बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 14 / कमलेश पुण्यार्क
जरा दम लेकर बाबा ने पुनः कहा- “अब जरा सोचो ब्राह्मण, वो भी शाकद्वीपीय जो कि सूर्य के उपासक हैं- मग कहे जाते हैं- ‘म’यानी सूर्य, ‘ग’ यानी उपासक। और इन महाशयों में कुछ कुल ऐसे हैं, जहाँ धड़ल्ले से मांसाहार होता है। कहा ये जाता है कि मांसाहार नहीं करोगे तो वंशवृद्धि रुक जायेगी। जरा सोचो- कितना संकीर्ण और मूर्खतापूर्ण सोच है- मांसाहार को वंशवृद्धि से क्या ताल्लुक? अरे भाई मांस खाना ही है, तो खाओ, कौन रोक रहा है, किन्तु अपने कुलदेवता को क्यों घसीट रहे हो इसमें? शाकद्वीपियों के मूल आराधक तो सूर्य हैं, और सूर्य को मांस बलि से क्या प्रयोजन? अतः अपनी जीभ के लिए इन्हें बदनाम न करो। कुछ मग ब्राह्मण ये कह कर मांसाहार करते हैं कि मेरी कुलदेवी तारा हैं। तारा को बलि दी जाती है, और बलि दी गयी तो प्रसाद ग्रहण तो करना ही होगा न। यहां ये बात भी समझ नहीं आती कि शाकद्वीपी की कुलदेवी तारा कहां से हो गयीं, वो भी मांस खाने वाली वामतारा? सच पूछो तो ये वैसे ही हैं, जैसे शिवभक्ति के नाम पर धूनी रमाकर, जटाजूट बढ़ाकर लोग भांग, गांजा और चरस पीते हैं। शिवभक्ति का चोला ओढ़कर गांजा-भांग का लाइसेन्स ले लेते हैं- समाज से। सच पूछो तो भगवान शिव को इन सब चीजों से क्या मतलब? शिव ने तो संसार को महागरल के प्रकोप से बचाने के लिए उसका पान कर लिया, और नीलकंठ हो गये। लोककल्याण की भावना से विष पीकर, उन्होंने संसार के लोगों को एक उपदेश भी दिया, एक संकेत भी दिया- इसे लोग नहीं समझते। हलाहल पीने की क्षमता है, तो पीओ। मगर मैं फिर कहता हूँ कि देखादेखी न करो। सबकुछ सबके लिए नहीं होता। और ये कोई दायविभाग की बात भी नहीं कि सबका हिस्सा बराबर होगा।” - कहते हुए बाबा ने एक बार दीवार पर लगी घड़ी की ओर देखा- “ओह! साढे तीन बजने वाले हैं। खैर, एक छोटे से प्रसंग की और चर्चा कर आज की सभा विसर्जन की जाय। तुमलोगों को भी कुछ आराम करना चाहिए।”
बाबा की बातों पर मैंने हँस कर कहा- ‘नहीं महाराज! हमलोगों के आराम की चिन्ता न करें। हमलोग तो आज संकल्प लेकर बैठे हैं- आपकी अमृतवाणी पीने का। सोना तो रोज होता है। अब नये आवास में ही जाकर आराम करना होगा। हाँ आपको यदि ब्रह्ममुहूर्त के ध्यान-पूजन में लगना है तो और बात है।’
“ठीक है, चलने दो, जब तक चले।” - मुस्कुराते हुए सिर हिलाकर बाबा ने कहा-” हां, तो मैं देखादेखी का एक किस्सा कह रहा था- एक संत अपने कुछ शिष्यों के साथ भिक्षाटन-वृत्ति पर जीवन-निर्वाह करते थे। भिक्षाटन भी अति सीमित मात्रा में- उस दिन की जरुरत भर सिर्फ, न कि जमा करने के ख्याल से। एक दिन की बात है कि सारा दिन गुजर गया, कुछ भी प्राप्त न हो सका। शाम होने को आयी। भूख-प्यास सबको सताने लगी। संत ने देखा, एक दुकानदार मछलियां तल रहा है। वे आगे बढ़े, और दुकानदार से निवेदन किये कुछ मछलियों के लिए। दुकानदार ने भी बिना कुछ मीन-मेष