बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 12 / कमलेश पुण्यार्क
सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- “ठीक है, इसे मैं विस्तार से ही कहता हूँ। महर्षि पतञ्जलि ने भी इसे योगदर्शन के साधन पाद में विस्तार से ही कहा है। अनित्य में नित्य, अपवित्र में पवित्र, दुःख में सुख, और अनात्मा में आत्मा की समझ (अविवेक पूर्ण अनुभव) ही अविद्या है। बुद्धि में आत्मबुद्धि अस्मिता है। सुख की इच्छा यानी लोभ की वृत्ति का नाम राग है। सुख-साधन में विघ्न डालने वालों के प्रति घृणा अथवा द्वेष ही द्वेष कहलाता है। तथा मृत्यु से भयभीत होने की जो वृति है उसे अभिनिवेश कहते हैं। इन्हीं को दूसरे शब्दों में क्रमशः तमस्, मोह, महामोह, तामिस्र और अन्धतामिस्र भी कहते हैं। पतञ्जलि का कथन बड़ा ही गूढ है –
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥ (योगदर्शन, समाधिपाद, सूत्र-२) में ‘अथ’ और ‘इति’ दोनों है। इसे ही साधने में खप जाता है- आम साधक। चित्त की वृत्तियों का निरोध (रुकना नहीं) ही योग है। अविद्या एक वृत्ति ही तो है, जिसके कारण विविध क्लेश उत्पन्न होते हैं, और जीवन पर्यन्त झेलने को विवश होता है मनुष्य। इस अविद्या के कारण ही जड़ चित्त और परम चेतन पुरुष चिति में भेद नहीं समझ आता। चित्त और चिति में अविवेक ही अस्मिता नामक क्लेश है।चित्त और चिति में विवेक न रहने के कारण ही जड़तत्व में सुख की वासना उत्पन्न हो जाती है। इस वासना का ही नाम राग है। इस अविवेकी राग में विघ्न पड़ने पर दुःख होता है, और दुःख देने वाले व्यक्ति, या कारण से द्वेष की उत्पत्ति होगी ही। दुःख पास न आवे- इस भय से भौतिक शरीर को बचाने का हर सम्भव प्रयास किया जाता है। जब कि सभी जानते हैं, कि जो जन्म लिया है, वह मरेगा अवश्य। गीता भी यही कहती है- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः..। मृत्य के इस भयवृत्ति को ही अभिनिवेश कहते हैं। यक्ष ने युधिष्ठिर से कुछ ऐसा ही गूढ़ सवाल किया था कि ‘आश्चर्य’ क्या है? जिसके उत्तर में उन्होंने कहा था- "अह्नि-अह्नि भूतानि, गच्छन्ति यम मन्दिरम्। अपरे स्थातुमिच्छन्ति, किमाश्चर्यं अतः परम्॥" इस पंचविध अविद्या का नाश ही गुह्यसाधना का ध्येय है। यह अविद्या वस्तुतः हमारा कल्पित आवरण मात्र है। कबीर ने इसे अपने अंदाज में व्यक्त किया है- जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी... घड़े को नदी में डुबो देने पर वह भर जाता है– जल से परिपूर्ण हो जाता है। वही जल जो बाहर है, घड़े के भीतर भी होता है। दोनों में तत्त्वतः कोई अन्तर लेशमात्र भी नहीं होता। यदि कोई पूछे कि घड़े में भरे हुए जल और नदी में बह रहे जल में अन्तर क्या है, तो इसका जवाब शायद हर कोई दे दे- दोनों एक ही है, कोई फर्क नहीं है। सवाल ये है कि फिर बाधक क्या है? इसका उत्तर भी हर कोई सहज ही दे सकता है कि घड़े की दीवार ही बाधा है, जो भेद पैदा किये हुए है। जो दूरी बना रखा है दोनों जल में। किन्तु इसी सरल बात को समझाने के लिए शास्त्र चीख रहे