बाघ / जगदीश मोहंती / दिनेश कुमार माली
इस कहानी के अंदर कई हृदय- विदारक मानवीय चीत्कारें छुपी हुई हैं। पाठक अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर इस कहानी को पढ़ें। शनैः शनैः हम कहानी की तरफ अग्रसर होते हैं। काव्य-अलंकार से परे, वाक्य-विन्यास की चीर-फाड किये बिना खुले-मन से आप गद्य की काल्पनिकता तथा प्रतीकात्मकता को फूंक दिजिए। तभी आपको पता चलेगा, एक चीख निर्वस्त्र होकर हमारे सामने पड़ी होगी। उसी से परिचय कराना हमारा लक्ष्य है।
चलिए, आपको इस दूसरी दुनिया में ले जाते हैं जहाँ ना ही किसी प्रकार की राजनीति, चुनावी गतिविधियाँ, भूख और शोषण का और ना ही प्रेम, माया, आँसू, शोक और चुंबन के रसपान का कोई स्थान हैं। उनका भी स्थान किस दूसरे तरीकों, स्वादों और रूपों में। उनी से परिचित होने पर आपका रोम-रोम कांप उठेगा और आप स्वतः नैसर्गिक प्रकृति के साथ जुड़ जाएँगें। जुड़ जाएँगें अखिल, ब्राह्मांड के साथ। सहस्रों प्रकाश वर्ष को पार कर आपको ले जाएँगे एक दूसरे ब्राह्मांड में।
अनेक लोग उसको असाक्षर पाषाण हृदय- संवेदनहीन तथा जड़-भरत मानते थे। ना तो उसका किसी राजनीति से संबंध था। ना ही किसी विषय पर वह भले-बुरे विचार प्रस्तुत कर सकता था। वह तो यह भी नहीं जानता था, प्रेम स्नेह और माया क्या होती है? डिश-एंटीना की सुविधा होने के बावजूद भी वह स्टार टीवी की भाषा क्या समझता? यही कारण था कि उसे प्रेम के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। चिरकाल से उडिया साहित्य के पाठकों के लिए वह इंसान नहीं है, वरन् वह केवल रक्त-मांस, शिरा-धमनी, अस्थि-मज्जा, रोमकूप बाल, दांत, नख, आँखे, कान तथा नाक युक्त निरा पशु है। उसके पास केवल बुभुक्षित पेट है, पर देह मस्तिष्क रहित।
सभी की यही धारणा उसके चारों तरफ पीछा करती है। इसी वजह से उड़िया पाठकों को उसका असली चेहर नजर नहीं आता।
अगर उपर्युक्त धारणा को परत दर परत खोला जाए तो उसका रत्नाकार दस्यु, वाल्मिकी जैसे चेहरा प्रकट होगा। जिस पर किसी के मरने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह हमेशा नए विचारों में शांत रहता है, किसी प्रेम में उद्धेलित रहता है। आइए, ऐसी ही एक कहानी के पास आपको ले चलते हैं। देखिए, वह तालाब के किनारे बैठा हुआ है। देख रहे हैं उस गिरगिट को, जिसने तीन बार अपने सिर को ऊपर-नीचे किया है। अनमने होकर बैठे कीटों को कभी मेंढक की जीभ मौत का ग्रास बना सकती है। चलिए, तेजी से चलिए।
ऐसी भूख कहाँ थी? केवल भूख ने उसको अस्थिर बना दिया। वह खजूर के पेड़ के नीचे गिरी हुई बालू-मिश्रित खजूरों को उठा-उठाकर खा रहा था। उसने तीन अमरूद खाए थे। तीन नहीं, ढाई अमरूद। एक अमरूद का उसने चमगादड़ के साथ बँटवारा किया था। पहला खाना खाने के पहले, दूसरा खाते देखकर दूसरे मुहल्ले का लड़का चिल्लाया था। लड़का स्वामीभक्त था। अमरूद खाते समय क्या उसको याद नहीं आ रही थी, भूख से बिलख रहे बच्चे के बारे में, उपवास रखे अपनी पत्नी के बारे में और अज्ञान बीमारी से जूझ रही बिस्तर पर पड़ी माँ के बारे में। नहीं, उसे ये सब बिल्कुल भी याद नहीं रहा। ऐसी बात नहीं थी, उसके मन से मानवता मर चुकी हो। ऐसी भी बात नहीं थी, अपने बेटे को गोदी में लेकर प्यार करना उसको अच्छा नहीं लगता था। यह भी बात नहीं थी कि अस्तित्ववाद, साम्यवाद और साम्यवाद के अंतर्गत टेनिस बाल की तरह आदमियों को उछालते-उछालते दार्शनिकों ने उसे थका दिया हो। ऐसा भी नहीं, किसी सुख की तलाश में वनवास ग्रहण कर लिया हो या फिर बंदूक उठा ली हो और किसी का सीना छलनी कर दिया हो। परिस्थितियाँ क्या आदमी को आतंकवादी बना देती है? लेनिन के कपड़े खोलकर लोग फिर क्यों पहनते हैं गर्बाचोव और येल्तिसिन के वस्त्र?
