बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 22 / कमलेश पुण्यार्क

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बाबा ने स्वीकारात्मक सिर हिलाते हुए कहा- ‘हाँ, अजीब तो जरुर है। हर प्रकार के संग को त्यागने की बात की जारही है, किन्तु ध्यान देने की बात है कि न त्यागा जा सके, वैसी स्थिति में सत का संग यानी सत्संग करे। कामना का परिणाम होता है बन्धन, अतः इसका भी परित्याग करना चाहिए। यदि न सम्भव हो तो, यानी कामना किये वगैर हम रह ही नहीं सकते, तो ध्यान रहे कि मोक्ष की कामना करे। वस्तुतः संतों ने तो इसकी भी कामना नहीं की है- स्वर्ग और मोक्ष का भी परित्याग करने वाले एक से एक संत हुए हैं। आद्यशंकर ने तो भगवती की प्रार्थना में कहा ही है- न मोक्षस्याकांक्षा भवविवांछापि च न मे न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः...। चूँकि शंकराचार्य यहाँ भक्तिमार्गी की भूमिका में हैं, अतः देवीमुखारविन्द की लालसा कर रहे हैं। इसके सामने मोक्ष को भी तुच्छ कह रहे हैं। भक्त हमेशा द्वैत में ही रहना पसन्द करता है- आराध्य और आराधक का द्वैत। उसे मोक्ष वाली शून्यता की कामना भी नहीं रहती। खैर, अभी यहाँ मदालसा द्वारा गायी जाने वाली लोरी के मूलश्लोकों को हृदयंगम करो, फिर इस पर विशेष चिन्तन करना। निवृत्तिमार्ग पर लेजाने हेतु, मदालसा मात्र छः श्लोकों को लोरी के रुप में अपने बालकों को सुनाती थी। शर्त ये रहता था कि बालक का अन्नप्राशन न हुआ हो, यानी कि उसकी अवस्था अधिकतम छः माह की ही रहती थी। इस बीच ही वह निवृत्तिमार्ग का बीजारोपण कर दिया करती थी। मूल श्लोक के पद-लालित्य पर जरा गौर करो- शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव। पञ्चात्मकं देहमिदं न तेऽस्ति नैवास्य तं रोदिषि कस्य हेतोः॥१॥ न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा शब्दोऽयमासद्य महीशसूनुम्। विकल्प्यमाना विविधा गुणास्तेऽगुणाश्च भौताः सकलेन्द्रियेषु॥२॥ भूतानि भूतैः परिदुर्बलानि वृद्धिं समायान्ति यथेह पुंसः। अन्नाम्बु दानादिभिरेव कस्य न तेऽस्ति वृद्धिर्न च तेऽस्ति हानिः॥३॥ त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेऽस्मिंस्तास्मिंश्च देहे मूढतां मा व्रजेथाः। शुभाशुभैः कर्मभिर्देहमेतन्मदादिमूढैः कञ्चुकस्ते पिनद्धः॥४॥ तातेति किञ्चित् तनयेति किञ्चिदम्बेति किञ्चिद्दयितेति किञ्चित्। ममेति किञ्चिन्न ममेति किञ्चित् त्वं भूतसङ्घम् बहु मानयेथाः॥५॥ दुःखानि दुःखोपगमाय भोगान् सुखाय जानाति विमूढचेताः। तान्येव दुःखानि पुनः सुखानि जानाति विद्वान् विमूढचेताः॥६॥’’

गायत्री सिर हिलाते हुए हामी भरी-’हाँ भैया! सती मदालसा ने तो संदेश दे दिया, सारे गुर सिखा दिये; किन्तु आज तो बच्चे का लालन-पालन ‘आयाएँ’ करती हैं, ‘माय’ की जगह ‘धाय’ ले ली है। अब मातृ-गुरु-गरिमा का लाभ कहाँ से, कैसे मिल पायेगा? न बच्चे की मालिश हो रही है, और न लोरी और थपकी, और न पिता, दादा, दादी का गोद ही मयस्सर है। आज का अभागा वच्चा होश सम्हालता है वोर्डिंग और प्लेस्कूलों में।’

