बागड़ी बाबा और इंसानियत का धर्म / अध्याय 3 / सत्य शील अग्रवाल

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आज हमारे समाज में अनेकों मान्यताएं तर्कहीन हैं, जो या तो अप्रासंगिक हो गयी हैं अथवा वैज्ञानिक जानकारियों के आधार पर निरर्थक साबित हो चुकी हैं। अतः प्रत्येक जागरूक नागरिक को तर्क की कसौटी पर कसने के पश्चात ही किसी मान्यता को महत्व देना चाहिये।

तर्कहीन मान्यताएँ

बाबा बागड़ी: अब हम लोग एक नये अध्याय की ओर अग्रसर हो रहे हैं जिसमें हम, हमारे समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों, तर्कहीन मान्यताओं के बारे में जानने का प्रयास करेंगे। इसके अन्तर्गत कुछ ऐसी परम्पराओं का विश्लेषण किया जायेगा जिनका वैज्ञानिक रूप से एवं तर्क से कोई लाभ नहीं होता। फिर भी जनता बिना सोचे समझे उनको अपनाती हैं जिसमें धन और समय दोनों बर्बाद होते हैं और अनेको बार अपने जीवन पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है। जय भगवान तुम्हारे संज्ञान में ऐसी कौन सी तर्कहीन परम्पराएं हैं जिनका कोई लाभ नहीं होता।

जय भगवान: मुझे लगता है ‘बिल्ली द्वारा रास्ता काट जाना व्यर्थ का भ्रम है’, ‘छींक आना’ औचित्यहीन वहम है, ‘भूतप्रेत का विश्वास’ निरर्थक भय है, ‘कन्यादान’ एक क्रूरता की निशानी है।

फारूख: बाबा जी मेरी निगाह में भी कुछ फिजूल की परम्पराएं हैं जैसे बलि चढ़ाना, पुनर्जन्म, तन्त्र मन्त्र, श्राद्ध आदि।

बाबा बागड़ी: आप लोगों ने सही पहचाना, इनके अलावा भी अनेक कुरीतियां एवं आधारहीन कार्य, समाज में आयोजित होते रहते हैं। अखण्ड रामायण पाठ, देवी के जागरण आदि इन सभी तर्कहीन कार्यों-मान्यताओं का अध्ययन करेंगे।

बिल्ली का रास्ता काटना अशुभ

बिल्ली के रास्ता काटने से प्रचलित भ्रम को अक्सर यह समझा जाता है कि बिल्ली यदि रास्ता काट जाये तो रूककर प्रतीक्षा करनी चाहिये। तुरन्त चलने से जिस कार्य के लिए जा रहे होते हैं, वह सफल नहीं होता साथ ही अशुभ होने की आशंका व्यक्त की जाती है। मैंने स्वयं अनेकों बार बिल्ली के रास्ता काटने का सामना किया परन्तु मुझे किसी अशुभ का शिकार नहीं होना पड़ा।अतः मैं समझता हूँ यह सिर्फ भ्रम मात्र है। इतिहास अथवा वेद पुराण अथवा अन्य धार्मिक ग्रन्थ किसी में भी इसका वर्णन देखने को नहीं मिलता। न ही कोई तर्क इस धारणा के पक्ष में बनता है। यह तो अवश्य है यदि हमें किसी महत्वपूर्ण कार्य से जाना है और बिल्ली के रास्ता काटने से ठिठककर रूक जाते हैं तो कार्य बिगड़ सकता है। महत्वपूर्ण साक्षात्कार के लिए लेट होने पर नौकरी मिलने से वंचित रह सकते हैं, टेªन, बस, हवाई यात्रा स्थगित करनी पड़ सकती है, जिसके दूरगामी प्रभाव पड़ सकते हैं। अतः तर्कहीन, मिथ्या धारणा को पालकर शंकित होकर अपने जीवन में नकारात्मकता उत्पन्न करने के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

छींक आना कार्य प्रारम्भ करने में बाधक

यदि हम किसी यात्रा के लिए अथवा किसी विशेष कार्य से जा रहे हों और कोई छींक मार दे तो अशुभ माना जाता है। हमारे समाज में मान्यता है जिस कार्य के लिए जा रहे होते हैं वह कार्य पूर्ण नहीं होता, अनिष्ट होने की आशंका व्यक्त की जाती है। छींक से किसी कार्य के होने या न होने से कोई सम्बन्ध नहीं माना जा सकता। छींक का आना एक शारीरिक क्रिया या प्रतिक्रिया है। अतः अशुभ का संकेत कैसे हो सकता है। परन्तु छींक आने से अपने काम को रोक देना अवश्य हानि पहुंचा सकता है। छींक आने से नहीं बल्कि उस पर वहम करना अशुभ हो सकता है।कभी-कभी तो छींकने वाले को गुनाहगार माना जाता है। उसे हिकारत की निगाह से देखा जाता है जैसे वह स्वयं उसके कार्य में बाधक हो अथवा वह आपका अहित चाहने वाला है। बच्चों को तो डांट भी खानी पड़ जाती है। जैसे उसने जान-बूझ कर छींक मारी हो, जबकि यह एक स्वाभाविक एवं नियंत्रणहीन प्रक्रिया है। अज्ञानता इंसान को दुविधा में डालती रहती है और प्रत्येक व्यक्ति परम्पराओं को निभाता चला जाता है। जिनसे अक्सर नुकसान होने की सम्भावना बन जाती है।

