बाकी बचे आठ दिन / शमशाद इलाही अंसारी
भाग एक
रात के अंधकार जैसा वह काला सांड, बिल्कुल स्याह , जिसके सींग चमकदार सुनहरे थे. उसके फुँफकारने की आवाज़ से ही उसकी रफ़्तार का अहसास होता. उसका विशाल रुप उस तूफ़ानी रात मे तभी पल भर को दिखाई देता जब आधे आसमान को चीरती हुई बिजली कौन्ध कर उसे दिखाती. पानी मे भीगा उसका शरीर उसकी भयावह तस्वीर में और तेल भर देता. खेत- ख़लिहानों के बीच वह किसी मशीन की तरह भागता हुआ, अपने पीछे बिछी फ़सलों में निशानदेही छोड़ता जाता. उसके सुनहरे सींगों में सुनहरे रंग की एक रस्सी बंधी थी. रस्सी के दूसरे छोर पर एक आदमी पेट से बंधा था जिसे वह तूफ़ानी रफ़्तार से खींचता लॆ जा रहा था. रस्सी से बंधा इंसान कभी हवा में रहता तो कभी ज़मीन पर टकराता किसी गेंद की भांति...
दूर तक फैले खेतों का सफ़र उस सांड ने चुटकियों में पूरा कर लिया और जंगल में दाख़िल हो गया. घने जंगल में भी उसकी रफ़्तार धीमी न हुई. छोटे-मोटे पेड़- पौधों की बाधाँऒं को लाँघता वह एक विशाल पेड़ की तरफ़ बढ़ रहा था . उसकी रस्सी मे बंधा वो आदमी किसी ढेले की तरह कभी उछलता तो कभी गिरता. देखते ही देखते वह सांड उसी तूफ़ानी रफ़्तार से उस विशाल व्रक्ष के तने मे समा गया और साथ में वह सुनहरी रस्सी से बंधा आदमी भी....घुप्प-घनघोर अन्धेरा छा गया...
डर, घबराहट और सांस लेने मे तक्लीफ़ के साथ मास्टर जी की आंख खुल गई. एक हाथ से दूसरे हाथ को छू कर देखा और अपनी मौजूदगी- सलामती का ऐहसास करते हुए पलंग पर बैठ गये. माथे पर हाथ फ़ेरा तो पसीने की बूधों से हथेली गीली हो गयी.इतना भयानक ख्वा़ब उन्हे पहले न कभी आया था. कुछ देर पलंग पर यूं ही बैठे सोचते रहे. नाईट ळॆम्प आन किया, चश्मा लगाते हुये घडी़ पर नज़र डाली, सुबह के सवा चार बज रहे थे. फ़िर बराबर में रखे उस तकि़ये को निहारते रहे जिसे उनकी मरहूम बीवी इस्तेमाल किया करती थी. अब जब भी उन्हे अपनी बीवी से कुछ कहना हो तो वह तकि़या ही माध्यम बनता.
"ये कैसा ख्वा़ब था रेहाना...? बरबस मास्टर जी के मुंह से लफ़्ज़ फ़िसल गये.
गु़सलखा़ने से लौट कर मास्टर जी अपनी कुर्सी पर आ बैठे और अपनी डायरी खोल कर कुछ लिखने लगे. गैर वक्ती ख्वा़ब, फ़िर उसके बाद हुई घबराहट और हबड़-दबड़ से आज उनका दिन कुछ जल्दी ही शुरु हो गया था. उन्हें इस बात का भी एहसास नहीं था कि वो गुसलखा़ने तक आने जाने का सफ़र बिना छडी़ पकडे़ ही पूरा कर गये. आज न उन्हें अपनी कमर के दर्द का ऐहसास था न सुबह उठ कर ख़खा़रने का. उनके ख़खा़रने की आवाज़ घर के दूसरे बाशिन्दों के लिये किसी अलार्म का काम करती जैसे मास्टर जी खांस खांस कर कह रहे हों " सुबह हो गयी....अब उठ जाओ".
लिखते लिखते, सोच-सोच कर लिखने में वक्त गुज़र गया. भोर हुई, सूरज चढ आया और फ़िर यकायक उनकी कलम ने काम करना बन्द कर दिया. मास्टर जी की कुछ और लिखना चाहते थे पर पैन चल कर न दे. इधर उधर खटपट की, झटका भी पर पैन न चला. इसी झटपटाहट में मास्टर जी अपनी कुर्सी से उठे और कमरा खोल कर दुबारी में पडी बीबी को आवाज़ लगाई.
बीबी..अरि बीबी...आज उठना नहीं क्या...??
मास्टर जी की आवाज़ सुनकर पलंग पर पडी बीबी हडबडा कर, पल्ला सिर पर ढकती उठी. आज वो अपने देर से उठने पर हैरान थी. उसे अभी तक इस बात का इल्म नहीं था कि मास्टर जी के ख़खा़रने का अलार्म आज बजा ही नहीं था.
