बाज़ार / नज़्म सुभाष
सुबह सात बजे फ्रेश होने के बाद फिर से बिस्तर में घुस गया हूँ वास्तव में सुकून की नींद मुझे सुबह के समय ही आती है। एक मीठी नींद लेने के बाद जब आँख खुली तो दीवार घड़ी दस बजा रही थी अभी हमने बिस्तर नहीं छोड़ा है। बिस्तर पर दो चार इधर-उधर की करवटें लेकर फिर पीठ के बल लेट गया हूँ। बदन को ढीला छोड़कर अब मैंने अपने दोनों हाथों की उंगलियों को आपस में फंसाया और ज़ोर से ऊपर की तरफ़ ताकत लगाई चट्... चट् ...चट्... सारी उंगलियाँ एक साथ चटक गई। मुझे मजा आ रहा है। इस समय बिस्तर में इतनी सलवटें पड़ चुकी हैं, जैसे वह बिस्तर न होकर कुरुक्षेत्र का मैदान हो जहाँ पर अनगिनत योद्धाओं ने अपने हाथी-घोड़े दौड़ाकर ज़मीन को तहस-नहस कर दिया हो कहीं-कहीं बिस्तर की मोटी सलवटें पीठ में चुभने भी लगी हैं।
"आज पूरा दिन लेटे ही रहोगे या चाय नाश्ता भी होगा?" अभी किचन से आकर राखी बेडरूम में दाख़िल हुई है
"आज तो छुट्टी है डियर" ...मैं मुस्कुरा देता हूँ
"सच में जाने किस काहिल से पाला पड़ गया है" ... वह मुझे मीठी-सी झिड़की देती है
"हा हा-हा जानेमन ...यह तो लखनऊ की आबोहवा कि ख़ासियत है काहिली तो आएगी ही"
"ठीक है लेटे रहो अब नहीं कहेंगे"
वह नक़ली ग़ुस्सा दिखाते हुए फिर से किचन में घुस गई। थोड़ी देर लेटे रहने के बाद मुझे सांसो में भारीपन महसूस हुआ। मैंने हथेली पर दो-तीन लंबी-लंबी सांसे छोड़ी और नाक के क़रीब ले जा कर सूंघा एक गंदली बास मेरे नथुनों में भर गई। रात में गुटखा खाकर कुल्ला करना भूल गया था। राखी अक्सर कहती रहती है "मत खाया करो यह ज़हर...वैसे भी इसकी दुर्गंध मुझसे सही नहीं जाती"
वह कई बार रात के "खुशनुमा पलों" में भी एक निश्चित दूरी रखती है जब भी मैं राखी के सुर्ख़ होठों पर अपने दहकते होंठ रखना चाहूँ वह मुझे पीछे धकेल देती है लेकिन कल उसने मेरी सारी बातें मानकर पूरा सहयोग किया क्योंकि मैंने उसे एक साड़ी दिलाने का वादा किया था
आज छुट्टी है इसलिए साड़ी आज ही दिलवानी है इस वक़्त मैं यही सोच रहा था कि कैसे साड़ी के लालच में वह मेरी उन बदबूदार सांसों को झेल गई जिन के लिए अक्सर ही रिश्ते तनावपूर्ण हो जाते हैं। मैं यही सब सोच ही रहा था कि दो साल की रोजी दौड़ते हुए आई और बिस्तर पर चढ़कर मेरे दाहिने गाल को चूम लिया
दो साल की बच्ची का निश्छल प्रेम ...
मैं गदगद हो उठा
"पापा उतो...चिज्जी दियाओ"
रोजी ने तोतली ज़बान में कहा और मुझे हाथ पकड़कर उठाने लगी। यह उसका रोज़ का नियम है पहले मेरे गालों पर किस करती है फिर चिज्जी की डिमांड ...
