बापू के दक्षिण-अफ्रीका का संस्मरण / आनंद कुमार शुक्ल
दक्षिण अफ्रीका महात्मा गाँधी का चिर ऋणी है। वहाँ के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में उनका नाम अत्यंत आदर के साथ अंकित है। लेकिन, भारत भी दक्षिण अफ्रीका का कम ऋणी नहीं है। भारत के युवा बैरिस्टर श्रीयुत मोहनदास करमचंद गाँधी ने निरक्षर, निस्सहाय और मायूस जनता के पक्ष में आततायी साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध पहला, वास्तविक तथा ज़ोरदार संघर्ष वहीँ से शुरू किया था। दक्षिण अफ्रीका के हताश काले जनमानस के दिल में उन्होंने स्वाभिमान एवं स्वाधीनता की अग्नि प्रज्वलित की और खुद उसी आग में तपकर वे महात्मा बने। महात्मा गाँधी, यानी हमारे बापू, यानी भारत और विश्व के सबसे सुनहरे भविष्य के सत्य-स्वप्न।
दक्षिण अफ्रीका में बापू को भारतवंशियों का अपार आदर और स्नेह प्राप्त हुआ था। महान अहिंसक युद्ध में तमाम लोग उनके सहयोगी, सुहृद और स्नेही बने। भवानी दयाल जी संन्यासी ऐसे ही महानुभावों में से एक थे।
भवानी दयाल जी ने दक्षिण अफ़्रीकी जीवन और गिरमिटिया मजदूरों के संघर्ष को रेखांकित करते हुए, एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'दक्षिण अफ्रीका के मेरे अनुभव (प्रवासी भाइयों की सामाजिक तथा राजनीतिक दशा का दिग्दर्शन)' लिखी थी। न जाने क्यों, यह पुस्तक अप्रकाशितरह गई थी। वर्षों बाद, 2009 ई. में गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली ने इस पुस्तक को प्रकाशित किया।
1909 ई. में बापू की प्रसिद्ध वैचारिक रचना 'हिंद स्वराज' पहले-पहल प्रकाशित हुई थी। यह रचना गाँधी दर्शन के सैद्धांतिक एवं वैचारिक, दोनों पहलुओं को सुस्पष्ट करती है। क्या यह अकारण है कि 'हिंद स्वराज' का शताब्दी वर्ष भवानी दयाल जी की इस पुस्तक का प्रथम प्रकाशन वर्ष है?
भारत में भवानी दयाल जी का नाम कम लोगों ने ही सुना होगा। बहुत कम लोग जानते होंगे कि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी भाषा की जातीयता एवं राष्ट्रीयता सँवारने में कितना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। और यह भी कम लोग ही जानते होंगे कि दक्षिण अफ़्रीकी हिंदू समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए उन्होंने कितना कष्ट सहा, कितना कठोर उद्योग किया। 'दक्षिण अफ्रीका के मेरे अनुभव' पुस्तक भवानी दयाल जी के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और भाषायी संघर्षों की महागाथा है। संस्मरणों के इस वृहद कोलाज में उन्होंने अपने युग के उद्दाम संघर्ष को जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है।
यह पुस्तक वास्तविक संदर्भ में न तो आत्मकथा है और न ही संस्मरण। आज के परिप्रेक्ष्य में यह पुस्तक इतिहास के छुए-अनछुए पहलुओं का व्यक्तिगत साक्ष्यीकरण है। 'व्यक्तिगत' शब्द से कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है। वे इसे नकारात्मक अर्थ में ग्रहण कर सकते हैं, किन्तु भवानी दयाल जी की इस पुस्तक के संदर्भ में व्यक्तिगत शब्द के कई सकारात्मक अर्थ हैं। सबसे पहला तो यह कि एक व्यक्ति शपथपूर्वक कह रहा है कि ऐसा हुआ था, मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ। दूसरा, कई घटनाएँ एवं तथ्य इतिहास की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाते। व्यक्तिगत अनुभवों के लेखन में ऐसे हाशियों को सम्मिलित कर पाना संभव होता है। तीसरा, उच्चतम स्तर की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक बहस से इतर, भवानी दयाल जी का साक्ष्यीकरण लोक-चेतना के व्यक्तिगत प्रतिबिम्बों को प्रकाशित करता है। चौथा, इतिहास का स्थानीय स्वरूप ऐसे साक्ष्यीकरणों के माध्यम से सामने आता है।
