बापू की चीख / आलोक रंजन
बापू की चीख
“कौन कहता है केवल शराब में है नशा?
हम सबको यहां कोई न कोई है नशा?
नशा ही नशा है हर चीज में है नशा॥
-रमा द्विवेदी”
तीस जनवरी को विश्व नशा –मुक्ति दिवस के रूप में मनाया जाना शांति –दूत गाँधी बापू को श्रधान्जली अर्पित करने का सर्वोत्तम प्रतिक है।सार्वजनिक जीवन में स्व्क्ष्ता का उनसे बेहतर उदाहरण हमें और कहाँ मिल सकता है, धवल चरित्र के लिए शुभ्र चित्त पहली शर्त है, निजी अथवा सार्वजनिक जीवन में जीने की कला का पहला आयाम है चित्त –वृति की शुद्धता और प्रमाणिकता।
दीर्घ मानसिक उद्देलन चित्त की सहजता को नष्ट कर देते हैं, कारण कुछ भी हो रुग्णता, बाहरी कारक अथवा तो मादक पदार्थो पर निर्भरता।
ठीक से समझें, मनुष्य तथा संस्कृति का विकास उसके मानसिक आन्दोलनों और मानसिक उद्यमशीलता से ही प्राप्त हुआ और प्राप्त हुआ वातावरण से उसकी प्रतिक्रियात्मक शक्ति से।
किसी व्यक्ति की बौद्धिक उत्तेजना ही उसे नव –निर्माण की लिए प्रेरित करती है, सुप्त मस्तिष्क क्या निर्माण करेगी, मनुष्य की सोच और उसकी शक्ति स्नायु –तंत्रों और उनकी हलचल से ही प्राप्त होती है, किसी भी प्रकार के बोध के लिए वह हलचल आवश्यक शर्त है अन्यथा बेहोशी की स्थिति होगी, थोड़ी हलचल तो सुप्त या बेहोश व्यक्ति के मस्तिष्क में भी हर वक्त चलती रहती है अनवरत और अविराम अन्यथा वह मृत घोषित कर दिया जाये।
परन्तु ये मानसिक स्थितियाँ सहज हैं और बाहरी वातावरण के बदलावों की प्रतिक्रियात्मक शक्ति से संचालित हैं।कोई भी पदार्थ जो इन सहज मानसिक प्रक्रियाओं को परिवर्तित कर दे उन पर निर्भरता हो जाये, मादक पदार्थों की श्रेणी में रखे जा सकते हैं।ऐसी स्थिति में चित्त, मन, बोध और सबसे बढ़कर वक्तित्व अप्राकृतिक रूप में उन पदार्थों के अधीन हो उन्ही के अनुरूप संचालित होने लगता है।
नशा को प्रायः पश्चिमी संस्कृति तथा भौतिक –वाद से जोड़ कर देखा जाता है, यह बस बच निकलने की कला है और हम भारतीय हर प्रतीकों का आड़ ले छुपते –छुपाते चले आ रहे हैं।
वेदों की और बात हमने गौण रखीं, बस सोमरस को उनसे निचोड़ लिया और देवताओं के नाम पर सदिओं से उनका सेवन करते चले आ रहे हैं, स्वदेशी आंदोलन के अवशेष-स्मृति में देसी शराब के कारखाने फल –फूल रहे हैं, भाँग, गाँजे इन सब को हमने पवित्र बता डाला और तर्क वही की देवताओं का अनुसरण कर रहे हैं हम, अब आस्था पर प्रश्न किया नहीं जा सकता तो हमारे आस्थावानों का यह उपाय चल निकला, कानून बना कर बाहरी लोगों को भ्रमित कर रखा और अंदर मदान्ध बने घूम रहे हैं।
विदेशियों के शराब और सिगरेट सेवन पर घृणा का भाव प्रकट करते रहे पर स्वयं ताड़ी के साथ चिलम या हुक्के की गुडगुड ध्वनि को पवित्र आचरण मानते रहे।
सन्यास ले लिया, उद्घोष हुआ की भौतिक पदार्थों पर मोह नही, और दूसरे ही पल गाँजे की चिलम हाथ में थाम ली, किसी ने प्रश्न किया तो देवताओं को अपने आगे खड़ा कर लिया, बात समाप्त।
जब हमारे मार्गदर्शक ही ऐसे होंगे तो नयी पीढ़ी उनका अनुसरण करेगी ही, उन्होंने संस्कृति का सहारा लिया इन्होने तकनीक का, भाँग और अफीम के साथ –साथ नशे के और परिष्कृत प्रारूप जुड़ते गए भांति –भांति के पदार्थ कुछ क़ानूनी सहमति से कुछ लुक-छिप कर।
पश्चिमी जगत को गालियाँ देते रहे और उन्ही की इजाद दर्दनिवारकों, प्रशान्तकों जैसी लाभ –कारी औषधियों का गलत इस्तेमाल कर खुद रुग्ण हो गए।
सरकार ने भी हमारी इस वृति का समर्थन ही किया, तम्बाकू फास्ट –फ़ूड की तर्ज़ पर पुडियों में हर जगह सुलभ हो गए, तर्क यह की राजस्व की प्राप्ति का सबसे सरल उपाय है तो जन-जन तक देशहित में मद्यपान केंद्र खोल दिए गए, आखिर कैंसर अस्पतालों के लिए राजस्व की ज़रूरत तो है ही, और स्वास्थ्य सरकार की प्राथमिकता भी है।
लेकिन दूसरों को बेवकूफ बनाते हम खुद को ही छल रहे हैं, पूरा समाज गर्त में जा रहा है, घर उजड रहे हैं, मस्तिष्क रुग्ण हो तो सामाजिक संरचना कैसे बची रहे ?, अपराध के मामलों में हर दिन वृद्धि हो रही है, दुर्घटनाओं में बेहिसाब बढोतरी हो गई , देवियों के इस देश में स्त्रियों की अस्मिता लुट रही है, फिर कैसे हो नया सृजन, गोडसे के मारे बापू नहीं मरे, हम सब ने उन्हें मिलकर मारा और रोज मार रहे हैं, अपनी लुटी –पिटी संस्कृति का आवरण ओढ़ दो मिनट का मौन रख अपना राष्ट्रीय कर्तव्य निभा देते हैं, मद्यनिषेध की पूरी तैयारी भी हमने कर ली है एक दिन पूर्व ही शराबों को स्टाक कर लिया है, जिसने नहीं भी की ब्लैक का दरवाज़ा तो है ही, थोड़ा गला तर कर भ्रस्टाचार के विरोध में नारा लगाना अधिक प्रभावी होगा।
हमारी इस मानसिकता ने जो गुलामी की बेडियाँ डाल रखी हैं उनसे कम ही अंग्रेजों की बेडियाँ थीं।तो बापू खेद है आपका श्रम निरर्थक हुआ, कुछ भी नही सिखा हमने, आपका जाना अच्छा हुआ। आत्म-संयम और सद्विचार बस बनावटी पुष्पों की तरह गुलदस्तों में पड़े हैं, ना सुगंध और ना जीवन बस सेल्फ की खूबसूरती की लिए अपने पास संजो कर इठलाते फिरते हैं।आप की अस्थियां भी विसर्जित कर हमने अपने संस्कृति का विसर्जन कर डाला।
इस देश में कभी मत आना बापू, कभी मत !....