रोजी के हाथ खींचने पर मैं मुस्कुरा उठा।
"पहले एक किस्सी और दो तब चिज्जी दिलाएंगे"
उसने एक बार फिर मेरे गाल को चूमा।
"अब उतो चिज्जी दिआओ"
"अच्छा एक किस्सी इधर भी दे दो" ... मैं दूसरी तरफ़ का गाल आगे बढ़ाकर वात्सल्य में सराबोर होना चाहता था।
"ज्यादा न देब"
इस बार वह झुंझला उठी उसके इस कथन पर मैं खिलखिलाकर हंस पड़ा। वास्तव में मुझे पहले से ही पता था कि अब वह यही कहेगी ऐसा वह इससे पहले भी कई बार कह चुकी है।
"अच्छा ठीक है क्या लेगी मेरी बेटी" ...मैंने उसे गोद में उठा लिया
"अदुआ"
"अच्छा मेरी बेटी अदुआ लेगी"
दरअसल वह रसगुल्ला बोल नहीं पाती इसलिए "अदुआ" बोलती है।
फिलहाल उसने हाँ में सिर हिला दिया।
"ठीक है पहले कप्पे पहन लें फिर चलते हैं"
मैंने उसे गोद से उतारा तो वह अपनी मम्मा को बताने किचन की तरफ़ दौड़ पड़ी कि अदुआ लेने जा रही है मैं शर्ट पहन ही रहा था कि राखी की आवाज़ आई
"दो पैकेट पार्ले जी भी ले आना खत्म़ हो गए हैं"
"ठीक है ले आऊंगा"
मैंने गाड़ी निकाली रोजी को टंकी पर बैठाया। राखी दरवाजे़ पर खड़ी थी।
"मम्मा बाय-बाय" रोजी घर से बाहर जाते समय सबको बाय-बाय ज़रूर करती है राखी ने बाय-बाय करते हुए हाथ हिला दिया। मैंने गाड़ी स्टार्ट कर ली।
उसे अदुआ दिला कर मैं वापस आ ही रहा था कि उसकी नजर तोते पर पड़ गई
"पापा ...पापा... पट्टेपू..."
तोते को देखते ही वह ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगी। इसका मतलब यही था कि वह तोते से खेलना चाहती है
"देखो पहले घर चल कर अदुआ खा लो नहीं तो" पट्टेपू"खा लेगा"
मैंने उसे बहलाने की कोशिश की।
"न...पट्टेपू चैइए"
वह गाड़ी की टंकी ज़ोर-ज़ोर से पीटने लगी। थक हारकर मैंने उसे तोते के पास उतार दिया। वो खुश होकर खिलखिलाई और तोते के क़रीब जा पहुँची।
दरअसल मोहल्ले के एक घर में तोता पला है जिसे रोजी रोज़ खिलाने जाती है... वह पिंजरे के पास बैठ जाएगी फिर बड़े प्यार से बुलाएगी पट्टेपू ...
दो तीन बार रोजी के बोलने पर तोता भी "पट्टेपू-पट्टेपू' चिल्लाने लगता है और रोजी के लिए यही क्षण होता है जब वह खुशी से ताली पीटने लगती है। उसका यह शगल रोज का है। उस समय उसे बड़ा मज़ा आता है। जब रोजी तोते के पास बैठी हो तो किसी की क्या मजाल जो उसे वहाँ से हटा ले अगर कोई ऐसा करता तो वह ज़मीन पर पसर जाती और चीख-चीखकर रोने लगती। वहीं दूसरे घर में बिलायती चूहे और खरगोश पले हैं उनसे भी रोज़ मिलने जाती है कई बार तो घर से" टूटी" मांग ले जाती है उन्हें खिलाने के लिए ...अभी कुछ दिन पहले तोते से बातें करते-करते उसे जाने क्या सूझी उसने पिंजरे में अपनी उंगली डाल दी। शायद वह उसे सहलाना चाहती होगी। उस वक़्त वहाँ पर कोई था नहीं जो उसे रोकता। तोते ने अंदर आई उंगली को काटा नहीं अलबत्ता चोंच में दबा ज़रूर लिया, शायद उसे ख़तरे की उंगलियों की शिनाख़्त रही हो मगर रोजी डर गई चीखते हुए उसने अपना हाथ खींच लिया।
उसके बाद उससे कोई पूछता पट्टेपू ने कहाँ काटा था तो वह वही उंगली सामने कर देती और सामने वाले से उम्मीद करती कि वह फूंक मारेगा हालांकि इस घटना के बाद भी उसने तोते से मिलना नहीं छोड़ा लेकिन सतर्क ज़रूर हो गई थी ।लिहाजा दूर से ही बातें करती।
कई बार तो ऐसा भी हुआ कि रात बारह बजे उसे पट्टेपू की याद आई और उसने उससे मिलने की डिमांड कर दी अब इतनी रात को उसकी इस डिमांड का क्या किया जाए? किसी तरह बहला-फुसलाकर उसे सुलाया जाता कई बार जब वह ज़्यादा ज़िद करती तो झुंझलाहट भी होती...
