बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 18 / कमलेश पुण्यार्क
मैंने गायत्री की ओर देखा, प्रश्नात्मक दृष्टि से। वह मुझे अभी भी पकड़े हुए, कंधे हिला रही थी। गर्भगृह पूर्णतः रिक्त था। उपस्थिति थी, तो वस मेरी और गायत्री की। दिव्यरश्मि के आलोक में अर्घ्यासीन शिवलिंग, था तो बिलकुल काला, किन्तु ज्योतित, प्रफ्फुलित सा। सिर झुका, दोनों हाथ को पीछे बांध, अर्द्धदण्डवत प्रणाम किया, और गायत्री का हाथ थामे, गर्भगृह से बाहर आगया।
लम्बे इन्तजार से थका सा टैक्सी-ड्राईवर वहीं लाइटपोस्ट के पास चबूतरे पर बैठा, ऊँघ रहा था। आहट पा उठ खड़ा हुआ- ‘तब सा’ब! चला जाय न? साढ़ेछः बजने को हैं।’
लगभग पौने नौ बजे हमलोग विन्ध्याचल पहुँच गये, तारामन्दिर के पास। सत्तर किलोमीटर का पूरा सफर मौन-मौन ही व्यतीत हुआ। लगता था कि पति-पत्नी में कुछ अनबन हो गयी हो, या कि शब्द-पेटिका में डाका पड़ गया हो। किसी के पास कुछ था ही नहीं शायद कुछ कहने-सुनने को। या कि इतना था कि कहाँ से शुरु की जाय बात—सोचने में ही दो घंटे गुजर गये, और गन्तव्य आगया।
टैक्सी फर्लांग भर पहले ही छोड़ देनी पड़ी। आसपास रौशनी की निहायत कमी थी। घरों खिड़कियों से छन कर आने वाली किरणें ही गली में सहायक थी। रास्ते की सही जानकारी न होने के कारण आगे बढ़ते हुए सीधे गंगा की धार तक पहुँच गए। बायीं ओर चिताभूमि थी, स्वर्गारोहण का सुगन्ध चारों ओर व्याप्त था। एक मुसाफिर से पूछना पड़ा- मन्दिर तक जाने का रास्ता।
पीछे मुड़कर दस कदम के बाद दायीं ओर पतली सी गली थी, जंगली कलमी-लता से घिरा हुआ, जिससे टकराये वगैर आगे बढ़ना असम्भव। गायत्री अपने वैग से टॉर्च निकाली, तब कहीं रास्ता साफ दीखा। आगे दस-पन्द्रह कदम जाने के बाद ही तेज रौशनी मिली-एक लाइट पोस्ट की, जो तारा-मन्दिर के छोटे से प्रवेशद्वार पर लगी थी। निःशंक भीतर प्रवेश किया, मानों बिलकुल जानी-पहचानी जगह हो। तगड़-मेंहदी की टट्टी और कुछ जंगली झाड़ियों के घेराबन्दी में करीब दो-तीन बीघे क्षेत्र के ठीक बीचोबीच साधारण सा मन्दिर बना हुआ था। बिजली की रौशनी थी तो चारो ओर, किन्तु एकदम मद्धिम-सी। सामने ही, क्षेत्र के पूर्वी भाग में विशाल काय वरगद के नीचे चौकीनुमा आठ-दस शिलाखंड पड़े थे, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर। उन्हीं में एक पर आसन जमाये, बाबा बिराज रहे थे, पास की दूसरी शिला पर एक वयोवृद्ध भी, जिनके रोयें-रोयें धवल थे। आपस में कुछ गहन बातें चल रही थी, फलतः हमलोगों के आगमन की भनक जरा देर से मिली, जब बिलकुल समीप आगये।