उसके मन में है अपनी पत्नी के प्रति आधी रात में पैदा होने वाली उन्मुक्त कामना और वासना। ऐसा भी नहीं है कि उसने भगवान को माँ को श्मशान-घाट पहुंचाने के बाद याद किया हो। ऐसे बुरे दिन कभी नहीं आए, यही सोचकर बीच-बीच में वह भगवान का स्मरण कर लेता था। लेकिन वह अपने पेट की भूख को कैसे संभालता? जो कि इस पृथ्वी पर परम सत्य है और इसके सिवा कुछ भी नहीं।
यह वहीं है जिस तालाब के किनारे वह छुपकर बैठा है। कालेज में मंत्रीजी आने वाले हैं, उनके समारोह के लिए गाँव के गणमान्य लोग अपना श्रमदान करके मंच बना रहे हैं, कालेज में पढ़ने वाले लड़कों तथा पढ़ाने वाले अध्यापकों तथा बाबुओं को बुलाया जा रहा है। उसनें मन में निश्चयकर लिया कि वह वहाँ नहीं जाएगा। उस आदमी का मन काम करने में बिल्कुल नहीं लग रहा था। ना तो वह किसी प्रकार की मेहनत करना चाहता था, ना ही गाँव के मुखिया के घर में कोई काम-काज और ना ही खेतों में किसी प्रकार की मजदूरी। उसे खेतों में जाकर मिट्टी हटाना, पानी देना, धान के कीड़े मारना, घास-फूस साफ करना तथा हरी फसल के अंदर काम करना अच्छा नहीं लगता था। उसे तो केवल खेतों की मूँड़ेर पर बैठकर बहते पानी में धसकती गीली मिट्टी को देखना अच्छा लगता था। उसे अच्छा लगता था, सुपर-साइक्लोन में सृष्टि की विध्वंस-लीला देखना, महाप्रलय की बाधाओं को पार कर आगे जाते हुए छोटी-छोटी मछलियों के झुंड की जयजात्रा तथा उनके जीवन संघर्ष को।
आइए, उनके पास चलते हैं। उनके खुले वक्ष-स्थल को फाड़कर देखते हैं। इनके अस्थि-पंजर की रेलिंग को झरोखा बंद करके पर्दा लगाकर एक बार देखिए,तो सही। झर-झरकर पसीना बह रहा है अथवा नहीं? दम घुट रहा है न? एक क्षण के लिए रूक जाइए। अंधेरे में आँखें स्थिर होने के कुछ समय बाद धीरे-धीरे सब कुछ स्पष्ट दिखाई देगा। इतना स्पष्ट कि जब आप अपना मुँह दर्पण में देखोगे तो आपके मुँह के प्रतिबिम्ब के स्थान पर उस आदमी का चेहरा नजर आएगा। आइए, जल्दी ही उसके फटे हुए वक्ष-स्थल में प्रवेश करते हैं।
दिल दहलाने वाला एक भयानक सपना। घर के आँगन में पहरा देता हुआ एक बाघ... घर के भीतर सभी दरवाजे बंद करके सहमे वे लोग... लकड़ी की बनी नई छत... चूल्हे का धूँआ, छत पर धूँए से बने जाले... अंधेरे के भीतर ऐसे अस्वास्थ्यकारक अवस्था में वे चार लोग... बूढ़ी माँ बेहोश हो गई है, बिस्तर पर पड़ी हुई है, चादर ओढ़कर काँप रही थी... वे लोक लकड़ी के दरवाजे की फांक से बाघ को देखने की कोशिश कर रहे थे... सुरुननी और उसका लड़का उसको खींच रहे हैं... ऐसा प्रतीत हो रहा है बाघ मुँह खोलकर जम्हाई ले रहा है... बीच-बीच में जमीन पर पूंछ पटककर जोर-जोर से दहाड़ भी रहा है।
