बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 19 / कमलेश पुण्यार्क
‘स्वीकारते क्यों नहीं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि मैं कितनी जिद्दी हूँ। मेरे जिद्द से उन्हें कई बार वास्ता पड़ चुका है बचपन में ही। अब मौका देखकर उनके जीवन की रहस्यमय कथा कुछ सुनूँ-जानूँ, इसी की तलाश है।’
‘अब मौके की क्या बात है, मौका ही मौका है। मेरा सारा दिन तो दफ्तर में या कि दफ्तरी काम से इधर-उधर बीतता है, और बीतेगा भी। मेरे पास तो देर रात वाला समय ही है, और ये भी उचित नहीं कि रोज रात को एक बजे के बाद बैठकी लगायी जाए।’
बातें हो ही रही थी कि एक युवक आता हुआ दिखायी पड़ा। समीप आकर, हाथ जोड़, अभिवादन किया- ‘जी मैं गिरिधारी...आश्रम का रसोईया। दोनों बाबा आपलोगों की प्रतीक्षा कर रहे हैं, भोजनालय में।’
गिरधारी के साथ हमलोग भोजनकक्ष में उपस्थित हुए। पूर्वाभिमुख बैठने के लिए आठ-दस पट्टे बिछे हुए थे जमीन पर, जिनमें दो पट्टों पर दोनों बाबा बिराज रहे थे। प्रत्येक पट्टे के सामने की जमीन थोड़ी ऊँची- दो-ढ़ाई ईंच बनायी हुई थी। बगल में जलपात्र और गिलास भी रखा हुआ था। बाबा के इशारे पर हमदोनों भी उनके बगल वाले पट्टे पर बैठ गये। थोड़ी देर में चार आदमी और प्रवेश किये कक्ष में और उसी भाँति अपना आसन ग्रहण किये, जिनमें एक तो बाजू गोस्वामी थे, बाकी अनजान। उनलोगों ने भी हमदोनों का अभिवादन किया हाथ जोड़कर। बाजू ने ही बताया- ‘ये तीन जोन भी इधर में ही रहता...आश्रम और बारी का काम-धाम देखने वास्ते।’
सबके सामने पत्तल और दोना लगाया गया।भोजन परोसने में गोस्वामी भी मदद करने लगा गिरधारी को। कुल नौ पत्तल लगाये गये थे। सब पर यथेष्ठ मात्रा में भोजन परोस कर, अन्त में बाजू और गिरधारी भी साथ में ही बैठ गये। हाथ में जल लेकर दोनों बाबाओं ने भोजन पात्र का दक्षिणावर्त घेरा लगाया, और प्रार्थना किये- ऊँ अस्माकं नित्य मस्त्वेतत्। पुनः ऋतं त्वा सत्येन परिषिञ्चामि- कहते हुए जल प्रोक्षण किये। इसके बाद पात्र से थोड़ा हटकर दाहिनी ओर जमीन पर थोड़ा जल गिराकर, थोड़ा-थोड़ा अन्नादि ग्रास तीन जगहों पर रखे- ऊँ भूपतये स्वाहा, ऊँ भुवनपतये स्वाहा, ऊँ भूतानां पतये स्वाहा। तत्पश्चात् पुनः जल लेकर आचमन किये- ऊँ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा। फिर भोजन मन्त्रोच्चार प्रारम्भ किये- ऊँ अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः। प्र प्रदातारं तारिषं ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चुतुष्पदे॥ (यजुर्वेद११−८३) इसके बाद बहुत छोटे-छोटे पांच ग्रास क्रमशः ले-लेकर ऊँ प्राणाय स्वाहा, ऊँ अपानाय स्वाहा, ऊँ व्यानाय स्वाहा, ऊँ उदानाय स्वाहा ऊँ समानाय स्वाहा मन्त्रों के उच्चारण सहित ग्रहण किये।
