बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 13 / कमलेश पुण्यार्क
‘‘मांस शब्द भी अपने आप में कम विचारणीय नहीं है। वैदिक, औपनिदिक से लेकर पौराणिक काल तक के ग्रन्थों पर जरा गौर करो तो अनेक बातें सामने आयेंगी।किन्तु आधुनिक लोग तो कुछ पढ़ने-गुनने-जानने से कतराते हैं न। उन्हें तो शॉर्टकट चाहिए। बस सुनी-सुनायी बातों पर उड़ने लगते हैं, और सबसे बड़ी बात होती है, कि जो मन को भा जाये, वस उसीसे सिद्धान्त भी गढ़ लेते हैं। शास्त्रों का भी हवाला दे देते हैं। आयुर्वेद में के एक से एक नाम मिलेंगे जड़ी-बूटियों के- जैसे गजकन्द, अश्वकन्द, वाराहीकन्द आदि। ये सब लाक्षणिक हैं, चारित्रिक हैं। व्याकरण की दृष्टि से मांस शब्द नपुंसक लिंगी है। किसी फल के गूदे(आन्तरिकभाग)या कन्द के अर्थ में इसका प्रयोग होता है। अब भला वाराहीकन्द का अर्थ कोई सूअर का मांस लगा ले तो उसकी बुद्धि को तो दाद देनी पड़ेगी न। इसी भांति गजकन्द, अश्वकन्द आदि तद्रूप वनस्पतियों, कन्दों के हृदय(मूल, जड़ नहीं)भाग आर्थात् आन्तरिक गूदे को कहते हैं। इतना ही नहीं शब्द संरचना और उनके गूढ़ार्थ पर जरा गौर करो- गेहूं(गोधूम)और यव(जौ)के मिश्रण को लोम कहते है (शतपथब्राह्मण), यहां लोम यानी शरीर का रोंआं नहीं है। ताजा हरा जौ तक्म कहलाता है। गेहूं के आटे को भून कर पकाया गया पिस्टान्न मांस कहलाता है। तोक्म शब्देन यवा विरूदा उच्चते, तोक्यानि मांसम्! (वृहदारण्यकोपनिषद्)। माँस, मांस, और माष शब्दों में पर्याप्त भेद है- इस पर भी गौर करना चाहिए। अब आज के लोग विन्दु, चन्द्रविन्दु को एक ही में लपेट देंगे तो अर्थ का अनर्थ तो होगा ही न! और ऐसा ही अनर्थ करके मांसाहार का सबूत ढूढ़ भी जुटा लिया है।”
इतना कह कर बाबा जरा ठहरे। गायत्री की ओर देखते हुए बोले- “विचार क्या-कैसे हैं, इसे स्पष्ट करने के लिए एक बड़ा ही रोचक प्रसंग सुना रहा हूँ। एक बार श्रीकृष्ण अपने प्रिय सखा अर्जुन सहित बनप्रान्तर में भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक मनुष्य जमीन पर पेट के बल सरक-सरक कर चल रहा है। देखने में हट्ठा-कट्ठा भी है। सिर के बाल और दाढ़ी-मूछें बेतरतीब बढ़ी हुयी हैं। उसके एक हाथ में नंगी चमचमाती तलबार भी है, और जीभ से सूखी पत्तियां उठा-उठाकर खाये जा रहा है। उसे देखकर अर्जुन को आश्चर्य लगा कि ये कौन है, और ऐसा क्यों कर रहा है। सूखी पत्तियां क्यों खा रहा है, जब कि जंगल में अकूत फल-फूल, कन्द-मूल उपलब्ध हैं। कृष्ण के इशारे पर अर्जुन उसके समीप जाकर पूछे- ‘‘तुम कौन हो और सूखी पत्तियां क्यों खा रहे हो, कुछ और क्यों नहीं खाते?’’ अर्जुन के पूछने पर उसने कहा- “मेरे काम में बाधा न डालो। मेरा समय नष्ट न करो। जानदार हरी पत्तियां तोड़ना अपराध है। इसे हिंसा कहते हैं। सूखी पत्तियों से ही इस शरीर का पोषण यदि हो जा रहा है, फिर क्या जरुरत है फिजूल की हिंसा करने की।” अर्जुन चौंके- एक ओर हिंसा का घोर पुजारी मालूम पड़ता है, और दूसरी और हाथ में नंगी तलवार! उनके इस जिज्ञासा के उत्तर में उसने जो कुछ भी कहा, वो और भी चौंकाने वाला था। उसने कहा- ‘‘मैं निरंतर ईश्वर के भजन में लगा हुआ हूँ। मुझे दुःख है कि मेरे प्रभु को एक हठी बालक ने, एक नारी ने, और एक स्वार्थी पुरुष ने कष्ट दिया है। मैं उन्हीं को ढूढ रहा हूँ। कहीं मिल जायें तो उनका बध कर दूँ।’’ किसने और कैसे कष्ट दिया तुम्हारे प्रभु को – अर्जुन के पूछने पर उसने कहा- “उत्तानपाद के वेटे ध्रुव ने हमारे भगवान को नंगे पांव दौड़ा कर अपने पास बुला लिया। इन्द्रप्रस्थ की पटरानी कही जानेवाली द्रौपदी ने भी ऐसा ही किया- मेरे प्रिय द्वारकाधीश को विवश कर दिया हस्तिनापुर आने को। और वो अर्जुन, उसने तो सारी हदें पार कर दी- मेरे प्रभु के कोमल हाथों में घोड़े का राश पकड़ा कर सारथी बना लिया। ये तीनों ही अपराधी हैं। इनका बध किये बिना मुझे शान्ति नहीं।” घबराये हुए अर्जुन कृष्ण का मुंह ताकने लगे। ये क्या कहे जा रहा है- एक ओर घोर अहिंसक और दूसरी ओर वाल-हत्या, स्त्री-हत्या और राज-हत्या का संकल्प लिए बैठा है- ये कैसा अहिंसक है? कृष्ण मुस्कुराये- ‘यही तो समझने-सोचने वाली बात है। आम आदमी यहीं आकर उलझ जाता है। शास्त्रों के अर्थ का अनर्थ कर बैठता है। परिभाषायें पारिस्थितिक होती हैं। देश-काल-पात्र उन्हें प्रभावित करता है। इन महान हिंसाओं के पश्चात् भी यह परम अहिंसक कहा जायेगा। ये महात्मा जड़भरत हैं। तुम इन्हें प्रणाम करो, और परिचय दिए वगैर, धीरे से निकल चलो यहां से। यदि पहचान लिए गये तो फिर खैर नहीं...।’
“...ये सब सुन-जानकर तुम्हारी एक जिज्ञासा तो आशा है पूरी हो ही गयी होगी। अब इसके ही दूसरे पक्ष पर बात करता हूँ। तुमने पूजा में बलि-विधान का सवाल उठाया है। वलि का शाब्दिक अर्थ होता है- ग्रास अथवा भोजन। राजसी और तामसी पूजा-अर्चना में बलि की परम्परा है। काम्य कर्म- यज्ञादि में इष्ट को प्रसन्न करने के लिए उसके प्रिय पदार्थों की बलि दी जाती है। वैदिक यज्ञों में भी बलि का विधान है, और कहा जाता है- वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति...। वैसे यह किसी विशेष परिस्थिति में कही गयी बात है। विशेष विधि से विशेष यज्ञ के संदर्भ में कही गयी बात है। सामान्य स्थिति के लिए तो स्पष्ट निषेध ही है। किसी भी तरह के यज्ञ-पूजादि में जीव-हिंसा की वकालत नहीं की गयी है। हमारी संस्कृति में कालान्तर में समायी गयी व्यवस्था है ये। महाभारत का स्पष्ट वचन है-सुरामत्स्याः पशोर्मांसं द्विजातीनां बलिस्तथा। धूर्तैः प्रवर्तितं यज्ञे नैतद् वेदेषु कथ्यते॥ (शान्तिपर्व) यानी मदिरा-मांसादि बलि धूर्तों द्वारा बाद में प्रयोग होने लगा है, जब मूल पूजकों पर राक्षसी प्रवृति वाले हावी होकर, आधिपत्य जमा लिए। पुराने स्थानों पर नयों का कब्जा हो गया। दैवी प्रवृति पर राक्षसी प्रवृति का आधिपत्य हो गया। मूलतः यह हमारी वैदिक परम्परा नहीं है। लेकिन ये भी स्पष्ट है कि महाभारत काल में(या तत्पूर्व) ये विकृति आगयी थी समाज में, तभी तो महर्षिव्यास को ये कहना पड़ा। श्रीदुर्गासप्तशति वैकृतिक रहस्य में भी संकेत है ...बलिमांसादिपूजेयं विप्रवर्ज्या मयेरिता – यहाँ ब्राह्मणादि को बलिमांसांदि से पूजन करना निषिद्ध कहा गया है। व्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखंड के पैंसठवें अध्याय में स्पष्ट कहा गया है- हिंसाजन्यं च पापं च लभते नात्र संशयः। यो न हन्ति स तं हन्ति चेति वेदोक्तमेव च॥ यानि बलि देनी है, किन्तु बलि हिंसात्मक नहीं होनी चाहिए। क्योंकि हिंसा से मनुष्य धर्म के वजाय पाप का भागी होता है। बलि के लिए जो जिसका बद्ध करता है, वह मारा गया प्राणी भी जन्मान्तर में उस मारने वाले का वद्ध अवश्य करेगा– ऐसा वेदमत है। यही कारण है कि बैष्णव विधान में दही-माष (उड़द), पूप(पूआ), हलवा आदि का विधान है...
