बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 16 / कमलेश पुण्यार्क
‘तो ठीक है, दिन में किसी समय दूध दे देना- गुड़ के साथ। भोजन तुमलोगों के साथ रात में ही लूंगा। अभी कुछ नहीं चाहिए। तुम जाओ अपना काम देखो। दरवाजा भिड़काती जाना, और ध्यान रखना- इधर कोई आये-जाये नहीं।’ आना-जाना किसे है, नौकरों को मैं हिदायत कर दूंगी। हां, माली आयेगा, वो भी शाम को, गमलों में पानी देने। नया दफ्तर, नयी व्यवस्था। सबकुछ नया-नया सा। कार्यभार भी काफी अधिक। कहने को दफ्तर और आवास पास-पास थे, किन्तु बहुत कम ही समय ऐसा मिलता कि आवास में चैन से रह सकूँ। आवास में रहूँ भी तो आवासीय दफ्तर में काम निपटाने में ही ज्यादा वक्त गुजर जाता। नतीजा ये हुआ कि सप्ताह भर करीब निकल गये बाबा के साथ बैठकी लगा न पाया। खाने-पीने का समय भी तय जैसा नहीं, भागमभाग की जिन्दगी में खुद के लिए समय निकालना भी मुश्किल सा हो गया। चाहता कि कम से कम रात का भोजन बाबा के साथ हो, पर वह भी वीते सप्ताह में नसीब न हुआ। देर रात सारे काम निपटाकर थोड़ा निश्चिन्त सा होता, तो बाबा को अपने कक्ष में ध्यान-चिन्तन में लगा देखता, और गायत्री...उस बेचारी का क्या, थकी-हारी सी दुबकी रहती विस्तर में। सुख के साधन अपने साथ इतने जंजाल लेकर आयेंगे, शायद उसने सोचा भी न होगा।
रात का खाना परोसती गायत्री ने एक दिन कहा - ‘भैया कल विन्ध्याचल जा रहे हैं। दस दिनों बाद सम्भवतः लौटें उधर से। मैंने बहुत पहले ही मन्नत मांगी थी माँ विन्ध्यवासिनी से कि तुम्हें अच्छा काम मिल जाये, तो उनकी सेवा में हाज़िर होऊँगी। काम तो सच में अच्छा मिल गया- उम्मीद से भी ज्यादा; किन्तु तुम्हारी कार्यव्यस्तता देखते हुए सोचती हूँ- कैसे कब पूरा कर पाऊँगी माँ का मन्नत!’
तभी मुझे ध्यान आया, अगले ही सप्ताह दो दिनों के लिए इलाहाबाद जाना है, दफ्तर के काम से। अतः गायत्री को आश्वस्त किया- ‘तुम चिन्ता न करो। भगवती की कृपा से अच्छा पद और व्यवस्था मिली है, तो समय भी वही निकालेंगी। भैया को जाने दो अभी। सप्ताह भर से अधिक करीब उन्हें रहना ही है उधर। तो वहीं मिलेंगे उनसे। उनका ठिकाना तो बेठिकाना होता है, पर हमारा तो निश्चित है न। अगले रविवार हमदोनों निकल चलेंगे साथ ही। दो दिनों में अपना काम निपटाकर, तुम्हें प्रयाग भी घुमा देंगे, फिर माँ का दर्शन भी कर लेंगे।’
सुबह-सुबह नींद खुली बाबा की खड़ाऊँ की खटर-पटर से। वे निकलने को तैयार थे। गायत्री ने रात वाली बात बतलायी, जिसे सुन कर बहुत ही प्रसन्न हुए- ‘ये तो अच्छा संयोग है। तुम अपना काम निपटा कर, जब भी विन्ध्याचल आओगे, तो सीधे तारामाँ के मन्दिर में आजाना, जो कि विन्ध्यवासिनी से करीब आधमील सीधे उत्तर, गंगा किनारे ही है। वहाँ बिलकुल सुनसान रहता है। आमलोगों से उपेक्षित सी है वह जगह; किन्तु है बिलकुल शान्त, एकान्त, निरापद। ठहरने के लिए भी चाहोगे तो मैं वहीं व्यवस्था करा दूंगा, या फिर किसी होटल, लॉज में ही रहना चाहो तो वहीं रहो, कोई बात नहीं।’
नहीं महाराज! ऐसा नहीं कि मैं सप्ताह भर में ही सच में इतना बड़ा हो गया कि आपकी दी हुयी व्यवस्था को छोड़कर किसी बड़े होटल की तलाश करुँगा। आपका सानिध्य, वो भी विन्ध्यवासिनी के अंचल में वसी माँतारा के प्रांगण में- ये तो हमदोनों के लिए सौभाग्य की बात होगी- क्यों गायत्री! ठीक कहा न मैंने?
