बांसुरी-वादक / गोपाल चौधरी
तारा देवी वाले पहाड़ से दिखते मध्य एवम उच्च हिमाल्य के बर्फीले पहाड़! उनके मध्य में स्थित मनोरम घाटी के बीच बीते वह तीन घंटे! अब तक मुझे प्रेरित करते होते। जीवन को नए परिप्रेक्ष्य में जीने के लिए। जैसे अस्तितव ने नए सूत्र दिये हों: मैं एक बांसुरी हूँ!
और बस यही बना रहा हूँ। बांसुरी जिसे बजाने वाला वही जीवन शक्ति है! अलग-अलग नाम से जाना जाता है! अपना धर्म और कर्म तो बजना है। चाहे जैसे भी सुर निकले, गीत संगीत बजे या कोई जीवन तांडव! बस बजते रहो। बांसुरी की तरह!
कुछ दिन बड़े ही अच्छे बीते। पर देखते-देखते जीवन परिदृश्य तेजी से बदलने लगे। वह बजने वाली बांसुरी खुद ही बजाने वाली बन बैठी! कब, कैसे और क्योंकर, पता ही नहीं चल पाया! वह द्रष्टा जो तारादेवी में मिला, कब दृश्य बन गया! खबर तक भी नहीं हुई। यहाँ तक कि खुद को भी नहीं! और जीवन के दृश्य तीव्र गति से भागने लगे! और भगाते भी रहे! इधर उधर, यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ! फिर कहीं नहीं। कभी भी नहीं। द्रष्टा दृश्य में ही खो गया!
नौकरी मिलने के बाद शादी की काशमश शुरू हो गई। जबकि शादी नहीं करना चाहता। पहले ही सभी से प्रेम करने के चक्कर में किसी का भी प्यार नहीं मिल पाया था। जिससे प्रेम किया वह मिली नहीं। जिसने मुझसे किया उसको भी नहीं मिल सका! इस तरह प्रेम की असफल शृंखला कब जीवन शृंखला में शामिल हो गयी, पता नहीं चला।
पर जब सामना जीवन की सचाई से हुआ, तो फिर वही सब कुछ हुआ जो होते आया है! हो कर भी न होना और न होते भी होना-सा लगता हुआ। एक बात और जो शायद मेरे साथ ही होता आया है। शायद औरों के साथ भी होता हो! या हुआ हो! पर मेरे लिए एक पहेली से कम नहीं।
यूं कहें प्यार का दुख भरा सुखांत! या दुखांत का सुख भरा प्रारम्भ! कामेडी कम पर दुखांत टुकड़े कुछ ज्यादा ही बिखरे पड़े मिलते हुए! जब-जब जिसकी भी चाहत उठी, तब-तब कुछ ऐसा हुआ कि प्रेम सफल नहीं हो पाया। जब-जब किसी लड़की से प्रेम के इरादे से दोस्ती करनी चाही। ऐसा कुछ हो जाता: उससे बात नहीं बन पाती। वैसे तो प्रेम करनेवाले यार और दोस्त मिलते ही रहे है! पर जब कामना जागी किसी की, चाहत उठी जिसकी, वह नहीं मिल पायी।
ऐसी बात भी नहीं है कि केवल मेरे साथ ही हुआ। ऐसा अक्सर होता रहा है लोगों के साथ भी: जो चाहते हैं, वह मिलता नही और न चाहते मिले हुए अनचाहे को जीना पड़ता है! कही यही जीवन कि सच्चाई तो नहीं! विरोधभास-सी लगती हमारी जिंदगी ही तो जिंदगी न हो कहीं! शायद जीवन, अस्तित्व का कोई इशारा छुपा होता हुआ हो! शायद बहुत अहम होता है। पर चाहे को न मिलने और अनचाहे को चाहने की जद्दोजहद में जिंदगी बेमानी हो जाती है। एक तरह की लड़ाई शुरू हो जाती है हमारे अंदर और बाहर भी।
इसी बीच एक हादसा हो गया। पत्रकारिता संस्थान के मिश्रा जी, जो हमारे साथ थे, ने शादी कर ली, अरेंज्ड शादी। माता पिता की पसंद से। उससे शादी नहीं कर पाए जिससे प्रेम करते। पर जिससे से शादी की उसे चाह नहीं सके और उससे सम्बंध बिगड़ते गए। और मार पीट भी होने लगी। शक-सुबा, दारू और यहाँ तक की हाथापाई भी हो जाती! और बस एक दिन मार पीट में मिशराजी का देहांत हो गया। एक दो को छोड़ कर सारे राष्ट्रीय समचारपत्रों का फ्रंट पेज हैड्लाइन्स भी बना था।