कोई भी देश किसी एक व्यक्ति, विचार या विचारधारा के अनुरूप अपना ऐतिहासिक विकास नहीं करता। भवानी दयाल जी ने अपनी पुस्तक के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका में प्रचलित परस्पर विरोधी प्रवित्तियों, भावनाओं और ज़रूरतों को बखूबी उकेरा है।
गिरमिटिया मजदूरों के स्वाधीनता आंदोलन के शुरुआती दौर में महात्मा गाँधी का महत्त्वपूर्ण योगदान था। लेकिन, उसी दौर में बापू का विरोध एक विधर्मी के रूप में भी किया जा रहा था। विजातीय एवं भ्रष्ट विचार के रूप में इस प्रवित्ति का चिंतनीय उल्लेख भवानी दयाल जी ने अपने साक्ष्यीकरण में किया है – "एक ओर तो यह करुणामय दृश्य था, और दूसरी ओर इसफ मियाँ तथा हबीब मोटन की पार्टी अपनी नीच-प्रवित्ति की नंगी तस्वीर दिखाती फिरती थी। महात्मा जी के शुभागमन से पूर्व ही विवेकहीन धर्मांध मुसलमानों में खूब जोश फैलाया गया था। 'हमदर्देइस्लाम' की बैठक में यहाँ तक कहा गया कि सारे हिंदू काफ़िर हैं, उनसे जुदा रहने में ही मुसलमानों की खैरियत है। काफ़िर को लीडर मानना गोया दोज़ख़ में जाने का रास्ता साफ़ करना है। ...गाँधी ने सरकार से यह सुलह की है, कि कानून से एक मर्द की एक ही बीबी जायज समझी जाय। इससे हमारे मज़हब पर बड़ा हमला हुआ है, क्योंकि हमारे क़ुरान शरीफ़ में चार बीबियाँ तक रखने की इजाजत है। हम गाँधी के किए हुए इक़रारनामे को क़ुबूल नहीं कर सकते। यहाँ न कहना मुसलमान-जाति के प्रति अन्याय होगा कि श्री काछलिया इत्यादि अधिकांश समझदार मुसलमान इन पागलों के प्रलाप से सहमत न थे।" (पृ.157-158)
इसी बीच एक बेहद विवादास्पद घटना घटी. बापू से अतिशय प्रेम करने वाले भवानी दयाल जी ने इस घटना के कारण बापू के सिद्धांतों से ही विद्रोह कर दिया- "महात्मा जी और माता कस्तूरीबाई बग्घी पर सवार थे। बग्घी धीरे-धीरे जा रही थी, और उसके चारों ओर मनुष्य चींटी की चाल चल रहे थे। मैं और श्री लालबहादुर सिंह फुटपाथ पर जा रहे थे। हमारे समीप ही से एक मुसलमान ने महात्मा जी को लक्ष्य करके सड़ा अंडा फेंका, वह जाकर पहिये पर फूट गया। दूसरा अंडा बग्घी के अंदर पहुँच गया। अब यह दृश्य हमसे अधिक देखा न गया। सिंह जी ने झपटकर उसकी गर्दन पकड़ ली, और फुटपाथ पर दे मारा। ऊपर से मुखारविंद पर दो-तीन लातें रसीद कीं। हुल्लड़ मच गया, हम लोग चलते बने, उस भीड़ में कौन किसको देखता है। मुसलमानों में बड़ी उत्तेजना फैली और वे मारपीट पर तुल गए, किन्तु इधर भी कौन डरने वाला था? हबीब मोटन की बदहवासी पर बड़ी हँसी आई. वह मानो एक ही कौर में अपने विरोधियों को निगल जाना चाहता था।" (पृ। 158)
दक्षिण अफ्रीका का इतिहास अन्याय, विरोध और विद्रूप का इतिहास है। गिरमिटिया मजदूरों के साथ हुए दारुण अन्याय के बारे में हम सब जानते हैं, लेकिन कई ऐसी बातें हैं जिन पर इतिहास का लिखित पर्दा पड़ा हुआ है। भवानी दयाल जी ने अपनी पुस्तक में वैचारिक एवं तथ्यगत पर्दों की एक-एक परत खोलने की कोशिश की है।
