बाजार वेब / राजनारायण बोहरे
एकबारगी मैं तो पहचान ही नहीं पाया उन्हे। ़़
कहाँ वह अन्नपूर्णा भाभी का चिर-परिचित नितांत घरेलू व्यक्तित्व और कहाँ आज उनका ये अति आधुनिक रूप! चोटी से पांव तक बदली-बदली-सी लग रही थीं।
वे कस्बे के नये खुले इस फास्टफूड कॉर्नर से जिस व्यक्ति के साथ निकल रहीे थीं, वह सोसाइटी का कोई भला आदमी नहीं कहा जा सकता था। मुझे तो ऐसा लगा कि सिर्फ़ संग-साथ वाली बात नहीं, यहाँ कुछ दूसरा ही मामला है। क्योंकि वे बात-बेबात उस भले आदमी से सट-सट जा रहीं थीं, जैसे उसे पूरी तरह रिझाना चाहती हों!
आज उन्होने बनने संवरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी थी। उनके चमक छोड़ते गोरे बदन पर 'सब कुछ दिखता है' नुमा कपड़े सरसरा रहे थे। हल्की शिफॉन की मेंहदी कलर की साड़ी से मैच करता लो कट ब्लाउज, इसी रंग की बिन्दी और कलाई भर चूड़ियाँ, पांव में मेंहदी कलर की ही चौड़े पट्टे की डिजाइनदार चप्पलें और ताज्जुब तो ये कि हाथ के पर्स का भी वहीं रंग। मैंने उन्हे गौर से देखा तो ठगा-सा खड़ा रह गया।
मैं ऐसी जगह खड़ा था, जहाँ से होकर उन्हे निकलना था। मुझे यहाँ पाकर वे कोई संकोच अनुभव न करेें, इस लिये मैं वहाँ से हटा और पीसीओे-बूथ की ओट में आ गया।
यह संयोग ही था कि वे दोनों पीसीओ वूथ में प्रविश्ट हो गये। वे कह रहीं थी-" आप ग़लत अर्थ मत लगाइये, किसी के यहाँ जाने से पहले आजकल फोन कर लेना ठीक रहता है। पता नहीं वे फुरसत में हैं या नहीं, या फिर उन्हे कहींे बाहर जाना हो, या ये भी हो सकता है कि वे बाहर ही चले गये हों।
उनके साथ वालेे व्यक्ति ने निरपेक्ष भाव से कहा था-"अरे मैं कहाँ बुरा मान रहा हंू। आप का कहना दुरूस्त है मैेडम!"
वूथ में फोन डायल करने तक सन्नाटा रहा, फिर कुछ देर बाद आवाज गूंजी-"हलो सिमरनपुर से! पटेल साहब हैं क्या? मैं मनीराम बोल रहा हंू। ज़रा बात कराइये उनसे।"
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"हलो पटेल साहब, मैंने कहा था न, मैं आज मिलने आ रहा हंू। उन्हे साथ ला रहा हूँ।"
कुछ देर बाद वे लोग बाहर आये। मनीराम ने जेब से चाबी निकाल कर अपनी वाइक स्टार्ट की और पीछे देखने लगा। अन्नपूर्णा भाभी अपनेपन की भीतरी खुशी से मुस्कराती हुयी लपक के मनीराम के पीछे बैठ गयी। गियर डाल के मनीराम ने गाड़ी आगे बढ़ायी तो वे मनीराम पर लद-सी गयीं।
मैं निराश-सा वहाँ से मुड़ा और अपने बीमा ऑफिस की ओर चल पड़ा।
अगले दिन मेरा मन न माना तो मैं सुबह-सुबह उनके घर जा धमका।
उनके सरकारी क्वार्टर के बाहर, बाउंण्ड्रीवाल पर पुरानी नाम-पट्टिका की जगह पीतल की नयी चमकदार नेम-प्लेट लग चुकी थी-भरत वर्मा, क्षेत्रीय अधिकारी।
दरवाजा वर्माजी ने खोला, मुझे देख कर वे थोड़ा चौंके-"क्यों साहब, प्रीमियम ड्यू हो गया क्या?"
हमेशा बनियान-पैजामा पहने रहने वाले वर्माजी को आज मैंने अच्छी क्वालिटी के गाउन में सजा-धजा देखा तो उनके रहन-सहन में मुझे काफी बदलाव महसूस हुआ। लेकिन गौर किया तो उनके पैतालीस वर्शीय बदन को वैसा ही दुबला और कमजोर पाया। वही गरदन के पास से झांकती कालर बोन, कपोलों पर माँस से ज़्यादा हाड़ दर्शाता सूखा-सा चेहरा ओैर वे ही खपच्चियों से लटके दुबले लम्बी अगुंलियों वाले हड़ियल हाथ। उन्हे आश्वस्त करता हुआ मैं बोला-"नहीं वर्मा जी, प्रीमियम तो तीन महीने बाद है! मैं तो बस यूं ही...!"