सारी रात इसी सपने की बार-बार पुनरावृत्ति होती रही। गाँव के मुखिया के घर से सुरूननी थोड़े से चावल चुराकर लाई थी। यह चावल भी माँ और बेटे के लिए कम पड़ रहे थे। उसके भाग्य में लिखा था चावल का माँड पेट मरने के लिए और सुरूननी के भाग्य में केवल कुए का पानी। पता नहीं कैसे, सुरूननी पानी पीकर जिंदा है? चावल के माँड की एक कटोरी से तो उसकी आँखों के सामने अंधेरा नजर आने लगता है और उधर, रात भर सपने में वही बाघ दहाड़ता रहता है।
एक कप चाय उसकी तरफ बढ़ाकर एक आदमी ने उसे सपनों की दुनिया से बाहर निकाला। "लीजिए, महाराज, चाय पीजिए।" सही बात तो यह है कि कितना बुरा समय आया है। पुराने समय में एक रूपए में एक किलो चावल मिलते थे और अब सात-आठ रूपए में एक किलो। अब समझिए। कैसे गुजारा होगा? आज यहाँ ट्रक मालिकों की हड़ताल और कल भारत बंद। आज आतंकवादियों ने लोगों को मौत के घाट उतारा तो कल हिंदू-मुस्लिम दंगों में लोग मारे गए। 'मालिका' में क्या यह झूठ लिखा हुआ है? "सभी होंगे एकाकार, नहीं होगा जाति का कोई विचार"। 'मालिका' में नहीं। भागवत में। लेकिन उस आदमी के मन में प्रायश्चित्त करने की ईच्छा पैदा नहीं हुई। वह बैठे-बैठे जम्हाई ले रहा था. उसके पाँव की एड़ियाँ फट चुकी थी। चलने में उसे कष्ट हो रहा था। टायर से बनी चप्पलें खरीदने से कुछ दिनों तक काम चलता। मगर पैसे? कितने पैसे लगते उनकों खरीदने में? उसने अपनी जेब में हाथ डाला। अभी तक तो कोई पैसा नहीं निकला। पाकेट में से मुड़े हुए कागज के कुछ टुकड़े अवश्य निकले। पहने हुए था पुराना लंबा कुरता, उसके नीचे गंदी धोती। पांवों में थी स्पोंज की चप्पलें तथा आँखों पर लगा हुआ था एक चश्मा। सात-आठ दिन तक उसने दाढ़ी नहीं काटी थी। गले में रूद्राक्ष की माला धारण की हुई थी तथा हाथ में पकड़ी हुई थी एक जलती हुई सिगरेट। कितने रूपए दे सकेगा वह आदमी? इस समय एक आदमी को ठीक तरह से जीवनृनिर्वाह करने के लिए कम से कम एक हजार रुपए की जरूरत होती है। क्या यह बात सही नहीं है? कपड़े-लत्ते खरीदने तथा तबियत खराब होने पर डाक्टर को दिखाने की फीस। सब मिलाकर आप कम से कम एक हजार रुपया जोडिए।
इसी परिदृश्य में सुरूननी एक कोने में खड़ी होकर "सर्वेषां नो जननी भारत, धरणी कल्प लतेयम" गा रही थी और शेष सभी उसी पंक्ति को दोहरा रहे थे।
वह थोड़ा कमजोर पड़ गया।तब तो वह आदमी पैसे नहीं दे पाएगा? अपनी तरफ से वह कुछ कहेगा। कुछ भी कहने की उसकी इच्छा नहीं हो रही थी। तब भी वह कहने लगा, क्योंकि इस समय अगर वह चुप रह गया तो उसको मिलने वाली कीमत घट सकती थी। कहने लगा, "हजार रूपए कह रहे हो? काम भी वैसा ही करेगा। देखिए, आठ घंटे की मजदूरी कम से कम पच्चीस रूपए होने से महीने की पगार साढ़े सात सौ रूपये होती है। और लड़का चौबीस घंटा आपके पास रहेगा। अगर चौबीस घंटे के हिसाब से जोड़ते हैं तो महीने की पगार दो हजार से भी ज्यादा होगी।"