जय भगवान: बाबा मुझे तो दोनों मान्यताएं हास्यास्पद ही लगती हैं। मैंने स्वयं परखा है कि दोनों मान्यताएं तर्कहीन हैं और मात्र शंका का कारण बनती हैं। शुभ कार्य अथवा यात्रा प्रारम्भ करने वाले का मनोबल टूटता है, उसका उत्साह, जोश कमजोर पड़ता है। शंकित मन अपने उद्देश्य पूरा कर पाने में पिछड़ता है। व्यक्ति का विकास बाधित होता है।

बाबा बागड़ी: मेरा उद्देश्य यही है कि आप लोग प्रत्येक मान्यता को तर्क की कसौटी पर कसकर ही अपनाएं। ताकि अप लोगों की सोच से परम्पराओं की निरंकुशता निकाली जा सके। तर्कहीन परम्पराओं में फंस कर अपना धन और समय बर्बाद न करें और जीवन में सफलता प्राप्त कर सकें। समाज को कुरीतियों से बाहर ला सके।

फारूख: बाबा कल ईद का त्यौहार है। कल मार्किट बन्द रहेगा हमारी शॉप बन्द रहेगी अतः हम दोनों चाहते हैं ईद की नमाज के पश्चात आपके आश्रम में आ जाएं और अपना अगला पाठ सुनें यदि आप समय दे सकें तो।

बाबा बागड़ी: आप लोगों की रूचि देखते हुए मैं भी इच्छुक हूं आपके साथ अधिक से अधिक बैठकर अपने कार्यक्रम को शीघ्र पूरा कर सकूं। अतः कल मैं आप लोगों के लिए समय निकाल लूंगा। आप लोग दोपहर बारह बजे तक आश्रम में आ जाएं।

जय भगवान: यह तो हमारे लिए सुनहरा मौका है, हम पूरा दिन आपके आश्रम में बिता सकते हैं। बाबा जी हम लोग आपके सहयोग से कृतज्ञ हैं। कल हम दोनों तो आपके पास आयेंगे ही यदि आपकी इजाजत मिले तो आपने स्टाफ के कुछ कर्मचारी भी आपसे मुलाकात करना चाहते हैं।

बाबा बागड़ी: आप जिसे चाहे ला सकते हैं परन्तु दो व्यक्ति से अधिक न हों।

फारूख: धन्यवाद, प्रणाम बाबा जी।

अखण्ड रामायण पाठ एवं देवी जागरण

आज बकरीद का त्यौहार है सभी मुस्लिम भाई सवेरे मसिजद में इकट्ठा हो रहे हैं,ईद की नमाज अदा करने के लिए फारूख ने भी अपने धर्म के अनुसार सबके साथ नमाज अदा की। फिर सभी दोस्तों एवं सम्बन्धियों से गले मिलकर ईद की मुबारकबाद दी। वह इस नेक दिन को नेक कार्यों में बिताना चाहता था, इसीलिए उसने बाबा से अपना अध्ययन कार्य जारी रखने के लिए समय मांगा था। अतः नमाज के पश्चात घर पहुंचकर आश्रम के लिए तैयार हो गया और जय भगवान के घर पहुंच गया।अपने स्टाफ के नसीम एवं राजेन्द्र को उसने कल ही टेलीफोन से बाबा के आश्रम पर दोपहर बारह बजे पहुंचने का संदेश दे दिया था। सभी लोग यथा समय पहुंच गये थे और बाबा का इंतजार कर रहे थे। सबके चेहरे प्रसन्नता से खिले हुए थे और विचार कर रहे थे कि आज बाबा किस विषय को लेकर चर्चा करेंगे। नसीम एवं राजेन्द्र बाबा का आश्रम देखकर हतप्रभ थे और अपना सौभाग्य मान रहे थे कि उन्हें बाबा से मुलाकात ही नहीं वार्तालाप करने का अवसर प्राप्त हो रहा है। बाबा बागड़ी के अपने कक्ष में प्रवेश करते ही सभी लोगों ने खड़े होकर सम्मानपूर्वक प्रणाम किया और ईद की मुबारकबाद दी। बाबा सभी लोगों को देखकर प्रसन्न हुए और अपने अनुयायी से ईद के अवसर पर सबको मिठाई खिलाने का आदेश दिया। बागड़ी बाबा अपनी वार्ता प्रारम्भ करते हुए बोले आज हम लोग हिन्दू समाज में प्रचलित अखण्ड रामायण पाठ एवं देवी जागरण रात्रि के बारे में अध्ययन करने का प्रयास करेंगे। आप सब लोग यह भी ध्यान रखें किसी भी प्रचलित परम्परा जिससे समाज की मान्यताएं एवं विश्वास जुड़ा हुआ है, उस पर आघात करना हमारा मकसद कभी भी नहीं है। सिर्फ तर्क द्वारा लाभ-हानि का विश्लेषण करना ही हमारा ध्येय है, कहाँ तक यह उचित हो सकता है, यह समझने का प्रयास कर रहे हैं। उन विचारों से किसी व्यक्ति का सहमत होना कोई बाध्यता नहीं है।