स्वाधीनता और स्व-भाषा का रिश्ता कितना प्रगाढ़ होता है, इसे सभी जानते हैं। स्वाधीनता का समर्थन करना, किन्तु स्व-भाषा के प्रचार-प्रसार का विरोध करना क्या नितांत विरोधाभाषी प्रवित्ति नहीं है? भवानी दयाल जी ने तत्युगीन विरोधाभाष का अनुभव किया और वे इसके परिमार्जन की दिशा में प्रवृत्त हो गए. उनकी राह में तमाम रोड़े आये। स्वदेशी भाइयों ने ही कई बार उनके स्व-भाषा प्रेम को संशय की दृष्टि से देखा, लेकिन संन्यासी महोदय लगातार अपने लक्ष्य और कर्त्तव्य की ओर उन्मुख रहे। इस पुस्तक के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के अपने कठोर उद्यम को उन्होंने रेखांकित किया है।
हिन्दी भाषा के वैश्विक स्वरूप की खोजबीन करने वाले शोध-पत्रों में भवानी दयाल जी का नाम अब तक हाशिये पर ही रहा है। उनके बारे में जो कुछ भी कहा या समझा गया, वह 'सरस्वती' के सुप्रसिद्ध संपादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा उनकी पुस्तकों की आलोचना का अनुगमन ही है। भवानी जी के पक्ष को प्रस्तुत किये बिना हिन्दी के वैश्विक स्वरूप का इतिहास अधूरा होगा। 'नवजीवन' पत्रिका ने उन दिनों 'सरस्वती' पत्रिका की इस मुद्दे पर जमकर मुखालफ़त की थी। आचार्य द्विवेदी ने लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले के विचारों को वरीयता दी। द्विवेदी जी का मानना था कि भवानी दयाल जी की पुस्तकों में प्रस्तुत विचार तिलक और गोखले के विचारों का दुहराव-मात्र हैं।
1916 में भवानी दयाल जी की महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' सरस्वती सदन, इंदौर के अध्यक्ष द्वारकाप्रसाद 'सेवक' द्वारा प्रकाशित की गयी। इस पुस्तक की तत्कालीन पत्रिकाओं ने भूरी-भूरी प्रशंसा की। लेकिन, उस समय की सबसे महत्त्वपूर्ण पत्रिका 'सरस्वती' के कालजयी संपादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की निगाहों में यह किताब खटक गयी। 'इण्डियन ओपिनियन' पत्रिका के एक विशेषांक में छपी सामग्री के आधार पर द्विवेदी जी ने निश्चित किया कि भवानी दयाल जी की पुस्तक में उस विशेषांक की सामग्री का चातुर्यपूर्ण इस्तेमाल किया गया है। सेवक महोदय द्विवेदी जी द्वारा की गयी आलोचना से बेहद आहत हुए. उन्होंने अपनी पत्रिका 'नवजीवन' में 'सरस्वती की ईमानदारी का नमूना' शीर्षक से एक लेख लिखा। लेख में द्विवेदी जी के विरुद्ध तमाम अनर्गल बातें थीं। यद्यपि भवानी जी द्विवेदी जी की आलोचना से सहमत नहीं थे, किन्तु वे सेवक महाशय की कटूक्तियों से भी बेहद आहत थे। इस प्रकरण पर खेद व्यक्त करते हुए उन्होंने आलोच्य पुस्तक में लिखा है- "उस मर्मभेदी टिप्पणी से द्विवेदी जी का कुछ नहीं बिगड़ा – एक बच्चे के अपशब्द से किसी वृद्ध का महत्त्व नहीं घट जाता...मुझे दुःख है, लज्जा है और ग्लानि है कि मेरी ही पुस्तक के लिए ऐसी अप्रिय घटना घटी. यद्यपि उस टिप्पणी से मेरा कोई संबंध नहीं था, तो भी जिस पुस्तक के संबंध में ऐसी टिप्पणी छपी, उसके लेखक के नाते मैं पूज्य द्विवेदी जी से क्षमा की याचना करता हूँ।" (पृ। 218)