"कोई बात नहीं, स्वागतम्! ...आइये न!"
'मैं प्रसन्न मन से भीतर घुसा और सोफा की सिंगल सीट पर पसर के बैठ गया। वर्माजी मेरे ऐन सामने बैठे फिर मुस्कराते हुये बोले-"और सुनाइये, आपकी प्रोग्रेस कैेसी है? अब तक' डी एम क्लब' के मैम्बर बने या नहीं!"
"हाँ, वह तो मैं दो बरस पहले ही बन गया था, अपनी ब्रांच का पहला करोड़पति ऐजेण्ट हूूं मैं।" बताते हुये मैं पुलकित था, पर भीतर ही भीतर सोच रहा था कि पहले कभी किसी बात में रूचि न लेने वाले वर्माजी आज बड़ेे व्यवहारिक दिख रहे है। ऐसा क्यों है?
तभी भीतर से अन्नूपूर्णा भाभी की 'कौन हैं जी' मीठी आवाज आयी तो मेरा दिल उछल के हलक में आ गया, मेेरी निगाहें बैठक कक्ष के भीतरी दरवाजे पर टिक गयीं।
सुआपंखी रंग की ज़मीन पर गहरे काले रंग की छींट वाला, सूती कपड़े का ढीला-ढाला गाऊन पहने, दोनों हाथ पीछे करके जूड़ा बांधती वे जब नमूदार हुयीं, तो मैं ठगा-सा उन्हे देखता ही रह गया। इस अस्त-व्यस्त दशा में भी वे गजब की जम रहीं थीं।
मुझे देखकर वे गहरे से मुस्करायीं और हाथ जोड़कर बोलीं-"अरे गुप्ताजी आप आये हैं! बड़ी उमर हैं आपकी! मैं कल ही इनसे कह रही थी कि एक दिन आपसे मिलना है। आप न आते तो मैं आज ही आपके पास आ रही थी।"
हमें बतियाता देख, यकायक वर्माजी चुपचाप खिसक गये।
और अब जाने क्यों मैं खुद को सहज नहीं पा रहा था।
मुझे सोच में पड़ा देख वे तपाक से बोलीं-"अरे अमर, किस टैन्शन में फंसे हुये हो आज!"
"कहाँ ़-़ ़? मैं किसी टैन्शन में नहीं हूँ।" कहता हुआ मैं मुस्कराने की व्यर्थ-सी कोशिश करने लगा-"आपके बच्चे नहीं दिख रहे आज!"
"वे दोनों स्कूल गये हैं" कहते हुये वे मुझसे पूछने लगीं-"आपने बीमा एजेंसीं लेते वक्त, ग्राहक को डील करने का कोई खास कोर्स किया था क्या?"
" नहीं तो, बस पन्द्रह दिन का ओरियेंटेसन प्रोग्राम हुआ था, मंडल कार्यालय में! क्यों कोई खास बात? '
मुझे लगा, आज कोई ख़ास बात है, इसी वजह से वे इतना अपनत्व दिखा रही हैं। वे इस तरह धाराप्रवाह ढंग से मुझसे बतियाने में जुट गयीं कि मैं उन्हे ठीक ढंग से देख ही नहीं पा रहा था। क्योंकि मुझे घूरती हुई वे लगातार बोलती जा रही थीं।
वर्माजी चाय बहुत अच्छी बनाने लगे थे।
बिस्कुट कुतरते समय वे गहरे आत्मविश्वास में डूबी थीं, मैं उनके व्यवहार पर क्षण-क्षण चकित था। बीमा की किश्त लेने मैं हर छह माह में इनके यहाँ आता रहा हूँ। बीच में नयी लांच की गयी पॉलिसी लेने के लिये उनको पटाने भी मैं अक्सर आ जाता था, ऐसे में कभी वर्माजी पूजा वगैरह में बिजी होते तो वे मुझसे बतियाने बैठ जातीं थी।
बातों का सबब भी सिर्फ़ एक-बच्चे। तब वे एक घरेलू महिला के रूप में दिखाई देती थीं। अपने बेटे तापस और बेटी वन्या से परिचय कराते वक्त वे हर बार बच्चों से कभी इंग्लिस पॉयम सुनवातीं तो कभी इंटरनेट के बच्चों वाले जोक। बच्चों के टेलेंट प्रदर्शन का खास ध्यान रखती थीं और यह बताना कभी नहीं भूलतीं वे कि उनके जीवन का एक-एक पल बच्चों को समर्पित है, क्योंकि अपनी तो जैसे-तैसे कट गई, इन बच्चों का जीवन बन जाय इससे ज़्यादा क्या होगा। बच्चे भी हर समय फूल से खिले रहते, माँ से हिड़सते रहते, 'मम्मी ऐसा करो वैसा करो।' यानी कि हर बार मेरे और उनके बीच बच्चे होते थे, वे स्वयं इतनी खुलकर कभी नहीं मिलतंी थीं।