रामायण पाठ करते समय अक्सर तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के काव्य का पाठ अनवरत लगातार बिना रूके करने का प्रचलन है जिसमें लगभग चौबीस घंटे अर्थात एक दिन और एक रात लगता है। काव्य पाठ करते समय उन पंक्तियों का अर्थ कोई समझ पाये अथवा नहीं यह आवश्यक नहीं है सिर्फ पढ़ना और बिना रूके पढ़ना ही उद्देश्य है। जिस काव्य पाठ का हम अर्थ भी नहीं जानते उसको पढ़कर क्या धार्मिक लाभ होगा, समझ से परे है। इसी प्रकार देवी के जागरण में पूरी रात्रि फिल्मी धुनों पर आधारित देवी भक्ति के गीत गाने का चलन है, जिसे धर्म के प्रति आस्था है वह देवी में मन लगाये और जिसे आस्था नहीं है सिर्फ लोक लाज के लिए आना पड़ा, वह गाने की धुनों में मस्त होकर रात काली करता है। धार्मिक कार्य के होते मुहल्ले को सोने का अधिकार नहीं है। अतः लाउड स्पीकर पूरे ध्वनि प्रदूषण से घर बैठे लोगों को धार्मिक लाभ पहुंचाने का प्रयास करते हैं। क्या पूरी रात जागकर, शोर मचाकर देवी प्रसन्न होंगी अथवा राम जी खुश होंगे कि आपने अविराम काव्य पाठ कर समाज सेवा की। देवी, देवताओं को दिन में ध्यान मग्न होकर कुछ समय दिया जाये अथवा पूरी रात काली की जाये, कोई अन्तर नहीं पड़ता। आस्था का उपयोग समाज को शान्ति प्रदान करने के लिए हो तो तर्कसंगत लगता है। इस प्रकार के आयोजनों में धन समय का जो व्यय होता है उसे बचाया जा सकता है। सिर्फ थोड़ा सा तर्कसंगत तरीके से सोचा जाये। कम समय में और दिन में समाज एकत्र कर आयोजन का उतना ही धार्मिक लाभ उठाया जा सकता है। हवन का आयोजन भी इसी प्रकार के धार्मिक लाभ का अवसर है।

देवी को बलि चढ़ाना

सभी धर्मों में कहीं न कहीं यह धर्मान्धता है कि अमुक पशु का वध कर देवी देवता अथवा आराध्य देव को समर्पित करने से उसके पूज्य देव प्रसन्न होते हैं। क्या किसी जीव के साथ हिंसा कर किसी आराध्य देव को प्रसन्न किया जा सकता है। हिंसा किसी भी धर्म का हिस्सा नहीं हो सकता।विशेष तौर पर हमारे देश में तान्त्रिक इस प्रकार की सलाह देते रहते हैं। किसी समस्याग्रस्त व्यक्ति का शोषण करते हैं। अपनी दुकान चलाते हैं। कभी-कभी तो किसी व्यक्ति के सन्तान न होने की समस्या का समाधान अपने शहर-गांव या पड़ोसी के बच्चे की बलि चढ़ाने की सलाह दे देते हैं। जिससे देवी प्रसन्न होकर सन्तान दे देंगी। जब कभी कोई महत्वाकांक्षी इस घटना को अंजाम दे देता है, तान्त्रिक समेत जीवन भर जेल में काटने को मजबूर होना पड़ता है। प्रश्न यह है जो बच्चा बलि चढ़ा उसे किस बात की सजा मिली। सिर्फ कोरी मान्यताओं, धार्मिक अन्धविश्वास के कारण उसकी जान चली गई। अतः बलि प्रथा का पुरजोर विरोध किया जाना आवश्यक है। इसके साथ ही आज की सभा यहीं समाप्त करते हैं। इसके साथ ही सब लोगों ने बाबा से विदा ली। नसीम एवं राजेन्द्र की अभिलाषा पूर्ण हो गयी थी वे काफी खुश थे। नसीम एवं राजेन्द्र जब अपने अगले कार्यदिवस पर मिले, वे आपस में अपनी बाबा से मुलाकात एवं उनकी बताई बातों के बारे में विचार विमर्श कर रहे थे। नसीम ने प्रण कर लिया था यदि कोई तान्त्रिक के प्रभाव में आता दिखाई देगा तो वह उसके विरोध में पूरी ताकत लगा देगा। राजेन्द्र ने भी पूजा अर्चना को तर्कसंगत रूप देने में सहमति व्यक्त की। दोनों ही समय-समय पर फारूख और जय भगवान से बाबा के संदेशों की जानकारी लेते रहते थे।

कन्यादान

यथा समय सोमवार को फिर दोनों शिष्य बाबा के समक्ष उपस्थित हुए। बाबा ने अपनी वार्तालाप प्रारम्भ करते हुए बताया आज हम समाज में व्याप्त कन्यादान की रस्म के बारे में बातचीत करेंगे। यह रस्म विवाह समारोह के दौरान फेरों से पूर्व अदा की जाती है। जिसमें लड़की का पिता अपनी बेटी को उसके ससुराल वालों को दान दे देता है। अब सोचने की बात यह है कि क्या बेटी या कन्या कोई वस्तु है, अथवा गाय-भैंसे जो किसी को दान में दे दी जाती है। ‘कन्यादान’ शब्द से जाहिर है कन्या कोई चलता फिरता हाड़-मांस का पुतला है जिसकी अपनी कोई चाहत, इच्छा, भावनाएं नहीं होती। उसे किसी भी खूंटे से बांधा जा सकता है। उसकी अपनी कोई जिन्दगी नहीं होती। वह हमेशा दूसरों की इच्छाओं पर निर्भर है। हम आज उन्नति के नये आयाम प्राप्त कर लेने का दम भरते हैं। हम अपने को विकास की रफ्तार के साथ बढ़ना चाहते हैं परन्तु हमारी सोच आज भी सदियों पुरानी परम्पराओं से जकड़ी हुई है। परम्पराओं और संस्कृति की आड़ लेकर हम तर्कहीन रस्मों को निभाते चले जा रहे हैं। आज हमारी बेटियां सभी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर प्रत्येक कार्य में सफल साबित हो रही हैं फिर उनके साथ ऐसा अनावश्यक और अपमानजनक व्यवहार क्यों किया जाये। बेटी का पिता हीनता से ग्रस्त क्यों रहता है। बेटी को पैदा करने का दण्ड क्यों दिया जाता है जबकि बेटी-बेटे से योग्यता में किसी प्रकार से कम नहीं होती। ‘कन्यादान’ की रस्म का बहिष्कार करने की समाज के लिए आवश्यक है। ताकि बेटियों को अपमानित न होना पड़े और सम्मान से जीने का अवसर प्राप्त हो सके।