उस आदमी ने सीधी-नजरों से उसकी तरफ देखा। शायद वह उसे जितना भोला और मूर्ख आदमी समझ रहा था, वह इतना भोला और मूर्ख आदमी नहीं है। हँसकर वह आदमी कहने लगा, "कौन आदमी चौबीस घंटे काम करवाता है? उसे होटल में रखा जाएगा, नहीं तो, किसी के घर में काम करेगा। कितने घंटे काम करेगा? कहो तो, होटल में रखने पर ज्यादा से ज्यादा दस बारह घंटे का काम। ऊपर से खाना खाने को भी मिलेगा। माँस, मछली, आलूचाप, वड़ा आदि क्या-क्या खाने को नहीं मिलेगा? तुम्हारे घर में वैसा खाना सभी दिन खिला पाओगे क्या?" और बात को आगे नहीं बढ़ाकर वह आदमी सीधे मूल-बिंदू पर ले आया। कहने लगा
"किसी भी हालत में हजार रूपए से कम नहीं लूंगा।"
"हजार रूपया तो बहुत ज्यादा हो रहा है, महाराज"
"बच्चे की माँ को भी संभालना पड़ेगा। उसे तो अभी तक कुछ भी नहीं बताया गया है। अगर उसे पता चल गया तो क्या वह राजी होगी?"
वह आदमी थोड़ा मुस्कराकर कहने लग, "औरत-जात को कैसे समझाना है? पहले एक-दो दिन रोएगी, उसके बाद सब ठीक हो जाएगा। धीरे-धीरे कर उसका मन शांत हो जाएगा।"
"हजार रुपए से कम में नहीं होगा?"
"हजार रूपए से कम में मुझे नहीं पोसाएगा बाबू।"
"क्या मेरा यह व्यापार समझ रहे हो? क्या सोच रहे हो मुझे इस काम में दो पैसे कमीशन मिलेगा? बिल्कुल नहीं। यह तो एक सेवा है। इसे देश-सेवा भी कह सकते हो। तुम्हारा बेटा रायपुर के किसी होटल में काम करेगा। शुरु शरु में प्लेट-बर्तन साफ करेगा, फिर धीरे-धीरे काम का अनुभव होने पर वह स्वयं मिस्त्री बन जाएगा। फिर उसके भाव देखना। उसके बाद एक दिन ऐसा आएगा कि वह खुद अपना होटल खोल देगा। मुझे क्या मिलेगा? बोलो तो।"
सपना देखना किसे अच्छा नहीं लगता है? ऐसा ही एक सपना... उसके लड़के ने अपना होटल खोला है... नाम रखा है "आदर्श हिन्दू होटल"। होटल में लगे हुए हैं चेयरृटेबल, एक सुंदर सा काउंटर... होटल की दीवार पर आटा लगाकर चिपकाए हुए अंग्रेजी सिनेमा के कलाकारों तथा अभिनेत्रियों के अश्लील रंगीन पोस्टर दिखाई दे रहे हैं। कल्पना के सागर में गोते लगाते- लगाते वह होटल के मिस्त्री से लेकर लेकर कप-प्लेट धोने वाले लड़कों को देखने लगा। और ठीक उसी समय उसके सामने गत रात को सपने में आया हुआ बाघ प्रकट हो गया। उसने अपना मुँह खोला। उसकी मूंछे, उसका चिपचिपा बदन, गोल-गोल बड़ी-बड़ी आँखें, खुले मुँह का फैलाव, तेज दाँत और लपलपाती जीभ देखकर उसका सारा सपना वहीं टूट गया। वह वर्तमान की दुनिया में आकर कहने लगा, "हजार रुपए से कम में नहीं होगा। मुखिया, मुझसे जबरदस्ती सौदा मत करवाइए।"
वह आदमी कुछ देर तक चुप्पी साधे रहा। फिर कहने लगा, "एक बात बताऊँ? एक दम वाजिब दाम। मैं पाँच सौ रूपए से एक पैसा भी ज्यादा नहीं दे सकता हूँ। उसके बाद तुम्हारी मर्जी।"