साप्ताहिक बाज़ार होने के कारण अमीनाबाद में आज काफ़ी भीड़ थी। तिल रखने की जगह नहीं। कपड़ों की खरीदारी के लिए बेशक जगह-जगह माल और बड़े-बड़े स्टोर खुल गए थे किंतु मुझे पसंद अमीनाबाद ही आता है। जितनी वेराइटी यहाँ दिख जाती कहीं और मिलना मुश्किल था। चार-पाँच दुकानों की दर्ज़नों साड़ियाँ उलझवा देने के बाद बड़ी मुश्किल से राखी को एक साड़ी पसंद आई। बिल चुकता करके हम तीनों बाहर आ गए।
"और कुछ लेना है"
मैंने राखी से पूछा
"हाँ एक सूट के लिए मैचिंग का दुपट्टा चाहिए"
"अभी पेट नहीं भरा" मेरे इस कथन पर राखी खिलखिलाने लगी
"अच्छे दुपट्टे तो अकबरी गेट के पास मिलेंगे"
मैंने कहा
"तो वहीं चलते हैं"
"वैसे भी रास्ते में ही पड़ेगा"
हम बाज़ार से निकल ही रहे थे की रोजी ने एक गोलगप्पे का स्टाल देखा तो चहक पडी-"पापा ...पापा... दोलगप्पा"
"मेला बाबू दोलदप्पा खाएगा"
बदले में रोजी ने हाँ में सिर हिला दिया
"तुम भी खा लो" मैं राखी से मुख़ातिब हुआ
"क्यों तुम नहीं खाओगे?"
"नहीं"
"कंजूस"
राखी ने मुझे ताना मारा
"इसमें कंजूसी की क्या बात?"
"तुम्हारी रग-रग से वाकिफ़ हूँ दस रुपए जो बचेंगे"
"हा हा-हा यही समझ लो"
"समझ क्या लूं मुझे सब पता है"
"ठीक है बाबा गोलगप्पे खाओ दिमाग नहीं"
कहकर मैं हंसने लगा
"मैं खाऊंगी ही मुझे थोड़ी ना बचाने हैं 10रुपए"
कहकर उसने दोना थाम लिया स्टाल वाले ने एक मीठा गोलगप्पा रोजी को पकड़ा दिया। मैंने उसे खिलाने की कोशिश की तो उसने छीन लिया "आपे थाऊंगी"
"ठीक है आपे खाओ"
वह कुतर-कुतर कर गोलगप्पा खाती रही और चटनी से फ्राक गंदी करती रही जिसे बाद में रुमाल से रगड़ कर साफ किया गया।
अब गाड़ी तेजी से नादान महल रोड की तरफ भाग रही थी। एक जगह नादान महल रोड़ का नाम पढ़कर राखी ने पूछा-" ये कैसा नाम है?
"जानना चाहोगी क्या?"