फारूख: हमारे समाज में भी लड़कियों को स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान नहीं किया जाता। उसे किसी किसी के संरक्षण में रहना होता है। पहले अपने अब्बा के साये में फिर शौहर की छत्रछाया में ही अपना जीवन व्यतीत करना होता है और वह भी उनकी इच्छाओं के अनुरूप। उसे अपनी इच्छा से जीने का अधिकार नहीं है। वह तो स्वतन्त्र रस्म से शौहर के साथ भी नहीं घूम सकती। उसे बुर्के में ही घर से बाहर निकलने की इजाजत है। हमारे यहां तो महिलाएं अपनी आवाज भी नहीं उठा सकती, वह धर्म विरूद्ध माना जाता है।

जय भगवान: एशियाई देशों में अधिकतर नारी को दोयम दर्जे के नागरिक की भांति समझा जाता है। यद्यपि हमारे देश में काफी जागृति आ रही है फिर भी अभी बहुत कुछ सुधार की आवश्यकता है। बाल विवाह, दहेज प्रथा, जैसी कुरीतियां आज भी विद्यमान हैं। नर नारी समान माने जाने में अभी काफी दूरी बाकी है। जब तक ‘कन्यादान’ जैसी प्रथाएं बनी रहेंगी नारी को बराबरी का हक कैसे प्राप्त होगा। बाबा नारी शोषण के खिलाफ आवाज उठाने के लिए आपसे कुछ उपाय करने की प्रार्थना करता हूं।बाबा बागड़ी फारूख और जय भगवान के विचार सुनकर भाव विभोर हो गये। उन्हें अपने शिष्यों के जज्बातों पर गर्व की अनुभूति हुई। बाबा ने कहा आप लोग मेरी बात एवं विचारों को भली प्रकार समझ पाये इस बात की मुझे खुशी है। भविष्य में यथा सम्भव नारी शोषण के खिलाफ आवाज भी उठाने का प्रयास करेंगे और तुम लोगों को भी सहभागी बनायेंगे।

भूतप्रेत में विश्वास

आज मंगलवार का दिन था। शहर के संयुक्त व्यापर संघ के प्रति बढ़ते अपराधों के विरोध में पूरे शहर में बाजार बंद रखने की घोषणा कर दी थी।स्टाफ के सभी लोग अपने नित्य समय पर आ चुके थे। वे सभी अपने मालिकों के द्वारा बाबा के बताये संदेशो में बहुत रूचि रखते थे।अतः आज के दुर्लभ अवसर का लाभ उठाते हुए,जय जय भगवान एवं फारूख से कल अर्थात सोमवार को हुए वार्तालाप के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। फारूख को किसी कार्यवश घर जाना था। अतः जय जय भगवान ने बाबा के सन्देश को स्टाफ में बाँटना स्वीकार कर लिया। कल बाबा ने हमारे समाज में व्याप्त भूत प्रेत की मिथ्या धारणाओं पर प्रकाश डाला । और उन्होंने इस प्रकार अपने विचार रखे।

बाबा बागड़ी: जहाँ सुख है वहाँ भी दुःख होता है, जहाँ दिन होता है रात भी आती है। इसी प्रकार जब मानव कल्पना ने किसी अदृश्य शक्ति को पालनहार, जन्मदाता, इच्छापूरक के रूप में माना तो एक सहारक, डरावना, पीड़ादायक के रूप में भूत-प्रेत की कल्पना भी की। हमारे आसपास अनेकों ऐसी घटनाएं घटती हैं जिनका कारण वैज्ञानिक आज तक नहीं बता पाते। क्योंकि विज्ञान को अभी भी पूरा नहीं कहा जा सकता। सृष्टि के आरम्भ में जब विज्ञान था ही नहीं तो भूत-प्रेत की कल्पना करना कोई अव्यवहारिक नहीं था। जो भी कार्य मानव तर्क के विरूद्ध एवं कष्टदायक होता है। प्रेतात्मा का कारनामा कह दिया जाता है विश्वास किया जाता है जब कोई व्यक्ति अकाल मृत्यु अथवा अतृप्त अवस्था में मौत के मुंह में चला जाता है तो वह भटकती आत्मा (प्रेत रूप) के रूप में परिजनों को उत्पीड़ित करता है और अपना लक्ष्य प्राप्त कर ही प्रेतयोनि से मुक्ति पाता है। अब प्रश्न यह उठता है मौत के पश्चात जिस व्यक्ति का अस्तित्व ही समाप्त हो गया, उसमें सोचने समझने की शक्ति कैसे बच जायेगी। साथ ही उसे जीवित प्राणियों को परेशान करके उसका कौन सा स्वार्थ सिद्ध हो सकता है। अस्तित्वहीन का कोई मकसद, कोई इरादा रहने के पीछे क्या तर्क है? यह तो सिर्फ तान्त्रिकों द्वारा अपना हित साधन, अपनी दुकानदारी चलाने का माध्यम भर प्रतीत होता है। जो जनता को भयभीत कर अपनी जेबें भरते हैं। कभी कभी तो भोली-भाली जनता के कष्ट के निवारण के लिए नर बलि के लिए भी प्रेरित कर देते हैं। उनके शब्द जाल में फंसकर अनेक महत्वाकांक्षी लोग अपराध कर बैठते हैं और जब उन्हें उनकी बेवकूफी का आभास होता है बहुत देर हो चुकी होती है और सारी जिंदगी जेल में काटने को मजबूर होते हैं।

