बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 21 / कमलेश पुण्यार्क

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जरा ठहर कर बाबा पुनः बोले- ‘हाँ, तो कह रहा था- नन्दजा भगवती की बात, इनकी आराधना-साधना से त्रिलोकी को वशीभूत कर सकते हो, और वशीभूत भी क्या करना है, बस रहस्य को समझ भर लेना है, हो गया खेल खतम। अभी जहाँ हमलोग चल रहे हैं, वह एक अद्भुत स्थान है। आज तुमलोगों को उन नन्दजा का दर्शन करा ही देता हूँ। यही वह विन्ध्यवासिनी हैं, जो अपनी प्रतिज्ञानुसार प्रकट हुई हैं। किन्तु एक बात और जान लो- ये गंगा किनारे वाली नहीं, और न उस खोहवाली अष्टभुजी रुपा महामाया ही असली बहन हैं श्रीकृष्ण की। कुछ लोग इनको, तो कुछ लोग उनको नन्दजा भगवती या यशोदानन्दिनी माने बैठे हैं, किन्तु असली तो फिर असली होता है- असली नन्दजा यहाँ से थोड़ी दूर पर घनघोर जंगल में पहाड़ी पर स्थित हैं। पुराने लोग उन्हें नन्दजा कहते है, किन्तु सामान्य जन वहाँ तक पहुँचते नहीं हैं। वर्तमान में भी वहाँ की स्थिति बड़ी खतरनाक है, जंगली जानवर अभी भी वहाँ बहुत अधिक हैं। कालीखोह के पास पहुँच कर वहाँ के पुराने निवासियों (जंगलीलोगों)से पूछने पर सही जानकारी हो सकती है, किन्तु वे भी वहाँ जाने से मना करेंगे। नन्दजा के इस रहस्य को बहुत कम लोग ही जानते हैं। और कलियुग में न जाने, तो ही अच्छा है। कलिकाल की ही कृपा है कि ज्यादातर लोग बस आते हैं, गंगा स्नान करके, समीप के इस मन्दिर में दर्शन करके वापस चले जाते हैं। लोगों को ये पता भी नहीं है कि यह समूचा विन्ध्यगिरि साधकों का गढ़ है। एक से बढ़कर एक रहस्यमय स्थान यहाँ फैले हुए हैं पर्वत-श्रृंखला में, जिनमें प्रमुख हैं त्रिकोण स्थिति में अवस्थित— विन्ध्यवासिनी, कालीखोह और अष्टभुजी। ये तीनों विन्ध्यगिरि के लगभग तीन कोणों पर स्थित हैं। किसी एक से प्रारम्भ कर, बाकी दो का क्रम से दर्शन त्रिकोण-यात्रा कहा जाता है। क्यों कि इस यात्रा-क्रम में त्रिकोण बनता है। इस पूरे त्रिकोण में लगभग नौ मील का सफर तय करना पड़ता है। यह त्रिकोणयात्रा- ‘त्रिलोकयात्रा’ के तुल्य फलदायी है। प्रायः लोग विन्ध्यवासिनी मुख्य मन्दिर से कालीखोह, और फिर उधर से ही अष्टभुजी होते हुए पुनः विन्ध्यवासिनी पर आकर यात्रा समाप्त करते हैं। इस प्रकार काली को मध्य में रखकर त्रिकोण रचित होता है। दूसरा तरीका ये भी हो सकता है कि यात्रा काली से ही आरम्भ की जाय, और अष्टभुजी होते हुए विन्ध्यवासिनी, और फिर अन्त में काली पर आकर यात्रा समाप्त की जाय। इसमें अष्टभुजी मध्य हो जायेंगी। और तीसरा तरीका होगा अष्टभुजी से यात्रा प्रारम्भ करके, विन्ध्यवासिनी होते हुए, काली, और पुनः अष्टभुजी पर यात्रा की समाप्ति। दुर्गासप्तशती के पाठ-क्रम से तो लोग यही उचित कहेंगे कि काली से ही यात्रा प्रारम्भ हो। गंगा किनारे जो मुख्य विन्ध्यवासिनी भगवती हैं, वे महालक्ष्मी के प्रतीक हैं, कालीखोह की काली तो महाकाली है ही, और त्रिकोण के तीसरे विन्दु पर अवस्थित अष्टभुजी महासरस्वती के प्रतीक में हैं। अब तुम यहाँ इस शंका में मत पड़ जाना कि अभी तो मैंने कहा यशोदा वाली भगवती, और अभी कह रहा हूँ महा सरस्वती, और फिर ये भी कह रहा हूँ कि यशोदा वाली भगवती तो कहीं और छिपी हैं- इन तीनों से भिन्न स्वरुप में। और यही सत्य भी है। अरे, इन भेदों और अभेदों को ही तो हृदयंगम करना