बाजार की पकड़ में अब मां का दूध / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :28 मार्च 2015
रोजमर्रा के जीवन में और फिल्मों में प्राय: कहते हैं 'अपनी मां का दूध पिया हो तो यह करके दिखा।' मां का दूध शक्ति का मापदंड बन गया है और प्राय: यह भी कहां जाता है कि मां के दूध का कर्ज चुकाना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है। एक फिल्म में तो एक मां नन्हे सांप को अपना दूध पिलाती है और कालांतर में मां के संकट में आने पर वह सांप उसे बचाकर अपने दूध का कर्ज चुकाता है। विज्ञान भी स्वीकार करता है कि मां का दूध न केवल संपूर्ण आहार है वरन् उसके पीने वाले को कोई रोग नहीं होते गोयाकि मां का दूध तरल कवच है जो सारा जीवन आपकी रक्षा करता है। कुंती कर्ण को सूर्य द्वारा कुंडल कवच की भेंट दिलवाती है गोयाकि विज्ञान, मायथोलॉजी और समाज मां के दूध की शक्ति को स्वीकार करते हैं।
अब अमेरिका में आप किसी व्यक्ति को कैसे उसकी मां के दूध की चुनौती देंगे। यहां आशय डिब्बे के दूध से नहीं है, क्योंकि वह तो सभी देशों में बच्चों को दिया जाता है। आधुनिका को फिगर बिगड़ने का भय है, अत: वह दूध नहीं पिलाती। यूं भी बच्चे को जन्म देने का अनुभव वह कर चुकी है। यहां यह दूध गाथा का कारण यह है कि अमेरिका की ग्रेटा अमाया ने अपने बच्चे को पेटभर के दूध पिलाने के बाद, सप्रयास अतिरिक्त दूध निकाला और उसे 6 माह तक बेचकर 52 हजार डॉलर की कमाई भी की। यह अमेरिका के मियामी की ताजा घटना है, जिसे एन्ड्रयू पोलक नामक पत्रकार ने उजागर किया। एक फार्मा फैक्ट्री अमाया की तरह अन्य माताओं से दूध खरीदकर उसे वैज्ञानिक प्रक्रिया से फ्रोजन क्यूब में बदलकर बाजार में बेचती है। जिन माताओं को किसी शारीरिक कमतरी के कारण दूध नहीं आ पाता, वे इसे खरीदकर गर्म करके अपने बच्चों को पिलाती हैं। मां के दूध से बनाया प्रोटीन सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुआ है। इस खाकर कई लोग अखाड़े में दम ठोकते हैं।
सदियों से मान्यता प्राप्त मां का दूध अब एक उत्पाद की तरह प्रचारित करके बेचा जा रहा है। प्रयोगशाला का प्रमाण-पत्र आया है कि मां का दूध 'सफेद प्लाज़्मा' की तरह जीवन दायक है। अनेक जान लेवा बीमारियों का इलाज जिस तरह ब्लड-प्लाज़्मा से होता वैसे ही मां के दूध के 'सफेद प्लाज़्मा' से भी हो सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि मां के दूध का रोजगार अभी शिशु अवस्था में है, इसकी अनंत संभावनाएं हैं। शोध कार्य जारी है।
इस तरह के दूध के बैंक पहले भी सक्रिय रहे हैं परंतु उसमें लाभ नहीं कमाया जाता था। वे मानसिक प्रेम और करुणा के लिए किए जाते थे परंतु बाजारीकरण के कारण कई जरूरतमंद माताएं अपने बच्चे का हक भी बेचने को बाध्य हो सकती हैं और लाभ-लोभ नामक दैत्य इस पूरे खेल को बदल सकता है और हमारे देश में तो मां के दूध के नाम पर नकली माल भी बेचा जा सकता है। दूध माफिया उभर सकता है, जो बंदूक और भय की नोक पर मां के दूध का 'उत्पादन' करा सकता है। इसके साथ यह मुद्दा भी जुड़ा है कि यह कौन तय करेगा कि बच्चे का पेट भरने के बाद यह 'अतिरिक्त दूध' है, जिसे बेचा जा सकता है। क्या दूध इंस्पेक्टरों की नियुक्ति होगी और वे रिश्वत भी लेंगे। अब नारी शोषण गाथा में नया अध्याय जुड़ रहा है। आश्चर्य है कि किसी व्यापारी को हिमालय के बर्फ बेचने का ख्याल नहीं आया वरना अमीर आदमी अपनी आयात की शराब में डालता और लोभ के पाप से मुक्त भी हो जाता। पहाड़, नदियां, धरती कुछ भी बाजारीकरण से बच नहीं सकते। 'पैकेज्ड पवित्रता' संभव है। कुछ इस तरह का दृश्य याद आता है कि विस्थापित किसान की व्यथा-कथा 'ग्रैप्स ऑफ रेथ' में एक मां अपनी सास के आग्रह पर भूख से मरते अधेड़ किसान को अपना दूध पिलाकर कुछ समय के लिए जीवित रखती है। यह दूध पिलाना न अश्लीलता थी, न व्यापार था। यह सिर्फ मानवीय करुणा थी, जो बाजार की क्रूरता का शिकार हो जाएगी।