“…सच पूछो तो विविध शास्त्रों में प्रत्यक्ष बलि का भी विशद विधान है;
किन्तु उस प्रकार का बलि देने का अधिकारी कौन है, और कैसे दिया जाय- यह भी कम विचारणीय नहीं हैं। वैदिक यज्ञों में महानतम यज्ञ है अश्वमेधयज्ञ। इसी तर्ज पर गो, छाग, नर, उष्ट्र, महिषादि का मेध भी होता है, विभिन्न काम्य यज्ञों में। यहाँ भी स्पष्ट और कूट दोनों अर्थों का प्रयोग है। उक्त ‘पशु’ है, और नहीं भी है- उसका अर्थ कुछ और है। घोड़ा है, और घोड़ा नहीं भी है। पहले ‘है’ के अनुसार ही विचार कर लो। यह यज्ञ एक विशेष परिस्थिति में ही किसी के द्वारा करना सम्भव है। यज्ञ के लिए एक विशेष अश्व (घोड़ा) है, जो देवराज इन्द्र का धरोहर है। इसे यज्ञार्थ उनसे मांग कर लाना होता है। उसके गले में पट्टिका बांध कर यज्ञेच्छु राजा घोषणा करता है- ‘मैं सर्वश्रेष्ठ वीरपुरुष हूँ, अतः मेरी अधीनता स्वीकारो, या युद्ध में हमें पराजित करो।’ आगे-आगे वह विशेष अश्व चलता है, और उसके पीछे अगनित योद्धा (सिपाही) चलते हैं। मार्ग में पड़ने वाले छोटे राजा उस बड़े राजा की अधीनता स्वीकर करके, भेट देते हैं, या अपनी अस्वीकृति व्यक्त करके निर्णायक युद्ध करते हैं। इस प्रकार चारों ओर से भ्रमण करता हुआ अश्वमेध का दिव्य अश्व अपने स्थान पर लौट आता है। तब उसकी विशेष पूजा-अर्चना होती है। फिर उसका बध करके उसके ही मांस से आहुति प्रदान की जाती है। विशेष बात ये है कि यज्ञान्त में पूर्णाहुति मन्त्रों के साथ-साथ पुनरुजीवित होकर वह घोड़ा यज्ञकुण्ड से बाहर निकल आता है, और अपने परमधाम को चला जाता है। किसी और समय में उसी एक घोड़े को कोई और राजा यज्ञ की कामना से इन्द्र से मांग लाता है। यही क्रम चलता है...। किन्तु इस कथा का समान्तर अर्थ ये है कि कुण्डलिनी-साधना के क्रम में ये बात कही जा रही है। इन्द्र, अश्व, मेध, मांगना, लौटाना, भ्रमणकरना, विजय पाना...आदि शब्दों के गूढ़(कूट)प्रयोग हैं, खास अर्थ हैं, जो साधना का रहस्यमय विषय है। इसे तन्त्रदीक्षा के पश्चात ही समझा जा सकता है, उससे पहले कदापि नहीं। यदि समझा भी दिया जाय तो प्रयोगकर्ता का अनिष्ट ही होगा। तुम ब्राह्मण हो, अतः जरुर जानते होओगे कि जप, ध्यान, पूजन आदि के बाद आसन त्यागने से पूर्व परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए, और आसन के नीचे जल गिरा कर तिलक लगा लेना चाहिए, अन्यथा क्रिया का फल इन्द्र हरण कर लेते हैं- अब भला सोचने वाली बात है कि क्या इन्द्र यही करते रहते हैं- छीना-झपटी! नहीं, यहां बात कुछ और है, सामान्य जन को इतने भर से छुट्टी दे दीगयी। कुण्डलिनीयोग का साधक इस इशारे को बड़ी सहजता से समझ जायेगा कि बात क्या हो रही है।परिक्रमा क्या है, और तिलक क्या है...।”
