बाजारवाद / कविता वर्मा
कामवाली बाई उस दिन चहक के बोली दीदी मैं अगले महीने मोबाइल ले लूँगी फिर कभी छुट्टी करना होगी तो आपको फ़ोन कर दूँगी। आप अपना नम्बर दे देना। चलो एक सुविधा हो जाएगी उन्होंने प्रकट में कहा।
उसके पति के पास एक मोबाइल फोन है ही फिर दूसरे की क्या जरूरत है। बाज़ार ने किस तरह हर तबके के दिमाग में घर बना लिया है वे सोचती रह गयीं।
मोबाइल लेने से पहले ही बाई ने दो दिन की छुट्टी कर ली। वापस आयी तो पता चला पानी में काम करते उसे ठण्ड बैठ गयी है। बस्ती के ही किसी झोलाछाप डॉक्टर से दो गोलियाँ ले कर काम पर आ गयी है।
किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा कर ठीक से इलाज़ करवा लो पसलियों का दर्द तकलीफ देता है, उन्होंने समझाया।
हाँ दीदी अभी पैसे नहीं है पैसे आ जायेंगे तो दिखा दूँगी। रोज़ एक -दो गोलियां इससे उससे लेकर खाती रही और काम करती रही।
एक दिन बड़ी खुश खुश आयी और आते ही मेरे हाथ में कुछ रखा। दीदी देखो मेरा नया मोबाइल फ़ोन अच्छा है न? उसकी ख़ुशी मन में नहीं समा रही थी।
हाँ हाँ बहुत अच्छा है कितने का लिया? मैं उसकी ख़ुशी किसी उपदेश दे कम नहीं करना चाहती थी सो उस में शामिल हो गयी।
पूरे 1000 रुपये का है। देखो दीदी इसमें घंटी भी कितनी सारी है कभी ये लगा लो कभी वो।
लगता है कल सारी रात मोबाइल में क्या क्या है तूने यही सीखने में लगा दी, मैंने हँस कर कहा।
मोबाइल अपनी अलग अलग घंटियों के साथ गूँजता रहा और वह दिन में भी अपने पति से कभी माँ से बातें करती चहकती रही पसलियों में ठण्ड जमती रही और इलाज़ पैसे मिलने का इंतज़ार करता रहा।