हैं- अविद्या की इस दीवार को ढहा दो ज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित होते ही तुममें और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा। इसलिए कि दोनों एक ही है-अहंब्रह्मास्मि या कहो सोऽहं। पुरुष और नारी में कोई भेद नहीं रह जायेगा, जिसके लिए तुम इतने व्याकुल हो रहे हो। भैरवीसाधना में साधक, गुरु के कठोर निर्देशों के अन्तर्गत यही तो साधता है। वहां कायिक भोग, कायसुखानुभूति का जरा भी गुंजाइश नहीं है। रासलीला में राधा-कृष्ण या कृष्ण और अन्यान्य गोपियों का चक्राकार व्यूह घटित होता है। परमतत्त्व की यह दिव्यलीला भोगात्मक (भोगभासित) कौलमत का विशिष्ट संकेत है। रासचक्र भैरवीचक्र का उदात्त ही नहीं परम उदात्त रुप है। परम ‘संस्कृत स्वरुप’ है- परतत्त्व का परममिलन है वहां। किंचित क्रिया-भेद सहित, वही विन्यास यहां भी है- पंक्त्याकारेण वा सम्यक् चक्राकारेण वा प्रिये। शिवशक्तिधिया सर्वं चक्रमध्ये समर्चयेत्॥ अविभक्तौ यथा आवां लक्ष्मीनारायणौ तथा। यथा वाणीविधातारौ तथा वीरः सशक्तिकः॥ (कुलार्णवतन्त्र, ८-१०५, १०६)। दोनों मंडलाकार ही हैं। भैरवीचक्र में चक्रेश्वर-चक्रेश्वरी स्वरुप गुरु, अपनी शक्ति के साथ अधिष्ठित होते हैं, और वलयाकार परिधि पर चारों ओर अन्य साधक अपने-अपने निर्धारित जोड़े के साथ उपविष्ट होते हैं। कृष्ण, शुक्राचार्य, ब्रह्मादि के त्रिविध शापों से मुक्त करके सुरापान होता है। इन शापों के उद्धार-मन्त्र के प्रयोग के बिना तो सुरा निरा सुरा ही है- तारातन्त्र एवं सर्वोल्लासतन्त्र में कहा गया है-
अशोधितं पिबेन्मद्यं रमणं चाप्यशोधितम्। पानेऽपि नरकं याति रमणं मरणं भवेत्॥
मंत्राभिषिक्त मांस भक्षण भी होता है। पंचतत्त्व-शोधन की पूरी तान्त्रिक प्रक्रिया दीर्घकाल तक चलती है। नारायणीतन्त्र में वर्णित भैरवीचक्र की बाह्यपूजा विधान पर जरा ध्यान दो तो तुम्हारा सारा भ्रम दूर हो जाये। इस अनूठी क्रिया के प्रति जो घृणित भावना है, सदा के लिए तिरोहित हो जाय।गुरु-ध्यान, रुप-चिन्तन, प्राणायाम, जप, मैथुन, दक्षिणा, नमस्कर, स्तोत्रपाठ, और अन्त में नृत्यगान- यही तो नौ क्रम हैं। वीरतन्त्र में कहा गया है-
नवमे गायनं नृत्यं भगलिंगामृतं शिवे। नृत्यं श्रृंगारभावेन देवता प्रीतिभाग्भवेत्॥ देवतागुणवाक्यं वा गायनं भक्ति दायकम्। चक्रमध्ये चरेद् गानं भैरवो गाननायकः॥ केवलं गायनेनापि नवमं पात्रभक्षणम्। ततश्च देही परमे दशमेऽपि लयो भवेत्॥
जरा सोचो इन नौ क्रमों में काम को ठहरने का स्थान ही कहाँ मिलेगा ? क्यों कि गुरु का कठोर अनुशासन है। कठिन परीक्षा के बाद ही प्रवेश मिला है यहाँ- इस चक्र में उपविष्ठ होने का। सिद्धाद्वैत वीर साधक ही अधिकारी है इस साधना का। इतना ही नहीं चक्र में प्रवेश (उपविष्ठ) हो जाने के बाद वृथालाप, यहां तक कि निष्ठीवन(थूक-खंखार), अधोवायु, आदि भी निषिद्ध है-
चक्रमध्ये वृथालापं चांचलं बहुभाषणम्। निष्ठीवनमधोवायुं वर्णभेदं विवर्जयेत्॥ (महानिर्वाण तन्त्र-८-१९०), और आगे की स्थिति पर जरा गौर करो- कालीविलासतन्त्र का स्पष्ट निर्देश है—