"पाँच सौ रूपए में बिल्कुल नहीं दूँगा।जी हाँ, आजकल एक छोटे से मेमने को खरीदने में पाँच सौ रूपए लगते हैं। यह तो मनुष्य का बेटा है।" वह आदमी रूँधे गले से कहने लगा, "चुप, एकदम चुप। तुम मेरे बारे में क्या सोच रहे हो? तुम्हारे लड़के को मैं खरीदकर ले जा रहा हूँ क्या? मुझे जेल भिजवाओगे? देखो, बाबू, तुम्हारे लड़के और किसी मेमने की तुलना करना ठीक बात नहीं है। एक लड़के के बाप होकर किस तरह की बहकी-बहकी बातें कर रहे हो। आदमी बकरे को खरीदता है बलि चढ़ाने के लिए। जबकि तुम्हारे लड़के को मैं ले जाऊँगा उसका जीवन बनाने के लिए। वह आगे चलकर एक बड़ा आदमी बनेगा। इसलिए बकरे के साथ तुम्हारे बेटे की तुलना करना अनुचित है।"
"कम से कम साढ़े सात सौ फाइनल कर दीजिए, महाप्रभु! उसे पैसों की सख्त जरूरत भी है। इस साल कुछ सामान भी खरीदना है। साढ़े सात सौ से कम में काम नहीं चलेगा।"
"नहीं, भाई, पाँच सौ से ज्यादा मेरे लिए देना संभव नहीं है. फिर तुम्हारी इच्छा।"
जाने के लिए वह आदमी उठकर खड़ा हो गया। होटल वाले को चाय का पैसा चुकता करने के बाद वह कहने लगा, "अब मैं जा रहा हूँ, आगे मुझे लखनपुर भी जाना है।"
साइकिल को होटल के सामने से ले जाते हुए आगे चलकर जाने के लिए पैडल के ऊपर ज्यों ही पाँव रखा, वैसे ही वह उस आदमी को बुलाने लगा, "मुखिया जी, एक मिनट रूक जाइए।"
आदमी ने साइकिल को स्टैंड पर खड़ा करके होटल के भीतर घुसकर उसके कंधे पर हाथ रखा।
"मुझे ड़र लग रहा है।"
"ड़र कैसा? ऐसे भी काम करने के लिए लोग विदेश तक जाते हैं। यहाँ तुम्हारा लड़का भूखो मरेगा।"
"उसकी तबीयत खराब होने से वहाँ कौन देखेगा? उसने समय पर खाना खाया या नहीं, घर पर आया या नहीं, कौन सूंघ लेगा?"
"अरे, बाबू के घर में रहेगा। वहाँ खाने की कोई कमी है क्या ? तुम्हारे घर उसे कौनसी खीर-पूरी खाने को मिल रही है ? भात-पखाल भी तो कभी-कभी नसीब नहीं होता।"
कुछ देर तक सुरूननी चुप रही। उसकी आँखों में आँसू भर आए। घुटनों के ऊपर मुँह रखकर बैठी रह गई। सिर के बाल खुले हुए थे। घुटनों के ऊपर मुँह रखकर वह कहने लगी, "मैं मेरे दिल के टुकड़े को मेरे से अलग नहीं करुँगी।"
बोलते-बोलते उसके गले का स्वर अवरुद्ध हो गया। और आगे वह कुछ बोल नहीं पाई। वह क्या करता? कैसे उसे समझाता? तुरंत वह एकदम सफेद झूठ बोलने लगा। बोलते-बोलते उसका गला एक बार भी नहीं थर्राया। उसका मन एकदम अविचलित रहा। धीरे से वह कहने लगा- "आजकल तो वह पढ़ने भी नहीं जाता है। उसकी पढ़ाई बंद है। बाबू कह रहे थे, अगर वह वहाँ चला जाएगा तो उसका नाम स्कूल में लिखवा दिया जाएगा।"
ऐसा लग रहा था, सुरुननी इस बात को समझने लगी है। फिर से वह किसी कल्पना की दुनिया में खो गई थी शायद। स्कूल-यूनिफार्म में उसका बेटा स्कूल जा रहा है और पीछे से वह उसको हाथ-हिलाकर अभिवादन कर रहा है। कितना छोटा सा सपना! मगर वह जानता था, उसके लिए यह भी संभव नहीं है। वह तो यह भी नहीं जानता था कि कितना भी चाहने के बाद भी वह उसे गाँव के स्कूल में पढ़ाई नहीं करवा सकता। युगों-युगों से उसके लिए यह आश्चर्य की बात थी!
