बाजीगर / अनातोल फ्रांस

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1

राजा लुई के समय फ्रांस के कँपिय शहर में बरनबी नामक एक बाजीगर था। वह इधर-उधर के शहरों में नाना प्रकार के अद्भुत खेल दिखाता फिरता था।

दिन साफ़ रहने पर वह किसी सार्वजनिक बाग़ में अपना फटा ग़लीचा बिछा कर बैठता, और किसी बूढ़े बाजीगर से सीखा हुआ एक मजेदार व्याख्यान सुना कर ढेर सारे बच्चों और निकम्मों को इकट्ठा कर लेता। फिर बड़े अद्भुत ढंग से नाक पर एक टीन की थाली रख लेता।

पहले इतना देखकर जनता को बहुत आश्चर्य नहीं होता। पर इसके बाद जब वह एक हाथ पर सारी देह का भार रखकर मुँह नीचा करके दूसरे हाथ से छह ताँबे की गेंदें आसमान में फेंकता, और धूप से चमकती उन गेंदों को गिरने के पहले ही पैरों के नीचे पकड़ लेता, या फिर दोनों पैरों की एड़ियाँ घुमा कर, कन्धे के पीछे ला कर सारी देह को एक सम्पूर्ण चक्र बनाकर, बारह छुरियों से खेलने लगता, तब दर्शकों के बीच से आश्चर्य की तरह एक अस्फुट ध्वनि निकलती और गलीचे पर खनाखन पैसे गिरने लग जाते।

लेकिन फिर भी और लोगों की तरह कँपिय शहर के इस बरनबी को जीवन-निर्वाह के लिए घोर कष्ट सहना पड़ता था।

कठिन परिश्रम करके भोजन का प्रबन्ध करना पड़ता था, इसलिए कहना चाहिए कि मनुष्य के प्रथम पिता आदम के कुकर्मों का दंड उसे कुछ अधिक ही मिला था।

इच्छा रहने पर भी वह सब समय काम कर नहीं सकता था। पेड़ से फल और फूल पाने के लिए धूप और प्रकाश की जितनी आवश्यकता होती है, उसे वैसी अद्भुत कसरत दिखाने के लिए भी इन दोनों की उतनी ही आवश्यकता थी। जाड़े के मौसम में वह मानो फूल-पत्ती-रहित पतझड़ का एक सूखा-साखा पेड़ हो जाता था। बर्फ से ढंकी जमीन पर खेल दिखाने की सुविधा नहीं होती थी। इन जाड़े के दिनों में ठंड और भूख, दोनों से ही उसे घोर कष्ट उठाना पड़ता था। पर वह बहुत ही सरल स्वभाव का आदमी था। विधाता का दिया यह सभी दंड वह चुपचाप सहन कर लेता था।

धन-दौलत की उत्पत्ति या मनुष्य के भाग्य की असम और असदृश्य परिस्थिति के विषय में वह कभी नहीं सोचता था। यह जीवन असहनीय होने पर भी, अगला जीवन उसकी इस परिस्थिति को सम्पूर्ण रूप से भरी-पूरी कर देगा, केवल इसी आशा से वह साहस पाता था और लोग चोर और दुष्टों की भाँति जैसे दानवीय शक्ति की पूजा करते थे, वह वैसा नहीं कर सका। परमात्मा को वह कभी गाली नहीं देता था; सच्चाई से जीवन काटता, और ईश्वर से डरता था।

ईसा की माता 'मेरी' पर उसकी गहरी श्रद्धा थी। गिरजाघर में घुटने टेक कर वह देवी 'मेरी' से यही प्रार्थना करता था, “माता, ईश्वर की इच्छा से जब तक मेरी मृत्यु नहीं होती है, तब तक तुम मेरी रक्षा करना! मर जाने पर स्वर्ग के आनन्द से मुझे वंचित न करना, देवी!"

2

वो बरसाती शाम थी। भयानक बारिश हो रही थी। बरनबी दुखी हृदय लिए सड़क पर चला जा रहा था। गेंदें और छुरियाँ उसी पुराने ग़लीचे में लपेटकर वह कुछ झुक गया था। वह आश्रय की खोज में जा रहा था; वहाँ चाहे भोजन न हो, पर किसी तरह रात्रि तो बिता सके। सहसा देखा कि उसके आगे-आगे एक मठाध्यक्ष चले जा रहे हैं। बरनबी ने कदम बढ़ा कर उनको अभिवादन किया। दोनों एक ही सड़क पर चल रहे थे, इसलिए फिर बातचीत भी होने लगी।

मठाध्यक्ष ने पूछा, “भाई पथिक, हरे रंग की पोशाक क्यों पहने हुए हो? क्या किसी प्रहसन में नक्काल का अभिनय करोगे?"

