बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 11 / कमलेश पुण्यार्क
जरा दम लेकर बाबा ने आगे कहा- “ऊपर गिनाये गये अन्य शब्द तो स्पष्ट अर्थ वाले हैं, किन्तु पशु- विशेष अर्थ वाला है- घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमी। कुलं शीलं तथा जातिरष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः - घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति- ये आठ पाशों (रस्सियों) से बंधे होने के कारण सभी जीव पशु कहे गये है, न कि सिर्फ चौपाया- गाय, बैल आदि। अब जरा सोचो इस विस्तृत सीमा के बाहर(मुक्त) होकर ही तो चक्रसाधना का अधिकारी हुआ जा सकता है। कितना कठोर तप है यहां तक पहुंचने में। पहले तो, केवल पशुता से बन्धन-मुक्त होना ही अति कठिन है, यानी साधना-क्षेत्र में प्रवेश पाने का अधिकार पाना ही जब कठिन है, फिर सोचा जा सकता है कि साधना कितनी कठिन होगी! यहाँ पग-पग पर गिरने(नष्टहोने) का खतरा बना हुआ है। विरले ही कोई साधक सिद्ध हो पाता है। कृष्ण ने भी कहा है- मनुष्याणाम् सहस्रेषु कश्चितद्यतति सिद्धये....हजारों व्यक्तियों में कोई एक साधना पथ पर अग्रसर होता है, और उनमें भी (.०००१%करीब) विरले ही कोई पहुँच पाता है सही ठिकाने पर। साधकों के भाव-स्तर भी तीन कहे गये हैं- पशु, वीर, और दिव्य। पुनः वीर का भी दो स्तर है- विभाव और सभाव। आम साधक तो पशुभाव में ही हुआ करता है, क्यों कि पूर्व में कहे गये अष्टपाशों से मुक्ति कोई साधारण बात नहीं है। प्रथम प्रकार के वीरभावी साधक- यानी विभाववीरभाव वाले मद्यादि पंचतत्त्व का सेवन सीधे करने के अधिकारी नहीं है, बल्कि उसका प्रतिनिधि- अनुकल्प सेवन करते हैं। वही आगे चल कर सभाव की अवस्था में सद्यः मद्यादि का प्रयोग होता है। यहां भी आमश्रुति में काफी भ्रामक स्थिति है। तुमने भैरवीचक्र के बारे में प्रश्न किया, तो निश्चित है कि उसके प्रति जिज्ञासा बनाया होगा, या कहो खींचा होगा उसका बहुचर्चित सिद्धान्त ही तुमको। क्यों कि आम लोगों में यह भ्रामक श्लोक खूब चर्चित है।”
‘जी महाराज!’- मैंने करवद्ध निवेदन किया- मैंने बहुतों से सुन रखा है, तन्त्र के विषय में- मद्यं, मांस, च मीनं च मुद्रामैथुनमेव च। मकार पञ्चकंप्राहुर्योगिनां मुक्तिदायकम्॥ - यानी इन पंचमकारों की साधना होती है। मेरी जिज्ञासा यही है, कि क्या यह सही बात है? पतन के ये गर्त, साधना के सोपान कैसे हो सकते हैं?
सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- “सही जिज्ञासा है तुम्हारी। साधना का सोपान ये कैसे हो सकता है ? तन्त्र को गर्हित, निकृष्ट की पंक्ति में ढकेल देने के लिए यह श्लोक काफी है– किसी अनाड़ी के हाथ पड़कर। विभिन्न प्रयोगों में कुलार्णवतन्त्र (१०-५), महानिर्वाणतन्त्र(५-२२) आदि ग्रन्थों में किंचित शब्द भेद सहित यह श्लोक आया है, जैसे- मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च। शक्ति पूजा विधावाद्ये पंचतत्त्वं प्रकीर्तितम्॥ तथा च- मद्यं मांसं च मत्स्यश्च मुद्रा मैथुनमेव च। मकारपंचकं देवि देवता प्रीतिकारकम्॥ ये बातें अनाड़ियों के कानों में घुसकर उसे मथित कर दिया है। महज भोगवादी प्रवृति से आकृष्ट होकर तन्त्र-मार्ग पर कदम बढ़ा दिया। परिणामतः स्वयं भी डूबा, और तन्त्र शास्त्र को भी कलंकित कर डुबो दिया। जैसा कि अभी-अभी मैंने कहा- पश्वादि त्रिविध साधक-भाव-स्थिति, और सबसे महत्त्वपूर्ण बात गुरु-सानिध्य, गुरुगम्यता, गुरु-आदेश-निर्देश-दीक्षा पर निर्भर है। इसके अभाव में पतन तो होना तय है। आमतौर पर भोगवादी शब्द तो आकर्षित कर लेते हैं, पर उस तक पहुँचने की स्थिति न रहने पर पतन ही पतन है। ये पंचमकार वस्तुतः पंचमहाभूतों की साधना है। स्थिति क्रम में, या कि संहार क्रम में इनके सजावट का क्रम भी बदल जाता है। जैसे स्थितिक्रम में होगा- मैथुन, मांस, मद्य, मत्स्य, और मुद्रा। इसे ही उलट दो तो हो जायेगा संहार का क्रम। ये पांचो महा अमृत हैं, किन्तु महाविष भी इसे ही समझो। पंच मकारों की साधना अत्यावश्यक है, वाममार्गीय तन्त्र-साधना में, चाहे वह शैव कापालिक हो या कि शाक्त कौल। अष्टपाशों के मोचन में इन पंचमकारों का सेवन बहुत ही सहायक है। अहंकार, अविद्यादि हृद् ग्रन्थियों के उच्छेदन के फलस्वरुप ही पूर्णतया निर्ग्रन्थ (ग्रन्थिमुक्त) होकर ही वीरभाव की आगे की साधना की जा सकती है, और इसमें पंचमकारों का महत् योगदान है। पाशमुक्ति के पश्चात् सदाशिव भाव का उद्रेक होता है, और तब सम्यक् वीरभाव उद्भुत होता है। इसके वगैर साधना पूरी नहीं हो सकती। जैसा कि तन्त्रदीपिका में कहा भी गया है- पंचतत्त्वं विना पूजा अभिचाराय कल्पते। नष्टा सिद्धिः साधकस्य प्रत्यूहाश्च पदे-पदे॥ किन्तु कठोर अनुशासन एवं मर्यादा से आवद्ध है। इन तत्त्वों का सेवन सिर्फ देवता प्रीत्यर्थ ही होना चाहिए, न कि ऐंद्रिक तृष्णा हेतु- मादिपंचकानीशानि देवताप्रीतये सुधीः। यथाविधि निषेवेत् तृष्णया चेत् स पातकी॥ अब प्रथम मकार मदिरा(मद्य)को ही ले लो। वस्तुतः यह त्रिशापित है- शुक्र, कृष्ण, और ब्रह्मा के शाप का विमोचन किये वगैर मदिरा सेवन करना उचित नहीं। और जैसे ही इन तीनों शापों का विधिवत विमोचन हो जाता है, मदिरा मदिरा रह ही नहीं जाता, अमृत हो जाता है। अब भला, इस रहस्य को जाने-बूझे वगैर जिह्वालोलुप व्यक्ति भ्रष्ट होकर नाली में ही तो गिरेगा! किन्तु इसका ये अर्थ भी मत लगा लेना कि कोई पियक्कड़ इन शापों का विमोचन करके दारु ढालने लगे। मदिरादि का उपयोग सिर्फ और सिर्फ देवता प्रीत्यर्थ ही विहित है, न कि जिह्वालोलुप जन के लिए- जैसा कि अभी-अभी मैंने कहा भी है। इसी भांति मांस सेवन के पूर्व भी वीरभाव-साधक को एक विशिष्ट मन्त्र से अभिमन्त्रित करना होता है मांस को, तभी सेवनीय होता है। तुमने सुना होगा- विषस्य विषमौषधम् - विष से ही विष की चिकित्सा की जाती है। संखिया (Arcenic) महाविनाशकारी विष है, जो पहाड़ी विच्छुओं के दंश से प्राप्त होता है, जब वह विष की उष्मा से पीड़ित होकर पहाड़ों में दंश मारता है। इसी संखिया को योग्य आयुर्वेदज्ञ शोधित करके औषधि के रुप में प्रयोग करता है, और मनुष्य का जीवन-रक्षण होता है। किन्तु अज्ञानी बिना जाने-समझे सिर्फ वैद्य को ऐसा करता हुआ देख कर, खुद भी करने बैठ जाये तो उसकी क्या गति होगी- समझ सकते हो। कामवासना से पीड़ित मनुष्य का साधना-जगत में, भला प्रवेश कैसे हो सकता है? जैसा कि कुलार्णव तन्त्र में कहा गया है–
यावत् कामादि दीप्येत यावत् संसारवासना। यावदिन्द्रियचापल्यं तावत्तत्त्वकथा कुतः॥ (१-११३)
प्रारम्भिक साधना तो पशुभाव से मुक्ति हेतु ही करने की है, क्यों कि यहीं से वीरभाव का द्वार खुलता है, और फिर आगे चल कर दिव्यभाव प्रस्फुटित होता है- पाशबद्धः पशुर्ज्ञेयः पाशमुक्तो महेश्वरः। अतः पशुभाव की प्रारम्भिक अवस्था में पंचमकारों के सीधे व्यवहार का सवाल ही कहां उठता है! यहां तो अनुकल्पों(विकल्पों) का सहारा लेना है, जैसा कि मद्य के स्थान पर नारियल (डाभ)का जल, ताम्रपात्र में रखा दूध, गुड़, शर्करा, मधु आदि; मांस के स्थान पर लहशुन;मत्स्य(मछली)के स्थान पर लम्बा(कलौंजी वाला) बैंगन; मुद्रा के अनुकल्प में तण्डुल, धान्यादि; तथा मैथुन के अनुकल्प में अपने इष्टमन्त्र-जप पूर्वक जगदम्बा के श्री चरणों का ध्यान- अतस्तेषां प्रतिनिधौ शेषतत्त्वस्य पार्वति। ध्यानं देव्याः पदांभोजे स्वेष्ट मन्त्र जप- स्तथा॥ (महानिर्वाणतन्त्र ८-१७३)। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि वीरभाव की भी दो स्थितियां हैं- विभाव और सभाव। विभावी वीरभाव के साधक को झिझक मिटाने के लिए अनुकल्पिक पंचमकार के प्रयोग के साथ साथ कुमारीपूजन करने का निर्देश है। ध्यातव्य है कि कुमारीपूजन में किसी भी जाति की कन्या को ग्रहण किया जाना चाहिए- ऊँच, नीच जाति भेद सख्त वर्जित है। संसार की सभी कुमारियों में पराम्बाभाव को देखने का प्रयास करना है- कुमारीपूजन का यही रहस्य है। निरंतर कुमारीपूजन करते-करते परम्बतत्त्व का अनुभव हो जाता है। इस प्रकार एक बहुत बड़े पाश(बन्धन)से मुक्ति मिल जाती है। प्रसंगवश यहां एक और बात स्पष्ट कर दूं कि इस वीरभाव के दो और भी प्रकार हैं- दक्षिणाचार एवं वामाचार। दक्षिणाचार में शिव रुप में शक्ति का सेवन होता है, और वामाचार में शक्तिरुप में शक्ति का सेवन होता है। सर्वोल्लासतन्त्र(१८-१०) में कहा गया है-स्वधर्मनिरतो भूत्वा पंच तत्त्वैः प्रपूजयेत्। स एव दक्षिणाचारो शिवो भूत्वा यजेत् पराम्॥ तथा वहीं आगे (४८-१) यह भी कहा गया है- स्वपुरुषैः पंचतत्त्वैश्च पूजयेत् कुलयोषिताम्। वामाचारः स विज्ञेयो वामा भूत्वा यजेत् पराम्॥ ये सब है, किन्तु एक बात दृढ़ता पूर्वक जान लो कि ‘पूर्णाभिषेक’ के बिना केवल मद्यपान करने लेने भर से कोई कौलसाधक नहीं हो जाता। मगर अफसोस कि सांसारिक विविध वासनाओं में जकड़े मूर्खों, अनाड़ियों, जाहिलों के हाथ तन्त्र का सिद्धान्त पड़ कर, कुछ ऐसा ही हुआ है, पिछले हजार-दो हजार वर्षों में। अतः इसे बड़े संघर्ष पूर्वक पुनः परिष्कृत कर अपने मूल सिंहासन पर आरुढ़ करने की आवश्यकता है। महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज जैसे कई महानुभावों ने इस क्षेत्र में पुनीत कदम उठाये हैं। हमें उनके मार्गदर्शन से लाभ उठाना चाहिए।”
इतना कह कर बाबा जरा विलमे। एक बार हमदोनों के चेहरे को निहारे, मानों कुछ ढूढ रहे हों- हमारी मनःस्थिति भांप रहे हों, फिर उचरने लगे- “तन्त्र की गहन साधना के विषय में मार्कण्डेय, पद्म, ब्रह्माण्ड, श्रीमद्भागवत, कूर्मादि विविध पुराणों के अतिरिक्त छान्दोग्योपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, भावोपनिषद्, बृह्वृचोपनिषद्, देव्युपनिषद्, कठोपनिषद्, त्रिपुरातापिन्युपनिषद्, रुद्रोपनिषद्, ध्यानबिदूपनिषद्, योगतत्वोपनिषद् आदि अनेक उपनिषद् ग्रन्थों में भी विषद वर्णन मिलता है। मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लुकभट्ट ने तो श्रुतिश्च द्विविधा वैदिकी-तान्त्रिकी च कहकर हिन्दू धर्म-संस्कृति को प्रतिष्ठित किया है। इतना गहन और महत् है हमारी संस्कृति। किन्तु कुछ लोलुप, स्वार्थी, अज्ञानी, मूर्ख, नासमझों ने इसे कलंकित करने में जरा भी कसर नहीं छोड़ा, जिसका परिणाम है वर्तमान की भ्रामक स्थिति। अतः हमें इन प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान-सागर में गोता स्वयं लगाकर(केवल किताबी बातें नहीं और न सुनी-सुनायी बातें ही), तन्त्र-साधना के शुभ्र मुक्ता का परख करना होगा।”
गायत्री ने बीच में ही टोका- ‘यानी कि भैया, तन्त्र के भाव, अर्थ, और उद्देश्य को सही ढंग से न समझ पाने के चलते ये सब हुआ है?’ बाबा ने कहा- “बिलकुल यही बात है। गूढभाव में कहा कुछ गया है, समझा कुछ गया है, और किया कुछ और गया है। साधना की गहराई में जैसे-जैसे उतरने की बात हुयी है, कूटशब्दों का खेल भी खूब खेला गया है। बहुत जगह स्पष्ट द्वयर्थक शब्द आये हैं, तो कहीं ‘श्लिष्ट’ शब्द भी हैं, तो कहीं कूट(कोड) भी है। सामान्य कर्मकाण्डी लोग सीधे इसे लौकिक प्रयोजन में उतार लेते हैं, जैसा कि मार्कण्डेय पुराण के श्रीदुर्गासप्तशती का नवरात्र में पाठ करके कुछ द्रव्यार्जन कर लेना भर उद्देश्य रह गया है ब्राह्मणों का। उसके रहस्यों में डूबने-जानने का फुरसत भी नहीं है किसी को। वैसे ही कर्पूरस्तोत्र के लिए भी ख्याति है कि इसका नियमित पाठ करने से सामान्य जीवनोपयोगी आवश्यकता की पूर्ति अवश्य हो जाती है। द्वयर्थक, कूट और श्लिष्ट शब्दों के लिए दक्षिण काली की गहन उपासना में बहुचर्चित ‘कालीकर्पूरस्तोत्र’ की एक बानगी देखो- सलोमास्थि स्वैरम्पललमपि मार्जार मसिते।
परंचोष्ट्रम्मेषन्नरमहिषयोश्छाग मपिवा। – साधना में मार्जार(बिल्ली), उष्ट्र(ऊँट), मेष (भेड़), छाग (बकरा), नर (आदमी), महिष (भैंस) आदि की बलि देने की बात कही जा रही है; किन्तु गौर करने की बात है कि ये दक्षिणकाली की उपासना क्रम में है। यहां इन सभी शब्दों के अर्थ बिलकुल भिन्न हैं। यहां मनुष्य के षडरिपुओं (छःशत्रुओं)की बात की जा रही है। इन जीवों के मूल स्वभाव के अनुसार व्याख्यायित करने पर अर्थ स्पष्ट होगा। काम ही छाग है, क्रोध महिष है, लोभ मार्जार है, मोह मेष है, मात्सर्य उष्ट्र है, और मद नर है। इन छः प्रबल शत्रुओं की बलि देनी है, न कि छः जीवों की। इन पर विजय पाना है। हमारे मनीषियों ने प्रायः कूट शब्दों का ही प्रयोग किया है। घोर बौद्ध तान्त्रिक वज्रयानी एवं सहजयानी सिद्धों की अभिव्यक्ति की भाषा भी हमेशा ऐसी ही मर्यादित और रहस्यमयी रही है, जिसे संघाभाषा या संघावचन कहा जाता है। महानिर्वाणतन्त्र की ऐसी ही एक बानगी और देखो- मातृभोमौ क्षिपेत् लिंगं भगिन्याः स्तनमर्दनम्। गुरोर्मूर्ध्नि पदं दत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥ इस श्लोक की यदि शाब्दिक व्याख्या करें तो कितना घृणित अर्थ निकलेगा- माँ की योनि में लिंग स्थापन, बहन का स्तन मर्दन, और गुरु के सिर पर पांव रखने की बात की जा रही है। सच्चाई ये है कि यहां कुण्डलिनी योग-साधना की बात कही जा रही है। प्रथम ‘चक्र’ स्थित त्रिकोण ही भग है, जिसमें स्वयंभूलिंग प्रतिष्ठित हैं। यहीं वह अद्भुत शक्ति विद्यमान है। इसे योग-साधन-प्रक्रिया से ऊपर उठा कर गुरुपद यानी सप्तम पायदान पर ले जाना(पांव धरना) है। हेमबज्रतन्त्र में इन शब्दों को किंचित अन्य रुप में भी स्पष्ट किया गया है- जननी भण्यते प्रज्ञा जनयति यस्याज्जगजनम्। भगनीति तथा प्रज्ञा विभागं च निगद्यते। गुणस्य दुहणा प्रज्ञा दुहिता च निगद्यते॥- वस्तुतः ‘प्रज्ञा’ की बात की जा रही है। चार प्रकार की मुद्राओं की बात की जा रही है- जननी, भगिनी, भागिनेयी, पुत्री आदि संकेतों से- कर्ममुद्रा, ज्ञानमुद्रा, महामुद्रा, एवं फलमुद्रा का ही संकेत है। इतना ही नहीं, इस श्लोक के अन्य भी कई गूढार्थ हैं। अब भला योग्य गुरु का अभाव होगा, तो अर्थ का अनर्थ तो लगेगा ही न?