दीक्षित परनारीषु यदि मैथुन माचरेत्। न बिन्दोः पातनं कार्यं कृतं च ब्रह्महा भवेत्। यदि न प्रपतेद् बिन्दुः परनारीषु पार्वति। सर्वसिद्धीश्वरी भूत्वा विहरेत् क्षितिमण्डले॥ (१०-२०, २१)।
देख रहे हो कितना कठिन है यह साधना। शिश्नोदरियों से क्या यह सम्भव है ? नारी-भग में सीधे मैथुन तो करना है, किन्तु शुक्र-पातन नहीं होना चाहिए। इससे ब्रह्महत्या का पाप लगेगा। कहीं-कहीं तो सीधे कह दिया गया है कि बाकी क्रियायें सही ढंग से सम्पन्न हो गयी, किन्तु भूल से भी यदि वीर्य-पातन हो गया, तो तत् क्षण ही साधक का सिर फट जायेगा—ब्रह्मरन्ध्र का भयंकर विस्फोट— यही ब्रह्महत्या है। और यदि सफल हो गया इस अघोर क्रिया में, तो भूमंडल पर परमसिद्ध होकर विचरण करेगा, और देह-त्याग के पश्चात् परमसत्ता में विलीन हो जायेगा...।”
मैं अभिभूत था, बाबा के श्रीमुख से साधना का वर्णन सुनकर। गायत्री भी काष्ठमौन होकर, पीये जा रही थी- अमृतवाणी को। वर्षों से घिरा घना कोहरा छंटा जा रहा था। ज्ञान का सूर्य उदित होता सा प्रतीत हो रहा था। शंकायें निर्मूल होती जा रही थी। बाबा कह रहे थे- “…नाथपंथियों की एक अतिगुह्य साधन-क्रिया है- वज्रोली। ये तो और भी विकट है। इस सम्बन्ध में हठयोग प्रदीपिका के निर्देश को देखो, और परखो, अपनी अल्प बुद्धि से—नारी भगे पतेत्विन्दुनभ्यासेनोर्ध्वमाहरेत्। चलितं च निजं बिन्दु मूर्ध्वमाकृष्य रक्षयेत्॥ एवं संरक्षयेद् बिन्दुं मृत्युं जयति योगवित्। मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारयेत्॥ (३-८७, ८८)- कहते हैं कि बिन्दुपातन हो भी जाय, तो उसे पुनः ऊपर खींच लो, नारी-भग में पतित शुक्र का ऊर्ध्वचालन करो, और क्षुब्ध कर, सुषुम्णामार्ग से ऊपर ले जाओ। इसी ‘बिन्दूपातन-सिद्धान्त’ को आधे-अधूरे रुप से पकड़ कर दक्षिणमार्गी लोग भी कठोर ब्रह्मचर्य की बात करते हैं, और काम से लड़ने में ही जीवन गंवा देते हैं। बिन्दुपातन से मरण सर्वत्र कैसे हो सकता हैं- सोचने वाली बात है। लगता है, लोगों ने सूत्र का संदर्भ-विचार नहीं किया। मूलतः यह हठयोग का सूत्र है-जैसा कि तुमने भी सुना। साधक को एक विशेष अवस्था में सावधान किया गया है- यह कह कर। न कि इसे सर्वत्र लागू कर लेना है। हालाकि यह कहकर, मैं ब्रह्मचर्य की महत्ता और मर्यादा को उपेक्षित नहीं कर रहा हूँ। ब्रह्मचर्य की अपनी महत्ता है। वीर्य का जितना ही कम क्षरण होगा, ओज की वृद्धि उतनी ही तीव्रता और गहनता से होगी। वीर्य की रक्षा तो हर कोई को प्रयत्न पूर्वक करना ही चाहिए। ऐसा नहीं कि यह नियम सिर्फ साधकों के लिए ही बना है।” बाबा के इस बात पर मैं जरा चौंका- ‘ये क्या कह रहें हैं महाराज! जहाँ तक मुझे शरीर विज्ञान(Anatomy) और शरीरक्रिया विज्ञान(Physiology) का ज्ञान है, मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि ऐसा कोई ऊपाय(मार्ग) नहीं है, जिससे गिरे हुए वीर्य को उठाकर ऊपर ले जाया जा सके, वो भी माथे तक। साथ ही यह भी निश्चित है कि पुरुष लिंग कोई ‘साइफनसिस्टम’ जैसा तो है नहीं, फिर ये क्रिया होगी कैसे?’