अतः भूत प्रेत कभी एक भयभीत प्राणी की कल्पना मात्र है जिसका लाभ चन्द धूर्त लोग भोली भाली जनता का उल्लू बनाकर उठाते रहते हैं। वे लोग अपने कुतर्कों द्वारा अपने विश्वास को सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं। अपने विश्वास को सिद्ध करने और सामने वाले को भयभीत करने के लिए निम्नतम ओछे हथकंडे अपनाने से भी नहीं चूकते। बाबा के उक्त विचार सुनकर सभी लोग सन्न रह गये। उन सभी को अजीब अनुभूति हो रही थी।

पुर्नजन्म की मान्यता

आज बाबा ने सबसे पहले अपने शिष्यों को बताया की वे रविवार को आश्रम में सामूहिक विवाह का आयोजन करने जा रहे हैं जिसमें ग्यारह जोड़े विवाह सूत्र में बंध जायेंगे। सभी व्यवस्था जिसमें खानपान, विवाह संस्कार एवं गृहस्थी के लिए आवश्यक वस्तुएं आश्रम द्वारा उपलब्ध होंगी। जिसके लिए शहर के अनेकों धनाढय लोगों ने अपना योगदान दिया हैं बाबा ने अपना आमंत्रण फारूख और जय भगवान को भी दिया और उपस्थित रहने का आग्रह किया। फारूख और जय भगवान के लिए यह बहुत रोमांचक आग्रह था। अतः उन्होंने तुरंत उपस्थित रहने का वचन दिया। साथ ही एक-एक हजार रूपये योगदान में दोनों बंदों की तरफ से स्वीकार करने का आग्रह किया। उन्हें अपना शोरूम बन्दकर बाबा की सेवा करने, उनके पवित्र कार्य का हिस्सा बनने, में गर्व हो रहा था। बाबा ने आज का पाठ प्रारम्भ करते हुए कहा, हमारे समाज ही नहीं पूरे विश्व समाज में समाज में कहीं न कहीं पुर्नजन्म की धारणा विद्यमान है। आज हम इसी विषयों पर चर्चा करने जा रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान के शोधों से मानव उत्पत्ति के कारकों का पता लगाया गया है। शोधों के अनुसार पुरुष से उत्सर्जित असंख्य शुक्राणुओं में एक निषेचित शुक्राणु होता है जो मानव रूप में विकसित हो पाता है। यह कैसे सम्भव है। निषेचित होने वाला शुक्राणु पुर्नजन्म पाने वाले जीव का हो। समय-समय पर अनेकों उदाहरण पुनर्जन्म के उजागर होते रहते हैं परन्तु वैज्ञानिक अभी तक वास्तविकता का पता नहीं लगा पाये हैं और सभी घटनाएं कपोल कल्पनाएं ही लगती हैं। पौराणिक प्रमाणों से इंसान को आत्मा के रूप में जीव माना गया है परन्तु वैज्ञानिक शोधों से आत्मा जैसी कोई वस्तु सिद्ध नहीं होती। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दिल की धड़कन बंद होने का अर्थ ही मौत है जिसके बाद शरीर विकृत होने लगता है। अतः मानव जीव एक यन्त्र रूपी शरीर का नाम है जिसकी चाल रूकने पर मानव निर्जीव हो जाता है। पुनर्जन्म लेने की धारणा असंगत लगती है और पुनर्जन्म मानव मस्तिष्क की ही काल्पनिक घोड़े दौड़ाने वाली बात ही प्रतीत होती है। लगता हैयह धर्माधिकारियों द्वारा अपने इष्ट देव की महिमा दिखाने का एक उपाय हो।एक बात और भी देखने को मिली है पुनर्जन्म की समस्त घटनाएं एक ही भाषा के समाज में पायी जाती हैं। क्या भारत में मरने वाला ब्रिटेन में पुनर्जन्म नहीं लेता अथवा ब्रिटेन में मरने वाला व्यक्ति अपने देश में क्यों पुनर्जन्म नहीं लेता। यह स्वयं में घटनाओं को कपोल कल्पित साबित कर देता है और मान्यता तर्कहीन लगती है।