तत्पश्चात् ही वृद्धबाबा के संकेत पर सबने भोजन प्रारम्भ किया- मौन भोजन...परिवेष्ठन रहित भोजन, असामूहिक तुल्य सामूहिक भोजन....।
अतिशय सुस्वादु भोजन करके चित्त प्रसन्न हो गया। मन गदगद हो गया। अबतक के जीवन में हजारों बार भोजन का अवसर आया था- घर से बाहर तक, होटल से लेकर आश्रमों और मन्दिरों तक; किन्तु आज के इस आश्रम-भोजन में जो आनन्द और परितृप्ति मिली इसे अद्वितीय कहने में जरा भी हिचक नहीं। कोई अनुकूल शब्द नहीं मिल रहा है, जिससे व्याख्या करुँ इस भोजन व्यवस्था की। दुबारा परोसन लेने की भी बात नहीं, एक बार में जो मिल गया यथेष्ठ ... मनोनुकूल...सन्तोषप्रद। शास्त्रों में कहीं-कहीं सामूहिक भोजन का निषेध भी किया गया है- कुछ खास अर्थों में, कुछ खास कारण से। कहते हैं- भोजन-शयन, सम्भाषण आदि लोकव्यवहार हम जिनके साथ करते हैं, उनके दो-प्रतिशत गुण-दोषों का हकदार हम भी बन जाते हैं। यानी सामूहिक भोजनादि से गुण-दोषों का सद्यः आदान-प्रदान होता है। समस्या ये है कि सहभोजी के व्यक्तित्त्व और कृतित्व पर समाज में रहते हुए कितना विचार कर पायेगा कोई गृहस्थ? करना चाहिए या नहीं- यह भी विचारणीय है। सामाजिक नियम बहुत ही सोच-समझ से बनाये गये होते हैं। इनमें शास्त्र-सम्मति के साथ लोकरीति-परिवेशरीति भी समायी होती है। ध्यान देने की बात है कि लौकिक-सामाजिक-कृत्य—शादी-विवाह, श्राद्ध, भोज, यज्ञादि जनित उत्सव-आयोजन में सामूहिक भोजन की व्यवस्था का विधान है, परिपाटी है। इन सबके अपने खास महत्त्व हैं। कितना सुव्यवस्थित नियम बनाया है हमारे मनीषियों ने शास्त्र–रचना करके- जागने, सोने, खाने, पीने, जीने, मरने...सबके नियम निर्धारित किये गये हैं। किन्तु हम इनके बनाये नियमों में समयानुसार अपने अ-विवेक और स्वार्थ का छौंका लगा दिये हैं, जिसके कारण सारा ज़ायका गडमड हो गया है। आज सामूहिक भोजन की रुपरेखा बिलकुल पाश्चात्य हो गयी है- सामूहिक भोजन का सीधा अर्थ हो गया है- बिलकुल जूठा खाना। एक अज्ञात कवि की उक्तियाँ याद आरही हैं- वानरा इव कुर्वन्ति सर्वे वफे डीनरः...आजकल लोग सामूहिक भोजन करते हैं- ‘वफेडिनर’ वन्दरों की भांति उछल-उछलकर- न यहाँ धर्म है और न विज्ञान। इन दोनों में किसी एक का भी पूर्णतया आश्रयी हो जाते, तो कल्याण हो जाता। आधुनिकों को कम्प्यूटर केबिन में जूता उतार कर जाने की बात समझ आती है, किन्तु रसोईघर में भी यह लागू होना चाहिए- इसे समझने में कठिनाई होती है।
भोजन के बाद सबने अपना-अपना पत्तल उठाकर बाहर पड़े कूड़ेदान में डाला। गिरधारी और दो अन्य सेवकों ने मिलकर कक्ष और पाकपात्रों की सफाई की। गोस्वामी बाबा से आदेश लेकर अपने कक्ष की ओर चला गया। दोनों बाबाओं के साथ हमदोनों वहीं बाहर वरगद के नीचे शिलाखंड पर बैठ गये।
बाबा ने पूछा- ‘तब कहो, कैसी रही तुमलोगों की यात्रा? और आगे का क्या कार्यक्रम है?’