बाबा ने स्वीकृति मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा- ‘हाँ बिलकुल सही समझा तुमने। माता की मृदुल हथेली का स्पर्श, तथा पिता दादा आदि के द्वारा भी उसी भांति उसके शरीर के प्रधान स्थानों का निरंतर स्पर्श होते रहता था। उस बीच में जो आपसी संवाद होते थे, वो बहुत ही गहरे अर्थ रखते थे- चाहे वो कथाओं के माध्यम से हो या किसी और तरीके से। गोद, संगति और सानिध्य का भी बड़ा महत्त्व है। मगर दुर्भाग्य ये है कि आज के बच्चों को माता-पिता का ही गोद भरपूर नहीं मिल पाता, फिर दादा-दादी तो दूर की चीज हैं। आज तो उनका स्थान वृद्धाश्रम में होता है, और बच्चों का स्थान आवासीय विद्यालयों में। आज की पीढी ‘कॉन्वेन्टी’ होकर गौरवान्वित हो रही है, और पैरेन्ट्स भी फूले नहीं समाते - समझते हैं कि हमने अपने बच्चे को उचित शिक्षा दी है- अंग्रेजी स्कूल में भेज कर विज्ञान और तकनीक सिखाया है। पर खाक दिये हैं शिक्षा! जड़ का पता नहीं, पत्तियां और तने सींचे जा रहे हैं, पौधा तो सूखेगा ही। योग-साधना की ‘एनाटोमी’ पढ़ोगे, मानव शरीर का ‘ज्योग्राफी’ जानोगे, तभी ये रहस्यमय बातें समझ में आयेंगी, अन्यथा व्यर्थ बकवास सी लगेंगी। भारत की शिक्षा-पद्धति, ज्ञान के स्थानान्तरण का विज्ञान बड़ा ही अद्भुत रहा है। बीज बोया कैसे जाता है, यह भी पता नहीं होता आज के जाहिल किसान को। हम सब किसान ही तो हैं। हर बीज में वृक्ष बनने की संभावना बनी हुयी है, बस बोने का तरीका, और परिवेश और काल (समय)का सही ज्ञान होना चाहिए।’

किन्तु अधिकांश बीज नष्ट भी तो हो जाते हैं महाराज, यदि सही ढंग से बोया नहीं गया, और आगे उसकी निगरानी नहीं की गयी?

‘तुम तो अंग्रेजी खां हो।’- मेरी ओर हाथ का इशारा करते हुए बाबा ने कहा- ‘अंग्रेजी में एक कहानी है न- ‘द पैरेबल ऑफ सोअर’ क्या सच में यह किसी किसान की कहानी है? कथाकार ने इस कहानी के जरिये मानव जीवन के बहुत बड़े रहस्य की ओर इशारा किया है। गौर करने की बात है- यह स्टोरी नहीं, ‘पैरेबल’ है। पैरेबल और स्टोरी का फर्क तो पता है न, या ये भी हमें ही बतलाना पड़ेगा?” - बाबा ने मेरी ओर देखकर सवाल किया।

राष्ट्र की वर्तमान स्थिति और सोच पर गौर करते हुए, मैं जरा शर्मिन्दगी महसूस करते हुये कहा – जी पता है, पैरेबल और स्टोरी का अन्तर, और ये भी पता है कि कहानीकार ने क्या कहना चाहा है इस छोटी-सी कहानी में।

बातों की धुन में, विन्ध्यवासिनी मन्दिर के सभामण्डप के बाहर पहुँच, सीढियों के पास ही ठहर गये थे हमलोग। बाबा का यह प्रसंग पूरा हुआ तो गायत्री ने टोका- ‘अब अन्दर भी चलोगे भैया या कि यहीं खड़े पैरेबल सुनाते रहोगे? तुमसे करने के लिए मेरे पास भी बहुत से सवाल हैं, किन्तु समय के इन्तजार में हूँ। इधर से घूम-घाम कर स्थिर बैठूँ, फिर बातें छेड़ूँ।’