“यही तो सोचने-समझने वाली बात है। यह बिलकुल व्यावहारिक (Practical) ज्ञान वाली बात है। सिद्धान्त में क्या, कैसे कहा जाय। योग्य साधना-गुरु के बिना इसे समझा भी नहीं जा सकता। खैर, यहाँ तो मैं सिर्फ वज्रोली की सैद्धान्तिक दुरुहता की बात कर रहा हूँ, और उसकी महत्ता बता रहा हूँ कि साधक मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर ले सकता है, इस अद्भुत क्रिया द्वारा।
साक्षात्मन्मथमन्मथः से विभूषित श्रीकृष्ण के बारे में कहना ही क्या। वहां कहां प्रश्न रह जाता है- भौतिक काम-विकारों का? श्रीकृष्ण को सामान्य योगविद नहीं, बल्कि योगेश्वर कहा जाता है...वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायानुपा श्रितः (श्रीमद्भागवत् १०-२९-१ उत्तरार्थ)। कृष्ण को ‘अमना’ भी कहा गया है- जिसमें मन हो ही नहीं, ऐसे अमना भी गोपियों के प्रेमवश स-मन बने, और रासलीला किये। रासचक्र में कायव्यूह से प्रत्येक गोपी-द्वय के बीच विराज कर दिव्य नृत्य किये। एक ही कृष्ण के अनेक रुप हो गये। सभी गोपियां इस विश्वास में रहीं कि कृष्ण तो मेरे पास हैं, मेरे आलिंगन में हैं, मेरे बाहुपाश में हैं- योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः। ऐसे श्रीकृष्ण को मानवी बुद्धि में समाने-समझने के लिए हंसविलासतन्त्र ने तो स्पष्ट कर दिया- कृष्णो भोगी, शुको योगी, वसिष्ठः कर्मकारकः। राजानौ रामजनकौ पंचैते तत्त्वदर्शिनः॥ ये तो तत्वदर्शी हैं। रास के इस दिव्यत्व को समझना हो तो ‘सूर के सागर’ में उतरो, और भी स्पष्ट हो जायेगा। बहुत सी बातें ऐसी हैं, जिन्हें सिर्फ भावजगत में ही समझा जा सकता है, निरीह शब्दों में इतना सामर्थ्य नहीं है कि व्यक्त किया जा सके। परम उदात्त रासलीला का अनुदात्त रुप भैरवीचक्र के बारे में तो बहुत कुछ कह भी दिया, किन्तु महारासचक्र के सम्बन्ध में पूर्ण अभिव्यक्ति हेतु शब्दों में भी शक्ति नहीं है, इसके लिए तो महात्रिपुरसुन्दरी श्रीराधा की कृपाकटाक्ष ही आवश्यक है।”
बहुत देर से चुप्पी साधे, बाबा का व्याख्यान सुनती गायत्री ने कहा- ‘रासचक्र और भैरवीचक्र के सामरस्य और उदात्तता के सम्बन्ध में बहुत कुछ बातें स्पष्ट होगयी। समाज में फैली कुरीतियों और भ्रमों का भी निवारण होगा- इन बातों की समझ रखने से। किन्तु यहाँ एक-दो शंकायें और उठ रही हैं, इसी से सम्बन्धित। एक तो मैं पहले ही पूछ चुकी हूँ- मांसाहार, और बलिविधान के औचित्य पर, और दूसरी एक छोटी सी शंका है कि पंचमकारों में मांस और मत्स्य (मछली)को अलग-अलग क्यों रखा गया, क्या मछली में मांस नहीं है ? और इसी से लगे एक और सवाल भी उठ जाता है कि कुछ लोग बकरा तो नहीं खायेंगे, मछली भी नहीं खायेंगे, किन्तु मछली और बकरे का मुंडभाग प्रसाद के रुप में ग्रहण कर लेते हैं। क्या इसमें भी कोई रहस्य है या यूँ ही भ्रान्ति है ?’ गायत्री की बात पर बाबा मुस्कुराते हुए बोले- “बलिविधान और औचित्य पर तो अभी बहुत कुछ कहना बाकी है, किन्तु ये जो सवाल तुमने किया- मांस और मछली में भेद वाली इस पर पहले विचार कर लिया जाय। जैसा कि मैंने पंचमकरों को सीधे पांच महातत्त्वों से सम्बन्धित बतलाया, उसी प्रसंग को पुनः हृदयंगम करो। मांस और मत्स्य में तात्विक भेद है- एक वायु तत्त्व है, तो दूसरा जलतत्त्व इसे सही ढंग से समझने के लिए सारणी को मानस में उतार लेना होगा, साथ ही कुछ और बातें भी स्पष्ट होंगी।”
बाबा के इस बात पर, गायत्री चट उठ खड़ी हुयी, और पास के आलमीरे से अपनी डायरी और कलम उठा लायी। पुनः यथास्थान बैठती हुयी बोली- ‘इसे जरा धीरे-धीरे बोलो उपेन्द्र भैया। मैं नोट करना चाहती हूँ।’ बाबा ने कहना शुरु किया। गायत्री लिखने लगी, और एक सारणी तैयार हो गयी-