अपना सामान नीचे रखकर, आगे बढ़, बाबाओं का चरण-स्पर्श किया। बुजुर्गबाबा के चरण छूने के बाद, गायत्री जब इनकी ओर बढ़ी, तो लपक कर बाबा ने हाथ थाम लिया- ‘हैं, ये क्या कर रही है गायत्री!’-फिर उन बाबा को सम्बोधित करते हुए बोले- ‘ये मेरी मुंहबोली बहन गायत्री है, और साथ में इसके पति। इन्हीं लोगों के आने की प्रतीक्षा थी।’
बूढ़े बाबा ने आवाज लगायी। थोड़ी देर में एक सेवक उपस्थित हुआ, जिसे निर्देश दिया उन्होंने कि दक्षिणी हाते में पूरब तरफ वाली कोठरी खोल दो इनलोगों के लिए।
‘तुमलोग पहले मुंह-हाथ धोकर, इत्मिनान हो लो, फिर साथ में ही भोजन किया जायेगा। माँतारा की कृपा से यहाँ किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं है।’-बाबा ने वहाँ की व्यवस्था की जानकारी दी।
माँ तारामन्दिर बाहर से देखने में भले ही उपेक्षित और साधारण लग रहा हो, किन्तु आन्तरिक साज-सज्जा और व्यवस्था सुरुचिपूर्ण लगी। अहाते में दक्षिण की ओर, पूरब से पश्चिम कतारबद्ध छोटे-छोटे आठ-दस कमरे बने हुए थे- काफी साफ-सुथरे, और व्यवस्थित भी। कमरों के आगे गोल-गोल खंभों पर टिका छः फुटी बरामदा, जिसके प्रत्येक पाये के पास कोई न कोई फूल के पौधे लगे हुए थे। कुछ हट कर चौड़ी क्यारियाँ भी बनी थी। वहाँ भी तरह-तरह के फूल लगे हुए थे। पश्चिम की ओर झाड़ीदार घेरेबन्दी के भीतर आम, अमरुद, अनार, केला, नीम्बू, आदि उपयोगी फलों के पौधे लगे थे। अहाते के ईशान कोण में एक बड़ा- सा ऊंची जगत वाला कुंआ था, जिससे पानी निकालने के लिए लोहे की जंजीर और घड़ारी, पत्थर के खंभों पर टिकी थी। उत्तर के शेष भाग में कुछ बड़ी-बड़ी क्यारियाँ थी। मद्धिम प्रकाश में भी प्रतीत हुआ कि उनमें साग-सब्जियाँ लगी हुई हैं। पूरे अहाते में विजली के आठ-दस खंभे थे, जिन पर बल्ब टिमटिमा रहे थे। पूर्वाभिमुख, मात्र दस-बारह हाथ का मन्दिर, परिक्रमा-पथ और छोटे से सभामंडप से जरा हटकर, यज्ञस्थल भी बना हुआ था। उसके बाद, अग्नि कोण पर खपरैल की छावनी वाला बड़ा सा कमरा और बरामदा भी नजर आया, जिसमें जरुरत पड़े तो सौ-दो सौ लोगों का आसानी से गुजारा हो जाय। सेवक ने बतलाया कि वही मन्दिर का रसोई घर और भोजनालय है। उधर पश्चिम में थोड़ा हटकर, दो शौचालय भी बना हुआ है, जहाँ तक जाने के लिए ईंट का खड़ौंझा लगाया हुआ है। हालाँकि ज्यादातर लोग अगल-बगल की झाड़ियों का ही प्रयोग करते हैं। आमतौर पर यहाँ आगन्तुकों का आना-जाना न के बराबर ही है। बंगाली बाबा के कुछ खास शिष्य ही कभी-कभी आया करते हैं।