अधिकांश वर्माजी के साथ ही मेरी चाय होती थी। तब वे किचेन में काम करते हुए या बच्चों के कपड़ों में बटन टांकते हुए कभी-कभार बैठक में आती थीं और मुझसे नमस्ते करके भीतर गुप्प हो लेतीं थीं।
मेरी निगाह उनके मोहक चेहरे औेर ढील-ढाले गाऊन में से उभरते उनके दिलकश बदन को ताकने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही थी और अब अपने को ताके जाने का ज्ञान होने के बाद, वे मुझसे नजरें नहीं मिला रही थीं, छत को बेेवजह घूर रहीं थी, यानी खुद को ठीक से ताकने का मौैैैैैैैैैका दे रही थीं।
शाम को कार्यालय से लौटकर, मैं बाथ रूम से बाहर ही आया था कि पत्नी ने आँखें चमकाते हुये कहा-"जाओ, बैठक में एक स्मार्ट और सुंदर-सी महिला आपसे मिलना चाहती है।"
मै समझ गया कि वे ही होंगी।
पांच मिनट में ही बाहर जाने वाले कपड़े पहन, सेंट का छिड़काव कर मैं बैठक
मंे था।
' नमस्ते! सॉरी, मुझे ज़रा देर हो गयी। " आवाज में ढेर-सी मुलामियत भर के मैं अदब से झुकते हुये बोला।
"नमस्ते, नमस्ते!" वे चहकीं।
"अरे शुभा! भाभी जी को चाय पिलाओ, औेर देखना, जरा बिस्कुट वगैरह लेती आना।" मेैंने भीतर की ओर मुंह करके पत्नी से इल्तिज़ा की।
"अरे रहने दीजिये, गुप्ता जी. मेरे रिसोर्श परसन आने वाले हैं, उन्हे चाय पिला देना आप।"
"रिसोर्श परसन माने?"
"माने मुझे काम सिखाने वाले! मेरे अपलाइनर!"
"आप कोई काम करने लगी हैं क्या इन दिनों!"
"आपको पता नहीं, मैंने पिछले महीने से एक बिजनेस शुरू किया है। आपको जानकारी होगी कि कुछ ऐसी मल्टी नश्शनल कंपनियाँ हैं, जो विज्ञापन में फिजूलखर्ची नहीं करती बल्कि अपना नेटवर्क डेवलप करके और अपने ऐजेंट नियुक्त करके सीधे ग्राहकों तक अपनी वस्तुयें पहुंचाती हैं।"
"हँू!" मैंने गंभीर होते हुये उनकी बात में रूचि प्रदर्शित की।
वे बोलीं-"मैंने अभी तक ज़्यादा काम नहीं किया, इसलिये मैं ज़्यादा नहीं बता सकती, बस मेरे रिसोर्श परसन आ रहे है! ं वे आपको विस्तार से सारी बातें समझायेंगे।"
शुभा चाय लेकर आयी तो उनने उठ कर उससे नमस्ते की और बोली-"आप भी बैठिये भाभी जी, दरअसल मैं जिस काम से आयी हूँ, वो आप दोनों पति-पत्नी मिलके ज़्यादा अच्छी तरह से कर सकेंगे।"
...अब मेरी भौेहों में बल पड ़गये थे।
झिझकती-सी शुभा बैठ तो गयी, पर उसकी निगाहें जमीन से चिपक गयी थीं। यकायक मुझे लगा कि शुभा तो मेरी इज्ज्त खराब करे दे रही हैं। इसे इतना संकोची नहीं होना चाहिए कि एक ओेैरत के सामने भी नयी दुल्हन-सी शरमाये।
हमारी चाय खत्म ही हुयी थी कि उनके वे रिसार्श परसन आ गये। मैने उनका स्वागत किया और अपना परिचय दिया-"मैं अमर गुप्ता, बीमा ऐजेंट।"
"मैं जम्बो कंपनी का एक छोटा-सा वर्कर-सिल्वर एजेंट मनीराम!"
हम लोग हाथ मिला कर बैठने लगे तो शुभा बर्तन समेट कर बाहर जाने लगी, वर्मा भाभी ने उसे फिर रोका-"भाभी आप रुकिये प्लीज!"
"मैं अभी आती हूँ" कहती हुयी शुभा पीछा छुड़ा कर भागी और भीतर पहुंच के बर्तन बजाकर मुझे अन्दर आने का इशारा करने लगी।
मैं भीतर पहुंचा, तो वह झल्ला रही थी-"कोैन है ये सयानी मलन्दे बाई!"