पञ्च महा भूत पञ्च वक्त्र पञ्च तन्मात्रा पञ्च ज्ञानेन्द्रिय पञ्च कर्मेन्द्रिय पंचो पचार पंच मकार पञ्चतत्त्व बीज आकाश ईशान शब्द कान वाक्पुष्प मैथुन हँ वायु तत्पुरुष स्पर्श त्वचा हाथ धूप मांस यँ अग्नि अघोर रुप आँख पैर दीप मद्य रँ जल वामदेव रस जीभ मूत्रेन्द्रिय नैवेद्य मत्स्य वँ पृथ्वी सद्योजात गन्ध नाक मलेन्द्रिय चन्दन मुद्रा लँ “सारणी तो तुम समझ लिए। बना कर देख भी लिये। इसे ठीक से हृदयंगम कर लो। साधनपथ के बहुत से मार्ग दर्शित हो जायेंगे। इसे न समझने के कारण प्रायः लोग तरह-तरह के संशय में पड़ जाते हैं। और अब जरा, पंचमकार की महिमा के विषय में कुछ और भी सुनो-गुनो। कहा गया है— सेविते न कुलद्वव्ये कुलतत्त्वार्थदर्शनः। जायते भैरवावेशः सर्वत्र समदर्शिनः॥ मंत्रपूतं कुलद्रव्यं गुरुदेवार्पितं प्रिये। ये पिबन्ति जनास्तेषां स्तन्यपानं न विद्यते॥ (कुलार्वणवतन्त्र ७४, ७६) तथा ये भी कहा गया है- सुरा शक्तिः शिवो मांसं तद्भोक्ता भैरवः स्वयम्। तयोरैक्यसमुत्पन्न आनन्दो मोक्ष उच्चते॥ (कुलार्वणवतन्त्र-५-७९) यहाँ कुलद्रव्य का अर्थ सुरा ही है। गुरु-आदेश से, मन्त्रपूरित सुरा का सेवन करने से स्तनपान से मुक्ति मिल जाती है, यानी फिर जनमना-मरना नहीं हो सकता। वीरभाव की यह ‘कुलसाधना’ कौलमार्ग की कठिनतम साधना है। जिसका चित्त पूर्ण रुपेण सध गया है, किसी प्रकार के विकार शेष नहीं रह गये हैं, वही उतर सकता है-तलवार की धार पर रेंगने का साहस कर सकता है। सीधी सी बात यही समझो कि मदिरा-मांस के लोभ में पड़ कर वामतन्त्र के प्रति आकर्षित मत होओ, अन्यथा कहीं के न रहोगे- धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। वाममार्ग की साधना में विरले ही कोई साधक पूर्ण सफल हो पाता है। हालाकि यह भी कहा गया है कि कलिकाल में आगम और तन्त्र ही मान्य है-
कृते श्रुत्युक्तमार्गः स्यात्त्रेतायां स्मृतिभावतः। द्वापरे तु पुराणोक्तः कलावागमसम्भवः॥(साधनदीपिका-२-८९)
यानी सतयुग में वैदिक, त्रेता में स्मार्त, द्वापर में पौराणिक, और कलयुग में तन्त्रागम की साधना प्रसस्त है। हम सबका शरीर एक जागृत(चलता-फिरता) शिवालय है, जहां शिव विराज रहे हैं अपनी शक्ति के साथ। देहो देवालयो देवि जीवो देवः सदाशिवः। त्यजेदज्ञान निर्माल्यं सोऽहंभावेन पूजयेत्॥(कुलार्णवतन्त्र ९-४२) तुम वही हो, कुछ और नहीं। इस रहस्य को समझो, अनुभव करो। सिर्फ जानो नहीं। क्यों कि जानना अधूरा का भी अधूरा ज्ञान है। इसे अपने गणित से चौथाई भी मत समझ लेना, क्यों कि तुम तो सीधे कहोगे- आधा का आधा यानी चौथाई। किन्तु मैं यह नहीं कह रहा हूँ। जानकारी को ज्ञान कहना ही मूर्खता है, भले ही आजकल हम इस शब्द के अर्थ के साथ भी अनर्थ कर बैठे हैं।”
डायरी और कलम को एक ओर रखती हुयी गायत्री ने कहा- ‘इनकी जिज्ञासा- भैरवीसाधना और महारास का तुलनात्मक विश्लेषण तो तुमने बहुत ही सुन्दर ढंग से किया उपेन्दर भैया। बहुत दिनों से मेरे मन में भी ये प्रश्न उठते रहते थे, किन्तु योग्य व्यक्ति कोई मिले, तब न जिज्ञासा शान्त हो। आज तुम्हारी कृपा से अज्ञानता की मोटी काई छंट गयी। प्रसंग के शुरु में ही मैंने एक सवाल किया था- सामान्य जन का मांस-खाना, और धार्मिक कृत्य के रुप में बलि-विधान- कहाँ तक धर्म-संगत है? मुझे ये हमेशा खलते रहता है, कि ये दोनों बातें उचित नहीं है। इस पर कुछ प्रकाश डालो।’
