रापर्टी हड़पने के फेर में गिरधारी राय ने गंगा राय को शराब में ज़हर दिलवा कर मरवा दिया। बाद में लोगों का यह शक और पुख़्ता हुआ जब खेती बारी और अन्य पुश्तैनी जायदाद में गिरधारी ने भाई गंगा राय के परिवार को आधा हिस्सा देने के बजाय कुल 6 हिस्से लगवाए। वह इस हिसाब से कि गिरधारी राय के चार बेटे थे और गंगा राय के दो बेटे। तो 6 हिस्से लगवाए। पिता रामबली राय के जीते जी! रामबली राय इन दिनों पूरी तरह अशक्त हो गए थे सो गिरधारी राय उन से जो चाहते थे करवा लेते थे। गिरधारी राय अब अपने पिता के साथ ज़ुल्मो सितम भी करने लगे। ऐसा लोग दबी ज़बान कहते। छोटे भाई गंगा राय की बीवी मारे डर के अपने दोनों बेटों को ले कर मायके चली गई। उसे बराबर डर बना रहता कि गिरधारी राय पति की तरह कहीं उस के बेटों को भी न मरवा दें। इसी बीच रामबली राय का भी निधन हो गया।

अब गिरधारी राय थे, उन के साथ उन का झूठ, उन की लालच और मुनक्का राय को बात-बात में नीचा दिखाने, अपमानित करने की अदम्य लालसा थी। पिता के मरते ही गांव की जायदाद का बंटवारा करवाया उन्हों ने। मुनक्का राय की सौतेली मां को उन्हों ने मोहरा बनाया। मुनक्का राय का एक सौतेला भाई भी था। वह भी वकील था। पर गुमनामी में जीवन गुज़ार रहा था। उसे भी धो पोंछ कर खड़ा किया गिरधारी राय ने मुनक्का राय के खि़लाफ़। खेती-बारी के बंटवारे में तो पर्ची पड़ गई। जिस को जो हिस्सा मिला ले कर संतोष कर गया। हालां कि गिरधारी राय किचकिचा कर कहते कि, 'सारा किया धरा हमारे बाप रामबली राय का पर भोग रहे हैं श्यामबली राय के पुत्र लोग। और ये मुनक्का!' वह जोड़ते, 'लगता है जैसे रामबली राय का असली वारिस यही हो मैं नहीं!' ख़ैर घर के बंटवारे में काफ़ी कोहराम मचा। गिरधारी को यहां रहना तो था नहीं। उन का पूरा परिवार बांसगांव में था। दो बेटे शहर वाले घर में। शहर वाले और बांसगांव वाले घर में मुनक्का का कोई हिस्सा बनता नहीं था। क्यों कि यह दोनों घर रामबली राय ने अपनी पत्नी के नाम बनवाए थे। समस्या गांव वाले घर में आई। पहले उस का आधा हिस्सा लिया गिरधारी राय ने। फिर मुनक्का के आधे वाले हिस्से को भी दो हिस्सों में बंटवा दिया उन के सौतेले भाई को खड़ा कर के। अब मुनक्का के हिस्से घर का चौथाई हिस्सा आया। जो परिवार पूरे घर में रहता था, चौथाई हिस्से में सिमट गया। तिस पर गिरधारी राय ने दालान से हो कर अपने हिस्से में एक दरवाज़ा भर की जगह फोड़ ली। मुनक्का राय और उन के परिवार ने समझाया भी कि जो घर का मुख्य दरवाज़ा है, वह सब के साझे में रहे तो अच्छा है, और कि उन लोगों को कोई ऐतराज़ नहीं होगा। जब जो चाहे आए जाए। पर गिरधारी राय नहीं माने। बोले, 'ऐतराज़ तो मुझे है। दरवाज़ा जब मेरे हिस्से में नहीं आया है तो मैं उस का इस्तेमाल भी नहीं करूंगा।' और उन्हों ने दरवाज़े भर की जगह फोड़ ली। लेकिन वहां दरवाज़ा नहीं लगाया।

अब दुआर पर से आंगन साफ़ दिखता था। हर आने जाने वाले की निगाह बरबस आंगन में चली जाती। मुनक्का की एक बेटी विनीता जवान हो रही थीं। दो बेटियां और थीं। पत्नी थी। घर की लाज और सुरक्षा दोनों ख़तरे में आ गई। मुनक्का राय ने सारा इगो ताक़ पर रख कर सीधे गिरधारी राय से बात की। गिरधारी राय ने कहा, 'अभी पैसा नहीं है। पैसा होते ही दरवाज़ा लगवा दूंगा।'

'पैसा हम से ले लीजिए।' मुनक्का राय ने हाथ जोड़ कर कहा, 'या कहिए तो हम ख़ुद दरवाज़ा लगवा देते हैं।'

'इतना ही पैसा है तो आंगन के अपने हिस्से में बाउंड्री लगवा लीजिए।'

'सुरक्षा और लाज फिर भी ख़तरे में रहेगी।' मुनक्का बोले, 'बाउंड्री तो कोई भी कूद सकता है।'

'तो पुलिस में रपट कीजिए!' गिरधारी राय बोले, 'आखि़र बड़का वकील हैं आप!'