मेरे पूछने पर कि क्या बाबा बंगाली हैं, उम्रदराज सेवक ने जानकारी दी- ‘इस आश्रम के असली संस्थापक इनके गुरु महाराज थे, जो करीब बीस साल पहले समाधि ले चुके हैं।’- मन्दिर से दक्षिण-पश्चिम की ओर हाथ का इशारा करते हुए उसने कहा- ‘उधर जावाकुसुम की जो झाड़ी नजर आ रही है, वहीं उनकी समाधि है। जीवन काल में वे वहीं एक शिलाखण्ड पर व्याघ्रचर्म का आसन लगाये विराजते रहते थे। जाड़ा-गर्मी-बरसात, कुछ भी हो, उनका स्थान वहीं रहता था—ऊपर से साधारण सी छावनी, चार बांसों के सहारे टिकी हुई, चारों ओर से बिलकुल खुला हुआ। देर रात वहाँ से उठकर नीचे गंगा किनारे श्मशान में चले जाते, और मुँह अन्धेरे ही, सूर्योदय से पहले, उधर से वापस आकर यहीं विराज जाते। सुनते हैं कि वे पंचमुंडी साधना और शवसाधना के सिद्धहस्त थे। करीब सवा सौ साल की अवस्था में, अब से बीस साल पहले उन्होंने समाधि ली। उनके मूल स्थान के बारे में किसी को अता पता नहीं है। पता बस इतना ही है कि किशोरावस्था में ही वाराणसी के किसी कापालिक से दीक्षित हो गये थे। जन्म स्थान पश्चिमबंगाल का बांकुड़ा जिला है, गांव पता नहीं। समाधि लेने के महीने भर पहले बांकुड़ा से ही अपने शिष्य को बुलाकर यहाँ का कार्यभार सौंपे। वर्तमान में ये वही बाबा हैं- उनके शिष्य। इनकी अवस्था भी नब्बे के करीब हो ही गयी है। मैं भी इनके साथ ही आया था, इनकी सेवा के लिए। तब से यहीं हूँ।’- फिर जरा रुक कर सेवक ने कहा- ‘अरे, मैं भी अजीब हूँ, मन्दिर का इतिहास-भूगोल पढ़ाने लगा आपलोगों को। आपलोग थके हुए होंगे। मुँह-हाथ धोकर जरा इत्मिनान हो लें। मेरा नाम बाजू गोस्वामी है। कोई काम हो तो बुलालेंगे। वस आपके बगल वाले कमरे में ही रहता हूँ। आपके दाहिने वाले कमरे में बंगालीबाबा रहते हैं, परन्तु उनका कोई ठिकाना नहीं रहता, कब कमरे में रहेंगे, कब कहीं फुर्र हो जायेंगे- आजतक मुझे पता नहीं चला, तो आप क्या जान पायेंगे।’
कमरा खोल कर बाजू गोस्वामी चले गये। कमरे में प्रवेश करती हुई गायत्री ने कहा- ‘बड़ा ही बातूनी और दिलचश्प आदमी लगता है। बिना पूछे ही सबकुछ बतला गया।’
कमरे में रौशनी अच्छी थी। मोटा- सा गद्दा प्रवेश की ओर से दो-तीन फुट छोड़ कर पूरे कमरे में बिछाया हुआ था। आले पर एक छोटी बाल्टी के साथ लोटा और गिलास भी रखा हुआ था, साथ ही मोड-चमोड़ कर दो कम्बल और चादर भी। कमरा बड़ा ही हवादार था, क्यों कि दोनों ओर से खिड़कियाँ थी। पीछे वाली खिड़की से झाँक कर देखा- थोड़ा तिरछा देखने पर गंगा की लहरों पर कृष्ण पंचमी का चाँद अठखेलियाँ करता नजर आया। दृश्य बड़ा ही मनोरम लगा। दिन भर का थका न होता, तो गंगा की मृदुल रेती का आनन्द लेने अवश्य निकल पड़ता। अभी उधर झाँक ही रहा था कि बाजू की आवाज पुनः सुनाई पडी। पीछे मुड़ा तो एक दोना लिए कमरे के द्वार पर खड़ा पाया- ‘दादा! ये रहा तारामाँ का प्रोऽसाद। इसे खाकर जऽलखाओ। थोड़ा आराम कोरें, तोब तक गिरधारी भोजोन का बोलावा लेकर आ जावेगा।’