हँसते हुये मैं बोला-"तुम काहे जल रही हो? बेचारी वह तुम्हे क्या सयानपन दिखा रही है? वह अपना कोई प्रॉडक्ट बेचने आयी है।"
"हमे नहीं खरीदना उसकी कोई चीज। उससे कहो अपने खसम के साथ उठे औेर कहीं दूसरी जगह जाकर नैन मटक्का करे! और जोे मर्जी हो बेचे, चाहे गिरवी रखे।"
मै शरारतन मुस्कराया-"अरे यार, हजार-दो हजार रूपये देकर इतनी कमसिन और ख़ूबसूरत औरत के साथ बैठने का मौका मिल जाये तो महंगा नहीं है।"
शुभा की आँखें अंगार हो गयीं थीं, वह जलते स्वर में बोली-"कहे दे रही हूँ, मैं अभी बैठक में जाकर उसे घर से बाहर निकाल दंूगी।"
मुझे लगा कि खेल बिगड़ रहा है, सो समझौते के स्वर में उससे कहा-"यार तुम भी बिना पढ़ी-लिखी औरतों की तरह बेकार की बातें करने लगती हो। वह क्या हमारी जेब में हाथ डाल के रुपया निकाल लेगी। अब कोई अपना माल दिखाये, तो लो मत लो देखना तो चाहिए. अपने घर में हर सामान भरा पड़ा है, हमको क्या खरीदना है? वह जो बतायेगी, देख लेते हैं बेचारी को निराश काहे करती हो?"
मैं बैठक में जा कर बैठ गया और उनके रिसोर्श परसन से बात करने के बहाने मुस्कराते हुये पूछने लगा-"आप कहाँ रहते हेै मनीराम जी!"
"मै घाटीपुरा में रहता हॅू, उधर हाई स्कूल की पुरानी इमारत है न, उसके पीछे हमारा पुराना मकान है।"
"अच्छा उधर, जहाँ दरोगा संग्रामसिंह रहते हैं।"
"आप उन्हे जानते हैं! वे मेरे चाचा हैं।"
अब हमे बात करने को एक विशय मिल गया था, सो हम पूरी दिलचस्पी के साथ दारोगा संग्रामसिंह और अपने हाई स्कूल के जमाने की बातें करने लगे थे। हालांकि यह विशय अन्नपूर्णा भाभी के लिये बोर कर सकता था, पर ऐसा नहीं दिख रहा था, बल्कि वे बड़े प्रसन्न भाव से मनीरामजी को देखते हुये हमारी बातें अपनी आँखें फैला कर इस तरह सुनने लगीं, मानों वे इस विशय से बहुत गहराई से जुड़ी हों।
इसके बाद वे प्रसन्न मन गुनगुनाती-सी उठीं और घर के अन्दर चली गईं। कुछ देर बाद वे लौटीं, तो उनके साथ आँखों में उलझन का भाव लिये शुभा भी थी।
मनीराम जी ने उठकर मेरी श्रीमती जी का अभिवादन किया और बोला-"भाभीजी मैं जम्बो कंपनी का एजेन्ट मनीराम हंू। माफ़ी चाहूँगा कि मैं आपके मूल्यवान समय में से दस मिनट ले रहा हूँ। आपको अच्छा लगे तो आप मेरे बिजिनैस-प्रपोजल पर विचार करें और न जमे तो कोई बात नहीं।"
मुझे सम्बोधित करते हुए अब मनीराम की आवाज में मखमली अंदाज आ गया था-"सर कभी आपने सोचा कि आप दूसरों से कुछ हटकर यानी कि अलग हैं। दरअसल आपको अपनी योग्यता के अनुरूप जॉब नहीं मिला है। इसलिये आप अपने वर्तमान-व्यवसाय से पूरी तरह संतुश्ट नहीं होंगे, ...मन में कहीं न कहीं यह चाह रहती होगी यानी कि एक सपना होगा आपका भी कि आपके पास खूब सारा पैसा हो! ...बड़ा-सा बंगला हो! ...शानदार कार हो! ...भाभी के पास ढेर सारे जेवर हों! ...आपके बच्चे ऊंचे स्कूल में पढ़ने जायें! आप लोग भी फॉरेन टूर पर जायें! ...यानी कि आपके पास वे सारी सुख-सुविधायें हों जो एक आदमी के जीवन को चैन से गुजारने के लिए ज़रूरी हैं। लेकिन आप लोग मन मसोस के रह जाते है, क्योंकि आपके सामने वैकल्पिक रूप में अपनी इतनी बड़ी इच्छायें पूरी करने के लिए कोई साधन नहीं हैं। छोटी-मोटी एजेंसी या नौकरी से यह काम कभी पूरे नहीं होंगे-हैं न! एम आय राईट?"