गायत्री के कहने पर, मैं पास की दुकान से प्रसाद वगैरह ले आया एक छोटी-सी डलिया में, और दर्शनार्थियों की कतार में लग गया। काफी लम्बी लाईन लगी थी, लगता है दुनिया में सिर्फ भक्त ही भक्त हैं। कई पुजारी भी इधर-इधर मटक-भटक रहे थे। पुजारियों में एक, मेरे पास आकर धीरे से फुसफुसाया- ‘शाम तक लाईन में खड़े रह जाओगे। कुछ जेब ढीला करो, मैं मिन्टों में दर्शन कराता हूँ।’ मैं उसकी बात सुन अवाक् रह गया। देवी का दर्शन करने के लिए भी जेब ढीला करने की बात हो रही है।

बाबा तो यहाँ के परिस्थिति से पूरे वाकिफ थे। उस पुजारी को इशारे से बुलाकर बोले- ‘जानते हो, किसे जेब ढीला करने बोल रहे हो? कल के अखवार में तुम्हारे फोटो के साथ छपेगा कि तुमने रिश्वत मांगी एक अखवारी बाबू से।’

बाबा की बात सुनते ही पुजारी सख्ते में आ गया। हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा। गायत्री ने कहा- ‘क्या जरुरत थी भैया, यहाँ परिचय देने की, देखती, अभी कुछ देर और यहाँ का तमाशा। ऐसे लोग ही पवित्र स्थानों को बदनाम करते हैं। सिपाही तो है ही बदनाम घुसखोरी के लिए, ये पुजारी बन कर लोगों को ठग रहा है। वही सोच रही थी कि इतनी देर से लाइन जरा भी आगे क्यों नहीं बढ़ी है।’

डरे हुए उस पुजारी ने विनम्रता पूर्वक मुझे और गायत्री को लेकर बगल के रास्ते में प्रवेश किया। सभामंडप से सटे ही एक संकरी गली जैसी थी, जिससे होकर गुप्त रास्ते से सीधे अन्दर गर्भगृह में पहुँचा दिया हमदोनों को। गायत्री ने माथा टेका, और फूलमाला-प्रसाद वाली डलिया मुख्य पुजारी को देते हुए, सौ का एक नोट भी दक्षिणा स्वरुप अर्पित किया। थोड़ी ही देर में हमलोग आराम से दर्शन करके बाहर आगये, उसी रास्ते से। सोच रखा था- यह नौकरी पाने के बाद, पहली बार यहाँ आया हूँ। कुछ विशेष दान-दक्षिणा अर्पित करुँगा देवी के निमित्त; किन्तु ‘‘प्रथम चुम्बने नासिका भंगम्’ वाली बात हो गयी, मन भिन्ना गया। अश्रद्धा हो आयी तीर्थस्थल की दुर्गति देखकर। यह कार्य भी पुरोधाओं द्वारा ही हो रहा है, जो कि और भी चिन्ताजनक है।

अभी तक, बाबा बाहर ही एक स्तम्भ के पास खड़े, कुछ मन्त्र बुदबुदा रहे थे। मैंने गौर किया- उनकी अंगुलियों की मुद्रा कुछ अजीब सी थी- न प्रणाम की न आशीष की, न वरद, न अभय। मैंने धीरे से इशारा किया गायत्री को भी देखने के लिए। उसने बताया- ‘ये योनिमुद्रा है, प्रार्थना की एक विशिष्ट मुद्रा।’ पता नहीं उसे कैसे ज्ञात है- साधना की ऐसी मुद्राओं के वारे में। अनुकूल अवसर न देख, इस पर कोई सवाल करना उचित न लगा मुझे।

हमलोगों के पहुँचने के थोड़ी देर बाद बाबा ने आँखें खोली- ‘कर लिए दर्शन? चला जाय अब?’