के उन्हें मछलियां दे दिया। पीछे खड़े शिष्यों को आश्चर्य लगा कि ये क्या कर रहे हैं गुरुजी, किन्तु भूख-प्यास की व्याकुलता में किसी ने कुछ कहा नहीं, और जब गुरुजी ही मछली खाने को तत्पर हैं, फिर शिष्यों का क्या! सबने मछली खायी, और अगले दिन से इस मांसाहार-बन्धन से भी मुक्त मान लिया स्वयं को। इस घटना के काफी समय बीत गये। मछली खाने वाली बात आयी-गयी हो गयी। शिष्य भूल भी बैठे कि इस पर कोई सवाल किया जाय। और फिर एक दिन वैसा ही हुआ- सारा दिन गुजर गया, रात होने को आयी। कहीं कुछ मयस्सर न हुआ। बाजार भी लगभग बन्द होने लगे। संत ने देखा- एक लोहार भाती चलाते हुए लोहा गरम कर रहा है। भूख-प्यास से व्याकुल संत-मंडली ने अपनी दयनीय स्थिति व्यक्त की, किन्तु वह उज्जड्ड लोहार जरा भी द्रवीभूत न हुआ। उल्टे उन्हें डांट लगायी- ‘हट्ठा-कट्ठा देह पाले हो, और भीख मांगते हो, मिहनत करो पसीने बहाओ, तब भोजन करो पसीने की कमाई का।’ भूखे संत ने पुनः आग्रह किया- ‘घर में कुछ भी हो तो दे दो भैया! बड़ा पुण्य होगा।’ लोहार झल्लाया- ‘पुन्य तो तुमलोग कमा ही रहो हो भूखे हर कर। मैंने कहा न मेरे पास कुछ नहीं है। वस ये गरम लोहा है, और कुछ नहीं।’ संत ने अंजिलि बढ़ा दी- ‘तो यही दे दो, आज प्रभु का यही प्रसाद है।’ झक्की लोहार ने चिमटे से लाल लोहे के टुकड़े को उठाया और संत की अंजली में डाल दिया। संत ने उसे प्रणाम किया, और सीधे गटक गये। उधर, लोहार तो लोहार, उनके शिष्य भी हक्के-बक्के रह गये, क्यों कि पीछे मुड़कर संत ने इशारा किया- आगे आकर उन्हें भी लाल लोहा गटकने को।”
जरा ठहर कर बाबा ने कहा- “सभी शिष्य लोट गये गुरु के चरणों में, साथ ही लोहार भी। उन्हें आशीष देते हुए संत ने कहा- ‘अनुकरण और अनुशरण में गहरा अन्तर है। उस दिन मछली खाने में तो बहुत मजा आया था, इसलिये कि तुम्हारे गुरुजी ही मछली खा लिये। तो आगे बढ़कर ये गरम लोहा भी क्यों नहीं खा लेते, क्यों कि तुम्हारे गुरु ने इसे भी खाया है?’ कुछ ऐसी ही बात तो कृष्ण के साथ भी है- कृष्ण की सोलह हजार एकसौ आठ रानियां थी। अगनित गोपियों से भी उन्हें हार्दिक ही नहीं आत्मिक लगाव था। अबूझ कृष्ण को नहीं बूझने वाले नासझ, उन पर तरह-तरह के आक्षेप लगाने से भी नहीं चूकते। उन्हें कृष्ण की रासलीला तो कुछ-कुछ समझ में आ जाती है, पर शकटासुर, वकासुर, प्रलम्बासुर, कालियनाग, और इससे भी महत् विराटरुप प्रदर्शन की घटना, अतिरंजना-प्रवीण महर्षि व्यास की कपोल-कल्पना प्रतीत होती है– इसे क्या कहोगे?”
बाबा की बातों में रस लेती गायत्री ने सवाल किया- ‘कृष्ण और रास की बात फिर आगयी, तो इससे जुड़ा एक और सवाल भी मैं कर ही लूँ। राधा कृष्ण की प्रियतमा सखी हैं, अर्धांगिनी भी कही गयीं हैं। भागवत तो थोड़ा बहुत पढ़ी हूँ, वहां कुछ ऐसा प्रसंग मिला नहीं है। इस सम्बन्ध में मेरी शंका का समाधान करो न उपेन्दर भैया! कि मामला क्या है- क्या राधा कृष्ण की पत्नी भी बनी हैं या सखी ही रह गयी?’