"नहीं महाराज, मेरा नाम बरनबी है, और बाजीगरी मेरा पेशा है। रोज की रोटी कमाने के लिए इससे अधिक चैन का धन्धा नहीं है।"

"मित्र बरनबी, जो कहो सोच-विचार कर कहो। संन्यास-जीवन से कोई भी पेशा अच्छा नहीं है। संन्यास-आश्रम में जो रहते हैं, वे केवल दिन-रात ईश्वर, माता मेरी और साधुओं की महानता की स्तुति करके ही समय काटते हैं। धार्मिक-जीवन स्वयं एक विरामहीन महानता की स्तुति है!"

तब बरनबी ने उत्तर दिया, “साधु बाबा, मैंने मूर्खों की-सी बात कही है। आपके जीवन के साथ मेरे जीवन की तुलना नहीं हो सकती। नाक पर एक लाठी रखकर और उस पर एक पैसा रखकर नाचना, इसमें कोई पुण्य नहीं है। आपकी तरह परमात्मा की स्तुति करके जीवन काटने की मुझे गहरी इच्छा है। स्याजों से बैभे शहर तक करीब छह सौ गाँव और शहरों में मेरे इल्म की जो प्रसिद्धि है, उसे अनायास त्याग कर मैं मठ का धार्मिक-जीवन बिताने को तैयार हूँ।"

बाजीगर की इस सरल और कपट-रहित बात से मठाध्यक्ष का चित्त बहुत कोमल हो गया। वे बहुत बुद्धिमान आदमी थे, इसलिए उन्होंने बरनबी में इंजील की यह बात पाई, 'दुनिया में जिसका अभिप्राय नेक है, शान्ति उसके ही लिए है।' उन्होंने कहा, "मित्र बरनबी, आओ मेरे साथ, मैं अपने मठ में तुम्हें रख लँगा। मनुष्य को रेगिस्तान में भी जो राह दिखा देते हैं, मैं तुम्हें उन्हीं परमात्मा का पता बताऊँगा।"

इस तरह बरनबी संन्यासी हो गया। जिस मठ में उसने प्रवेश किया, वहाँ सभी ने अपने को माता मेरी की पूजा में समर्पित किया था। अपना ईश्वर-प्रदत्त ज्ञान और भक्ति लेकर सभी उनकी सेवा करने में लगे हुए थे।

धर्मोपदेशक माता मेरी का गुण-कीर्तन करके बहुत-सी विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें लिख रहे थे। मॉरिस उन सब पोथियों की बहुत सुन्दर अक्षरों में चमड़े के कागज पर नकल कर रहे थे।

अलेक्जेंडर उन काग़जों के पृष्ठों पर नाना प्रकार के सुन्दर कलापूर्ण छोटे-छोटे चित्र अंकित कर रहे थे-सलोमन के सिंहासन पर स्वर्ग की रानी बैठी हैं, उनके चरणों के पास चार सिंह हैं, रानी के चेहरे पर ज्योतिमंडल है, उनके चारों ओर शान्ति की द्योतक सात फाख्ताएँ प्रकट कर रही हैं-भय, करुणा, बुद्धि, शक्ति, उपदेश, ज्ञान और विवेक। उनकी सात सुनहली सखियाँ हैं-विनम्रता, विवेचना, अकपटता, निर्मोह, सेवा, कौमार्य और आज्ञाकारिता। रानी के पैरों के पास नंगी देह की दो श्वेत सुन्दर मूर्तियाँ प्रार्थना करने के ढंग से बैठी हैं। वे अपनी-अपनी आत्मा की भलाई के लिए देवी से प्रार्थना कर रही हैं। और एक पृष्ठ में प्रथम माता ईव का चित्र है; पत्नी ईव का पतन और माता मेरी की विजय एक ही पृष्ठ में अंकित है। और भी अनेक विस्मयजनक चित्र थे-संजीवक जलपूर्ण कुआँ, झरने, कमल, चन्द्रमा, सूर्य का प्रमोद-उद्यान।

मारबद भी माता मेरी का एक भक्त पुजारी था। पत्थर की मूर्ति खोदने में उसका सारा दिन बीत जाता था, इसके लिए उसकी दाढ़ी, भौहें, बाल गर्द से सफ़ेद रहते थे, उसकी आँखें मानो रोनी-सी और कुछ फूली हुई लगती थीं; पर उसका आनन्द और शक्ति कुछ भी कम नहीं हुई थी; उम्र काफ़ी होने पर भी स्वर्ग की रानी जी उस पर कृपा करती हैं, यह उसके चेहरे से साफ़ प्रकट होता था। सिंहासन पर बैठी हुई, और ज्योतिमंडल से घिरी हुई माता मेरी की मूर्ति उसने बनाई। उसने पैरों के पास गिरे अंचल से देवी के दोनों चरण ढंक रखे, क्योंकि उनके विषय में इंजील में एक साधु ने कहा है-'मेरा प्रियतम दीवार से घिरे वन की भाँति निर्मल है।' वह कभी देवी को सुन्दर शिश के रूप में बनाता था, मानो वह मूर्ति यही कहना चाहती हो, “मेरे गर्भस्थ समय से तुम्हीं मेरे ईश्वर हो।"