है। ठीक से समझना है। पहले इस त्रिकोण को समझ लो, फिर उसके मध्य-विन्दु को भी समझने का प्रयास करना। विन्दु के वगैर त्रिकोण टिकेगा कहाँ? विन्दु का विस्तार ही तो त्रिकोण है, और त्रिकोण का सिकुड़ाव ही विन्दु बनता है। या सीधे कहो कि बिन्दु का विस्तार ही संसार है। ज्यामिति और त्रिकोणमिति पढ़े हो कि नहीं?” - बाबा ने मेरी ओर देखते हुए पूछा, और फिर बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये, बोलने भी लगे- “इसी त्रिकोण के बीच महात्रिपुरसुन्दरी का प्रतीक श्रीयन्त्र भी स्थापित है। यह श्रीयन्त्र ही अखिल ब्रह्माण्ड की संरचना को उजागर करता है। श्रीयन्त्र की महिमा और साधना अपने आप में अति गहन और गुह्यतम है। संसार की सर्वाधिक गुह्यतम साधनाओं में है श्रीयन्त्र-साधना। त्रिकोण यात्रियों को इसका दर्शन भी अवश्य कर लेना चाहिए। तन्त्र-साधना की विविध विधियों के हिसाब से ये बातें तय होती हैं कि यात्रा कहाँ से प्रारम्भ की जाय। वस्तुतः ये बाहरी यात्रा भर ही नहीं है। आमजन तो इन तीनों अलग-अलग स्थानों पर बने मन्दिरों की यात्रा करके ही सन्तुष्ट हो जाते हैं; किन्तु साधना के विचार से यह बाहरी त्रिकोण किसी आन्तरिक त्रिकोण-यात्रा का संकेत है। इस एक त्रिकोण से ही आगे नौ त्रिकोण बनते हैं- पांच उर्ध्व और चार अधो- यही तो हमारे शरीर की स्थिति है, और ऐसा ही ब्रह्माण्ड की भी। इन नौ त्रिकोणों के सामरस्य को ही तो श्रीयन्त्र कहते हैं। हमारा शरीर एक चलता-फिरता जागृत श्रीयन्त्र ही तो है- परमात्मा का बनाया हुआ, जिसे हम काम और भोग का साधन भर माने बैठे हैं। ‘कंचन और कामिनी’ से आगे कुछ सोच-समझ भी नहीं पाते। मजे की बात ये है कि आम आदमी सोचे भी तो कैसे! और ये जो देखने में आता है- कामिनी के प्रति आकर्षण- ये भी कोई आश्चर्य की बात थोड़े जो है। अभी-अभी मैंने कहा कि बिन्दु और त्रिकोण के अतिरिक्त है ही क्या। इसका ही प्रतीक या कहो प्रतिनिधत्व करता है नारीभग, जिसके पीछे दीवाना है इन्सान। इस छायात्मक त्रिकोण से बाहर निकलने पर ही असली त्रिकोण की बात हो सकती है। चन्द्र तो ऊपर आकाश में है, और सरोवर के जल में उसकी परछाई पकड़े बैठे हैं हम, या कहो प्रतिलिपि को ही मूल माने बैठे हैं हम। त्रिकोण और त्रिकोणों का महाजाल...यही तो विषय है तन्त्र का- समझे कि बस, मुक्त हो गये। किन्तु बड़े-बड़े साधक भी इन विविध त्रिकोणों में अटक-भटक कर रह जाते हैं। आमजन के लिये तो भ्रम की काफी गुंजायश है। अब जरा सोचो न आजकल प्रायः घर घर में तांबे का बना श्रीयन्त्र लटका मिल जायेगा- इस ख्याल से कि लक्ष्मी की प्राप्ति होगी, जब कि लक्ष्मी को इस श्रीयन्त्र से ‘कोईखास’ वास्ता नहीं है। यहाँ ‘श्री’ पद लक्ष्मी का बोधक नहीं, प्रत्युत राधा-यानी त्रिपुरसुन्दरी का बोधक है। खैर, पहले बाहरी त्रिकोण की यात्रा करो , फिर भीतरी त्रिकोण को समझने का प्रयास करना। और जब एक त्रिकोण को समझ जाओगे तो नौ त्रिकोणों को समझने में भी अधिक कठिनाई नहीं होगी। बच्चों को पहले वर्णमाला का ज्ञान करना होता है, फिर उसे वर्णों की व्यवस्था सिखायी जाती है- व्याकरण पढ़ाकर, और तब कहीं जाकर वह मोटी-मोटी पोथियां पढ़कर समझने के काबिल बनता है। यहाँ भी बात कुछ वैसी ही है।’- बाबा ने गायत्री की ओर देखते हुए कहा- ‘तुम तो शाक्त साधक कुल की रही हो। क्या कभी इस पर चर्चा हुयी घर में पिता या दादाजी द्वारा?’