मैंने सहमति में सिर हिलाया-"आप बिलकुल सही कह रहे है।"
"अपने सपने पूरे करने के लिए आपको कम-से-कम पचास हजार रूपये महीना आमदनी चाहिए और पचास हजार रूपये के मुनाफे के लिए आप अगर कोई बिेजिनैस करेंगे तो उसमें पच्चीस लाख रूपये की पूंजी लगाना पड़ेगी ़-़ ़ठीक है न! अब पच्चीस लाख रूपये की रिस्क, फिर नौकर-चाकर, दुकान-गोदाम ़कित्ते सारे झंझट हैं! लेकिन मैं आपको ऐसा बिजिनैस बताने आया हूँ, जो आप बिना पूंजी और बिना रिस्क के ष्शुरू कर सकते है और जितनी मेहनत करेंगे, उतना ज़्यादा कमाऐंगे।"
"हमे बेचना क्या है?" मुझे उलझन हो रही थी।
"आप तो सिर्फ़ नेटवर्किंग करेंगे जनाब, सीधे कुछ नहीं बेचेंगे।" मनीराम ने उसी मुस्तैदी के साथ कहा-"अब वह जमाना नहीं रहा जब दुकान खोलके बैठना पडता था। आप जिन लोगों को डिस्ट्रीब्यूटर बनाऐंगे, वे जम्बो कंपनी के प्रॉडक्ट बेचेंगे, और घर बैठे मुनाफा आपको मिलेगा।"
"लेकिन इसमें मेरी क्या भूमिका होगी?" ष्शुभा अब तक मनीराम का जाल नहीं समझ पा रही थी।
"आपकी वजह से ही तो गुप्ताजी के डाउनलाइनर्स की फेमिली को इस बिजनैस और इन प्रॉडक्टस में विश्वास होगा। हमारी सोसायटी में ये माना जाता है कि आदमी तो ब्लफ दे सकता है, औरत नहीं! सो आपकी मौजूदगी का इनके बिजिनिस को व्यक्तिगत लाभ होगा। आज आप टू-व्हीलर पर जा रहे हैं, जल्दी ही आप फोर-व्हीहलर पर जायेंगे।"
मनीराम द्वारा दिखाये गये सपने का जादू हम लोगों पर असर करने लगा था, हम दोनों उसके चेहरे को मंत्रमुग्ध-से होकर ताकने लगे थे, यह अनुभव करके वर्मा भाभी अब मनीराम की तरफ बड़े गर्व से देखने लगी।
हठात् शुभा ने मनीराम से पूछा"आपके इन प्रॉडक्ट की कीमत क्या है?"
"यह टुथ-पेस्ट एक सौ दो रूपये का है और ये नाईटक्रीम सिर्फ़ एक सौ बीस रूपये की"
मैंने हस्तक्षेप किया-"वाय द वे, आपको नहीं लगता ये चीजें कुछ ज़्यादा मंहगी हैं? हमारी सोसायटी में कितने लोग ऐसे होगे, जो ये चीजें अफोर्ड कर सकेंगे!"
"हाँ, थोड़ी-सी कॉस्टली! वट एक्चुअली जस्टीफाइ, जनरल पेस्ट की एक इंच लम्बी टयूब जितना काम करती है, इस पेस्ट का चने बराबर हिस्सा ही उससे ज़्यादा काम कर देता है। ...मतलब ये कि सही मायने में ये चीजें मंहगी नहीं हैं।"
"इस बिजिनैस की शुरूआत कैसे करना पड़ती है।" मुझे लगा कि प्रश्नों के बजाय मनीराम के सामने सीधा समर्पण कर दिया जाये तो शायद इस बहस का अंत हो जायेगा।
"हमारा एक किट चार हजार छः सौे रूपये का है" मनीराम ने गंभीरता से बताया।
"तो ठीक है, आप एक पैकेट हमारे यहाँ रख जाइये।" शुभा बिना हिचक बोली तो मैं चौंक गया। उसका इतनी जल्दी इस योजना से सहमत होना मुझे विस्मित कर रहा था।
"देखिये, पहले मैं आपको गाइड-लाइन समझा रहा हूँ! पहले आपको एक सूची बनाना हैे, जिसमें आप अपने फै्रेण्ड के नाम लिखेंगे।"
"फ्रैण्ड यानी की दोस्त लोग!"