मठ में अनेक कवि भी थे। वे लैटिन भाषा में गद्य तथा पद्य में देवी मेरी के लिए स्तुति-गीत रचा करते थे। पिकार्डी से और एक साधु आए थे, वे भी मित्राक्षर और बोल-चाल की भाषा में देवी की महानता का कीर्तन करते थे।

3

उन सबकी देवी की सेवा में इस तरह की प्रतिद्वन्द्विता देखकर बरनबी अपनी असातता के लिए बहुत ही दुखी होता था। मठ के निर्जन बाग में अनमने भाव से चहलकदमी करते हुए ठंडी साँस लेकर कहता था, 'हाय, मेरा दुर्भाग्य है! सहयोगी भाइयों की तरह मैं भी क्यों अपनी देवी की सेवा नहीं कर सकता! हाय, मैं बिलकुल मूर्ख हूँ, पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, मैं प्रभावशाली व्याख्यान नहीं दे सकता, धर्म-कार्य की बात नहीं लिख सकता, चित्र नहीं अंकित कर सकता, मूर्ति नहीं बना सकता। मैं कुछ भी नहीं कर सकता! उनकी सेवा करने का कोई भी गुण मुझमें नहीं है!'

इसी तरह वह सदा दुख मानता था। एक दिन संध्या के समय, जब मठ के सब संन्यासी छुट्टी पाकर गपशप कर रहे थे, एक संन्यासी एक मूर्ख धार्मिक का किस्सा कहने लगे कि वह 'जय देवी की' के सिवाय स्तुति की और कोई भाषा ही नहीं जानता था। सब उस गरीब से घृणा करते थे। लेकिन वह पाँच पवित्र अक्षर उच्चारण करता था, इसलिए मृत्यु के पश्चात् उसके मुंह से पाँच कमल के फूल निकले।

इस किस्से से देवी मेरी की प्रीति-भरी करुणा की बात सुनकर बरनबी बहुत आश्चर्यचकित हो गया। पर इस पुण्य की मृत्यु के किस्से से उसे रत्ती-भर की सांत्वना नहीं मिली; क्योंकि उसके हृदय में एक उत्साह का ज्वर आया था, वह स्वर्ग की देवी की महानता का प्रचार करने के लिए अधीर हो गया था।

कैसे यह कार्य किया जाए, यही उसकी चिन्ता का विषय हो उठा और दिन पर दिन उसका हृदय टूटने लगा। फिर सहसा एक दिन सुबह उसने आनन्दित चित्त से प्रार्थना-गृह में देवी की वेदी के निकट जाकर करीब एक घंटा बिताया। दोपहर को भोजन के बाद फिर वह वहाँ गया।

उस दिन से प्रार्थना-गृह में जिस समय कोई भी नहीं रहता था, उस समय उसने वहाँ जाना शुरू कर दिया। संन्यासी लोग जब अपने-अपने काम में व्यस्त रहते, तब वह भी किसी एक काम में लगा रहता था। अन्त में उसका दुखित भाव हट गया; परिताप और वेदना दूर हुई।

उसका ऐसा भाव देखकर सब संन्यासियों को कौतूहल हुआ। वे आपस में पूछताछ करने लगे कि बरनबी अब नियमित रूप में एकान्त में बैठकर क्या करता है!

मठाध्यक्ष का काम था, सबके काम और स्वभाव पर कड़ी दृष्टि रखना। वे भी बरनबी क्या करता है, यह जानने के लिए उत्सुक हो उठे।

एक दिन बरनबी प्रतिदिन की भाँति प्रार्थना-गृह में बन्द था, तब वे सब इकट्ठे होकर द्वार की दरार से देखने लगे कि बात क्या है।

उन्होंने देखा-बरनबी ने देवी मेरी की वेदी के सामने सिर नीचा करके, दोनों पैर ऊपर को उठाकर, छह ताँबे की गेंदों और बारह छुरियों से बाजीगरी दिखाना शुरू कर दिया है। उसने जिन खेलों में पहले प्रशंसा पाई थी, वह उन्हीं खेलों को ईश्वर की माता को दिखा रहा था। वह जो कुछ भी जानता है, सबका सब देवी के निकट निवेदन कर रहा था। यह रहस्य न समझ पाकर दो संन्यासियों ने वहीं से चिल्ला कर कहा, “यह क्या! ईश्वर के मन्दिर में अनाचार!"

मठाध्यक्ष तो बरनबी के निष्कलंक हृदय की बात जानते थे। पर उनको भी लगा कि वह आदमी पागल हो गया है। वे तीनों बरनबी को प्रार्थना-गृह से निकाल देने के लिए जा ही रहे थे कि देखा-ईश्वर की माता वेदी की सीढ़ी से उतरकर थके हुए बाजीगर का पसीने से भीगा माथा अपने पवित्र नीले अंचल से पोंछ रही हैं।

तब मठाध्यक्ष भूमि पर साष्टांग माथा टेककर कह उठे, "जो सरल हैं, वे ही धन्य हैं, क्योंकि वे परमात्मा का दर्शन कर पाते हैं।"

"तथास्तु !", कहकर दोनों बूढ़े संन्यासियों ने भूमि का चुम्बन किया।