जरा ठहर कर बाबा फिर कहने लगे- “अब इस घटना को दूसरी ओर से देखो- यदि साधक में इतनी क्षमता है कि किसी को मार कर पुनः जीवित कर दे, तो फिर उसके मारने और न मारने का कोई खास अर्थ नहीं रह जाता, न वह हिंसा-हत्या के दायरे में ही आता है। बुद्ध ने अंगुलीमाल को कुछ ऐसे ही उपदिष्ट किया था- सामने खड़े पेड़ की एक टहनी को काटने की चुनौती दी गयी थी उसे। अहंकारी, तामसी अंगुलीमाल ने हंसते हुए, अपने खड्ग से टहनी काट डाली- कि ये कौन सी बड़ी बात है। किन्तु अगले ही पल जब बुद्ध ने उसे कहा कि टहनी को पुनः जोड़ दो वृक्ष की डाल से, तो अंगुलीमाल पसीने से तर हो गया। यह उसके वस की बात नहीं थी। तुम जिसे जोड़ नहीं सकते, उसे तोड़ने वाले तुम कौन होते हो? सृजन नहीं कर सकते , तो संहार भी तुम्हारे अधिकार में नहीं है। अश्व हो या छाग या कि नर, बध करने का अधिकार उसीको है, जिसमें जीवन देने की क्षमता भी मौजूद है, अन्यथा बिलकुल नहीं। यज्ञ और साधना के नाम पर आज जहां कहीं भी जो बलि दिया जा रहा है, वह केवल घोर तामसी कार्य है, अपराध है, हिंसा है। जिह्वालोलुप लोगों द्वारा इसे प्रश्रय दिया जा रहा है। देवी-देवताओं के नाम पर मांस-भक्षण का बहाना भर है। यह साधारण सोच की बात है कि जिसे तुम जगदम्बा कहते हो- यानी जगत की माता, क्या वह उस निरीह बकरे और मुर्गे की माता नहीं है? क्या कोई मां अपनी एक सन्तान का बध करके, दूसरी सन्तान को सिद्धि-लाभ दे सकती है? कदापि नहीं। शास्त्रों में वर्णित बलि का विधान अपनी जगह बिलकुल सही है, किन्तु उसकी क्रियाविधि, व्यवहारविधि, और साधनाविधि कहीं खो गयी है- अज्ञानियों की जमात में। भैरवीसाधना की क्रिया जैसे ‘विभाव’ में पहुँचे हुए वीरभावसाधक के लिए, कठोर गुरु-निर्देश में ही प्रशस्त है, उसी भांति पशुबलि का विधान भी बीरभाव-साधकों के लिए ही उचित है। जो अभी स्वयं ही पशु है, पशुभावचारी है, उसे वीरभाव की साधना का अधिकार ही कहाँ है? साथ ही यह भी समझ लो कि दक्षिणाचारी, सात्त्विक साधकों के लिए इन बलि-विधानों की अलग(भिन्न) प्रक्रिया है। सीधी सी बात है कि काम, क्रोध, लोभ, मोहादि साधन-पथ के विघ्नकारी पशुओं को बध करने की बात कही गयी है। वहां साधकों के लिए ये ही पशु हैं- अपने-अपने स्वभाव के अनुसार ही उनका नामकरण कूट अर्थों में हुआ है। साधक का ज्ञान ही खड्ग है, जिससे इन पशुओं का बध करना है, न कि कोई प्रत्यक्ष पशु। किन्तु जिह्वालोलुपों ने, जो खास कर जीभ और जननेन्द्रिय के गुलाम हैं, धर्म की आड़ लेकर ये सब किये जा रहे हैं दीर्घकाल से, और आज यह प्रथा नियम का रुप ले चुका है, जिसे सुधारने, मिटाने में भी बहुत वक्त लगेगा। सुधर भी पायेगा या नहीं- कह नहीं सकता।”