जरा ठहर कर बाबा ने पुनः कहना आरम्भ किया- “कोई भी नियम देश-काल-पात्र सापेक्ष होता है- ये तुम गांठ बांध लो। नियम सामाजिक हो, राजनैतिक हो, या कुछ और। राजनीति में तो देश-काल को भुलाकर पात्र को प्रधान रखकर, वो भी मुंहदेखी करके कोई नियम लागू किया जाता है।”
बाबा के इस प्रसंग ने मुझे बीच में ही बोलने का मौका दे देया- ‘हाँ महाराज! एकदम सही कह रहे हैं। राजनीति में तो मुंहदेखी नियम चलते हैं प्रायः। खास कर आज की राजनीति में तो वोट और कुर्सी का सवाल भर रह गया है। जनसेवा, राष्ट्रसेवा का लेशमात्र भी स्थान नहीं रहने दिया है, राजनेताओं ने। इन सेवाओं की आड़ में निज सेवा और व्यक्तिगत स्वार्थ ही एकमात्र लक्ष्य रह गया है। जैसे कि इस आरक्षण के नियम को ही लेलें।स्वतन्त्रता के बाद तत्कालीन स्थिति को देखते हुए कुछ वर्षों के लिए आरक्षण नियम को लागू किया गया था, ताकि आगे रेस-लाइन बराबर हो जाये, और सभी जाति-धर्म-सम्प्रदाय वालों की सही भागीदारी हो सके राष्ट्र के विकास में। किन्तु स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी रेस-लाइन बराबर नहीं हो सका है; और घोड़े के पांव में सांकल बांध दिया गया है, क्यों कि वह गदहे से तेज चलता है।’
गायत्री ने फिर टोका- ‘बलि-विधान और मांसाहार के सवाल के बीच ये घोड़े-गदहे को घसीट कर तुमने फिर मेरे सवाल को पीछे ढकेल दिया। कितना बढ़िया प्रसंग चल रहा था।’
गायत्री की बात पर बाबा मुस्कुराते हुए बोले- “छोड़ो भी, इस आरक्षण के मुद्दे को। कोढ में खाज है, बस खुजाते रहो, जब तक नेताओं का स्वार्थ सिद्ध न हो जाये। इस विषय पर हम कभी बाद में बातें करेंगे। गायत्री को तो अभी मेरी जीवनी भी सुननी है न। और उसमें ये राजनैतिक-सामाजिक प्रसंग भी कुछ मिल ही जायेंगे। क्यों, कैसे, किन परिस्थितियों में मैं, एक जमींदार का राजदुलारा, औघड़ी जीवन-यापन तक पहुँचा- इसके पीछे भी कई कारण हैं। फिलहाल तो गायत्री के अहम् सवाल का उत्तर देना ही समीचीन है।”
जरा ठहर कर बाबा फिर कहने लगे- “जैसा कि मैंने अभी-अभी कहा- कोई भी नियम देश-काल-पात्र-सापेक्ष हुआ करता है। नियम का लचीलापन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। अन्यथा व्यवस्था चरमरा जायेगी। प्राकृतिक रुप से शरीर-संरचना और शरीरक्रियाविज्ञान पर विचार करें, तो हम पायेंगे कि मनुष्य के शरीर में आंत, दांत, जबड़े , चयापचय की अन्य रासायनिक गतिविधियां आदि ऐसी नहीं हैं कि मांसाहार किया जाये। इसे अन्नाहार और शाकाहार के योग्य बनाया है विधाता ने। किन्तु परिवेश कुछ ऐसे भी हैं जहां मांसादि भक्षण की मजबूरी भी है। अन्न, फल, शाकादि वहाँ उचित मात्रा में उपलब्ध ही नहीं हैं। विवश होकर उसे मांसाहार करना ही पड़ता है। वैसे स्थान पर जन्म लेने-रहने के कारण उसका खान-पान भी वैसा ही हो जाता है। देश-काल की परम्परा पात्र को प्रभावित करती है। एक सूत्र यह भी है- जीवो जीवस्य भोजनम्- जीव का भोजन जीव ही है। छोटी मछली को बड़ी मछली खा जाती है। छोटे वन्य जीव को बड़े वन्य जीव खा जाते हैं। किन्तु इसका ये मतलब नहीं कि हम छोटे को गटक ही जांय। उसे जीने का भी उतना ही अधिकार है, जितना बड़े को। हालांकि ऊपर के सूत्र में ‘जीव’ शब्द जरा विचारणीय है। कोई भी वस्तु हमें पोषण कैसे देगा, जिसमें जैविक शक्ति नहीं होगी? प्राण के रक्षण में प्राण-ऊर्जा का ही योगदान हो सकता है। गहराई से सोचो यदि तो पाओगे कि निर्जीव ही कहां है कुछ! वनस्पतियों में भी प्राण-ऊर्जा है, ये बहुत बाद में लोगों को पता चला, जब जगदीश चन्द्र बोस ने प्रमाणित कर दिखाया। ये पत्थर, मिट्टी