'देखिए घर की लाज हमारी ही नहीं आप की भी है। विनीता और रीता आप की भी बेटी हैं। मेरी पत्नी आप की भी बहू है। हमारा ख़ानदान एक है। कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गई तो आप का भी सिर नीचा हो जाएगा।'

'ऐसा कुछ नहीं है।' गिरधारी राय अड़े रहे, ' गांव में इतनी किसी की हिम्मत नहीं है जो हमारे ख़ानदान को आंख भी उठा कर देखे। आंख नोच लूंगा। सिर काट दूंगा।'

'पर दरवाज़ा नहीं लगाएंगे!'

'कहा न पैसा होते ही लगवा देंगे।'

'तो पैसा होने पर ही दरवाज़ा फोड़े होते।'

'आप हमारे एडवाइज़र तो हैं नहीं कि हर बात पर आप से सलाह ले कर ही हम कुछ करें। न हमारे बाप हैं!'

बाद में मुनक्का राय ने कुछ पट्टीदारों रिश्तेदारों को भी बीच में डाला। सब ने समझाया। पर गिरधारी राय का सब को एक ही जवाब था, 'पैसा होते ही लगवा देंगे दरवाज़ा!' और पैसा किसी से लेने को वह तैयार नहीं हुए। हार मान कर मुनक्का राय ने आंगन में खपरैल से भी ऊंची बाउंड्री करवाई। पर एकाध कुत्ते फिर भी बाउंड्री कूद आते। एक बार दो चोर भी कूदे। मुनक्का राय ने अंततः बांसगांव में एक मकान किराए पर लिया। और परिवार शिफ़्ट किया। चटकी प्रैक्टिस पुटुक गई थी। बच्चे पढ़ रहे थे। ख़र्चा बढ़ गया था। जब प्रैक्टिस चटकी हुई थी तब कुछ बचत की नहीं। दोनों हाथ कमा रहे थे तो चारो हाथ ख़र्च कर रहे थे। हां, मुनक्का की पत्नी ने भी पैसे को पानी ही समझा और मान लिया था कि नदी में जो बाढ़ आई है, कभी जाएगी नहीं। पर बाढ़ तो चली गई थी। एक-एक पैसे की मुश्किल होने लगी। जो जूनियर और मुंशी ओमई तोड़ कर ले गया था, वह जूनियर और मुंशी पुराने मुवक्किल भी तोड़ रहे थे। ख़ैर, इसी आपाधापी में बड़े बेटे रमेश ने एल.एल.बी. पूरा कर लिया। और पिता से इच्छा ज़ाहिर की कि अभी भी वह सिविल सर्विस की आस नहीं छोड़े है। दो बार प्रिलिमनरी में वह आ भी चुका था इस बीच। पर मुनक्का राय ने कहा कि, 'अब जो होना था हो गया। प्रैक्टिस शुरू करो और मेरा बोझ कम करो।'

'तो मैं इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करना चाहूंगा, अगर आप इजाज़त दें तो।' रमेश ने पिता से अनुनय किया।

'हाई कोर्ट?' मुनक्का राय भड़क गए, 'पांच साल तक भूजा भी नहीं खरीद पाओगे दो रुपए का। एक पइसा नहीं मिलेगा। उलटे हमसे ही ख़र्चा मांगोगे वहां रहने- खाने के लिए।'

'तो चालिए शहर में कम से कम डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में तो यह दिक्क़त नहीं रहेगी?'

'वहां भी कम से कम दो साल-तीन साल एक-एक पैसे के लिए तरसोगे।'

'तब?'

'हमारे साथ यहीं बांसगांव तहसील में डटो और ई ओमई सारे की छुट्टी करो!' वह बोले, 'अब ई हमारी नहीं तुम्हारी लड़ाई है। उस से ज़्यादा पढ़े लिखे हो, उस से ज़्यादा होशियार हो!'

'कहां मेरी ज़िंदगी नष्ट करना चाहते हैं बाबू जी?'