'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' पुस्तक के संबंध में भवानी दयाल जी का पक्ष यह है कि भले ही उनकी पुस्तक 'इण्डियन ओपिनियन' के विशेषांक के बाद प्रकाशित हुई, लेकिन उसका लेखन तो बहुत पहले ही हो चुका था। स्वयं 'इण्डियन ओपिनियन' ने उनकी पुस्तक पर एक प्रशंसात्मक लेख प्रकाशित किया था।
तमाम आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच, भवानी दयाल जी की पुस्तकों को केवल इस आधार पर खारिज़ नहीं किया जा सकता कि उनमें गोखले तथा तिलक के विचारों का दुहराव-मात्र है या फिर, किसी पत्रिका में उनकी किताबों में छपे चित्र पहले ही छप चुके थे। ज़ाहिर तौर पर, गोखले, तिलक और महात्मा गाँधी के विचारों से ही भवानी दयाल जी के सामाजिक जीवन का उद्भव हुआ था। ऐसे में विचारों के दुहराव को दुहराव की बजाय, अनुरूपण समझना ज़्यादा बेहतर होगा। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि गोखले और तिलक स्वयं वैचारिक आधार पर एकमत नहीं थे। उनकी चुनिंदा दक्षिण अफ़्रीकी यात्राओं और भाषणों का सार यही था कि दोनों भारतीय जन-नेता दक्षिण अफ़्रीकी जनता का सैधांतिक तौर पर समर्थन कर रहे थे। व्यावहारिक धरातल पर तो भवानी जी जैसे कर्मठ कार्यकर्त्ता ही संघर्ष कर रहे थे। सच के और नज़दीक जाने के क्रम में हमें भवानी दयाल जी के संघर्षों का यथार्थपरक मूल्यांकन करना होगा।
भवानी जी ने आलोच्य पुस्तक में अपनी भारत यात्रा का जीवंत वर्णन किया है। यह वर्णन भारतीयों के संदर्भ में वैदेशिक समागम की सच्ची रूपरेखा प्रस्तुत करता है। पानी के जहाज पर तीसरी दुनिया के वासियों की हालत से लेकर श्रीलंका में सांस्कृतिक वर्चस्व और आर्थिक रूपरेखा के अनुरूप भारतवंशियों की स्थिति का वर्णन किताब में किया गया है। किताब का यह हिस्सा भारतवंशियों की तत्कालीन दयनीयता का अद्भुत साक्ष्य है।
भवानी दयाल जी की इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक के आखिरी हिस्से में उनके भारत 'प्रवास' का वर्णन है। एक मायने में तत्कालीन राजनीतिक-वैचारिक स्वाधीनता आंदोलन की हल्की-सी झलक इस हिस्से में मिलती है।
उनके द्वारा प्रस्तुत स्वाधीनता आंदोलन का वर्णन स्वयं उनके लिए स्वप्न-सरीखाहै। भवानी जी के लिए भारत-यात्रा पूजनीय थी और भारत में उनके साथ घटी एक-एक घटना ऐतिहासिक। किन्तु, यदि हम उन सभी घटनाक्रमों पर तटस्थ होकर विचार करना शुरू करें तो पाएँगे कि आधुनिक भारत के नेताओं ने उस समय से ही खुद को आम जनता से ऊपर और विशिष्ट समझना शुरू कर दिया था। बापू के सपनों का भारत, बापू के सामने ही चकनाचूर होने लगा था।
'दक्षिण अफ्रीका के मेरे अनुभव' पुस्तक को किसीख़ास दायरे में बाँधना उचित नहीं है। अपने देश और अपनी मिट्टी से बहुत दूर जा बसे गिरमिटिया मज़दूरों के दुःख-दर्द को उकेरते हुए यह क़िताब तीव्र सामाजिक-राजनीतिक हलचलों का वर्णन करने लगती है और फिर, तत्कालीन जीवन तथा संस्कृति के हर अहम् पहलू को अपने भीतर समा लेने की कोशिश करती है। वैसे तो यह क़िताब हम सब के लिए आकर्षक, विचारोत्तेजक एवं बेहद उपयोगी है, लेकिन दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के जीवन-संघर्ष तथा कार्यों पर शोध-दृष्टि रखने वाले अध्येताओं को यह क़िताब अनिवार्यतः पढ़नी ही चाहिए. दक्षिण अफ्रीका में गाँधी युग के तमाम अनसुलझे सवालों के 'मौन' उत्तर भवानी दयाल जी की इस क़िताब में मौजूद हैं।