दोने में आठ बड़े-बड़े पेड़े थे, साथ ही कुछ चिरौंजी के दाने भी। ‘इतना कष्ट करने का क्या काम था दादा?’- उसके हाथ से प्रसाद वाला दोना लेती हुई गायत्री ने कहा।
‘कष्टऽ बोलता इसको? ये तो मेरा कोरतब हैऽ।’- कहते हुए आले पर से बाल्टी उठाकर बाहर निकल गया।
थोड़ी देर में उधर से आकर पानी रख गया, और पिछली बात का टेप बजा गया- ‘इसे खाकर जऽलखाओ। थोड़ा आराम कोरें, तोब तक गिरधारी भोजोन का बोलावा लेकर आ जावेगा। कोई बात हो तो आवाज देना ना भूलना। मेरा नाम बाजू गोस्वामी होऽ।’
‘हाँ, हाँ ठीक है दादू! तब तक आप भी आराम करें।’
बाजू चला गया। बाल्टी के पानी से हमलोगों ने हाथ-पैर धोये, तारामाँ का प्रसाद ग्रहण करके, जलपान किये। आराम क्या करना था, बाहर निकल कर बरामदे में ही टहलने लगे। अचानक गायत्री ने सवाल किया - ‘उस समय मनकामेश्वर मन्दिर में ध्यान के समय तुम इतनी बेचैनी से क्या ढूंढ़ रहे थे?’
गायत्री के सवाल के बदले मैंने भी सवाल कर दिया- ‘ज्यादा चतुराई न दिखाओ। पहले तुम बताओ तुमने क्या अनुभव किया? कैसा लगा मनकामेश्वर का स्थान? मुझे तो लगता है कि तुम इतना ध्यानस्थ हुई कि सत्तर किलोमीटर के सफर में एक शब्द भी न निकला मुंह से।’
‘हाँ, सच में शब्दहीन होगयी थी, शब्द-निरुद्ध कहना ज्यादा सटीक होगा। अनुभूति कोई विशेष नहीं, पर गहन अवश्य कह सकती हूँ। भारद्वाज आश्रम वाला दृश्य ही जरा और साफ होकर सामने आया। कड़ियों के बीच की कड़ियाँ और स्पष्ट हुई। दृश्य को दृश्य नहीं प्रत्यक्ष दर्शन कहना अधिक उपयुक्त होगा। इस विषय पर भैया से जमकर बातें कहने-पूछने की हैं। भोजन के बाद अगर मौका मिला तो आज की वार्ता का विषय यही रखूँगी। अब कहो, तुमने क्या अनुभव किया?’
‘मेरी अनुभूति भी कुछ-कुछ तुम्हारी जैसी ही थी- पुराने दृश्य का परिमार्जन कह सकता हूँ। किन्तु सबसे आश्चर्यजनक रहा –घंटे की आवाज से आन्तरिक झंकृति, और बाबा का प्रत्यक्ष दर्शन। सुनते हैं कि कायव्यूहसाधक की ऐसी स्थिति होती है। चाहने पर वो स्वयं को कई स्थानों पर एकत्र प्रदर्शित कर सकता है। मुझे तो लगता है बाबा इस कला में सिद्धहस्त हैं।’
‘तो इसमें संदेह ही क्या है? उपेन्दर भैया कोई साधारण मनुष्य नहीं लग
रहे हैं, जैसा कि इन थोड़े ही दिनों में हमलोगों ने देखा-अनुभव किया।’
‘ये बड़ा ही अच्छा हुआ कि हमलोगों को बाबा को साथ रखने का सौभाग्य मिल गया, और तुम्हारी विनती उन्होंने स्वीकार कर ली।’