‘मैं जब से होश सम्हाली, दादाजी को हर महीने विन्ध्याचल की यात्रा करते देखती थी। उनका शुक्लपक्ष प्रायः यहीं गुजरता था- नवमी तक। दशमी या एकादशी को घर वापस आते थे; और पुनः कृष्ण त्रयोदशी को ही निकल जाते थे- यहाँ के लिए। क्या करते थे, कैसे करते थे- इस विषय पर कभी कुछ जानकारी न मिली। हाँ, बस इतना सुनती थी कि त्रिकोणयात्रा जरुर करनी चाहिए। यह अपने आप में बहुत बड़ी तीर्थयात्रा है।’- गायत्री का जवाब सुन बाबा जरा मुस्कुराये।

‘यही तो तरीका होता है बीज बोने का- उन्होंने घर-परिवार में बारम्बार चर्चा की। समय-असमय तुमने सुना-जाना। यानी कि मिट्टी में बीज डाल दिया गया। परिवेश, और काल के संयोग से उसका प्रस्फुटन हो जायेगा। कहने-सोचने-बोलने का यही तरीका था हमारे वुजुर्गों का। बच्चों में होश सम्भालने से पहले ही सारा कुछ डाल देते थे। डालने का अंदाज(तरीका)भी अनोखा होता था- पिता, माता, दादा, दादी की गोद में बच्चा बैठता था, नियमित रुप से, सहज भाव से। सामान्य तौर पर तो यही लगेगा कि बुजुर्गों का स्नेह है बच्चों के प्रति; किन्तु प्रबुद्ध रहस्यमय बुजुर्ग इसी अन्दाज में कुछ के कुछ कर गुजरते थे। पुराणों में रानीसती मदालसा का प्रसंग प्रसिद्ध है। गन्धर्वराज विश्वावसु की कन्या का विवाह राजा शत्रुजित-पुत्र ऋतध्वज से हुया था। इनसे उत्पन्न तीन पुत्र- विक्रान्त, सुबाहु और शत्रुमर्दन को रानी मदालसा ने विरक्त बना दिया था- सिर्फ लोरी सुना-सुना कर, और अन्त में सांसारिक जंजाल में जकड़े पिता ऋतध्वज ने चौथे पुत्र को आग्रह पूर्वक सांसारिक बनाने का अनुरोध किया, ताकि उनकी वंश-शाखा का उच्छेदन न होजाय। देखने में तो कुछ समझ नहीं आता किसी को कि वह कर क्या रही है, किन्तु उसका एक खास अन्दाज था लोरी सुनाने का नियमित तेल मालिस करने का, बालक को स्तनपान कराने का।’- कहते हुए बाबा अचानक रुक गये।

थोड़ी देर गायत्री के चेहरे पर गौर किये। फिर उससे ही सवाल कर दिये- ‘क्यों गायत्री! तुम तो एक स्त्री हो, वो भी साधक कुल-जन्मा। मेरी बातों को शायद आसानी से समझ पाओ। तुम्हें तुम्हारी माँ कैसे तेल मालिस की होगी यह तो याद रहने का सवाल नहीं है, किन्तु घर में मां, दादी, चाची, नानी किसी महिला को, किसी बच्चे को तेल मालिश करते देखी तो जरुर होवोगी, और फिर यह भी ध्यान होगा कि मालिश के बाद माँ उन्हें स्तनपान जरुर करा देती है, यह कहते हुए कि तेल भूल जायेगा। दूध पिला देने से याद रहेगा।’