‘जी।’- संक्षिप्त- सा उत्तर दिया मैंने, और चल पड़े वापस, पुनः सीढियाँ उतर कर।

बाहर आकर, मन्दिर से पश्चिम का रास्ता पकड़े, जो सीधे कालीखोह की ओर जाती थी। रास्ते में जगह-जगह छोटे-बड़े कई मन्दिर मिले। जाना चाहें या नहीं, बाहर में ही पंडा-पंडित-टीकाधारी खड़े आहूत कर रहे थे, चिल्ला चिल्लाकर- ‘आओ जी इधर भी दर्शन करो....दक्षिणा चढ़ाओ।’ मेरा मन इन सबको देखकर और भी खिन्न होने लगा। धर्म की सजी-धजी दुकानें...ढोंगी पंडा-पुरोहित...जिनका संस्कार हीन चेहरा... ब्रह्मणत्त्व का नामोंनिशान नहीं...क्या यही हमारी तीर्थ-स्थली है? तीर्थों में तो प्रेम, सद्भाव, शान्ति का वातावरण होना चाहिए, जहाँ आकर खिन्न चित्त भी प्रसन्न हो जाय; किन्तु यहाँ तो उल्टा ही हो रहा है- प्रसन्न चित्त भी खिन्न हो गया। शान्ति नाम की कोई चीज नहीं, चारों ओर मार-काट जैसा कोलाहल है- श्रद्धालुओं का पॉकेट काटने का होड़ मचा है, ठगी की प्रतिद्वन्द्विता हो रही है। चाह कर भी किसी कोने में बैठकर एकान्त ध्यान लगाना मश्किल है। चारों ओर सड़े-गले फूल-मालाओं का अम्बार लगा है- नगरनिगम के ‘डम्पिंगप्वॉयन्ट’ की तरह। दुर्गन्ध का भभाका नथुनों को बेचैन किये है। सुबह स्नान करते समय भी ऐसी ही परेशानी हुयी थी- गंगा के घाटों की दुर्गति देख कर- गंगा की पवित्र रेती पर केवल मल ही मल नजर आ रहे थे, कहीं ईंच भर भी स्थान नहीं, जहाँ कायदे से खड़ा हुआ जा सके। कहीं कोई ढंग की व्यवस्था नहीं। लाचार या कहें आदतन लोग- पुरुष तो पुरुष, स्त्रियां भी धड़ल्ले से यहाँ-वहाँ सिकुड़ी, उकड़ू बैठी नजर आरही थी। यदि आप में थोड़ी लाजोहया है, तो खुद की नज़रें नीची कर लें, या बेश़र्मों की तरह नज़र मिलाते निकल जायें। गायत्री के हाथ में कपड़े थमा, उतरना पड़ा जल में, और किसी तरह दो डुबकी लगाकर, जल्दी ही बाहर आ गया था। फिर यही करना पड़ा गायत्री को भी। महिलाओं के लिए तो और भी समस्या- न सुरक्षित घाट, न कोई व्यवस्था। चारों ओर घूरती आँखें- मानों जीवन में पहली बार कोई औरत पर नज़र पड़ी हो...।

बाबा की टोक पर विचार-तन्तु टूटा- ‘क्या सोच रहे हो अखबारी बाबू? तुम बकर-बकर करने वाले ठहरे, इतनी चुप्पी क्यों साध लिए अचानक?’