सुन कर बहुत दिनों तक मन खराब रहा। कुछ दिनों तक शादी का फैसला टल गया। पर कितने दिनो तक टल सकता था। धीरे-धीरे शादी की वास्तविकता जरूरत बनती गई। हजारों साल से चली आ रही वैवाहिक संस्था। इसकी अहमियत को नकारा जा सकता है भला! इसके साथ व्यक्तिगत स्तर पर इसकी जरूरत महसूस होने लगी थी और फिर एक दिन शादी हो गई।
पर शादी के होने के पहले तथा उसके बाद की स्थिति! जैसे जमीन आसमान का फर्क। इतने अजीब कि विश्वास ही नहीं होता! यह जीवन का अहम हिस्सा भी है! इतना की हरेक कोई अधूरा होता है शादी बिना। पर इसके दहेजीकरण, जातिकरण और एक तरह से व्यापार बनना कितना गलत है। एक तरह से ही नहीं कई मायनों मे। समाज-परिवार के रिश्ते और मूल्यों को ह्रास और विघटन की ओर ले जा रहा है। कैसे-कैसे यातना परक अहसासों और स्थिथितियों-परिस्स्थितियों, अजीबोगरीब चलन और रिवाजों का सामना हुआ।
वैसे भी तो अमानवीय और क्रूर दहेज व्यवस्था की बलिवेदी पर अनगिनत बेटियाँ, बहुएँ, बहने जलती रही हैं। कितनी ही जल गई और न जाने कितने को जला दी गईं। फिर दहेज की अग्नि बुझी नहीं है। अभी भी जल रही है।
दहेज विरोधी तो हमेशा से रहा। पर समाज दहेज न लेने वाले के बारे में पहले ही मान कर चलता है: कुछ ऐब होगा। कुछ कमी होगी तभी विरोध हो रहा है। समाज सुधारक बन रहा है! पर दहेज बाज़ार में अपना रेट बढ़ने लगा। अब इसकी मांग और आपूर्ति शृंखला होती तो है एकांगी। दहेज लेने वाले की क्षमता है: कितना लूट सके लड़की वालों से और लड़की वाले लुटवा सके।
पर हम भी कम नहीं निकले किसी से! इस दहेज व्यवस्था के सारे मोहरों और प्यादो को उलट पुलट कर दिया और अपनी पसंद की लड़की और अपने आदर्श-अंतरजातिय विवाह कर लिया। उसकी गूंज बहुत दिनों तक सुनाई पड़ती रही।
खैर, शादी होते ही बच्चे भी हो गए और शिमला से वापिस दिल्ली आना पड़ा। एक दुर्घटना के कारण और दिल्ली आना, वह भी गर्मियों में और उसपर शिमला जैसे ठंडे और कूल सिटी से। ये शायद प्रकृति का सम करने का काफी संदेहजनक कार्य लगता! तभी तो शिमला भी गया जनवरी मे। जिस दिन शिमला आया था दिल्ली से, उस दिन खूब बर्फ गिरी और मैं डर गया था। पहली बार बर्फ गिरते जो देख रहा होता!
और शिमला से वापिस दिल्ली आना भी हुआ तो मई मे! उसके अगले दिन जब मीरा बाग के बैंक से निकल रहा था, तब दिल्ली की गर्मी, ट्राफिक और भीड़ देख कर लगा: कैसे कटेगी जिंदगी! वही शहर है! जो कभी सपनों का शहर हुआ करता जब मैं पटना से आया था। पर शिमला से आने के बाद यहाँ जिंदगी पहाड़-सी मुश्किल दीखने लगी।
पर धीरे-धीरे दिल्ली में समंजित होने लगा। नौकरी भी ठीक से चलने लगी। पर फिर से बोरियत का अहसास होने लगा। अब उस खोज को, जो बचपन से शुरू होकर, दिल्ली के जे एन यू में घनीभूत हुई, शुरू करने का समय आ गया था शायद।
जे एन यू में दो तीन मुद्दों और उनके कारणों पर कुछ काम किया था। कुछ ऐतिहासिक, वैशविक एवम संस्थागत कारणो को चिन्हंकित किया था। पर कुछ स्पष्टता न आ पा रही थी। हमारी समस्या भी इतनी जटिल है कि इनका निवारण उतना ही जटिल है जितना की विश्लेषण। उस पर सैद्धांतिक बहुतायता तथा सिद्धांतों के भीड़ जो समस्या को कम देखते होते, अपनी व्यक्तिगत और संस्थागत हदों और बंधनों से जकड़े ज्यादा होते।
अगर सच पूछे तो, दिल्ली से शिमला गया था सिर्फ यह तय करने मैं क्या करना चाहत हूँ। अब जब पता चल गया था कि क्या करना है। उनको जीने की कोशिश करने लगा। नौकरी के साथ वह खोज भी चलती रही। जमीनी स्तर पर-मुहल्ला, क्षेत्रीय और स्थानीय मुद्दों के जरिये औपनिवेशिक व्यवस्था की विद्रूपता का पता चलता रहा। यह भी पता चलता रहा कि किस तरह इनके तार ऊपर तक जाते। ये सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक गोलबंदी के परिणाम लगते होते।