बाबा की बात पर गायत्री बिहँसती हुयी बोली- ‘हाँ उपेन्दरभैया! खूब याद है। मैं प्रायः हर माँओं को ऐसा करते देखती हूँ, किन्तु इसका कोई खास कारण-रहस्य तो पता नहीं, और न इसे रहस्यमय जान, कभी प्रश्न ही उठा मन में।’

सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- ‘यही तो बात है- हमारे मन में प्रश्न उठते ही नहीं, फिर उत्तर की तलाश क्योंकर होगी? आधुनिकायें तो इन सब बातों को और भी विसार चुकी हैं, दकियानूसी कहकर। डॉक्टर भी उन्हीं के मन मुताबिक राय दे देंगे- बच्चों को तेल मत लगाओ, काजल मत लगाओ। और स्तनपान के प्रति तो ऐसी मूढ़ी अज्ञानता फैल गयी है कि स्तनपान कराने से स्तन जल्दी ढीले हो जायेंगे। अब इन मूर्खाओं को फिर से जागरुक करने का काम करना पड़ रहा है- जब विदेशी वैज्ञानिकों ने स्तनपान के रहस्य और महत्त्व पर प्रकाश डाला। हमारी तो आदत है न अपनी चीज को विसार कर, परमुखापेक्षी बनने की।

गायत्री ने सवाल किये- ‘आखिर क्या रहस्य है भैया! तेल मालिश और स्तनपान का क्या सम्बन्ध है?’

बाबा ने गायत्री को समझाया- ‘तेल मालिश के समय माँयें अपने दोनों पैर सामने की ओर पसार देती हैं, और घुटने के सहारे बच्चे के शिरोभाग को रखकर, यानी शेष शरीर मां की जांघों के इर्दगिर्द पड़ा होता है। उसी मातृ-जघन-शैय्या पर बालक का मर्दन होता है- नियमित- सुबह-दोपहर, शाम, रात्रि...। मालिश के बाद माँ गोद में उठा लेती है, बच्चे को और प्रायः देखती होगी कि पहले बायाँ स्तन देती है बच्चे के मुंह में, और फिर दायाँ। बायें स्तनपान के समय माँ का बायाँ हाथ बच्चे की गर्दन से गुजरते हुए उसके गुदामार्ग तक जाता है, यानी की गुदामार्ग से कटि प्रदेश तक का भाग माता की हथेली पर होता है। इधर मां का दाहिना हाथ बालक के सिर, ललाट, मुख, छाती आदि पर बारम्बार अवरोह क्रम में सरकते हुए नीचे बच्चे के शिश्न-प्रान्त तक आता है। थोड़ी देर तक इस क्रिया के उपरान्त स्थिति बदल जाती है- बच्चा दाहिने स्तन का पान करने लगता है, और इस प्रकार माता का दाहिना हाथ बालक के कटि से पृष्ट-प्रदेशों तक गुजरता है। किन्तु ध्यान रहे इस स्थिति में मां बच्चे को सिर्फ दुलारती पुचकारती है, बायाँ हाथ पूर्व की तरह ऊपर से नीचे सरकाती नहीं है। चतुर और जानकार मातायें यही करती हैं।’

गायत्री ने पुनः टोका- ‘सो तो ठीक है। इसे मैं सैकड़ों बार देख चुकी हूँ, रहस्य और कारण भले न ज्ञात हो। किन्तु इस स्थिति से मदालसा की लोरी का क्या सम्बन्ध है?’