मनीराम मुस्कराया-"फ्रैण्ड मायने दोस्त भी, पर हमारे इस फ्रैण्ड में अंग्रेज़ी के फै्रेण्ड की स्पिलिंग का हर हिज्जा होता हैे। फै्रण्ड के पूरे हिज्जे हैं-थ् त् प् म् छ क्! इसके हर हिज्जे से आपके इर्द गिर्द का हर वह आदमी आ जाता है, जो किसी न किसी कारण से आपसे जुड़ा हुआ है। एफ मायने फै्रेण्ड एंड फेमिली-दोस्त और परिवार के लोग। आर का अर्थ है रिलेटिव्स मायने रिश्तेदार। आय मायने इनर परसन, आपके वे परिचित जो आपके अति निकट है। इ मायने इंपलायी यानी कि कर्मचारी गण। एन मायने नेवर यानी आपके पड़ौसी और डी याने कि आपके डिपार्टमेंटल कुलीग्स। इस तरह आपके हाथ में उन संभावित लोगांे के नाम होंगे, जो कि आपके मतलब के हो सकते हैं। जिनसे आपको सिर्फ़ यह आग्रह करना है कि वे और कुछ न करें सिर्फ़ अपनी रोजमर्रा की चीजें खरीदने के लिए दुकान बदल दें, यानी वे अपनी पुरानी दुकान की जगह आपसे सामान लेने लगें।"
"वे मानेंगे?" मैं फिर संशय में था।
"क्यों नही! आपसे उन्हे रिश्ता रखना है तो मानना पड़ेगा। हाँ, आपको इस बिजनिस के लिए हर उस आदमी का युज करना है जो किसी न किसी रूप मंे आपसे रिश्ता जोड़ें हुए है-आपको सिर्फ़ रिश्तों को भुनाना है।"
मैं रिश्तों के इस नये युज पर चकित भी था और संशयग्रस्त भी।
"जाओ शुभा, चाय ले आओ, आगे की चर्चा हम चाय के बाद करेंगे। मनीराम जी ने हमको मंत्र पढ़ कर मोहित-सा कर दिया है, शायद चाय उस जादू को तोड़ेगी।" मैंने शुभा से चिरौेरी की, तो वह प्रसन्न मनसे उठी और भीतर चली गयी। अन्नपूर्णा भाभी भी झट से उठीं औेर वे भी उसके पीछे-पीछे भीतर जा पहुंची।
मनीराम ने बेैग में से निकाल कर एक ऑडियो-कैसेट निकाली और कहा -"इसे सुनकर आपको ग्राहक को डील करने की टेकनिक ही नहीं, इस तरह का काम करनेवाले उन तमाम लोगों के विचार सुनने को मिलेंगे, जिनमें से हर कोई या तो छोटा-मोटा दुकानदार था, या फिर छोटा मोटा नौकर, वे सब हमारी कंपनी को ज्वाइन करने के बाद आज हर महीने लाखों में खेल रहे हैं।"
फिर उसने वह सिस्टम समझाया जिसे अपना के हम भी लाखों में खेल सकते थे।
मनीराम की बातें बड़ी आकर्शक थीं, तथ्य बड़े मोहक थे, ओैर आंकड़े भी प्रामाणिक।
उस दिन हम लोगों ने विचार करने की मुहलत माँग ली और किसी तरह उन दोनों से मुक्ति पायी।
आठ दिन बाद वर्मा भाभी एकाएक मेरे ऑफिस में आ धमकी। मैं उस दिन अपने डेवलपमेंट ऑफीसर के पास बैठा था।
"वेलकम भाभी जी" मैंने उठकर उनकी अगवानी की।
उन्हे कुर्सी पर बैठाया और मुस्कराते हुये उनसे पूछा-"कहिये भाभी जी, क्या हुकुम है?"
"अपन लोग बाहर चल कर चाय पियें तो कैसा रहे!"
मैं तपाक से तेैयार हो गया। गाड़ी स्टार्ट हुयी तो अन्नपूर्णा भाभी फुर्ती से लपकीं और एक अभ्यस्त महिला-राइडर की तरह इत्मीनान से सटकर मेरे पीछे बैठ गयी। अब उनका चेहरा मेरे कान के पास था, इतने पास कि उनके बालांे में लगे सुगंधित तेल औेर चेहरे पर लगायी गयी क्रीम की खुशबू मेरे नासा पुटों में प्रवेश कर रही थी। उनके दांये हाथ ने मेरी कमर के गिर्द घेरा कसा तो मुझे लगा कि मेरीे वाइक जमीन पर नहीं चल रही, आहिस्ता से जमीन से ऊपर उठी हेै औेर हम आसमान में कंुलांचे भरने लगे हैं।
हर्बल चाय पीते हुए भाभी ने बताया कि दिल्ली में जम्बो कंपनी की एक दिवसीय सेमिनार हैे, इसमें जिस वितरक को जाना हो वह सोलह सौ रूपये का टिकट लेकर शामिल हो सकता है। पता लगा कि वे ख्ुाद के साथ मेरा भी टिकट ले आयी हेै। मैं ना नुकर करने वाला था कि मेरे हाथ पर अपना हाथ रख वे बड़ी आज़िज़ी से बोलीं-"दरअसल मनीराम जी के घर में गमी हो गयी हैे, सो वे नहीे जा पा रहेे, इस कारण आप से इस़रार करने आयी हूँ कि आप मेरे साथ चलें।"
...अब भला मैं मना भी कैसे कर सकता था!
