बाक़ी बचे आठ दिन-2 / शमशाद इलाही अंसारी
भाग दो
जिन्ना और गांधी दोनों की तसवीरें एक साथ अपने घर की बैठक में लगाने पर तो आये दिन कोई न कोई विवाद होता ही रहता, पर मास्टर जी अपनी बात को हर बार बडी मज़बूती से रखते. वो कहते ‘मैं कांग्रेसी जिन्ना का प्रशंसक हूँ लीगी जिन्ना का नहीं’, और तो और लीगी़ जिन्ना को वो गांघी जी की जवानी की भूल बताते. वो अक्सर कहते यदि गांघी जी जिन्ना को काग्रेंस में समुचित स्थान दे देते तब न लीग बनती न पाकिस्तान. जिन्ना की सफ़ाई पसंदगी के वे बेहद कायल थे, और खु़द भी सफ़ाई बहुत पसंद करते.
धर्म और विग्यान के बीच जब भी बहस छिड़ती, मास्टर जी हमेशा विग्यान का पक्ष लेते और किसी अनुत्तरित स्थिति उत्त्प्न्न होने पर कहते ‘देखो भाई, धर्म का इतिहास ४००० वर्ष पुराना है, विग्यान धर्म कि अपेक्षाक्र्त अभी बच्चा है, आने वाले कल में विग्यान उन सभी प्रश्नों का उत्तर ज़रुर देगा जो प्रश्न अभी अनुत्तरित है, आखिर विग्यान ने पिछ्ले १००-१५० वर्षों में अंधकार और अग्यान के बहुत बडे़ भाग का भाडा़फोड़ किया, बचा खुचा जो रह गया है उसका भी समाधान जल्द ही होगा, बस थोडी प्रतीक्षा कीजिये’..
मास्टर जी जटिल से जटिल प्रश्नों का उत्तर बडे़ सहज और सरल ढंग से प्रस्तुत करते, उनका जीवन भी सहजता और सरलता की एक ज़िन्दा मिसाल थी.
बीबी जल्द ही नश्ता तैय्यार करने में जुट गयी थी. आज जुमे के दिन मास्टर जी कुछ जल्दी ही तैय्यार हो गये थे. साफ़ धुले कपडे़ पहन कर नाश्ता करते करते कोई १० बज चुके थे..अपने कमरे से बाहर निकलते हुये मास्टर जी ने बीबी को बताया,...‘मैं ३-४ बजे तक लौटूंगा..हैदर हास्टिल जा रहा हूं’.
बताए वक्त के मुताबिक मास्टर जी शाम को वापस आये, थोडा बहुत आराम करके, मकान के मुख्य द्वार पर लगी द्वार पटिका में काला रंग भरने लगे, ‘स्मन्यव’ कुछ समय से फीका पड गया था. मास्टर जी ने उसमें काला रंग भर कर गहरा कर दिया. उधर इक़बाल को बुला कर बीबी ने सारे घर की सफ़ाई भी करवा दी थी और उसे लानतें अलग से दीं.
मास्टर जी का रोज़ सुबह जल्दी तैय्यार होना और किसी न किसी जगह जाना, शाम को वापस लौट कर आने का ये अचानक शुरु हुआ सिलसिला पूरे हफ़्ता भर चला. उनकी चुस्ती फ़ुर्ती को देख बीबी और आशा भी चकित थी. आशा ने तो एक दिन कह भी दिया..‘ पापा..आप पर तो फ़िर से जवानी आ गयी है, रोज़ ऐसे तैय्यार होते हैं जैसे दस साल पहले स्कूल जाते वक्त हुआ करते थे..एक बार फ़िर वही दिन चर्या बना ली है आपने..’
मास्टर जी ने आशा की बात सुनकर बस अपनी मुस्कुराहट से ही जवाब दिया था, बोले कुछ न थे.
आज फ़िर जुमे का दिन था. मास्टर जी आठ बजे तक नहा धो कर तैय्यार हो चुके थे. आशा कोई आधा घन्टा पहले ही अपने कालिज जा चुकी थी. गुज़री रात वो खूब देर तक बौध्य्या से इन्टेरनेट पर अमेरिका बात करती रही थी, मास्टर जी ने टोकते हुये याद दिलाया था.."अभी सो जा आशा, एक बज गया है, कल सुबह कालिज नही जाना क्या?"
"जी पापा, बौध्य्या बाजी ओन लाईन हैं, आपको सलाम कह रही हैं" आशा बोली थी.
बीबी वक्त पर नाश्ता रख आयी और मास्टर जी ने नाश्ता कर भी लिया, लेकिन आज अभी तक, कहीं जाने के लिये अपने कमरे से बाहर नहीं आये... किचन में काम करती बीबी के ज़हन में ये सवाल आया और चला गया. जैसे ही मसरुफियत कुछ कम हुई, फिर बीबी के ज़हन में इस सवाल ने गर्दिश की.