‘हाँ भैया! यही बात पक्की रही। मंगलवार को सुबह ही हमलोग वहां पहुँच जायेंगे। और फिर वहां न इनका दफ्तरी बोझ होगा, और न किसी तरह का किचकिच।’- खुश होकर गायत्री ने कहा।
बाबा चले गये। उनकी अनुपस्थिति में सप्ताह भर का समय कुछ मन्थर गति से गुजर रहा था। गायत्री के लिए समय की गति और भी धीमी थी, क्यों कि उसके जीवन का ये पहला अवसर आने जा रहा था, जब मेरे साथ कहीं घूमने जा रही हो। जरुरी यात्रा करना, और घूमने के लिए घूमने में बहुत अन्तर होता है। भले ही ये मेरा ऑफिशियल टूर है, फिर भी गायत्री के साथ होने से लुत्फ ही कुछ और होगा। मैं भी जल्दी से सप्ताह को गुजरने का आग्रह कर रहा था।
रविवार आ ही गया। सुबह चार बजे ही हमलोग दिल्ली छोड़ दिये। इलाहाबाद पहुंच कर गायत्री को एक होटल में विश्राम के लिए छोड़कर, रात की मीटिंग अटेंड किये। अगले दिन का काम बहुत थोड़ा ही था- एक नये दफ्तर का विजिटिंग रिपोर्ट तैयार करना था, जिसके लिए एक बजे का समय तय था, कुछ और भी छोटे-मोटे काम निपटाने थे। अतः भोर होते ही त्रिवेणीस्नान के लिए निकल गये। उधर से ही अक्षयवट भ्रमण-दर्शन करते हुए पुनः होटल में गायत्री को छोड़, अपने काम पर निकलने की बात तय हुयी। सवारी के लिए तांगा ही सबसे अच्छा साधन लगा। दिन का भोजन इसी बीच सुविधानुसार कहीं ले लिया जायेगा। गायत्री ने कहा कि समय मिले तो भारद्वाज आश्रम भी जरुर देख लेना चाहिए, क्यों कि इसके लिए बाबा ने भी इशारा किया है। निश्चित ही कोई खास बात है। अक्षयवट की वर्तमान स्थिति को देखकर बड़ा ही क्षोभ हुआ। भले हीआज वह राष्ट्रीय धरोहर के रुप में सुरक्षित है; किन्तु अधिकांश खण्ड आमजन-प्रवेश से वंचित होकर सैनिक-छावनी में तबदील है। मुझे याद है, बचपन में पिताजी के साथ आया था यहाँ। चप्पे-चप्पे घूम-घूम कर सारा किला देखने का मौका मिला था। ऊपर जितना दीख रहा है, उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है नीचे– भूगर्भ में। आर्यावर्त की रहस्यमय संस्कृति का उत्कृष्ट नमूना कह सकते हैं इस किले को। अक्षयवट नामक सनातन वटवृक्ष है यहां, जिसके नाम पर किले का नामकरण हुआ है। विविध शास्त्रों में इसका विस्तृत परिचय उपलब्ध है। मान्यता है कि खण्ड प्रलय में भी इसका नाश नहीं होता। ये वही वट वृक्ष है, जिसके पत्ते पर विराजमान भगवान वालमुकुन्द ने महर्षि मार्कण्डेय को दर्शन दिया था। वर्षों पहले किसी विदेशी वैज्ञानिक ने इसकी एक छोटी टहनी का परीक्षण कर प्रमाणित किया था कि इस नयी कोंपल की आयु अनुमानतः तीस-बत्तीसहजार वर्ष है। अब इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे वृक्ष की आयु क्या हो सकती है। आमजन दर्शन के लिए वृक्ष का ऊपरी भाग ही दृश्यमान है, शेष तो अतल दुर्ग-गह्वर में छिपा है। ऊपर की मंजिल पर चढ़कर, नीचे झांकने पर स्पष्ट रुप से अन्तःसलिला सरस्वती के श्वेताभ प्रवाह को परखा जा सकता था उन दिनों। कहते हैं कि किले के भीतर से सरस्वती छिप कर प्रवाहित होती हुयी गंगा से आ मिली हैं, और उधर से कालिंदी की नीलधारा का आगमन हुआ है- नील, पीत, श्वेत का अद्भुत मिलन