ऐसा ही चिंतन-मनन चल रहा था उसके मस्तिष्क में। तभी उस बाघ ने कल्पना के भीतर दहाड़ना शुरु किया। देखते-देखते वह बाघ स्पष्ट रूप से उसके सामने आ गया। उसकी आँखे दिख रही थी दहकते हुए फासफोरस की तरह लाल और उसे ऐसा लग रह था मानो उसकी लपलपाती जीभ उसे चाट रही हो। फिर उसके सामने आकर वह बाघ बैठ गया हो। पास में ही माँ की लाश पड़ी हुई। वह
आदमी बाघ से कहने लगा, "ले खा, मेरी माँ का माँस खा। बड़े-बड़े हाथ है इसके। कई सालों के मनुष्य जीवन का अनुभव तथा ज्ञान-संपन्न। चबा लो, आओ, चबा लो।"
बाघ ने उस लाश को सूँघा तथा अरूचिपूर्वक मुहँ उठाकर बिना किसी आवाज के जम्हाई लेने लगा। उसके बाद वह बाघ उसकी तरफ घूरकर देखने लगा। फिर उसके नजदीक आकर उसको सूँघने लगा। सूँघने के बाद वह अपनी पूछ हिलाने लगा। फिर पूछ हिलाते-हिलाते सुरुननी के पास गया तथा अपनी जीभ से उसके पाँव के तलवे चाटने लगा। पाँव के तलवों का मैल चाटने के बाद वह वहाँ से चला गया। कुछ देर बाद फिर वह लौटकर उसी घर में आकर बैठ गया, ठीक उसी तरह जैसे उनके बीच घरेलू जानवर बिल्ली, कुत्ता, गधा और बकरी आदि आराम से बैठ जाते हैं।
"तुम कहाँ पर हो?" यह प्रश्न वह खुद से करने लगा क्योंकि वह जानता था कि आस- पास में कोई भी नहीं है। उसके जीवन में ग्राम्य-पंचायत की राजनीति का कोई प्रभाव नहीं है, कालेज समिति के पैसे मारने की कोई बदनीयती भी नहीं है। मिश्रा साहब की बड़ी लड़की के किसी शूद्र जाति के लड़के के साथ भाग जाने का कोई स्थान नहीं था। यहाँ तक कि वह किसी के सपनों में भी नहीं। उसके सपनों में तो था सिर्फ एक बाघ, जो स्वामीभक्त स्वान की तरह उसका अनुसरण कर रहा था। वह अपने बेटे की मुट्ठी पकड़कर चल रहा था। सुरुननी ने अपने दिल के टुकड़े को अच्छी तरह से नहला कर तैयार किया था। उसके बालों में तेल डालकर संवार दिया था। साफ पेंट-शर्ट पहनाने के समय सरुननी उससे कहने लगी, "बाबू के घर में उसे नया पेंट-शर्ट मिलेगा।"
सुरुननी ने अपने आपको संभाल लिया था। बेटे को खिलाते समय कहने लगी थी, "अभी तक यह अपने हाथ से खाना नहीं सीखा है। पराए घर में कैसे खाएगा?" कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू भर आए थे। घर से बाहर निकलने के समय सुरूननी उसको समझाने लगी, "देख, बेटा। बाबू की हर बात मानना। घर में मालकिन जो भी बोलेगी उसकी कोई भी बात मत टालना। किसी भी तरह की कोई बदमाशी मत करना। मन लगाकर पढ़ाई करना और ध्यानपूर्वक घर का सारा काम-काज करना।"
उसका बेटा गंभीर स्वभाव का था। उसने सिर हिलाकर हामी भरी। उसने सोचा था कि माँ से विदाई लेते समय बेटा फूट-फूटकर रोएगा। परन्तु उसकी भावना एकदम विरपीत थी। चलते-चलते वह खड़ा हो गया और कहने लगा, "बेटे, एक बात कहूँ?