उन्हे विदा कर कार्यालय में लौटा, तो मेरे मस्तिश्क में पुराना मुहावरा गूंज रहा था-अंधे के हाथ बटेर।
मैंने अपनी ज़िन्दगी में अब तक बटेर नहीं देखी थी, आँख मूंद के मैं बटेर की कल्पना करने लगा। जब भी मैं अपने स्मृति-फलक पर बटेर की कल्पना करता, मुझे हर बार वर्मा भाभी की सूरत याद आती, तो मैं अनाम और मीठी-सी अनुभूतियों से भर उठता।
घर पहुंचा, तो शुभा चाय पकड़ाते हुये बड़े प्रसन्न मन से सुना रही थी-"पता ह, ेै आज अपनी चिंकी की टीचर कुलकर्णी मैडम आयी थीं।"
"तुम पैरेन्ट-टीचर मीटिंग में नहीं गईं क्या इस बार?"
"पैरेन्ट-टीचर मीटिंग में तो वे प्रायः मिलती रहती हेैं? पर इस बात उनके आने की वजह वहीं जम्बो कंपनी थी।"
"जम्बो कंपनी?" अब चौंकने की बारी मेरी थी।
"हाँ!" मन्द-मन्द मुस्काती शुभा रहस्य खोलने के अन्दाज में बोली-"आजकल वे भी जम्बो कम्पनी का काम कर रही हैं। बोल रहीं थीं कि इस काम से उन्हे हर महीने पांच हजार से ज़्यादा अर्निंग हो जाती है।"
"हूँ! !" एक गंभीर हुंकारा छोड़ कर मैंने उसे प्रोत्साहित किया।
"सुनो! ! इन दिनों जो देखो सो इस तरह के ेसाइड बिजिनिस अपना रहा है, हर तीसरी-चौथी औरत कोई न कोेई कॅम्पनी का माल बेचती नजर आती है। ...अपन लोग इस काम को काहे को लटका रहे हैं? चलो अपन भी ये काम शुरू कर दें।" उसके स्वर में बड़ा आत्मीय आग्रह झांक रहा था।
उसका उत्साह देख इस काम के प्रति अपना आकर्षण प्रकट करने की दृष्टि से मैंने जम्बो कंपनी के काम से ही वर्मा भाभी के साथ दिल्ली जाने की सूचना दी तो यकायक शुभा जिद करने लगी कि वह भी दिल्ली जाना चाहती हेै। फिर तो एक ही झटके में मेरी सारी उमंग समाप्त हो गयी।
लेकिन दिल्ली तो जाना ही पड़ा।
अलबत्ता, दिल्ली यात्रा में मुझे वह आनंद नहीं आया, जेैसी कि मैं कल्पना कर रहा था। हाँ, ग्राहक को मोटीवेट करने की कला, नये प्रॉडक्टस का परिचय औेर नयी स्कीमों के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिला। तमाम ऐसे गुर भी सीखने कोे मिले जो बीमा एंजेंट होने के नाते मेरे जॉब के लिये लाभ दायक हो सकते थे।
एक दिन रात आठ बजे मेैं अपने एक पॉलिसी होल्डर से प्रीमियम लेने वर्माजी के मोहल्ले की तरफ जा निकला था और वहाँं से लौट ही रहा था कि अन्नपूर्णा भाभी से मिलने का मन हो आया। वर्माजी दरवाजे खोल कर बैठे वन्या और तापस को पढ़ा रहे थे। मेरी गाड़ी को उन्होने मनीराम की गाड़ी समझा।
मनीराम की जगह मुझे देख कर पहले तो मायूस हुये फिर वे मुस्कराये। मेैने भाभी के बारे में पूछा तो उन्होने बताया कि वे सुबह से ही मनीराम के साथ गयी हैे और अब तक लौटी नहीं हैे।
मैने दुखी से स्वर में उनसे कहा-"इस तरह बिजनेस के लिए भाभी के प्रायः घर से बाहर रहने पर आपको दिक्कत तो होती होगी।"
"अब भई तरक्की करना है, तो हमे कुछ न कुछ तो त्याग करना ही पडेगा न!"
"फिर भी घर के काम...!"