होकर, त्रिवेणी की सार्थकता स्वतः सिद्ध होती है। मानों स्व-स्वशाप भुक्ता तीनों देवियों ने यहां आकर गले मिल कर सन्धि कर ली हो। श्रीकृष्ण की तीनों प्रियाओं का अद्भुत मिलन है प्रयाग का त्रिवेणी स्थल। वैसे तो नाव पर चढकर गंगा की बीच धारा में जाने पर भी किंचित आभास होजाता है- नील-पीत संगम का, किन्तु त्रिवेणी का असली दर्शन तभी हो पाता था। पिताजी कहा करते थे- यही है ‘मुक्तत्रिवेणी’, इसमें अवगाहन करके ही पूर्णतः मुक्त हुआ जा सकता है, अन्यथा स्व ‘युक्तत्रिवेणी’ का परिचय पाये बिना तो कितनों का इतिश्री हो जाता है संसार में। पिताजी के इस कथन का अभिप्राय आज तक समझ न सका, हां सूत्र स्मरण में सुप्त है आज भी —मुक्तत्रिवेणी और युक्तत्रिवेणी।
भारद्वाज आश्रम की विलक्षणता अपने आप में अद्वितीय है। वेद-वेदांगों के विविध ज्ञान-विज्ञान, यहां तक की विद्युत और विमानन अभियान्त्रिकी तक की शिक्षा की व्यवस्था थी महर्षि के आश्रम में। मानव-कल्याणार्थ प्राचीन आयुर्विज्ञान को अष्टांग रूप में विभक्त कर अपने शिष्यों को प्रदान करने का श्रेय भी इन्हीं को है। वायुपुराण, वाल्मीकि रामायणम् आदि में इनके बारे में विशद वर्णन मिलता है। वनगमन के समय श्रीराम-जानकी इनके आश्रम में पधारे थे। अयोध्या वापसी के समय भी इनका दर्शन किये थे।
गंगा किनारे कोलोनगंज इलाके में स्थित भारद्वाज आश्रम के विशाल प्रांगण के बीचो-बीच बने गोल गुम्बजाकार मन्दिर में शिवलिंग की स्थापना की गयी है, जो भारद्वाजेश्वर के नाम से ख्यात है। चौड़ी-ऊँची पांच-छः सीढ़ियां चढ़ कर, तीन मेहराबी दरवाजों से बने इसके विस्तृत सभामण्डप में पहुँचा जाता है। मुख्य मन्दिर के दांयें-वायें अन्य कई छोटे-बडे मन्दिरनुमा स्थल हैं, जहां अनगिनत देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं, उनमें श्रीराम-लक्ष्मण-जानकी, महिषासुर- मर्दिनी, सूर्य, शेषनाग, नरवाराह आदि अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। आश्रम की प्राचीनता असंदिग्ध है, किन्तु कुछ लोग आशंका व्यक्त करते हैं कि प्राचीन भारद्वाज-आश्रम यह नहीं है। वैसे यह ऐतिहासिक शोध का विषय हो सकता है ; किन्तु मुझे देखने-घूमने से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि इसकी प्राचीनता पर अंगुली उठा सकूँ। गायत्री को बारबार बाबा याद आ रहे थे। उसने कहा- ‘उपेन्दर भैया साथ होते तो घूमने का मजा ही कुछ और होता। यहाँ के रहस्यों से पर्दा उठाते।’ उनकी कमी तो मुझे भी खल ही रही थी। बहुत से प्रश्न अनुत्तरित थे।
गर्भगृह में थोड़ी देर के लिए ध्यान लगाने का प्रयास किया। क्षण भर के ध्यान ने ही मन को शान्त और प्रफ्फुलित कर दिया। सच में ध्यान लगाने की चीज नहीं है, वह तो स्वतः लगने वाली स्थिति है–आज मुझे कुछ ऐसा ही प्रतीत हुआ। इसके पहले सैकड़ों बार ध्यान लगाने का प्रयास किया था। वस्तुतः जो प्रयास , लोग किया करते हैं, वह तो धारणा की होती है, और इसे ही ध्यान कहने की भूल कर बैठते हैं, जिन्हें योग का व्यावहारिक ज्ञान नहीं है। बाबा ने प्रसंगवश एक दिन कहा था- धारणा तक जाओ, ध्यान की चिन्ता छोड़ो। आज का क्षणिक अनुभव सच में विचित्र रहा। भारद्वाजेश्वर दिव्यस्थली का आभामंडल मन-प्राणों को शान्ति-रस से आप्लावित कर गया। गायत्री की इच्छा थी अभी कुछ देर और यहीं विताने की, किन्तु समय के हाथों बिका होने के कारण उसकी इच्छा के विपरीत, तुरत वहाँ से निकल जाना पड़ा।