‘है; सम्बन्ध है, और बहुत ही गहरा सम्बनध है।’- बाबा दृढ़ता पूर्वक अपनी तर्जनी हिलाते हुए बोले- ‘यौगिककाय-रहस्य को समझोगी तो सब भेद खुल जायेगा। मदालसा नित्य स्तनपान के समय कुछ विशेष वर्ण-योजनाओं का प्रयोग करती थी- शुद्धोसि, बुद्धोसि....अध्यात्म की सारी गुत्थियां, और जीवन का रहस्य खोल देती थी शिशु- स्तनपान के क्रम में। अभी-अभी जो मैंने ध्यान दिलाया तुम्हें माता ही हस्त-मुद्रा और भंगिमाओं का, वह एक विशिष्ट विधि है जीवात्मा तक संदेश पहुँचाने की। सीधी भाषा में कहूँ तो कह सकता हूँ कि अचेतन मन तक संदेश पहुँचाने की इससे अच्छी कोई और विधि हो ही नहीं सकती। कोई दक्ष गुरु शिष्य के सिर पर हाथ रख कर, या कि ललाट पर अंगूठा रख कर, उसे उपदेशित करता है न? माता से बढ़िया और महान गुरु, और कौन हो सकता है जगत में? अन्य गुरु को तो शिष्य के कैशोर्य और युवत्व की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, पर माता, उसे तो ‘नाल’ से सम्बन्ध होता है, और एक औरत होने के नाते तुम अच्छी तरह जानती होवोगी कि माता, गर्भस्थ शिशु और नाल का क्या रिस्ता है। आजकल वैज्ञानिकों को इसके रहस्य का कुछ संकेत मिल गया है। तुमने सुना होगा- जन्म के बाद बच्चे के नाल का छेदन करके फेंक दिया जाता था, पुरईन (प्लेसेन्टा)के साथ। किन्तु अब उसका संरक्षण किया जा रहा है- लाखों खर्च करके– ‘प्लेसेन्टा-बैंकों’ में। इस रहस्य पर बातें और भी लम्बी हो जायेगी। इस पर फिर कभी चर्चा करेंगे। अभी तो तुम मदालसा-रहस्य को ही समझो। बच्चे के गुदामार्ग से लेकर सिर पर्यन्त माता की सरकती हथेली, और उच्चरित विशिष्ट स्वर-लहरी(rethmic sound web) सीधे शिशु में सूचना का संचार ही नहीं, स्थापन कर देता है, जिसके परिणाम स्वरुप बालक होश सम्भालते ही सांसारिक जंजालों में अनुरक्त हुये बिना ही सीधे साधना-लोक में पदार्पण कर देता है। फिर उसे किसी बाहरी गुरु की खास आवश्यकता भी नहीं रह जाती- ठीक वैसे ही जैसे जेनरेटर स्टार्ट हो जाने के बाद, निर्बाध चलते रहता है, जब तक उसकी क्षमता होती है, या कि पुनः सायास बन्द न किया जाय। मदालसा ने यही किया अपने सभी पुत्रों के साथ, और इस व्याज से उसने संसार की अन्य माताओं को भी संदेश दे दिया। वस्तुतः यह स्तोत्र नहीं है, फिर भी इसे स्तोत्र कहने में कोई आपत्ति भी नहीं है मुझे। मदालसा का यह दिव्य संदेश भी बहुत ही गुनने योग्य है। मार्कण्डेय पुराण २६/११ से ४१ तक इस प्रसंग का विशद वर्णन है। प्रारम्भ के श्लोकों में निवृत्तिमार्ग का दिशानिर्देश है, और अन्त में प्रवृत्तिमार्ग का भी संकेत है। प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच के भी, किंचित उपचार सुझाये गये हैं। पति के आग्रह से प्रवृत्ति-मार्ग-गामी पुत्र के लिए भी भैषज्यात्मक(औषधि निमित्त)सूत्र है। पहले इसी की बानगी देखो- संगः सर्वात्मना त्याज्यः सचेत्यक्तुं न शक्यते। ससद्भिः सकर्त्तव्यः सतां संगो हि भेषजम्॥ कामः सर्वात्माना हेयो हातुं चेच्छक्यते न सः। मुमुक्षां प्रति तत्कार्यं सैव तस्यापि भेषजम्॥ - माता मदालसा कहती है- हे पुत्र! सर्वविध संग का परित्याग करना। और यदि इसमें शक्य न होवो, तो सत का संग(सत्संग) करना, यही इसका औषध है। पुनः कहती है- सर्वविध काम का त्याग करना, और यदि इसमें शक्य न होवो, तो मुमुक्षु (मोक्षार्थी) होने की कामना करना। यही इसकी औषधि है।’

मैंने संशयात्मक स्वर में कहा- ये तो बड़ा ही अजीब है, रानी मदालसा का उपदेश- संग और कामना के त्याग की बात करके, फिर सत्संग और मोक्षाकांक्षा की कामना को ग्रहण करने को कहा जा रहा है।