"घर के काम तो कैसे ही हो जाते हैंे अमर भैया! इत्ती-सी बात के लिए उन्हे घर में बन्द रखना उचित नहीं समझता। बेसिकली मैं महिलाओ की स्वतंत्रता का समर्थक हूँ। मेरे मतानुसार औेरतों को रसोेईघर से निकल कर बाहर भी कुछ काम धाम सीखना चाहिये। इससे उनका इंडीजुअल डेवलपमैंट होता हेै, ...अभिव्यक्ति का मौका मिलता है, ...और घर के साथ-साथ स्वयं वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाती हैं।" वे किन्ही फुरसत के क्षणों में रटे वाक्य ऐसे बोल रहे थे जिनका उनके दिमाग और दिल से ताल्लुक नहीं दिखता था।
मैंने मन ही मन कहा-'पिछले साल, जब भाभी को बीमा-ऐजेंट बनाने का प्रस्ताव रखा था तो आप कहते थे कि औरतों की सही जगह घर में है, उन्हे घर में ही रहना चाहिए! हाँ, अगर टेलेंण्टेड लेडी है और उसे जॉब भी करना है तो किसी कॉन्वेंट स्कूल में टीचरशिप वगैरह मिल जाये तो वह कर लेना ठीक रहता है।'
पर प्रत्यक्षतः मैं यही बोला-"हाँ, सेल्ॅफ डेवलपमेंट, अभिव्यक्ति का मौका और आर्थिक स्वतं़त्रता तो मिलती है!"
टेलेंण्टेड शब्द सुन मेरी निगाह उनके प्रतिभाषाली बच्चों की तरफ गई तो किंचित आश्चर्य हुआ मुझे। तापस एक फीकी-सी टी-शर्ट पहने था और वन्या की फ्रॉक न केवल गन्दी थी बल्कि कई साल पुरानी भी। मुझे लगा कि बच्चों के रख-रखाव में अब पहले-सी सुरूचि और तन्मयता नहीं है। दोनों के चेहरों पर एक अजनबी-सी दयनीयता की छाया थी जिसे देख कोई भी बाल-बच्चेदार आदमी द्रवित हो सकता था। मैं भी हुआ। पता नहीं कहाँ से आकर दिल में एक कराह उठी-नये तरह के बिजिनिस के घर में घुस आने से अचानक उपेक्षित हो गये बेचारे बच्चे! कोने में जा पड़े किसी जमाने में घर भर की जान रहे बच्चे।
"कहिये आप कैसे पधारे!" वर्माजी ने एक अप्रत्याशित सवाल कर सहसा मुझे सकते की स्थिति में डाल दिया था।
"मैं दरअसल..." कहते हुये कुछ अटकने लगा तो यकायक याद आया और मैंनेे बेधड़क उनसे कह डाला-"उस दिन भाभी ने कहा था कि जम्बो कंपनी का रीजनल-स्टोर आपके घर में हैं, सो मैं टुथ-पेस्ट और नाईटक्रीम लेने आया था!"
मेरा इतना कहना था कि अब तक उदास और अलसाये से बैठे वर्माजी में यकायक फुर्ती आ गयी, वे उठे और बैठक में अस्त-व्यस्त रखे कार्टूनों में मेरी माँंगी गयी चीजें तलाश करने लगे।
मैंने उड़ती नजर से देखा कि वर्माजी के समूचे घर में यानी अकेली बैठक नही, स्टोर, किचेन और यहाँ तक कि बेडरूम तक में भी ...मतलब हर जगह, अन्नपूर्णा भाभी की कंपनी के कार्टन्स खुले हुए रखे थे और उनमें रखी चीजें अपने प्राइज-टैग प्रदर्शित करती बिखरी हुईं थीं, जिनमें बेध्यानी में मिक्स होकर अन्नपूर्णा भाभी के निहायत निजी कपड़े भी वहाँ पडे़ थे। जिन्हे देख मुझे जाने कैसा-कैसा लग रहा था? ठीक उसी क्षण अचानक मुझे अहसास हुआ कि इस नयी तरक्की यानी भूमण्डलीकरण और बाजारवाद के इस नये दोैर में बहुत कुछ बदला है। रिश्ते भी अब भुनाने की चीज हो गये हैं। चीजें तेजी से अपनी जगह बदल रही हैं! ... जिस चीज के लिए जो जगह निश्चित की गयी हैे, अब वह केवल वहीं नहीं मिलती, सब जगह मिल जाती है! ...बाजार केवल बाज़ार तक सीमित नहींे रह गया...बल्कि वर्माजी जैेसे कई घरों में एकदम भीतर तक घुस आया हेै-अपने पूरे संस्कार, आचरण, आदतों और बुराइयों के साथ!
घर लौटते वक्त मैं मन ही मन तरक्की के लाभ-हानि का बही-खाता तैयार कर रहा था, जिसमंे मंेै और मेरी पत्नी शुभा भी शायद अपनी प्रविष्टि कराने को आतुर थे।