वहीं के लोगों से पूछने पर पता चला कि आसपास ही और भी कई दर्शनीय स्थल हैं। सच पूछें तो विविध तीर्थों का जमघट पूरा प्रयाग ही दर्शनीय है, जिनमें वासुकि नाग-मन्दिर, उर्वशीतीर्थ, उर्वशीकुंड, गौघाट, इन्द्रेश्वर, तारकेश्वर, परशुरामतीर्थ, लक्ष्मीतीर्थ, कपिलतीर्थ, शिशिरमोचन, आदित्यतीर्थ आदि कुछ विशिष्ट स्थल हैं। थोड़ा बाहर निकलने पर श्रृंगवेर स्थल, लाक्षागृह, सोमेश्वर, अलोपी, ललिता, शीतला, तक्षकेश्वर, समुद्रकूप आदि भी कम दर्शनीय नहीं हैं। फिर भी माधवमन्दिर और मनकामेश्वर मन्दिर जाने की इच्छा प्रवल हुयी। माधव मन्दिर के नाम से ख्यात कोई एक स्थल नहीं है, बल्कि कुल बारह स्थल हैं, जो अलग-अलग स्थानों में अवस्थित हैं। यथा- साहेब माधव, अद्वेनी माधव, मनोहरमाधव, चारामाधव, गदामाधव, आदममाधव, अनन्तमाधव, बिंदुमाधव, अशीमाधव, संकटहरणमाधव, विष्णु आद्य माधव, वटमाधव। इन सबका भ्रमण दर्शन सप्ताह भर का काम हो सकता है। वट-माधव का दर्शन तो अक्षयवट दर्शनक्रम में ही हो गया था। अतः समयाभाव को देखते हुए बलवती इच्छा से समझौता करना पड़ा।
‘अब वापस लौटना चाहिए’- मैंने कहा, तो गायत्री की चहक अचानक गायब हो गयी। उसने मायूस होते हुए कहा- ‘कम से कम मनकामेश्वर का दर्शन तो कर ही लो। जीवन का भागदौड़ तो हमेशा लगा ही रहता है।’
‘मनकामेश्वर?’- मैं जरा चौंका- ‘महादाता ने तो बहुत कुछ दे दिया, अनुमान से भी कहीं अधिक। अब क्या मनोकामना लेकर मनकामेश्वर की लालसा रखे हुये हो? अधिक लोभ अच्छी बात नहीं है।’
उदास होती हुयी गायत्री ने कहा- ‘तो तुम्हें क्या लगता है- कुछ मांगने के लिए उतावली हूँ? नहीं, ऐसी बात नहीं है। कामनाओं का अन्त नहीं है जीवन में, एक की पूर्ति होती है, तो अनेक की चाह बन जाती है। फिर भी मैं उन स्वार्थी औरतों में नहीं हूँ। वस यूँ ही मन में लगा कि इतना घूम-देख चुकी तो कम से कम इस स्थल को भी देख ही लूँ।’
मैंने घड़ी देखी- बारह बजने ही वाले थे। समय की गुलामी, नौकरी की नौ-कड़ियों वाला जंजीर गले की फांस बनी हुयी थी। अपने इन्सपेक्शन प्वॉयन्ट पर पहुँचने के लिए भी कम से कम आध घंटे का वक्त चाहिए। गायत्री को होटल तक पहुँचाना भी होगा- ये सब सोचते हुये गायत्री को आश्वस्त किया- ‘चलो ठीक है, मान लिया तुम्हारी बात को। कामनाओं के वगैर ही किसी धर्मस्थल में जाने की आदत डालनी चाहिए, और यह आदत तुम्हें पहले ही लग चुकी है, तो बड़े सौभाग्य की बात है। ऐसा करते हैं कि अभी तो तुम्हें होटल छोड देते हैं। भूख भी लग रही है। कुछ खा-पी लेना भी जरुरी है। दो-ढाई घंटे से ज्यादा का काम नहीं है मेरा। उधर से निबट कर मनकामेश्वर दर्शन किया जायेगा, और फिर ट्रेन का इन्तज़ार करने से बेहतर है कि बस से ही निकल चला जाय। सत्तर मील की सड़क-यात्रा का भी लुत्फ ले लिया जाय।’