‘जी, यूं ही...कभी-कभी मौन सध जाता है, कुछ सोचने पर विवश हो जाता हूँ।’- मेरी बात काटते हुए बाबा ने कहा- ‘इसे मौन नहीं कहते, यह तो चुप्पी है। मौन और चुप्पी में बहुत अन्तर होता है। मौन भीतर से उपजता है, प्रस्फुटित होता है, खिलता है- फूलों की तरह, आभ्यन्तर आनन्द विखेरता है। चुप्पी बाहर से ओढ़ी और लपेटी जाती है। मौन में नीरव शान्ति होती है, चुप्पी में विचारों का बवन्डर होता है।’

‘आज सुबह से ही थोड़ी खिन्नता चल रही है, गंगा की दुर्दशा पर सोच रहा था। यहाँ मन्दिर में आकर तो और भी अशान्त हो गया।’- मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।

बाबा मुस्कुराये- ‘गंगा के बारे में क्यों चिन्ता करते हो? कितने दिन और रोक रखोगे गंगा को यहाँ?’

‘मतलब?’- बाबा की पहेली बूझ न पाया।

‘जो गंगा हैं तुम्हारी आस्था, कल्पना और जानकारी में, वो तो कब की जा चुकी हैं पृथ्वी त्याग कर। अब तो पानी की धार भर रह गयी है, वो भी शनैः-शनैः लुप्त होती जा रही है। कुछ दिनों में पाओगे कि ये धारा भी गायब हो जायेगी।गंगा भी अन्तःसलिला सरस्वती और फल्गु बन जायेगी।’

‘मैं कुछ समझा नहीं। क्या ये गंगा नहीं हैं?’

‘नहीं, गंगा नहीं है...गंगा की निस्प्राण काया है ये। प्राण निकल जाने के बाद शरीर की जो स्थिति होती है, वही स्थिति आज इस गंगा की है। तुम्हें पता होना चाहिए कि यह कलियुग का काल है, जिसका ५११६ वर्ष व्यतीत हो चुका है इस विक्रमी संवत् २०७२ यानी २०१५ ई.सन् तक। ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखंड के छठे और सातवें अध्याय में कलिवर्णन का विस्तृत प्रसंग है। ये प्रसंग अन्यान्य पुराणों में भी किंचित भेद सहित मिल जाता है। भगवान विष्णु ने प्रतिज्ञा पूर्वक वचन दिया है अपनी प्रियाओं- तुलसी, लक्ष्मी, सरस्वती, और गंगा को कि कलिकाल के पांच हजार वर्ष व्यतीत होते ही मैं तुम सबको वापस अपने धाम बुला लूँगा- कलेः पञ्चसहस्रे च गते वर्षे च मोक्षणम्। युष्माकं सरितां भूयो मद् गृहे चागमिष्यथ॥ इसी प्रसंग में पुनः कहा गया है- कलेः पञ्चसहस्रं च वर्षं स्थित्वा च भारते। जग्मुस्ताश्च सरिद्रूपं विहाय श्रीहरिः पदम्॥ यानि सर्वाणि तीर्थानि काशी वृन्दावनं विना। यास्यन्ति सार्द्धं तामिश्च हरेर्वैकुण्ठमाज्ञया॥ शालग्रामो हरेर्मूर्तिर्जगन्नाथश्च भारतम्। कलेर्दशसहस्रान्ते ययौ तक्त्वा हरेः पदम्॥ वैष्णवाश्च पुराणानि शंखाश्च श्राद्धतर्पणम्। वेदोक्तानि च कर्माणि युयुस्तैः सार्द्धमेव च॥ भगवान विष्णु कहते हैं कि कलियुग में पांच हजार वर्षों तक हरि को छोड़कर, सरिता रुप में रहने के पश्चात् पुनः हरिपद को प्राप्त करोगी, यानी वापस वैकुण्ठ-धाम को चली जाओगी। काशी और वृन्दावन के अतिरिक्त अन्य सारे तीर्थ भी श्रीहीन हो जायेंगे। शालग्राम-शिला, जगन्नाथ-मूर्ति, शंख, श्राद्धादि कर्म भी कलि के दश हजार वर्ष व्यतीत होते-होते त्याग देंगे इस पृथ्वी को क्यों कि कलि का घोर शासन आ जायेगा।