क्या तुम्हें निर्जीव लगते हैं? नहीं, बिलकुल नहीं। ये सभी सजीव हैं। सभी चैतन्य हैं, क्यों कि चेतन के ही अंश हैं। चेतन का अंश आखिर अचेतन कैसे हो सकता है ? हमारे शरीर का निर्माण पंचमहाभूतों या कहो पंचतत्त्वों से हुआ है। ये सभी वहुत ही सुव्यवस्थित रुप से मौजूद हैं शरीर में। जरा भी इनमें अव्यवस्था-असंतुलन होता है, तो हमारा शरीर रोगी हो जाता है। फिर उस रोग की चिकित्सा भी इन्हीं पंचतत्त्वों से ही की जाती है। तत्त्वों के तात्कालिक असंतुलन को येन-केन-प्रकारेण संतुलित कर देना ही सही अर्थों में रोग निवारण है...।
“...मांसाहार करना चाहिए या नहीं करना चाहिए- यह पूर्णरूप से समय, स्थान, व्यक्ति और स्थिति पर निर्भर है। असली अध्यात्म को इससे कुछ लेना-देना नहीं है। जीवन भर मांसाहार करने वाला भी परमात्मा को सहज ही प्राप्त हो सकता है, और आजीवन शाकाहार का सेवी भी अनन्त जन्मों तक भटकता रह सकता है। परमात्म तत्व को इससे कोई मतलब नहीं है। आहार के विषय में पहले भी थोड़ी चर्चा कर चुका हूँ। भोजन के अर्थ में प्रयुक्त आहार शब्द बहुत ही संकीर्ण अर्थ में है। व्यापक आहार तो पंचेन्द्रियों द्वारा होता है।समस्त आहरण ही आहार है, इस पर तो विशद चर्चा पहले भी कर ही चुके हैं। किंचित शेष बातों पर भी जरा गौर कर लो। त्रिगुणात्कम जगत की अन्य चीजों की भांति, आहार के भी मुख्य रुप से तीन प्रकार कहे गये हैं- सात्त्विक, राजस और तामस। श्री कृष्ण ने गीता में इस पर विशद प्रकाश डाला है- आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। और फिर तीनों को अलग-अलग परिभाषित भी किया गया है-
आयुःसत्त्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्धनाः। रस्या स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः। आहारा राजस-स्येष्टा दुःखशोका मयप्रदाः॥
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्। उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥ (१७-८, ९, १०)
आयु, सत्त्व, बल, सुख, प्रीति को बढ़ाने वाले रस्य, स्निग्ध, हृद्य आहार सात्त्विकों को प्रिय होते हैं। कड़वे, तीखे, चरपरे, अधिक नमकीन, रुक्ष, दाहकारक, अधिक गर्म, दुःख और चिन्ता देने वाले, रोगकारी आहार राजसियों के प्रिय होते हैं। तथा देर का बना हुआ(तीन घंटे पूर्व का), रसहीन, दूषित, जूठा, बासी आदि आहार तामसियों के प्रिय होते हैं। तामसियों के प्रिय आहार में(श्लोक संख्या १०) ‘अमेध्यम’ शब्द जरा ध्यान देने योग्य है- गीताकार ने इसका आशय मांसादि पदार्थों से ही लिया है (गीतसाधकसंजीवनी)। दूसरी बात गौरतलब है कि आहार की विशेषता या प्रकार से, कहीं अधिक महत्त्व है आहारी (आहार करने वाले) की प्रकृति से। आहार करने वाले की जैसी प्रकृति होगी, उसे उसी प्रकार का आहार रुचिकर लगेगा। सात्त्विक प्रकृति वाला स्वतः सात्वितिक आहार के प्रति आकर्षित होगा, रासजी प्रकृति का व्यक्ति राजसी आहार के प्रति, और तामसी प्रकृति का व्यक्ति तामसी आहार के प्रति। हाँ, यह भी सत्य है कि आहार के मुताबिक ही विहार-विचार-व्यवहार भी बदलने लगते हैं। ध्यान देने योग्य बात है शास्त्रों का सारभूत श्रीमद्भगवत्गीता मांस खाने न खाने की बात नहीं करता, वह तो मनुष्य की प्रकृति के अनुसार आहार का विश्लेषण कर रहा है, किन्तु इससे यह भ्रम भी न पाल लेना कि गीता हमें मांसाहार करने का आदेश दे रहा है। तुम कैसे हो, किस अवस्था में हो, किस परिवेश में हो, तुम्हारी मनःस्थिति कैसी है, मनोवृत्ति कैसी है- ये सब महत्त्वपूर्ण हैं। श्रीकृष्ण ने यहां तक कह दिया है कि अपने मन-बुद्धि को मुझमें अर्पित कर दो और युद्ध करो- मय्यर्पितमनोबुद्धि...मामनुष्मर युद्ध च.....। इस बात को तुम जरा दूसरे रुप में भी परखो- एक आम नागरिक हत्या करता है, उसे कानून सजा देती है, किन्तु वही हत्या एक सैनिक करता है सीमा पर, तो पुरष्कृत होता है।