“अब हम तुम्हारे मूल प्रश्न पर आते हैं कि रासचक्र और भैरवीचक्र में क्या कहीं समानता भी है या...? एक बात दृढ़ता पूर्वक मान लो कि परमतत्त्व में स्त्री-पुरुष का भेद होता ही नहीं है। यह भेद तो मानवी-बुद्धि की संकीर्णता का द्योतक है। साथ ही इसे कह सकते हो कि साधक की भावना पर ही निर्भर है। परतत्त्व का साक्षात्कार कभी ‘पुं’ रुप में तो कभी ‘स्त्री’ में होता है। श्रीराधातन्त्र में शिव का राधात्व, और शक्ति का कृष्णत्व वर्णित है। एक बार शिव ने पार्वती का स्वयं से श्रृंगार किया, और पार्वती ने शिव का। एक दूसरे को श्रृंगारित करते समय परस्पर आकर्षित होकर, अचानक पार्वती कृष्ण के रुप में आविर्भूत हो उठी। उन्हें इस रुप में देख कर शिव चटपट राधा बन बैठे- राधांशेन पुमान् ज्ञेयः कृष्णांशात् शक्तिरुपधृक्- राधा-कृष्ण युगल रुप अद्भुत है यह। कहीं-कहीं भाव चित्र में देखते होगे- ऊँकार के अन्तर्गत ही यह युगल छवि उल्लसित है। भक्त की आँखें जो ना देख ले...भक्त का चिन्तन जो न सोच ले। सुचर्चित अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना इन्हीं तान्त्रिक पृष्ठभूमि पर हुयी है। वैसे तो पुरुष के अन्दर नारी, और नारी के अन्दर पुरुष विराजमान है ही- यह विज्ञान सम्मत भी हो चुका है। बौद्ध वज्रयानी तंत्र में यही दृष्टि-बोध प्रज्ञापारमिता बुद्ध के ‘युगनद्धवाद’ के रुप में सुख्यात है। राधा-कृष्ण, शिव-शक्ति का सामरस्य रुप एक दिव्य मिथुन(जोड़ा) अखण्ड श्रृंगार में अनवरत लीन है, और मनुष्य के निगूढ़ आध्यात्मिक धरातल पर सदा विराज मान है। उस महाभाव में आत्मविश्रान्ति की अज्ञात प्रेरणा ही भौतिक रुप से नर-नारी के पारस्परिक संयोग की तीव्र इच्छा और प्रत्यक्षतः मांसल रति(सम्भोग)के लिए प्रेरित करते रहता है, जहां मनुष्य(या कहें प्राणी मात्र) अवश हो जाता है। विवश हो जाता है- मिथुन-मिलन के लिए। महाकवि दिनकर ने इसे कुछ यूं व्यक्त किया है- ये वक्षस्थल के कुसुमकुंज, सुरभित विश्राम भवन ये, जहाँ मृत्यु का पथिक ठहर कर श्रान्ति दूर करता है...। पुरुष को जो शान्ति यहां पहुंच कर मिलती है, स्त्री को जो चरम-परम सुख यहां आकर मिलता है, उसकी तुलना किसी अन्य सुख से शायद नहीं किया जा सकता- भले ही वह क्षणिक हो; और यह क्षणभंगुरता ही भावी विकलता का कारण बन जाता है। काश! यह टिकाउ होता...पर हो कैसे ? एक प्रसंग है कहीं का- ब्रह्मा ने एक आकृति बनायी। सर्वगुण सम्पन्न किया उसे। किन्तु थोड़े चिन्तित हो उठे- यह तो हमें ही विसरा देगा- यह सोचकर उसे पटक दिया। आकृति दो भागों में विखण्डित हो गयी, और चैतन्य होकर छटपटाने लगी- एक दूसरे से मिलने को। यही आकृति है- पुरुष और नारी, जो निरन्तर विकल है मिलने को। मैथुन में क्षणभर के लिए एकरसता आती है, और चली भी जाती है। प्राणी विकल का विकल ही रह जाता है। साधना के सोपान पर चढ़कर, आत्मा की दिव्यभूमि का अहसास जब होता है, तो सारी विकलता समाप्त हो जाती है- ‘आत्मरति’ ‘पररति’ से विरत कर देता है। साधना के आलोक में यदि मनुष्य का ज्ञान-चक्षु थोड़ा भी खुल जाये, तो पायेगा कि आभ्यन्तर दिव्य आलोक सदा भासित है। संभोग काल की क्षणिक विश्रान्ति परम विश्रान्ति में परिवर्तित हो जायेगा। भोग से ही योग-तन्त्र-साधना का मूल सिद्धान्त है- भोगो योगायते साक्षात् पातकं च सुकृतायते। मोक्षायते च संसारः कुलधर्मे कुलेश्वरि॥ (कुलार्णवतन्त्र-२-२४)। जहां भोगवादी प्रवृति है, वहां योग का लेश मात्र भी स्थान नहीं हो सकता, और जहाँ योगवादी प्रवृति का अंश भी विद्यमान है, वहां भोग टिक नहीं सकता। यत्रास्ति भोग बाहुल्यं तत्र योगस्य का कथा। योगेऽपि भोग विरहः कोलस्तूभयमश्नुते॥ (महानिर्वाणतन्त्र ४-३९) सच्चे कौल साधक के एक हाथ में भोग है, तो दूसरे हाथ में योग है- श्रीसुन्दरी साधन तत्पराणां भोगश्च योगश्च करस्थ एव। यह वीरभाव के साधक के लिए ही है। पशुभावी को तो बहुत ही सम्भल कर रहने की आवश्यकता है। विभावी वीरभाव का साधक स्थूल मैथुन के मार्ग से दिव्य मैथुन की स्थिति में हठात् छलांग लगा लेता है- आत्मसाक्षात्कार के रुप में। वाल्मीकि रामायण का एक प्रसंग है- राम प्रेरित लक्ष्मण विदेह जनक के पास जाते हैं – अध्यात्म-ज्ञान हेतु; किन्तु कक्ष के द्वार पर से ही झांक कर लौट आते हैं। राम द्वारा, शीघ्र लौट आने का कारण पूछने पर लक्ष्मण ने कहा कि वैसे व्यक्ति से क्या ज्ञान लेना जो अभी स्वयं काम-पिपासु हो, क्यों कि द्वार से झांक कर देखा कि जनक का एक हाथ किसी नायिका का स्तन-मर्दन कर रहा है। हँस कर राम ने कहा- और उनका दूसरा हाथ- क्या तुमने उसे भी देखा ? जाओ पुनः जाओ और देखो। भ्रातृभक्त सौमित्रेय को पुनः जाना पड़ा; और इस बार जो उन्होंने देखा- वह चौंकाने वाला था। जनक का दूसरा हाथ अग्नि-कुण्ड में तप्त हो रहा था, पर उन्हें जरा भी चिन्ता न थी इसके लिए। यही है विदेह का अर्थ। समान समय में असमान विविध कार्यों में स्वयं को संलग्न रख कर भी पद्मपत्रमिवांभषा बने रहना। कुछ ऐसी ही स्थिति वज्रयानी सहजिया बौद्धतन्त्र में कायचतुष्टय—निर्माणकाय, संभोगकाय, धर्मकाय, और सहजकाय, तथा तदनुसार ही चक्रचतुष्टय —निर्माणचक्र, संभोगचक्र, धर्मचक्र, और सहजचक्र की साधना के परिणामस्वरुप आनन्द चतुष्टय — आनन्द, परमानन्द, विरमानन्द और सहजानन्द, तथा क्षण चतुष्टय—विचित्र, विपाक, विमर्द और विलक्षण की परिकल्पना है। गुह्यसाधना की सारी प्रक्रिया अविद्या के नाशपूर्वक आत्मसाक्षात्कार हेतु ही है। यह अविद्या भी बहुत बूझने वाली चीज है। महामुनि कपिल प्रणीत साख्यदर्शन के बारहवें सूत्र में इस अविद्या को पांच गाठों वाली कहा गया है- पञ्चपर्वा अविद्या। अविद्या पांच प्रकार की होती है- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश...।”
मैंने बीच में ही टोका- ‘सांख्यकार तो संख्या गिना कर रह गये हैं। आप भी यही कह कर निकल जायेंगे, तो मुझ जैसा बेवकूफ आदमी कैसे समझ पायेगा इन दुरुह बातों को। समय तो लग ही रहा है, किन्तु कृपा करके इसे जरा विस्तार से समझाते तो अच्छा होता।’
मेरी बातों पर बाबा मुस्कुराये, और बोले-” यदि कोई खुद को बेवकूफ मान ले तो फिर काबिल बनने के उसके सारे दरवाजे खुलने लगते हैं। लगता है, तुम भी अब बेवकूफ नहीं रह गये हो, क्यों कि ऐसे-ऐसे गूढ सवाल करने लगे हो, और ध्यान से सुन भी रहे हो। सुनने वाला चेष्टित हो यदि, तो सुनाने वाले को भी मन लगता है। अन्यथा बकने वाले बक जाते हैं, परन्तु, बात इस कान से उस कान तक की होकर रह जाती है। बारम्बार एक ही विषय को समय-समय पर कहना पड़ा है विचारकों को- इसका मूल कारण यही है..।”