बीबी इस बार सीधे मास्टर जी के कमरे में झांक कर देखने के लिये गयी, बीबी ने देखा कि मास्टर जी औधें मूंह करवट लिये बिस्तर पर पडे़ थे. बीबी ने सोचा कि आंख लग गयी, सो गये शायद पर बीबी को बेचैनी हुई, अलकसा कर हल्की सी आवाज़ दी..मास्टर जी...मास्टर जी...
मास्टर जी ने जब कोई हरकत नही की, बीबी उनके बिस्तर के पास पहुंच कर मास्टर जी का हाथ हिलाने लगी तो उनका शरीर एक तरफ़ लुढक गया..
मा...स्ट....र ...जी, मा.....स्ट......र.... जी, भ....ई.....य्या........... बीबी उर्फ़ फूफी पूरी ताक़त लगाकर चीख़ पडी़. फूफी का क्रदन पूरे पडौस में पसरे सन्नाटे को चीर गया. पडौस के लोग धडाधड घर में आये तो पता चला कि मास्टर जी जा चुके हैं.
लोग कहते हैं, फूफी न तब रोयी थी जब वह बेवा हुई थी और न तब रोयी जब उसका बेटा गुजरा था. मास्टर जी की मौत पर वह बिलख-बिलख कर बार-बार किसी अनाथ बच्चे के जैसी रो रही थी. मौह्ल्ले की औरतों ने आशा को फो़न किया. वह जल्दी ही आ गयी. अपने होशों हवास पर काबू रख उसने सबसे पहले डाक्टर को बुलाया, फ़िर दूसरे डाक्टर को तस्स्ली के लिये बुलाया लेकिन कुछ न हुआ. मास्टर जी जा चुके थे...अब तक बडे़ घर से, चाचा- चाची, उनके बच्चे लोग आ चुके थे.
तमाम भाई- बहनों, रिश्तेदारों को फ़ौरन ख़बर दी गयी. जुमे का मुबारिक दिन होने के कारण सबके मशविरे से जुमे की नमाज़ के वक्त ही जनाजे़ की नमाज़ कराने की रज़ामन्दी हुई, लिहाज़ा जुमे की नमाज़ के बाद मास्टर जी को सुपुर्दे खा़क कर दिया गया. मास्टर जी के जनाजे में बेशुमार लोग शामिल हुए लेकिन आशा के अलावा चारों दिगर बच्चों में से कोई भी बाप की सूरत न देख सका.
अगले दिन सुबह सबसे पहले पूर्व अपनी बीवी और बच्चों के साथ आया, शाम तक आयशा और मैरी भी अपने बच्चों और अपने - अपने शौहर के साथ आ चुकी थी.बौध्या चूंकि सबसे दूर थी वो ही सबसे बाद में अपनी बेटी के साथ पहुंची. बौध्या ठीक सोयम ( तीसरे दिन) के रोज़ उस वक्त घर में दखिल हुई जब मजलिस अपने उरुज़ पर थी. फूफी, बौध्या को देखते ही चीखे दे दे कर रोने लगी. सभी बहनें-भाई फूफी से लिपट लिपट कर खूब रोये, मां बाप को रोते देख बच्चे भी सहमें सहमें बिलख बिलख कर रोये. मास्टर जी के नाती पोतों ने रो रो कर अपनी आंखें सुजा ली थी. गर्मियों की छुटिओं में अब उनके साथ मस्ति करने वाला, सैर सपाटे कराने वाला, गांव ले जाकर धीगांमुश्ती कराने वाला अब खुद जा कर कब्रिस्तान मे सो जो गया था...
दसवां और बीसवां तक घर तकरीबन खाली हो चुका था, बस बौध्य्या, फूफी और आशा ही घर में थी. बौध्य्या चालीसवें तक रुकने का कार्यक्रम बना कर आयी थी उसकी बेटी अपने स्कूल की वजह से वापस अमेरिका जा चुकी थी.
चालीसवें वाले दिन सबसे मशहूर और का़बिल इमाम को मजलिस कराने के लिये लखनऊ से बुलाया गया. बेशूमार लोग चालीसवें में शामिल हुये, तमाम रिश्तेदार, मास्टर जी के पुराने छात्र, पास पडौस, मिलने जुलने वाले सब लोगों से घर खचाखच भरा था.
बौध्य्या मास्टर जी के कमरे में अकेली बैठी पापा के काग़ज़ पत्र टटोल रही थी तभी मास्टर जी की डायरी उसके हाथ लग गई, जिसे वह दिल थाम कर पढने लगी. उस डायरी में उसे मास्टर जी के आखिरी आठ दिनों का ब्योरा मिला..जुमे से जुमे तक. जो जो लिखा था वह खुद ब खुद, हू ब हू उसकी जानकारियों से मिल कर एक ऐसी मुक्कम्मिल तस्वीर बनती जाती जिसे वह खुद ही देख पाती, चाह कर भी किसी और को न दिखा सकती थी. मस्लन हैदर हास्टिल के मैनेजर ने बौध्य्या को खुद बताया था कि मास्टर जी कोई दस बरस के बाद हास्टिल आये थे, जुमे की नमाज़ पढी, सारा हास्टिल देखा, बच्चों से बातें की वगैरह वगैरह..