"क्या बात है?"
"तेरी माँ को मैने सत्य नहीं बताया है।"
"कैसा सत्य?"
"तुम कहाँ जा रहे हो? इस बात की मुझे कोई जानकारी नहीं। शायद हो सकता है, तुम्हें किसी बाबू के घर में काम मिल जाए। नहीं तो किसी होटल में काम करना पड़े। मैं एक आदमी के साथ तुम्हें रायपुर भेज रहा हूँ।"
यह बात सुनकर वह लड़का कुछ समय के लिए स्तब्ध रह गया, फिर धीरे से कहने लगा, "आप मुझे किसी के हाथों में बेच रहे हो क्या?" उस आदमी ने सुरूननी के सामने सफेद झूठ बोला था। परन्तु उसके सामने बोलने की हिम्मत नहीं हो पाई। उसका गला थरथराने लगा था। उस लड़के की आँखों में पानी भर आया। वह कहने लगा, "पापा, मैं खाने के लिए कुछ माँग रहा था, इसलिए आप मुझे बेच रहे हो? मैं और कभी खाने के लिए कुछ भी नहीं माँगूगा।" बेटे की ये बातें सुनकर उसकी आँखे पसीज गई।
सुरूननी उनके पीछे दौड़कर आ रही थी। दौड़ते-दौड़ते वह कह रही थी, "बेटे का एक दांत हिल रहा था, उसको कहना याद रखकर हिलाकर उस दांत को निकाल देगा नहीं तो वहीं पर दूसरे दांत का खूंटा निकल जाएगा।"
सुरूननी का यह वात्सल्य देख उसका मन भर आया। वह अपने आपको जितना अमानुष सोच रहा था, शायद वह उतना नहीं है। उसके सीने में भी दिल धड़कता था। ऐसा विचार उसके मन में आते ही वह अपने बेटे की तरफ मनोवैज्ञानिक की भाँति देखने लगा। शादी के कम से कम आठ साल बाद सुरूननी ने बाबू को जन्म दिया था। प्रत्येक वर्ष उसका मन पुत्र-द्विदीया के दिन दुःख से भर उठता था।" सभी 'बेटा-दूज' के दिन उपवास करेंगे और मैं क्यों नहीं?" यही सोचकर वह 'बेटा-दूज' का उपवास रखती थी। उसको पाने के लिए उसने कितनी पूजा-अर्चना की थी, कितने उपवास-व्रत रखे थे। अत्यंत दयनीय अवस्था में होने के बाद भी वह खेतों में मजदूरी करने नहीं जाती थी, शादय यही सोचकर कहीं उसका बेटा पेट के भीतर खराब न हो जाए। इसी वजह से सास के साथ अक्सर उसकी लड़ाई होती थी।
भारत सरकार के महामान्य सरकार बहादुर ने देश के गणमान्य बाईस लेखकों को 'भारत-दर्शन' के लिए चयनित किया। उन्हें विमान-यात्रा के द्वारा सारी सुख-सुविधाओं के साथ भारत-दर्शन के लिए ले जाया गया। यहाँ तक सुरा व सुंदरी का भी प्रबंध था वहाँ। सुंदर ललनाएँ उनको देशी शीतल जल तथ विदेशी चाँकलेटे प्रदान कर रही थी। आकाश से उन्हें दिखाई दे रही थी शस्य श्यामल पर्वत की श्रृंखलाएँ। वे केवल नहीं देख पा रहे थे, छोटे-छोटे काले-काले झुकी कमर वाले वे लोग, उनकी भूख, उनके आँसू और बदन से झर रहे स्वेद-कण। उन लेखकों ने 'भारत-दर्शन' के ऊपर विभिन्न प्रकार के आलेख लिखे। सरकार के इस प्रकल्प में पैतीस लाख रूपए खर्च हुए।
वह बच्चा अभी भी अंधेरे से ड़रता था। डर के मारे रात को बाहर पेशाब करने नहीं जा पाता था। सोने के समय माँ को पकड़कर सोता था। जब कभी वह दोस्तों के साथ लड़ाई करके आता तो सुरूननी व्यग्र हो उठती थी। वह आदमी अपने बच्चे की दीन-पुकार सुनकर अत्यंत दुखी हो गया था "पापा, मैं खाना माँग रहा था, इसलिए आप मुझे बेच रहे हो?"