मैंने गाड़ी की स्पीड धीमी करके उससे पूछा।
"हाँ हाँ क्यों नहीं"
"तो ठीक है सुनो, दरअसल लखनऊ के तीसरे नवाब आसफुद्दौला का निकाह दिल्ली के दीवान की बेटी शमसुन्निशां से 1769 में फैजाबाद में हुआ ये बेहद अमीरी में पली-बढ़ी थी लिहाज़ा इन्हें बाहरी दुनिया कि कोई ख़बर न थी। तुम इनकी अमीरी का अंदाज़ा इसी बात से लगा सकती हो कि ढाई सौ साल पहले हुई फै़जाबाद में इनकी शादी में चौबीस लाख रुपये का ख़र्च आया था। आज के हिसाब से सोच कर देखिए"
"बाप रे! इतना ख़र्च... ग़ज़ब के लोग थे तब"
उसे बेहद आश्चर्य हुआ।
मैं दुबारा बताना शुरू करता हूं-
" तो हुआ यूं कि इन्हीं नवाब साहब ने अपनी माँ बहू बेगम से बगावत करके फै़जाबाद को छोड़कर लखनऊ को राजधानी बनाया और खूब शाह ख़र्ची की। यहाँ तक उन्होंने अपनी माँ को सताने की तमाम तरक़ीबें भी निकालीं और एक बार तो कुछ अंग्रेजों के साथ मिलकर उनका ख़जाना लूटने की कोशिश भी की।
उसके बाद 1784 में लखनऊ में भयंकर अकाल पड़ा ग़रीब भूखों मरने लगे। ऐसे में ग़रीब जनता शीशमहल के बाहर इकट्ठा होकर नवाब साहब के सामने फ़रियाद लेकर आई। चूंकि बेग़म शमसुन्निशां नवाब आसफुदौला कि मुख़्य बेग़म थीं और लखनऊ दरबार की राजवधू भी, लिहाज़ा जनता दरबार में उन्हें भी आना पड़ा। जब जनता ने फ़रियाद करते समय कहा कि उन्हें कुछ भी खाने को नहीं मिल रहा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने हैरान होकर कहा-"क्या सच में कुछ नहीं मिलता?"
जनता ने बेबसी में सिर हिला दिया तो उन्हें और आश्चर्य हुआ।
"क्या तुमको हलुआ-पूरी भी नहीं मिलता" उन्होंने बड़ी मासूमियत से पूछा तो जनता का धैर्य जवाब दे गया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। बेग़म साहिबा को किसी तरह वहाँ से हटाया गया।
...और इसी वाकये के बाद लखनऊ की भूलभुलैया और रूमी दरवाजे़ के निर्माण का खाका नवाब साब के जे़हन में आया था।
ख़ैर, बेग़म साहिबा कि ऐसी ही नादानियों की वजह से इनका नाम नादान महल पड़ गया। जब इनकी मौत हुई तो यहीं पास में ही उन्हें दफ़नाया गया था और इस सड़क का नाम उनके ही नाम पर नादान महल पड़ गया।
"बड़ी इन्ट्रेस्टिंग स्टोरी थी इनकी...सुनकर मज़ा आ गया...वैसे तुम्हें कैसे पता?"
" मेरी आधी से ज़्यादा उम्र लखनऊ में गुजर चुकी है...इतनी तो जानकारी होनी ही चाहिए।
मेरी बात पर वह मुस्कुराई। अब मैंने भी गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी थी।
नक्खास चौराहे पर पहुँचकर मैंने गाड़ी तुलसीदास मार्ग की ओर मोड दी। रोजी गाड़ी की टंकी पर बैठी दोनों तरफ़ के नजारे लेती हुई चहक रही थी। अचानक जैसे ही दाहिनी तरफ़ चिड़िया बाज़ार उसे दिखा वह हर्षातिरेक में चीख उठी
"पापा ...पापा पट्टेपू...नई-नई चर्रो... पापा... पापा"
रोजी को इस तरह खुशी से चहकते देख कर मुझे याद आया कि अक्सर वह रात में पट्टेपू से मिलने की ज़िद करती है क्यों न एक तोता खरीद लिया जाए?
मैंने गाड़ी चिड़िया बाज़ार की ओर मोड़ दी। अब मैं चिड़िया बाज़ार के सामने खड़ा था।
नवाबी काल से सजा हुआ यह रंग बिरंगा चिड़िया बाज़ार...अनगिनत चिड़ियों के गुंथे हुए मधुर स्वर... हर तरह की चिड़िया ...देसी भी...विदेशी भी ...हरी, पीली, काली, नीली, सफेद, ।धूसर... अनगिनत रंग। ...अनगिनत शेड ...प्रकृति की अनुपम चित्रकारी ...सब कुछ भूल कर मैं एकटक उन्हें निहारता रहा। रोजी रंग बिरंगी चिड़ियों के साथ उछल-कूद करते हुए ताली बजा रही थी
"पाप...पापा...खग्गोश ...पापा ...पट्टेपू... तुबूतर... वह बार-बार मेरे पैरों से आकर लिपट जाती जैसे अपनी खुशी की तरफ ध्यान आकृष्ट कराना चाहती हो। मैंने दुकानदार से पूछा-" पिंजरे सहित तोता कितने का है "
"तीन सौ रुपए का"
मैं बड़े से पिंजरे में बंद दर्ज़नों तोते में से कोई एक खूबसूरत तोता पसंद करना चाहता था लिहाज़ा राखी से मुख़ातिब हुआ-"तुम्हें कौन-सा तोता पसंद आ रहा है?"