गायत्री के प्रश्न पर बाबा बड़े प्रसन्न हुए। मुस्कुराते हुए बोले- “अर्धांगिनी का अर्थ तुम क्या समझती हो- पत्नी...भोग्या? वैसे लोक-प्रसिद्ध अर्थ यही है, जो तुम समझती हो। सदा पूर्ण रहने वाले कृष्ण भी राधा के वगैर अपूर्ण हैं, राधा के बिना आधा हैं। कहते हैं न राधा के बिना श्याम आधा...। राधा तो अर्धांगिनी है ही कृष्ण की। पुराणों में राधा की उत्पत्ति श्रीकृष्ण के वामांग से कही गयी है, और श्रीमद्भागवत इसका अपवाद है, जहां प्रत्यक्षतः राधा नदारथ हैं। किन्तु कुछ और प्रसंगों को गुनो-बूझो तो और भी आनन्द आये। एक प्रसंग है— मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे! गृहं प्रापय। इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहः केलयः॥ भक्तकवि जयदेव के अहोभावमय इन ललित पंक्तियों का तनिक रसास्वादन करो—एक बार नन्दजी गौवों को लेकर भाण्डीरवन में विचरण कर रहे थे। साथ में शिशु श्रीकृष्ण भी थे- बिलकुल छोटे, अभी अपने पांवों से चलने में भी असमर्थ। तभी अचानक आकाश में मेघ घुमड़-घुमड़कर गर्जन-तर्जन करने लगे। घोर गर्जना से भयभीत श्रीकृष्ण नन्दबाबा के गले से चिपट गये, और जोर-जोर से रोने लगे। नन्दजी चिन्तित हो उठे कि गौवों को सम्भालूं या रोते श्रीकृष्ण को। गोद में चिपकाये कृष्ण को पुचकारते हुए चुप कराने का प्रयास करने लगे, और पराम्बा का ध्यान भी- ‘हे महाशक्ति! तुम जरा थिर हो जाओ, मेरा बालक भयभीत हो रहा है।’ तभी एकाएक राधा प्रकट हुयी। राधा का यह स्वरुप अतिशय दिव्य था। अपने परममित्र वृषभानु की लाडिली राधा को तो नन्दजी कई बार देख चुके थे, किन्तु आज सामने खड़ी मन्द स्मिता राधा का रुप-लावण्य विलक्षण था। कुछ पल अपलक उसे निहारते रहे, और फिर जब ‘स्व’ का भान हुआ तो हर्षित होते हुए बोले- ‘तूने मेरी समस्या का निवारण कर दिया राधे। जाओ कृष्ण को मैया यशोदा के पास पहुँचा दो। मैं भी गौवों को लेकर आता हूँ।’
“...चुंकि वृषभानु नन्दिनी के रुप में राधा, कृष्ण से काफी बड़ी हैं, अतः उन्हें चतुर जान, नन्दजी ने राधा की गोद में कृष्ण को दे दिया। राधा तो चाहती ही थी, कुछ ऐसा अवसर मिले- कृष्ण के एकान्त सेवन का। नन्दबाबा का आदेश मिलते ही राधा चल पड़ी कृष्ण को लेकर, उनके घर पहुँचाने। कैसी विलक्षण लीला है कृष्ण की- महान भय को भी भयभीत करने वाले त्रिलोकपति, मेघ-गर्जन से भयभीत हो रहे हैं...।
“...अब देखो जरा आगे की लीला- नन्द की गोद से निकल कर राधा की गोद में आरुढ़ कृष्ण चल दिये, सो चल दिये। इस सम्बन्ध में कृष्ण का हृदय कहा जाने वाला श्रीमद्भागवत तो मौन है लगभग, राधा का स्पष्ट नामोच्चारण भी नहीं हुआ है वहां; किन्तु ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय १५ में वर्णन है कि उसी नन्द-गृह-यात्रा के बीच मार्ग में अनेक लीलायें हुयी। शिशु कृष्ण को गोद में चिपकाये, चूमती, सहलाती राधा गजगामिनी सी चली जा रही हैं, तभी अचानक कृष्ण गायब हो जाते हैं- राधा की गोद खाली हो जाती है। हिरणी सी चंचल राधा की आंखें वन में इधर-उधर ढूढ़ने लगती हैं कृष्ण को। थोड़ी देर बाद किशोर कृष्ण नजर आते हैं, जिनके हाथों में मुरली है, मोर मुकुट है माथे पर, और त्रिभंगलिलत मुद्रा में खड़े, मुस्कुरा रहे हैं राधा की ओर देखकर। विरह-व्याकुल राधा दौड़ कर लिपट पड़ती है बांकेबिहारी से। थोड़ी देर तक उलाहनों-शिकायतों का सिलसिला चलता है। उसी समय श्रीकृष्ण राधा को गोलोकधाम का स्मरण दिलाते हैं, अपनी अन्तरंगा शक्ति राधा का भेद याद दिलाते हैं। अभेद को भी भेद भान होता है क्षण भर के लिए, और फिर माया का डोर खिंच जाता है, सब कुछ पूर्ववत हो जाता है। इसी अवसर पर, चतुरानन ब्रह्मा प्रकट होते हैं। राधा-कृष्ण की आमग-विधि से स्तुति करते हैं, और आगे की लीलाओं के लिए निवेदन करते हैं। क्षण भर में दृश्य परिवर्तित हो जाता है। रत्नमंडप सज जाता है। देव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, अप्सरायें सभी उपस्थित हो जाते हैं। एक साथ पिता और पुरोहित दोनों का कार्यभार सम्भालते हुये ब्रह्माजी, राधा का कन्यादान करते हैं, और परम निर्बन्ध श्रीकृष्ण-राधा को वैवाहिक बन्धन में बांध कर, पिता बन कर आशीष भी देते हैं, और पुरोहित के रुप में ‘अक्षय भक्ति’ की दक्षिणा भी मांगते हैं..।