धीरे-धीरे पता चलने लगा: औपनैवेशेविकवाद अभी भी पूरी तरह से हावी है। चाहे वह छिपा हो, जुमलो और आधुनिक अवधाराणाओं के बीच! जड़े तो खोखली करता आ रहा है पहले की ही तरह। औपनेवेशिकवादी शक्ति ने जो राजनीतिक और सामाजिक 'एलीट' तैयार किया था। और जिनको सत्ता दिया था देश छोड़ने के पहले, उन्होने उन संस्थाओं एवम मूल्यों को बड़े चालाकी से प्रतिरोपित कर रखा है: इनका पता भी नहीं चलता।
सत्ता हांस्ततारण हुआ। एक विदेशी लुटेरी सत्ता और उसके सारे कानून, संस्था, मूल्य देशी शासकों के पास चले गए। इसे आज़ादी का नाम दिया गया। पर औपनोवेशिक लूट और शोषण जारी रहा। उनके कानून, धारा, एक्ट! यहाँ तक की पूरी लूट की संस्कृति को जनता की सेवा में लगा दी! ताकि लूट और शोषण का सिलसिला जारी रहे और इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ जब हमने जमीनी स्तर पर काम करना शुरू किया।
एक बार अगर कोई जन प्रतिनिधि चुन लिया जाता और सरकारी कर्मचारियों का चयन हो जाता उसके बाद उनपर प्रभावकारी नियंत्रण नहीं रह पाता। वे सेवक नाम मात्र के होते है! असल काम तो शासन का है! विपक्ष और सतर्कता संस्था इन पर कोई ठोस और प्रभावी नियंत्रण नहीं रख पाती। न कोई निश्चित जवाबदेही न जिम्मेवारी! बस अबाध शक्ति और सत्ता का अबाध प्रयोग! बिना किस जिम्मेवारी के। यही मूल है नव-उपनिवेशवाद व उपनिवेशवाद का
इस दिशा में खोज और शोध शुरू कर दी। एक ऐसी संस्था या व्यवस्था जो-जो इन पर प्रभावी निगरानी और नियंत्रण रख सके।
उस समय राजनीतिक औडिटिंग की चर्चा भी चल रही होती। अकादमिक और गैर-अकादमिक क्षेत्रों में भी इस पर चर्चा हो रही होती। पर अभी यह प्रारम्भिक दौर में ही था। अवधारणा के स्तर पर ही। उसका प्रारूप अभी बनना ही शुरू हुआ था कि पापा का देहांत हो गया।
पापा के देहांत का बाद तो जिंदगी मानो ठहर-सी गई हो। ऐसा लगा जैसे सबकुछ खत्म हो गया। पर पापा के जाने के एक सप्ताह के अंदर ही बेटी रत्न की प्राप्ति हुई। जीवन के आवागमन, इसकी क्षणभंगुरता के बीच इसके निरंतरता का अनुपम उदाहरण दिया अस्तित्व ने! बेटी का जन्म और पापा का जाना मानों एक ही जीवन शृंखला का तार्किक प्रतिफलन हो!
जो आता है वह जाता भी है है। पर किसी न किसी रूप में आता भी। कुछ तो है अस्तित्व के स्तर पर जो बना रहता है। इन सारे आवागमन, उठा पटक, भागमभाग और आपा धापी के बीच!
बेटी के होने पर मुझे इतनी खुशी मिली जितनी याद नहीं! क्योंकि ऐसी खुशी पहले नहीं मिली। पर याद नहीं इतनी खुशी कभी मिली हो जितनी बेटी का पिता बनाने पर। पापा के जाने के तुरंत बाद इतनी बड़ी खुशी! विश्वास ही नहीं हो रहा होता। कभी-कभी ऐसा लगता जैसे पापा के साथ न्याय नहीं कर पा रहा हूँ! फिर ऐसा लगता, कहीं पापा ही तो मेरी बेटी के रूप में तो नहीं आ गए!
तभी तो ऐसा लगता जैसे पापा का देहांत हुआ ही नहीं! कुदरत, अस्तित्त्व भी कैसे-कैसे खेल खेलाता रहता है! कभी तो खुशी-खुशी नहीं लगती। मजबूरन खुश होने का नाटक करना पड़ता है। कभी चाह कर भी खुशी नहीं मिलती, तो कभी बिना वजह खुशी और आनंद की बारिश होने लगती है। और कभी ऐसे ही सब कुछ बुझा बुझा-सा लगता है। छोटी-सी वजह से मन दुखी हो जाता है। कभी बड़ा दुख भी वैसा कुछ नहीं लगता, तो कभी बड़ी खुशी भी खुशी नहीं लगती!