"मुझे तो सभी प्यारे लग रहे हैं"
फिर भी "
"ऐसा करो वह वाला निकलवा लो"
उसने एक तोते की तरफ़ उंगली उठाई। अब मुझे उस तोते पर ध्यान केंद्रित करना था ताकि दुकानदार को बता सकूं। मैं दुकानदार से उस तोते को पिंजरे में डालने के लिए कहने ही वाला था कि एक और ग्राहक आ गया।
"फाख़्ता मिलेगा"
"हाँ मिलेगा"
"कितने का है"
"नब्बे रूपये का"
"क्या कहते हो भैया ...हफ़्ते भर पहले ही साठ रुपए में ले गए थे" जैसे उसने याद दिलाना चाहा।
"दिया होगा भाई मगर इस टाइम बड़ी सख़्ती चल रही है... सामने ही चौकी है ...रोज तो मामा चले आते हैं।"
उसने सफ़ाई दी।
"फिर भी तीस रूपये ज़्यादा बता रहे हो"
ग्राहक ने "तीस रुपये" पर विशेष जोर दिया।
"चलिए आप पुराने ग्राहक हैं अस्सी में लगा देंगे"
"मुझे पांच चाहिए सत्तर के दाम देंगे"
"अच्छा ठीक है भाई ले जाओ" ...फिर कुछ सोच कर आगे जोड़ा-"ज़िन्दा ले जाओगे"
वह हंसा "मुझे फाख़्ते उड़ाने नहीं है ...मीट बना दो..."
उसने जैसे ही कहा एक क्रूर हाथ ने पांच फाख़्ते बाहर खींच लिए। वो फड़फड़ाते हुए अजीब-सी आवाज़ निकालते रहे। यह उनकी मृत्यु से आख़िरी जंग थी मगर इस जंग में उनकी क्या बिसात? उसने बड़ी बेरहमी से उन्हे पकड़ा और एक झटके में गर्दन मरोड़ दी।
दस सेकंड पहले का जीवित जिस्म अब थरथरा रहा था ...फिर शांत हो गया। अब वह उनके मुलायम पंखों को नोच रहा था अभी कुछ देर पहले की चहकती हुई रोजी इस वक़्त थर-थर कांप रही थी।
"पापा ...पापा" वह मेरे पैरों में आकर चिपक गई मैंने उसे गोद में उठा लिया। नुचते हुए फाख़्तों के संग असंख्य कर्कश स्वर एक साथ गूंज उठे जैसे सारे परिंदे इस हत्या पर अपना आक्रोश जता रहे हों। यह दृश्य रोजी के बाल मन में चिपका तो उसके चेहरे पर अजीब-सा भय उतर आया।
"पापा ...पापा... चर्रो मग्गई"
उसने नुचते हुए फाख़्ते देख कर बड़ी मासूमियत से मुझसे पूछा
"हाँ बेटा चर्रो की यही नियति थी" मैं कहना चाहता था पर शब्द हलक में अटक कर रह गए। मेरा मुंह सूखने लगा था। मैंने होठों पर जीभ फेर ली।
मैं तोता खरीदे बिना ही वापस मुड़ने लगा।
"क्या हुआ भाई साहब ... रुकिए तो"
मुझे जाते देख कर दुकानदार ने आवाज़ दी मगर मैंने पीछे मुड़ कर देखना मुनासिब न समझा। इस वक़्त रोजी राखी के सीने से चिपकी हुई थी
"कुछ तो बताइए"
दुकानदार का स्वर एक बार फिर मेरे कान से टकराया। अब तक मैं गाड़ी स्टार्ट कर चुका था। राखी ने सीट पर मुझे कसकर भींच लिया।