सामने वाले कमरे का दरवाज़ा भी फ़ॊरन खुला. मास्टर जी की सबसे छोटी बेटी आशा जिसे बीबी अक्सर उठाती थी, आज खु़द ही जाग गयी थी. आशा स्थानीय कालेज में इतिहास पढा़ती.
"बीबी.... मेरा पैन नहीं चल रहा है, आशा का एक पैन लेकर मेरी टेबिल पर रख देना" मास्टर जी आपनी बात कहते-कहते दालान के बीचोंबीच आ गये थे और ऊपर बने कमरों को गौर से देख रहे थे.
बीबी जल्दी जल्दी अपने दैनिक कर्म से फ़ारिग हुई और चाय का एक कप, एक अदद पैन लेकर मास्टर जी के कमरे में पहुंची. मास्टर जी अपने कमरे में न थे.उन्हें वहां न पाकर बीबी भौंचक्की सी बाहर आकर इधर उधर देख्नेने लगी. फ़िर उसकी निगाह ऊपर वाले कमरों की तरफ़ गयी. मास्टर जी को ऊपर देख कर वो और भी हैरान थी. कई वर्षों के बाद आज मास्टर जी ऊपर गये थे और वोह भी बांस में झाडु से जाले साफ़ करते हुये.
थोडी देर में मास्टर जी ऊपर से आये. बीबी को सामने खडा देख कर बोले...."कितना गन्दा पडा है, ऊपर से मकान...आज ही उस मरदूद इक़बाल को बुला कर सारी सफ़ाई करवा देना".
‘जी ठीक है’...बीबी जवाब देती हुई अपना काम करने रसोई में घुस गयी. बीबी थोरी देर बाद फ़िर मास्टर जी के कमरे में दाखिल हुई. उसके हाथ में एक ख़त और चेहरे पर बडी खुशी और इत्मीनान की सी बरिश थी. वह खत मास्टर जी कि अमेरिका में रहने वाली बेटी बौध्य्या का था. घर परिवार के सब लोगों से उसकी बात फोन से या इन्टरनेट के जरिये हो जाती लेकिन हर माह बौध्य्या बीबी को दस्ती ख़त लिख्नना न भूलती.बौध्य्या भी मास्टर जी के सारे बच्चों के समान बीबी को फ़ूफ़ी ही कह्ती. फू़फी की जान भी जैसे बौध्य्या में ही पडी़ रह्ती.‘ कल बौध्य्या की चिठ्ठी आयी थी...आप भी पढ़ लेना’....बीबी ख़त को टेबिल पर रखती हुई बोली.
‘अच्छा...वो तुझे ख़त लिख्नना नहीं भूलती....ठीक है मैं पढ़ लूंगा’ मास्टर जी अख़बार से निगाह हटाते हुए बोले.
अपने चांदी जैसे बालों को सभांलती, पल्लु को सिर पर का़यदे से रखती हुई बीबी बोली...‘कैसे भूलेगी मुझे...अपनी फूफी को क्यूं भूलेगी भला ?’.
बीबी उर्फ़ फूफी उर्फ़ सईदा कोई चालीस बरस पहले मास्टर जी के घर आयी थी. जवानी में ही बेवा हुई अपने एक बच्चे के साथ इस परीवार में दाखिल हुई.. उसका बेटा जब कोई आठ बरस का था किसी बीमारी में चल बसा ...फ़िर बीबी ने अपने बारे में मानो सोचना ही बन्द कर दिया हो. मास्टर जी की शादी हुई, फ़िर एक के बाद एक छह बच्चों को पाल पोस कर बडा करने में, बीबी को अपने बारे में कुछ सोचने की मोहलत ही न मिली...बीबी बस इस घर की ही हो कर रह गयी. मास्टर जी और उनके परिवार ने भी बीबी को फूफी का दर्ज़ा दे कर उनके घर से बाहर जाने वाले तमाम रास्ते जैसे बन्द कर दिये हों. घर के बडे़ लोग सईदा को बीबी कहते और बच्चे फूफी, बच्चों को फूफी कहते देख, मौहल्ले पडौस और आने जाने वाले बच्चे भी सईदा को फूफी ही कहते.
कोई पांच बरस पहले जब मास्टर रोशन हुस्सैन ज़ैदी की बीवी रेहाना ज़ैदी का इन्तेकाल हुआ तब से फूफी ने घर से बाहर जाना बन्द ही कर दिया. रेहाना के रहते फूफी कभी कभी बाहर जाती. बाहर जाने के नाम पर बस वो एक ही नाम जानती...अजमेर शरीफ़. साल दो साल में फूफी एक बार ज़रूर अजमेर शरीफ़ जाती.