श्राद्धों का आयोजन

बाबा बागड़ी: आज मैं एक विषय के बारे में और बताकर ही आज का कार्यक्रम समाप्त करूँगा। यह विषय है हिन्दू धर्म में प्रचलित ‘श्राद्धों का आयोजन’ सर्वप्रथम हम श्राद्ध की प्रचलित मान्यता क्या है? उसके बारे में बताते हैं। हिन्दू धर्म में भाद्रपद मास में पन्द्रह दिन श्राद्ध पर्व के रूप में अपने दिवंगत पूर्वजों की मृत्यु तिथि के अनुसार मनाये जाते हैं। दिवंगत आत्मा के मान मनोबल का संकेत है श्राद्ध का आयोजन। उनको यादकर उनकी पसंदीदा खानपान की वस्तुएं बनाकर पंडितों को दान देते हैं अथवा उन्हें खिलाते हैं। मान्यतानुसार दी गई वस्तुएं एवं पकवान पंडितों के माध्यम से पुरखों के पास पहुंच जाती है और उनकी आत्मा तृप्त हो जाती है। अक्सर देखने में आता है जब घर में बुजुर्ग मौजूद होते हैं तो उनकी पसन्द नापसन्द मान सम्मान का ध्यान रखना हम अपना कर्त्तव्य नहीं समझते। उन्हें बीते वर्ष के कैलेण्डर मानकर उनकी मौत की प्रतीक्षा करते हैं। परन्तु मारणोपरांत दिखावे के लिए अथवा लोकलाज के लिए उनको श्रद्धापूरित सजल नेत्रों से याद करते हैं। इस प्रकार के श्राद्ध के आयोजन करना कितना तर्कसंगत है? जीते जी यदि हम उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर सके तो इस प्रकार उनके श्राद्ध का क्या औचित्य है। यदि हमारे अन्दर बुजुर्गों के प्रति श्रद्धाभाव है तो उनके वृद्धावस्था को सुखमय बनाने का प्रयास करना चाहिये। असली श्राद्ध का महत्व वहीं पर अनुभव करना चाहिये।

जय भगवान: बाबा जी मुझे तो लगता है धर्म का सहारा लेकर पंडितों ने अपना स्वार्थ सिद्ध किया है और जनता को मूर्ख बनाया है। भला पंडितों को खिलाया पकवान से दिवंगत आत्मा कैसे त्रप्त हो जायेगी। क्या पंडितों के शरीर में सारी दिवंगत आत्माएं वास करती हैं जो उनके द्वारा स्वयं ग्रहण कर लेती हैं।

फारूख: वैसे तो मुझे नहीं बोलना चाहिये यदि हम अपने बुजुर्गों के दिवंगत दिवस को याद कर उनके नाम से कुछ वस्तुएं गरीबों में बांटने का प्रण ले लें तो अधिक सार्थक हो सकता है।

बाबा बागड़ी: बिल्कुल ठीक कहा ‘फारूख’, तुमने तर्कसंगत उपाय बताया। जिससे हमारी श्रद्धा भाव भी व्यक्त हो गयी और समाज को कुछ लाभ भी प्राप्त हुआ। अपने व्यवहार को तर्कसंगत बनाकर ही अपना और अपने समाज का हित कर सकते हैं।

इसके साथ ही बाबा ने अपने संदेश को विराम दिया और रविवार को आश्रम में हो रहे विवाह आयोजन में उपस्थित रहने का आग्रह किया जिसे दोनों युवाओं ने सहमति देकर बाबा से विदा ली।

तन्त्र मन्त्र का अस्तित्व

आज रविवार का दिन है और अवसर है ग्यारह युवक व ग्यारह युवतियों को विवाह सूत्र में बंधने का वह भी बाबा बागड़ी के आश्रम द्वारा आयोजित व्यय रहित विवाह के रूप में। सारा व्यय आश्रम द्वारा एकत्रित धन से पूर्ण किया जायेगा। सवेरे से सजावट की तैयारी चल रही है। मण्डप, हवन इत्यादि के प्रबन्ध के साथ समस्त अतिथियों को भोजन कराने की व्यवस्था की जा रही है।

आश्रम के सभी कार्यकर्ता अपने-अपने कार्य में व्यस्त हैं सबके मन में समाज सेवा का भाव कूट-कूट कर भरा हुआ है। अतः सबकी इच्छा है समस्त आयोजन को भव्य रूप से कार्यान्वित किया जाये और समस्त अतिथिगण एक सुन्दर भाव लेकर आश्रम से विदा लें। विवाह में फेरों के वक्त आवश्यक सामग्री जुटाई जा रही है। प्रत्येक जोड़े को घर जोड़ने के लिए समस्त आवश्यक वस्तुएं दी जायेगी, साथ ही एक एफ.एम. रेडियो और एक साईकिल भी दी जा रही है। एफ. एम. रेडियो जय भगवान एवं फारूख उपलब्ध करा रहे हैं। जय भगवान एवं फारूख सवेरे दस बजे आश्रम पहुंच गये साथ में ग्यारह एफ.एम. सेट भी लेकर आये थे जिसे देखकर बाबा चौंके। उनहें खुशी हुई कि उनके शिष्य भी आश्रम के कार्य में सहयोग दे रहे हैं। बाबा बोले मैंने सभी व्यवस्थाओं का निरीक्षण कर लिया है। फेरों (विवाह) का कार्यक्रम दोपहर एक बजे शुरू होगा. अतः तुम लोग मेरे साथ बैठकर अपने समय का सदुपयोग कर लो। आज अध्याय तीन अर्थात तर्कहीन परम्पराओं के शेष दो विषयों की चर्चा कर इस अध्याय का समापन कर लेते हैं ताकि तुम्हें कल का दिन खाली हो सके, अपने रूके कार्य कर सको।