अगले रोज़ मास्टर जी अपने क़दीमी गांव गये, सब गांव वालों से मिल कर आये. बौध्य्या को याद आया, हरिया, जो उनके खेतों पर एक मुद्दत से काम करता है, बता रहा था, मास्टर जी उसके घर भी गये थे, उसकी दोनों लड़कियों को पांच-पांच सौ रुपये दे कर आये थे. फ़िर अगले दिन मास्टर जी बाज़ार गये, अपने दोस्त लाला रतन लाल के पास खूब देर तक गप्पें हांकी, न जाने कब कब के किस्से सुनाये और साथ ही राशन पानी का सारा हिसाब चुकता कर के आये. रतन लाल उनका पुराना दोस्त था, वो रो रो कर सब बातें सुना कर सारे घर वालों को भी रुला कर गया था.
उसके अगले दिन मास्टर जी अपने स्कूल गये और सारे नये पुराने स्टाफ़ से मिल कर आये, बहुत देर तक प्रिन्सिप्ल के कमरे मे बैठे रहे, प्रिन्सिपल करीम अली उन्हे छोडने का नाम ही न लें, वो बता रहे थे कि मैने मास्टर जी को आफ़िस छोड कर जाते हुये खूब देर तक देखा..मास्टर जी गेट तक जाते हुये एक एक पेड को देख रहे थे जैसे उन्हे भी अलविदा कह रहे हों....
अगला दिन उन्होंने अपने परिवार के लिये रिसर्व किया और शुरुआत की अपने सबसे अज़ीज़ दोस्त मास्टर त्यागी के घर से, वहा खूब देर तक ठट्टे मार मार कर दोनों दोस्त जी भर हंस्ते रहे उसके बाद मास्टर जी बडे घर चले गये और घन्टों अपने भाईयों और उनके बच्चों के साथ बातें करते रहे.
मास्टर जी की डायरी के मुताबिक वह अगले दिन कचहरी गये और अपने एक पुराने छात्र, नामवर वकील शैख़ जमालुद्दीन से वसीयत रजिस्टर करवाई. मास्टर जी ने अपनी वसीयत में बीबी को एक बहन के तौर पर रिश्ता निभाते हुए सम्पत्ति में वो सब दिया जो एक बहन को दिया जाता है, एक लाख रुपया बीबी को अलग से दिया. सभी बच्चों को भी सम्पत्ति का वितरण बराबर ही किया. लगे हाथ अगले दिन मास्टर जी ने बैकं सम्बधी काम जैसे अकाउन्ट नोमिनेशन भी पूरा कर लिया. आठवें दिन के सामने सिर्फ़ एक लफ़्ज़ लिखा था...नूतन. नौवें दिन को लिख्नने की कोशिश की गयी थी पर वो एक नाकाम कोशिश ही....
बौध्य्या की आंखों में झर झर आँसू टपक रहे थे तभी फूफी दूध का गिलास लिये कमरे में दखिल हुई. गिलास टेबिल पर रख फूफी ने बौध्य्या का हाथ, अपने हाथों मे लेकर उसके माथे को चूमा ‘ अपना ख्या़ल रख़ और उससे ज़्यादा अपने पेट में पल रहे मसूम का भी.. बस अब सब्र कर ले...ले दूध पी ले, सुबह से कुछ खाया भी नहीं’ फूफी ने दिलासा देते हुए कहा.
बौध्य्या दूध का गिलास हाथ मे लेकर धीरे धीरे चुस्की लेती हुई मास्टर जी की दिवार पर लगी तस्वीर को देखती रही जिसमे वो डिग्री हाथ में लिये मन्द मन्द मुस्कुरा रहे थे. यकायक बौध्य्या का दूसरा हाथ उसके पेट पर गया जिसमें........तभी आशा का कमरे में दाखिल होना हुआ..उसके हाथ में पापा की वह छ़डी़ थी जिससे वो अपने तालिबे इल्म को पीटा करते थे. मास्टर जी ने उसका नाम ग्यान्बोधिनी रखा था.
आशा ने बताया कि पापा की ये छडी कई महीनों से गा़यब थी, आज बैठक में रखी मिल गयी, पता नहीं आज कहां से आ गयी ये अचानक...?
बौध्य्या दूध पी चुकी थी. छडी हाथ में लेकर गौर से देख्नने लगी. उसकी ढीली पड गयी मूठ अलग हो चुकी थी. बौध्य्या ने लकडी की मूठ पर कुरेद कुरेद कर लिखी गयी इबारत पढने की कोशिश की. अध-मिटे लफ़्ज़ों में शायद लिखा गया था.."बच्चों मुझे माफ़ करना"....बौध्य्या, आशा और फूफी इन लफ़्ज़ों के साथ कितना दर्द और आंसू पी गई, इसे कोई न नाप सका.
बौध्य्या ने अमेरिका वापस आकर, कुछ माह के बाद एक स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया, जिसे फूफी ने अपने हाथों में लेकर चमकती आंखों से कहा..बिल्कुल रोशन भईय्या है...बौध्य्या ने अपने बेटे का नाम रोशन ही रखा.