पिछ्ले पांच सालों में फूफी अजमेर शरीफ़ भी न जा सकी. घर की ज़िम्मेदारी के नाम पर एक अदद तीन मंज़ला विशाल घर, मास्टर जी और उनकी बेटी आशा ही घर में रह्ते.
यूं तो मास्टर जी के छ: बच्चे थे. सबसे बडा़ पूर्व ज़ैदी, फ़िर आयशा, उसके बाद बौध्य्या फ़िर एक बेटी मैरी, मैरी के बाद आशा और सबसे आखि़र में अली. दो बरस पहले अली एक सड़क दुर्घट्ना का शिकार हो कर चल बसा. पूर्व ज़ैदी सऊदी अरब में अपने तीन बच्चों और बीवी के साथ सेटिल है, आयशा अपने शॊहर और दो बच्चों के साथ हैदराबाद में, बौध्य्या अपने शॊहर और एक बेटी के साथ अमेरिका में, मैरी कुवैत में दो बच्चों के साथ रहती है, आशा ही अकेली अपने पापा के साथ रहती है जिसने यूँ कहो कि अब तक शादी नहीं की.
मास्टर रोशन ज़ैदी का जन्म शहर से कोई दस मील दूर रसूलपुर गांव में हुआ था जहां इनके वलिद एक जाने माने ज़मीनदार थे.वो अपने वालिद के भरे पूरे कुन्बे में जयेष्ठ पुत्र भी थे. मास्टर जी के सात भाई और दो बहनें थी. पढ़ने लिख्नने सब को कुलीन अलिगढ यूनिवर्सिटी ही भेजा जाता. रोशन ने भी वहीं पढाई पूरी की और फ़िर शहर के स्थानीय कालिज में साईंन्स पढा़ने लगे, शुरु शुरु में ये शौकिया ही था फ़िर ये कब उनका मशग़ला बन गया ये उन्हें पता ही न चला.
जब रोशन ने शहर में रहने का मन बना लिया तो पिता ने सब बच्चों के लिये एक बडी कोठी (बडा घर) बना दी. जब सब भाईयों की शादीयां हुई और परीवार बढने लगा तब सबसे पहले रोशन ने ही अपना अलग मकान बना कर दूसरों को स्थान दिया. माता- पिता के स्वर्गवास हो जाने के बाद रोशन ने भलीभांति बडे़ होने का फ़र्ज़ अदा किया... मसलन छोटे भाईयों की पढाई लिखाई, भाई बेहनों के शादी बयाह, रिश्ते नाते सब रोशन के ज़रीये से ही हुये. अपना अलग मकान बना लेने के बाऊजूद रोशन दिन में एक बार बडे घर ज़रुर जाते. ये सिलसिला मुसलसल तब तक चला जब तक नौकरी चली. रोशन के स्कूल और घर के बीच बडा घर जो पड़ता था....स्कूल से लौटते हुए उनकी साईकिल का मुंह बडे घर वाली गली में खु़द-ब-खु़द मुड़ जाता; जहां एक प्याला चाय, घर की बैठक में उनका हमेशा इन्तेज़ार करता.
रोशन को इस साल सितम्बर माह में नौकरी से रिटायर हुये पूरे दस साल हो जायेंगे. पिछले दिनों से अब रोशन की तबियत भी ठीक नहीं रह्ती. कमर और टागों में दर्द की वजह, डाक्टर ने किसी कमर की हड्डी का बढना बताया लेकिन साथ ही ओप्रेशन न कराने की हिदायत भी दी, सो रोशन ने मामले की तह में जाकर योग करने का फ़ैसला लिया और योग करना शुरु किया जिससे उन्हें लाभ भी मिला.
रोशन मूलत:विघ्यान धर्मी ही है. वह अपने युवा काल में; जब भारत एक गु़लाम देश था, वो कांग्रेस की सभाओं में जोर शोर से हिस्से दारी करता. जिन्ना और गांघी से वो वक्तीगत रूप में मिले थे, और दोनों के ही प्रशंसक भी थे. मास्टर रोशन विग्यान और गणित को अपने खा़स अन्दाज़ में पढाते. बढे देहाती ढंग से आलू,टमाटर और मुर्गीयों की मिसालें दे कर वो बच्चों को विग्यान के नियम और गणित की समीकरण समझाते. विग्यान न केवल पढाते बल्की उसे जीवन में उतारते भी. मसलन ये बात बडी गौर करने वाली है जैसे रोशन ने अपने सारे बच्चों के नाम अलग अलग धर्मों के मुताबिक रखे और अपने घर को नाम दिया " सम्न्व्य". सार ये है कि रोशन ने जो काम जीवन भर किया (विग्यान पढा़या) वही जीया भी. जब उन्होंने अपने बच्चों के नाम पूर्व, बौध्या, आशा जैसे रखे तब उनके समाज के लोगों ने बडा़ ऐतराज़ किया जिसकी उन्होंने कतई परवाह न की और वही किया जो ठाना था.