बाइज़्ज़त बरी / उमेश मोहन धवन
बम धमाकों के आरोपी जिन चार लोगों को कोर्ट ने सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था उन्हीं में से एक से मैं अपने अखबार के लिये इंटरव्यू लेने उसके मोहल्ले में पहुँचा। किसी ने नीम के पेड़ के नीचे सो रहे एक आदमी की तरफ इशारा कर के बताया। मैने उसे जगाया और उससे उसका नाम पूछा “तुम्हारा नाम ?”“मेरा नाम चौदह जीरो ग्यारह” “ये कैसा नाम है ?” “मैं पिछले ग्यारह साल जेल में बंद रहा। वहाँ सब मुझे इसी नाम से पुकारते थे। मुझे तो अपना नाम तक भूल गया” “कितनी खुशी की बात है कि तुम बम धमाकों जैसे गंभीर आरोपों से बाइज़्ज़त बरी हो गये। तुमको बरी होकर कैसा लग रहा है ?“समझ में नहीं आता साब कैसा लग रहा है। ग्यारह साल पहले मेरी इस मोहल्ले में एक दर्जी की दुकान थी। एक किराये का घर था जिसमें मेरी बीवी और मेरा लड़का मेरे साथ रहते थे। एक दिन रात को पुलिस आयी और शहर में हुये बम धमाकों के जुर्म में मुझे पकड़कर ले गयी। पुलिसवालों ने मुझसे जबरदस्ती जुर्म कबूलवाने के लिये मार मार कर मेरी वो उँगली तोड़ दी जो कपड़े पर ऐसे दौड़ती थी जैसे सड़क पर गाड़ी। मेरी बीवी कुछ दिनों तक तो जेल में मुझसे मिलने आती रही पर बाद में पता चला कि बिना पैसों के वो अपनी बीमारी के कारण मर गयी। लड़का भी काम की तलाश में किस शहर में चला गया कुछ पता नहीं। तीन दिन से भटक रहा हूँ। अब मुझे ना तो यहाँ कोई रहने की जगह दे रहा है ना ही कोई काम। लोग कहते हैं कि मैं आतंकवादी हूँ। जेल में कमाये पैसे कितने दिन चलेंगे। आप ही कुछ काम धंधा दिला दो ना साब। नहीं तो मुझे फिर से उसी जेल में वापस डलवा दो” इतना कहकर वो रोने लगा। मैं उससे और ज्यादा कुछ ना पूछ सका। मैं ये सोच रहा था कि अगर ये हाल बाइज़्ज़त बरी होने वालों का है तो सजायाफ्ता लोगों का हाल कैसा होता होगा।