‘आपके आशीर्वाद से यात्रा बहुत ही अच्छी रही। कई नयी जिज्ञासाएँ और प्रश्नों का कौतूहल मथित किये हुए है। मौका मिले तो इन पर आपसे चर्चा करुँ। रही बात आगे प्रोग्राम की, तो वो सब आपके आदेशानुसार ही सम्पन्न होगा। गायत्री का मन्नत था- यहाँ तक आकर, विन्ध्यवासिनी-दर्शन करने का, सो तो कल गंगा स्नान के बाद कर लिया जायेगा, फिर आगे आपकी इच्छा और आदेश...।’
‘तुम्हारी छुट्टी कब तक है? यानी लौटना कब तय है?’
‘नियमतः मैं दो दिनों के ऑफिसीयल टूर पर हूँ। दो दिन अपनी छुट्टी से भी ले लिया हूँ, जिसका उपयोग यहाँ रहकर किया जा सकता है, या फिर जैसा आप कहें।’
‘ईश्वर की कृपा से जो होता है, अच्छा ही होता है। तुम्हारी बहुत सी जिज्ञासाओं का समाधान यहाँ मिल जायेगा। ये अच्छा संयोग रहा कि इसी बीच मुझे बाबा का बुलावा आ गया।’- बाबा ने वृद्धबाबा की ओर संकेत करते हुए कहा- ‘और तुम्हें इलाहाबाद का टूर मिल गया। नवमी की रात तक मुझे भी यहाँ रहना है, आज पंचमी हो ही गया।’
‘मतलब कि हमलोग साथ वापस नहीं चल सकेंगे?’
‘साथ की क्या बात करते हो, न साथ आये हैं, और न जाना हो सकता है।’-
बाबा का कथन द्वयर्थक था, जिसे वृद्धबाबा ने स्पष्ट कर ही दिया- ‘इस संसार में सच पूछो तो कोई किसी का साथी नहीं है। हुआ भी नहीं जा सकता। सबकी यात्रा अकेले की है। भले ही गन्तव्य एक हो सबका। जिसे तुम साथी समझने की भूल कर बैठते हो, वह भी असली साथी नहीं है। कौन कब किस दिशा में अपनी यात्रा प्रारम्भ करेगा, कहना मुश्किल है। सब अपने-अपने कर्म और संस्कारों की डोर से बन्धे हैं।’
मैंने हाथ जोड़ कर वृद्धबाबा से निवेदन किया- ‘महाराज! ये संस्कार है क्या चीज, और कैसे बनता-बिगड़ता है, तथा बाँधता कैसे है हमें?’
वृद्धबाबा ने कहा- ‘संस्कार हमारा परिधान है। इसे वास्तविक पहचान भी कह सकते हो। मनुष्य के मनुष्यता की व्यापकता उसके संस्कार में आवृत्त है। संस्कार समग्र जीवन-दर्शन है।यह न जातिबोध है, न धर्म-तत्त्व, न देश-काल का विखंडन। संस्कार लिंग-विच्छेद से परे संज्ञाहीन शिखर पुरुष है। संस्कार घोर अन्धकार में दिव्य प्रकाश की अनश्वर दीपशिखा है। यही हमारी जीवनी-शक्ति है। इसे समझने के लिए सच्ची भक्ति की शक्ति चाहिए। उस भक्ति की जो सदा सर्वदा निर्बन्ध है, जिसे कतई अवरुद्ध और आवद्ध नहीं किया जा सकता। भक्ति अद्वैत है, परे है यह वेदान्त से भी। भक्ति ही आत्मा के स्वरुप का संधान है। भक्ति का सम्पूर्ण समर्पण शोषक यन्त्र, जिसे तुमलोग आजकल ‘वैक्यूमक्लीनर’ कहते हो, की तरह सब कुछ सोख लेता है अपने आप में, फिर कुछ शेष नहीं रह जाता। न कोई प्रश्न, न कोई उत्तर। भक्ति- मैं को ढहा देती है, विसर्जित कर देती है। और जब मैं ही न रहा, फिर क्या! यह संस्कार न एक दिन में बनने की चीज है, और न हठात् बिगड़ जाने वाली। संस्कार को बनाने और बिगाड़ने वाले ‘दायरे’ सदियों से, परम्पराओं से, जातियों से, जातिगत धर्माचारों से और नियन्ता-सृष्टि के प्रवेश में आते ही आवृत करनेवाले अवयवों से संचालित होते