और वही सैनिक नगर में आकर किसी नागरिक की हत्या कर दे तो भी उसे कानून सजा ही देगी। ऐसा क्यों हुआ- क्रिया वही, व्यक्ति वही, फिर परिणाम भिन्न क्यों ? ऐसी ही बात को समझाने के लिए श्रीकृष्ण को इतना बकबक करना पड़ा, अर्जुन जैसे तर्कशील व्यक्ति के साथ। युद्ध जैसे दूषित काम को ‘कर्म’ की संज्ञा दी गयी- कर्म एक खास अवस्था में किया गया काम ही है, बाकी तो सब ‘काम’ काम भर होकर रह जाता है। किन्तु ये बहुत बाद की बातें है- मंजे हुए साधक से ही यह हो सकता है। हठात कोई चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकता। इसी तरह, आहार के विषय में भी गीता में स्पष्ट निर्देश है- युक्ताहारविरास्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥ (गीता ६-१७) साधक कर क्या रहा है, किस अवस्था में है- ये ध्यान देने योग्य है। मन को प्रिय लगने भर से साधक का काम नहीं चलेगा। मन की अवस्था कैसी है- ये समझने योग्य है। किसी शराबी को शराब पीने का मन कर रहा है- ये उसके मन की दुर्बलता है। अब इसे वह गीता के आदेश का हवाला न दे दे- कि कृष्ण ने तो मना ही नहीं किया है। शराब पीकर ध्यान-साधना नहीं की जा सकती। मांस खाकर, मदिरा पीकर उन्मत्त हुआ जा सकता है। चित्त को विभ्रमित किया जा सकता है, निरुद्ध नहीं। पतंजलि ने चित्त को निरुद्ध होने की बात कही है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। प्याज, लहसुन जैसे कन्द (ग्रन्थि) को वैष्णव मतावलम्बियों ने महात्याज्य बतलाया है। इसकी उत्पत्ति की पौराणिक कथायें कही हैं- प्याज गौ के रक्त से उद्भुत है, और लहसुन कुत्ते के नख से। किन्तु ये शाक्त और वैष्णवों का आपसी मतभेद है। कृष्ण ने इस पर सीधे अपने अन्दाज में प्रकाश डाला है। ऐसा नहीं है कि भूल से भी प्याज या लहसुन खा लेंगे तो हमारा धर्म नष्ट हो जायेगा। आहार अपनी रुचि का विषय है। आहार हमारी प्रकृति को ईंगित करता है। हमारे विचारों को प्रभावित करता है। मैं नहीं खाता प्याज-लहसुन, इसका ये अर्थ नहीं कि ये खराब है, घृणा करने योग्य है– यही तो अष्टपाश है, जिसमें बन्ध कर हम पशु कहलाते हैं। घृणा जैसी चीज से भी घृणा नहीं करनी है– ऐसा अभ्यास करना है। चन्दन और विष्टा में समानता बरतने की बात कही गयी है- समदर्शी के लक्षणों में। हाँ इतना जरुर कहूँगा कि प्याज, लहसुन का तासीर उष्ण है। इसे ध्यानियों को सेवन नहीं करना चाहिए, अन्यथा ध्यान में बाधा पड़ेगी। सिंघाड़े का आटा जिसे हम फलाहार कहते हैं, यदि पेटभर कर खा लिया जाये, तो उसका आयुर्वेदीय गुण कहां जायेगा? चुंकि वह गरिष्ठ है, इसलिए ध्यान में नुकसान करेगा ही, यदि अधिक मात्रा में ले लिया जाय। दूध तो बहुत ही पवित्र है, किन्तु अधिक मात्रा में सेवन करने से पेट में गैस बनेगा, और ध्यान में विचलन होगा। इसी भांति साधक को किसी भी आहार-विहार का विचार करना चाहिए। ये श्रेष्ट है, ये त्याज्य है, ये घृणित है- ऐसा सोचना उचित नहीं है। ध्यान बस इतना ही रखने की जरुरत है कि तामसी और राजसी भोजन करके सात्त्विक क्रियायें नहीं की जा सकती। जैसी क्रिया करनी हो, वैसा ही आहार भी होना चाहिए। सारी सृष्टि त्रिगुणात्मक है। परमात्मा तो त्रिगुणातीत है। इन सब गुणों से परे है, गुणों से पार है...।