पहले ‘तंत्र मंत्र का अस्तित्व’ पर चर्चा करते हैं। तंत्र मंत्र का आधार भी भूत प्रेत है। किसी अज्ञात शक्ति के सहारे से इच्छित कार्य करा देने का दावा करना तन्त्र विद्या है जो तान्त्रिकों की दुकानदारी है और भोली-भाली जनता को मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर कर बेवकूफ बनाने की क्रिया है। भयभीत इंसान तान्त्रिक की सभी बातों पर विश्वास करने लगता है जिस प्रकार ईश्वर सिर्फ आस्था का प्रश्न है, तंत्र मंत्र दुखी एवं भयभीत व्यक्ति की आस्था की मजबूरी है। ठीक उसी प्रकार जैसे डूबते को तिनके का सहारा भी उचित लगता है, चारों ओर से समस्या ग्रस्त व्यक्ति को तांत्रिक के उपचार पर विश्वास लगने लगता है। अंधेरे में आशा की किरण दिखाई देती है। भयभीत व्यक्ति, समस्याग्रस्त व्यक्ति अज्ञानी है, अशिक्षित है तो उसके पास उचित समाधान का अभाव होता है इसीलिए अच्छे डॉक्टरों की सहायता के स्थान पर तांत्रिकों के बताये उपाय के अनुसार चलने लगते हैं, जिससे कभी-कभी मरीज भी खो बैठते हैं। अन्य समस्याओं और मुकदमों से परेशान व्यक्ति अपना धन और समय तर्कहीन उपायों में व्यय करते रहते हैं। गरीब लोग भी धन की कमी के कारण तांत्रिकों से सस्ते उपायों के चक्कर में फंस जाते हैं और अपना अहित कर बैठते हैं।तंत्र मंत्रों का अस्तित्व पूर्णतया झूठ पर आधारित मनोविज्ञान है।

जय भगवान: बाबा मेरे एक दोस्त का दावा है कि वह मंत्रों द्वारा तंत्र विद्या से दुश्मन का नाश कर सकता है।

बाबा बागड़ी: इस प्रकार के सभी दावे खोखले होते हैं, वे सामने वाले को मानसिक रूप से कमजोर कर अपना हित साधन करते हैं। विभिन्न अनर्गल दावों से जनता को आकर्षित करते रहते हैं।

फारूख: हमारे मौहल्ले में भी अनेक तांत्रिक मौजूद हैं जो सन्तान प्राप्ति, वशीकरण, बाजीकरण आदि के दावे करते हैं और अपना व्यवसाय चलाते हैं। सरकार को इन ढोंगियों से जनता की रक्षा करनी चाहिये।

भाग्य के भरोसे रहना

बाबा बागड़ी: धार्मिक व्यक्ति अक्सर भाग्यवादी बन जाता है क्योंकि उनके विचारों से अदृश्य शक्ति विश्व को संचालित कर रही है उसकी इच्छानुसार ही सब कार्य सम्पन्न होते हैं। मनुष्य के जन्म लेने से पूर्व उसके जीवन का लेखा-जोखा तैयार हो जाता है, इंसान उसके हाथ की कठपुतली है, उसको बिना इच्छा के पत्ता भी नहीं हिल सकता। भाग्य में जितना लिखा है जब लिखा है उसी समय और उतना ही मिलेगा। क्या बिना कुछ किये भाग्य से कुछ मिल सकता है? क्या भाग्य के भरोसे बैठकर खेत में अनाज स्वयं पैदा हो जायेगा? फैक्ट्रियों में भाग्य के भरोसे रहकर उत्पादन हो सकता है। कोई दुश्मन देश पर हमला करे और हम भाग्य के भरोसे बैठ जायें तो क्या दुश्मन स्वयं भाग जायेगा। भाग्य के भरोसे बैठकर कौन सा कार्य स्वयं हो जायेगा? क्या हम पाषाण युग से जैट युग में भाग्य के भरोसे रहकर आ गये। बिना कठिन परिश्रम-अध्ययन-लगन-बलिदान के कुछ भी सम्भव नहीं था। विकास के लिए सुविधाएं जुटाने के लिए स्वयं कार्य करने से ही सम्भव है। आलसी एवं निकम्मे व्यक्ति धर्म की आड़ लेकर भाग्य का सहारा लेते हैं और निष्क्रिय होने का बहाना ढूंढते हैं। अतः बिना निरंतर अथक प्रयास के कोई कार्य सम्भव नहीं है। भाग्य उसी का साथी हो सकता है जो प्रयास करते हैं।

जय भगवान: बाबा, यह जो मान्यता है उसकी बिना मर्जी के पत्ता भी नहीं हिल सकता तो क्या यह माना जाये आज दुनिया में जितने भी दुष्कर्म जैसे-लूट, हत्या बलात्कार, धोखाधड़ी सब उसकी मर्जी से हो रहा है। यदि उसकी मर्जी में इतनी क्रूरता है तो वह पूजनीय कैसे हो सकता है।

फारूख: बाबा साहब, भाग्य का सहारा मानसिक सन्तोष के लिए लिया जाये तो उचित माना जा सकता है। सिर्फ भाग्य के भरोसे रहकर निष्क्रिय हो जाना अपराध ही माना जाना चाहिये।