हैं। ये संस्कार ही काम, क्रोध, लोभ, मोहादि को जन्म देते हैं; और ठीक इसके विपरीत यह संस्कार ही मुक्ति का अभयद्वार भी है, जो रोग, शोक, मोह, माया, ममतादि से परे है। एक बात और जान लो कि असत्य ही संस्कार का परम द्रोही है, परम शत्रु है। और सत्य? सत्य तो सिर्फ और सिर्फ एक है- पुष्प के भीतर छिपे पराग की तरह। और इसे पाना होगा- नहीं, पाये हुए हो। वस समझ जाने भर की बात है। सुगन्ध मिल रही है तुम्हारे नथुनों को, किन्तु इसे कहीं और ढूढने में परेशान हो। यह किसी मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, या कि गिरजाघरों में नहीं मिलता। यह तुम्हारे ही भीतर छिपा बैठा है- कस्तूरी कुण्डली बसै, मृग ढूँढै वन माही। ऐसे घटि-घटि राम बसै दुनिया देखै नाहीं॥ भूले तुम हो, और ढूँढ रहे हो भगवान को। बेटा खो जाये, और टोला-महल्ला बाप को ढूँढ़ने निकल पड़े- ऐसा भी कहीं होता है क्या? हमारी आँखों पर मोतियाविन्द का पर्दा पड़ा है, चिकित्सक के पास जाना होगा, जो अपनी शल्य-क्रिया से उसे हटा दे। आँखों की दृष्टि को कुछ खास हुआ नहीं है।’
वृद्धबाबा की बातें ज्ञानाञ्जनशलाका की तरह प्रभावित कर गयी। मोतियाविन्द का ऑपरेशन मानों हो गया- प्रकाश की किरणें फूट पड़ी। लपक कर उनके श्रीचरणों में नत हो गया। उनके मृदुल कर-स्पर्श से स्नात हो गया वाह्याभ्यन्तर।
गायत्री को सम्बोधित करते हुए बाबा ने कहा- ‘अब तुमलोग जाओ, आराम करो। कल सुबह गंगा स्नान के बाद मिलना। मैं भी चलूंगा, साथ में मां विन्ध्यवासिनी के दरवार में।’
इच्छा न रहते हुए भी उठ ही जाना पड़ा। केवल बाबा रहते तो उनके साथ थोड़ा हठ भी कर लेता, किन्तु वृद्धमहाराज के सामने यह अभद्रता होगी– सोचकर, उठ खड़ा हुआ। हमलोगों के उठते ही, वे दोनों भी उठ खड़े हुए। हमलोग अपने निर्धारित कमरे की ओर बढे, किन्तु वे दोनों अहाते से बाहर निकलकर गंगा की ओर प्रस्थान किये। गायत्री ने धीरे से कहा- ‘बाजू कह रहा था न...लगता है वे दोनों श्मशान की ओर ही जा रहे हैं।’
सूर्योदय से काफी पहले ही नींद स्वतः खुल गयी। मुंह अन्धेरे ही स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर माँ तारा का दर्शन किया। कल बाहर से ही प्रणाम भर कर लिया था। आज भीतर गर्भगृह में प्रवेश किया। जमीन से कोई हाथ भर ऊँचे चबूतरे पर काले पत्थर की बनी आदमकद, शिवारुढा माँ की मूर्ति बड़ी ही आकर्षक थी। कोई खास ज्ञान-अनुभव तो नहीं है, फिर भी न जाने क्यों स्थान बहुत ही जागृत प्रतीत हुआ। ज्योतित आँखें लग रही थी- मुझे ही निहार रही हों। क्षण भर के लिए, अज्ञात भय से रोंगटे खड़े हो गये। हवन कुंड में सद्यः प्रज्वलित अगर, गुगुल की मदिर सुगन्ध से भीतर का वातावरण आप्लावित था। साष्टांग दण्डवत करने के बाद बैठ गया वहीं। पास ही गायत्री भी थी। चित्त की एकाग्रता का प्रयास करने लगा। थोड़ी ही देर में लगा कि किसी ने कान में धीरे से कहा - ‘व्यर्थ भटकना छोड़ो, ‘क्रीँ’ के प्रति समर्पित हो जाओ , यहीं से ‘क्लीँ’ का द्वार खुलेगा।’