“...फिर मिलययामिनी की दिव्य शैय्या सजती है। कृष्ण पान खिलाते हैं अपनी प्रियतमा को, राधा भी पान खिलाती हैं अपने प्रियतम को। दोनों आलिंगनवद्ध होते हैं, और तभी पुनः छलिया छल कर जाता है। राधा स्वयं को बिलकुल अकेली, घोर वन में खड़ी पाती हैं। गोद में रुदन करते शिशु कृष्ण की करुण चित्कार से जंगल गुंजायमान हो जाता है। तेजी से पग बढ़ाती राधा नन्दगृह की ओर लपक पड़ती है। नन्दगृह में पहुँच कर, मैया यशोदा की गोद में कृष्ण को सौंपती हुयी उदास राधा कहती हैं- आज तुम्हारे लल्ला ने मुझे बहुत सताया– इस प्रकार राधा-कृष्ण की दिव्य लीलायें अनन्त हैं। जितना ही डूबोगी, उतनी ही रसानुभूति लब्ध होगी।”
गायत्री ने स्वीकारोक्ति-मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा- ‘हां भैया, आपने गीतगोविन्द का वो पहला श्लोक अभी सुनाया। राधा-कृष्ण की मधुर प्रेम-लीलाओं का बड़ा ही सुन्दर वर्णन स्वामी जयदेव ने गीतगोविन्द में किया है। मुझे तो ये पूरा काव्य ही याद करा दिया था पिताजी ने बचपन में ही। ब्राह्मणों के यहां शादी-विवाह में, खास कर भोजन के समय गीतगोविन्द की मधुर रागिनी अवश्य छिड़ती थी। मेरी माँ तो भाष्य सहित गीतगोविन्द के द्वितीय सर्ग का गायन हारमोनियम और घुंघरु के ताल पर इस तरह करती थी कि सुनने वाले भावविभोर हो जाते। कोई-कोई रसिक विप्र वाराती तो फरमाइश कर उठते-प्रथमसमागम लज्जितया पटुचाटुशतैरनुकूलम्। मृदुमधुरस्मितभाषितया शिथिलीकृतजघनदुकूलम्। सखि हे केशिमदनमुदारम्...। किसलय शयननिवेशितया चिरमुरसि ममैव शयानम्। कृतपरिरम्भणचुम्बनया परिरभ्य कृताधरपानम्॥ अलसनिमीलितलोचनया पुलकावलि ललितकपोलम्। श्रमजलसिक्त कलेवरया वरमदन मदादतिलोलम्॥(प्रथम समागम की लज्जा से वशीभूत, मन्दमृदुभाषिणी गोपी कहती है अपनी सखि से कि बड़ी पटुता से अनेक प्रसंशनीय बातों को बोलने वाले, मेरी जांघ पर की साड़ी हटाने वाले कृष्ण से मिला दो। कोमल पत्तों की शैय्या रचने वाली, आलिंगन करके प्रिय को चूमनेवाली गोपी कहती है- मेरे वक्षस्थल पर देर तक सिर रखकर शयन करने वाले, मेरा आलिंगन करके मेरे अधरोष्ठों का पान करने वाले श्रीकृष्ण को मुझसे मिला दो...। रतिजनित आनन्द से उत्पन्न आलस्य से आंखों को भींचने वाली, रति के परिश्रम से निकलते पसीने से भींगी देहवाली गोपी कहती है- मेरे साथ रोमांच से गुलाबी गाल वाले, कामदेव के मद से भी अधिक चंचल मेरे कृष्ण का रमण करा दो...) ऐसे ललित गीतगोविन्द और यदुकुलज्योनार के बिना ब्राह्मणों का भोजन ही अधूरा माना जाता था, किन्तु दुर्भाग्य है कि आज की पीढ़ी इन सब चीजों को विसारती जा रही है। आज तो डीजे के दिल धड़काने वाली १४०-६०डेसीबल की कर्कश आवाज, और फूहड़ फिल्मी गानों के सामने ये सब इतिहास के गर्त में दफ़न हो गये हैं।कृष्ण को समझने के लिए समय ही कहां रह गया है लोगों के पास।’
बातें हो ही रही थी कि नीचे तेज हॉर्न सुनाई पड़ा, और मेरी आँखे उठ गयी दीवार-घड़ी की ओर- ‘अरे राम! छः बज गये। ड्राइवर को बोला था, सुबह ही आ जाने को, वैन लेकर।’ और फिर गायत्री की ओर देखते हुए बोला- ‘तुम जल्दी से मुंह-हाथ धोकर तैयार हो जाओ। तब तक मैं कुछ सामान लदवा देता हूँ वैन में।’