पहली बार बेटी को गोद में लिया! वह सुख मिला वैसी अनुभूति मिली जो शायद ही शब्दो में समा पाए! उसने पूरे एक घंटे तक दुनिया भर की बातें की। पता नहीं किस-किस दुनिया की अनेक भाषाओं मे। विचित्र-सी आवाजें निकाल-निकाल कर: कभी किलकारियाँ, तो कभी चीख चिल्ला कर। उस पूरे एक घंटे में नन्ही-सी बिटिया ने न जाने कितने जन्मों की कहानी कह डाली मानो! पर समझ नहीं पाया। उसने तो समझाने की भरपूर कोशिश की। अपनी भाषा मे। अब यह साबित हो चुका है कि बच्चों की अपनी भाषा होती है। वे तो समझाने कि कोशिस करते हैं, पर हम समझ नहीं पाते हैं।
बेटी के आते ही पापा के जाने का गम काफ़ूर हो गया-सा लगा। घर तो क्या पूरे जीवन की बगिया महकने लगी। पर पत्नी को किसी पाखंडी पंडित ने बताया की बेटी का 24 तारीख को जन्म होना अशुभ है। यह हरेक चौबीस दिन पर कोई न कोई मुसीबत लाएगी? पत्नी बहुत चिंतित थी। मैंने उसे समझाया यह पुरुष प्रधान समाज का नारी पर अंकुश लगाने के कई हाथ कंडो में से एक है। बेटी का आना अशुभ है, वह अपवित्र है, अबला है।
समाज-पितृसत्तातमक—इसी तरह के हथकंडों से औरतों को दबा कर रखता रहा है! उन्हे बताया जाता रहा है: तू लड़की है, कमजोर है; अपवित्र है, अशुभ है। इस तरह की हीन ग्रंथियों को उन में भरा जाता है। बचपन से ही। ताकि उनको दबाना, उन पर नियंत्रण रखना आसान हो सके। इस तरह बेटीयाँ पैदा नहीं होती! बल्कि बनाई जाती है जैसा कि सिमोन दी बौवा ने बहुत पहले ही बोल दिया था: औरतें पैदा नहीं होती, बनाई जाती है!
माँ-बहनो को कहा जाता: तुम औरत हो। इस लिए ये हो, वह हो, ये कमी; उस मामले में अपवित्र और इस मामले में अशुभ, तो उस मामले में कमजोर! जैसे बेटियों के संदर्भ में किया जाता रहा है। पर हकीकत है: ये सब हथकंडे हैं औरत पर नियंत्रण रखने का। बचपन से उन्हे मानसिक व शारीरिक रूप से कमजोर किया जाता है। पर हमने तय किया कि बेटा-बेटी में कोई फर्क नहीं करेगे। उनको बराबरी का अधिकार और सम्मान देंगे।
बेटी के होने की खुशी में पापा के देहांत का गम भूलने ही लगा था कि माँ गुजर गई। इस बार तो ऐसा टूटा की कई सालों तक अपने बिखरे वजूद को चुनता रहा। जीने की इच्छा एक संघर्ष-सी लगने लगी। जीवन की निस्सारता और क्षणभंगुरता का पहली बार अहसास हुआ। ऐसा कहा गया है कि अस्तित्व या भगवान या प्रकृति माता-पिता की मृत्यु के द्वारा पुत्र-पुत्रियों को जीवन की नश्वरत और क्षणभंगुरता का अहससस दिलाता है। ताकि वे इसे समझ कर जीवन को उसके पूरेपन में जीएँ!
मैं भी धीरे-धीरे अध्यात्म की ओर झुकने लगा। गीता का फिर से अध्ययन करने लगा। उद्धव-गीता में कृष्ण-उद्धव संवाद पढ़ते समय एक पैरा मेरे जीवन का आप्त वाक्य बन गया। उस पैरे का यह सार है कि अपने माँ-बाप की मृत्यु से बच्चों को जीवन की क्षणभंगुरता और निस्साररता का पता लगता है और उन्हे इससे सीख ले कर जीवन को उसके सही परिदृश्य में जीना चाहिए।
इस तरह मैं फिर से जुट गया जीवन को नए सिरे से जीने मे। पर बिखरे जीवन की बिखरी चिन्दियाँ चुनने में काफी परेशानी हुई। रोज़मर्रे के जिंदगी के साधारण क्रिया कलाप और गतिविधियाँ भी बेमानी-सी लगती। पारिवारिक और घरेलू मामलों से भी कुछ विरक्त-सा हो गया लगता। जी रह था बस इसलिए कि जीना पड़ता है! साँसे चल रही थी। परिवार था, बेटी थी, बेटा था। अपने लिए न सही, इनके लिए ही तो जीना था।