'कुछ इफ़-बट नहीं करो।' मुनक्का राय रमेश को पुचकारते हुए बोले, 'अब मैं फ़ैसला कर चुका हूं।'

इधर रमेश ने प्रैक्टिस शुरू की और उधर मुनक्का राय ने उस की शादी तय कर दी। रमेश अभी नहीं-अभी नहीं करता रहा और मुनक्का ने उस की शादी कर दी। दूसरा बेटा धीरज भी अब तक एम.एस.सी. में आ गया था। मुनक्का राय चाहते थे कि वह भी एल.एल.बी. कर ले और बांसगांव कचहरी में वह भी आ जाए। पर वह रमेश की तरह पिता की बातों में नहीं आया। एम.एस.सी. कंपलीट कर वह एक कालेज में लेक्चरर हो गया। इधर रमेश बांसगांव में पिता का बोझ बांटने भले उन के कहे पर आ गया था पर वह कारगर साबित नहीं हो पा रहा था। तहसील की वकालत के लिए जो थेथरई, जो कुटिलता और कमीनापन वांछित था, वह उस में रत्ती भर भी निपुण नहीं था, न ही वह इस का प्रशिक्षण लेना चाहता था। कचहरी में तारीख़-वारीख़ लेने का भी वह क़ायल नहीं था। केस हारे चाहे जीते वह मेरिट पर ही लड़ता। और नतीजतन केस हार जाता। वह मारे शेख़ी में बोलता भी, 'मैं तो वन डे मैच खेलता हूं, हारूं चाहे जीतूं इस की परवाह नहीं।' वह कचहरियों में अपनाए जाने वाले ट्रिक से नफ़रत करता। मुनक्का राय ने उसे एकाध बार समझाया भी कि, 'यह कचहरी है; कोई क्रिकेट का मैदान नहीं। यहां दुर्योधन, अर्जुन, युधिष्ठिर-शकुनी सभी चालें चलनी पड़ती हैं। साम, दाम, दंड भेद के सारे हथकंडे आज़मा कर ही कोई सिद्ध और सफल वकील बन पाता है। होता होगा तुम्हारी मैथ में दो और दो चार। पर यहां तो दो और दो पांच भी हो सकता है और आठ या दस भी। शून्य भी हो सकता है। कुछ भी हो सकता है।' वह बताते कि, 'कचहरी में बातें मेरिट से नहीं क़ानून से नहीं, जुगाड़ और ट्रिक से तय होती हैं।'

पर रमेश को बाबू जी की यह सारी बातें नहीं सुहातीं। बाप बेटे दोनों की प्रैक्टिस खटाई में थी। ओमई दोनों की वकालत पर सवार था। कचहरी में ओमई, समाज में गिरधारी राय। बाप बेटे दोनों मिल कर मुनक्का बाप बेटे का जीना हराम कर रखे थे। गिरधारी राय के उकसाने में मुनक्का राय के मकान मालिक घर ख़ाली करने को कह देते। तीन साल में चार मकान बदल कर मुनक्का राय परेशान चल ही रहे थे कि एक मुवक्किल को भड़का कर ओमई ने मुनक्का राय और रमेश राय दोनों की पिटाई करवा दी। विरोध में वकीलों की एसोसिएशन आई। दो दिन कचहरी में हड़ताल रही। पिटाई करने वाला मुवक्किल गिरफ़्तार हुआ तो हड़ताल टूटी। अख़बारों में ख़बर छपी। जिस को नहीं जानना था, वह भी जान गया कि मुनक्का बाप बेटे पिट गए।

मुनक्का के घर में भी खटपट शुरू हो गई थी। रमेश की अम्मा और बीवी में अनबन रोज़ की बात हो चली थी। अंततः आजिज़ आ कर मुनक्का राय ने रमेश को गोला तहसील शिफ़्ट होने को कह दिया। जैसे कभी रामबली राय ने मुनक्का को शिफ़्ट किया था। बांसगांव में तो मुनक्का राय की छांव में रमेश को रोटी दाल की चिंता नहीं करनी पड़ती थी। गोला में रोटी दाल की भी दिक्क़त हो गई। हार कर रमेश की पत्नी जो सोशियालाजी से एम.ए. थी, ने एक नर्सरी स्कूल में पढ़ाना शुरू किया तो किसी तरह खींचतान कर गृहस्थी चल जाती। अब रमेश के एक बेटा भी हो गया था। पर रमेश न बेटे को देख पाता था, न अपने आप को। गोला कचहरी में भी उस की क्रांति मशहूर हो चली थी। वह विद्रोही वकील मान लिया गया था। लोग उस से कहते कि, 'यार यह तहसील है!' तो वह कहता, 'क्या तहसील में क़ानून और संविधान काम नहीं करता?' वह पूछता, 'अगर ऐसा ही था तो फिर हम लोगों को क़ानून पढ़ कर यहां आने की क्या ज़रूरत थी? किसी मुंसिफ़ या एस.डी.एम. को भी यहां आने की क्या ज़रूरत थी? ये वकीलों के मुंशी और कचहरियों के पेशकार ही जब कचहरी चला लेते हैं।' लेकिन उस की कोई सुनने वाला नहीं था। धीरे-धीरे वह क्रांतिकारी से विद्रोही और फिर पागल और सनकी वकील मान लिया गया।