उसके इस प्रश्न से छाती भर आई और मन हो रहा था उठकर बच्चे को गले लगा ले। उसे पाँच सौ रूपए की कोई जरूरत नहीं है। वह अपने बच्चे को लेकर घर लौट जाएगा। अपने बच्चे का मासूम, गोल-मटोल चेहरा देखकर उसका मन कर रहा था उसे अपने सीने से लगा ले, ताकि उसके मन का बोझ कुछ हल्का हो जाए। जब वह छोटा बच्चा था, उसके सीने पर अपना सिर रखकर सोता था। उसे सोता दख उसका मन प्रफुल्लित हो उठता था। अब, इस बच्चे के चले जाने के बाद यह खाली घर उसे काटने दौड़ेगा। उसकी हार्दिक इच्छा हो रही थी कि वह उसी क्षण अपने घर की तरफ लौट जाए। बेटे के साथ उसको घर लौटता देख सुरूननी अवश्य खुश हो जाएगी। उसने अपनी मुट्ठी भींचकर बड़े प्यार से अपने बेटे की हथेली पकड़ ली। उसकी कोमल-कोमल हथेलियों को दबाकर उसने यह अनुभव किया कि अभी भी वह अपने बच्चे से खूब प्यार करता है। अरे, कहीं ऐसा तो नहीं वह आदमी एक दलाल हो? तभी तो एक दिन काँटापाली गाँव का मुखिया यह बात कह रहा था कि वह उसे बिल्कुल नहीं पहचानता। ऐसे अनजान आदमी के हाथों में बच्चे का सुपुर्द करना किसी खतरे से खाली नहीं है। कहीं उसने मेरे बेटे के हाथ-पाँव काटकर लूला-लंगड़ा बनाकर रायपुर के रास्ते में भीख माँगने के लिए बैठा दिया तो?
फिर से उस आदी आदमी की छाती भर आई। उसे लगने लगा किसी ने उसके पाँवों को जकड़ लिया हो। वह लौट जाने की सोचने लगा। जैसे ही उसने लौटने का निश्चय किया, वैसे ही ठीक उसी समय उसने देखा कि वहीं साइकिल सवार उसके नजदीक आकर कहने लगा "इस बच्चे के बारे में कह रहे थे क्या?"
देखते-देखते उस साइकिल सवार ने बच्चे को पीछे वाले कैरियर पर बैठा दिया तथा वहाँ से चला गया। यहाँ आते समय उस आदमी की मुट्ठी में अपने मासूम बच्चे का हाथ था, अब लौटते समय उसी हाथ में पाँच सौ रूपए की गरमी का अहसास था। लौटते-लौटते अन्यमनस्क होकर वह अपने शरीर को देखने लगा। उसने देखा उसका शरीर पीला पड़ गया था। बीच-बीच में काले धब्बे भी दिखाई देने लगे थे। उसने फिर ध्यान से अपने शरीर को देखा। सोचने लगा, कहीं यह सपना तो नहीं है। नहीं, यह सपना नहीं है। वास्तव में वह बाघ बन गया है। ठीक वैसा ही बाघ जैसा उसे अपने सपने में दिखाई देता था।
ठीक उसी तरह वह जम्हाई लेने लगा और घर के आँगन में जाकर जगुयारी करने वाले की तरह बैठ गया तभी घर के अंदर का दरवाजा बंद करके सुरूननी और उसकी माँ उसको देखकर भय से काँप रहे थे।