बाबा: भाग्य वाद का सहारा दिखाकर धर्मभीरू जनता को आलसी बनाने की साजिश दिखाई देती है ताकि कर्मठ व्यक्ति स्वयं तेज विकास की गति से उन्नति कर जाये और भाग्यवादी अपने भाग्य में लिखा होने का सहारा लेकर संतोषपूर्वक निर्धन बने रहें। आज का संदेश एवं अध्याय तीन का यहीं पर समापन होता है। इस अध्याय के अन्तर्गत हमारे समाज में अनेक तर्कहीन मान्यताओं का विश्लेषण किया गया। दोपहर के बारह बज चुके थे। विवाह कार्यक्रम की तैयारियां पूर्ण हो चुकी थीं। युवक युवतियां जिनका विवाह आज होना था अपने परिजनों के साथ समारोह में भाग लेने आ चुके थे। बाबा ने पंडितों को वैदिक नियमों के अनुसार सूक्ष्म रूप में सात फेरों के साथ विवाह सम्पन्न कराने का आग्रह किया। पंडितों ने अपने स्थान ग्रहण कर मंडप में मंत्रोचार द्वारा कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया। सभी लोग अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे। दूल्हे मण्डप में ही बैठे। बाबा ने आदेश देकर स्वयं भोजन व्यवस्था देखने चले गये ताकि फेरे का कार्यक्रम समाप्त होते ही सभी आगन्तुक अतिथिगण दोपहर का भोजन ग्रहण कर सकें और फिलहाल चाय एवं नाश्ते का प्रबन्ध किया गया। युवतियों को अपनी तैयारियों के लिए ब्यूटी पार्लर की व्यवस्था भी की गयी थी। पूरा आश्रम फूलों की सजावट से महक उठा था। बाबा के ही एक शिष्य ने वीडियो रील बनाने की व्यवस्था कर दी थी। जय भगवान एवं फारूख को जलपान कराने में सहायता करने का आदेश मिला। अतः दोनों ने अपनी जिम्मेदारी सम्भाल ली। जलपान के तुरंत पश्चात पंडितों ने दुल्हनों को फेरों के लिए मण्डप में बुलवाया और शीघ्र ही सप्तपदी का प्रारम्भ हुआ। सभी युवक युवतियों अर्थात दूल्हे-दुल्हनों से अपने विवाह आयोजन में अपने जीवन साथी के प्रति वफादारी, सहयोग, ईमानदारी एवं नैतिक, सामाजिक जिम्मेदारियां निभाने का संकल्प लिया। फेरों एवं संकल्प के पश्चात् सभी जोड़ों ने बाबा का आशीर्वाद प्राप्त किया। सभी आगन्तुकों ने बाबा से अपने वचनामृत से लाभान्वित करने का आग्रह किया। बाबा अपने मंच पर पहुंचे गये और सभी आगन्तुकों को सम्बोधित किया।

बाबा बागड़ी: इस शुभ विवाहों के पावन अवसर पर नव दाम्पत्य जीवन में जुड़े युवाओं के अतिरिक्त अन्य आगन्तुकों को भी मैं विवाह का समाज में क्या महत्व है, के बारे में बताने जा रहा हूं। विवाह सिर्फ दो युवक-युवतियों के विवाह सूत्र में बंधने तक सीमित नहीं है। यह मिलन है दो परिवारों का, यह मिलन है एक सामाजिक इकाई के निर्माण का। यह विवाह सिर्फ शारीरिक सम्बन्धों की अनुमति प्रदान नहीं करता, यह दम्पत्तियों को जिम्मेदारी भी प्रदान करता है। जिम्मेदारी एक-दूसरे के लिए वफादारी निभाने की। जिम्मेदारी एक-दूसरे का पूरक बनने की, जिम्मेदारी अपने भावी परिवार (बच्चों) के पालन पोषण की, जिम्मेदारी अपने बच्चों को समाज के लिए योग्य नागरिक बनाने की। दाम्पत्य जीवन में बंधे दोनों युवाओं को एक-दूसरे के परिजनों को सम्मान देना होगा।

एक-दूसरे में विश्वास के सम्बंध बनाने होंगे। यदि आपका परिवार सुखी होगा सम्पन्न होगा अर्थात समाज की इकाई स्वस्थ होगी तो समाज में शान्ति, सुख और सम्पन्नता का आभास होगा। स्वस्थ समाज की कल्पना की जा सकेगी। स्वस्थ समाज ही मानवता को उन्नति के शिखर पर ले जाने में सक्षम हो सकता है। अतः प्रत्येक दम्पत्ति अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाते हुए मानवता की सेवा एवं उन्नति में भागीदार बनता है। आशा है आज आप समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का संकल्प लेते हुए, वैवाहिक जीवन में प्रवेश करेंगे।

आपके सुखद भविष्य की कामना करते हुए मैं आप लोगों को भविष्य में भी आश्रम के सहयोग का आश्वासन देता हूं और इसी संक्षिप्त संदेश के साथ आप लोगों का अधिक समय न लेते हुए आप लोगों से विदा लेता हूं। आज का कार्यक्रम यहीं समाप्त होता है। सभी नवविवाहित जोड़ों से आग्रह है वे आश्रम द्वारा प्रदत्त प्रत्येक वस्तु को प्राप्त कर लें और अपने गंतव्य को प्रस्थान करें। धन्यवाद!