बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 23 / कमलेश पुण्यार्क
‘...कथा-प्रसंग है कि एक बार लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा, तुलसी आदि परस्पर विवाद कर बैठी, और एक-दूसरे को शाप दे दी- सरिता बनने का। दयावान प्रभु को उनके शाप की मर्यादा भी रखनी थी, और लोककल्याण भी करना था, सो किया उन्होंने, क्यों कि प्रभु की प्रत्येक लीला का मूल उद्देश्य ही होता है लोककल्याण। इसी कल्याणकारी उद्देश्य से भागीरथी गंगा का अवतरण हुआ पृथ्वी पर। राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार के साथ-साथ अन्यान्य प्राणियों का भी उद्धार हुआ। ये सुविधा पृथ्वी-वासियों को मात्र पांच हजार वर्षों के लिए ही मिली थी, जो कि अब समाप्त हो चुकी है। परस्पर के शाप से मुक्त होकर ये सभी जा चुकी हैं अपने दिव्य धाम को। आज न असली तुलसी है, न गंगा, न पद्मा, न सरस्वती। देखते हो तुलसी में कीड़े लग रहे हैं। महाकिटाणुनाशक तुलसी और स्वयं कीट-युक्त- कुछ बेतुका नहीं लग रहा है देख कर? कलि-प्रभाव ने हमारी बुद्धि को मलिन और भ्रष्ट कर दिया है। धर्म, लोक-लाज सब छोड़कर, सारी गंदगी गंगा, और अन्य नदियों में प्रवाहित किये जा रहे हैं। पतित-पावनी पवित्र गंगा अपवित्र हो चुकी हैं पापियों के पाप धोते-धोते। शाप से दुखित गंगा जब भावी दुःख की बात की थी कि पापियों का पाप धोना पड़ेगा, तब कृपासिन्धु विष्णु ने कहा था कि उनके भक्त भी रहते हैं पृथ्वी पर। वे भी तो स्नान करेंगे गंगा में। किसी एक भक्त के स्नान से जो पुण्य मिलेगा, उससे हजार पापियों के पाप का प्रभाव धुल जायेगा।किन्तु सच पूछो तो अब वैसे पुण्यात्मा रहे ही कितने हैं! पुण्यात्माओं की तुलना में पापियों की संख्या कई गुना अधिक हो गयी है- कलौ तु पाप बाहुल्यं....फलतः सारा गणित गडमड हो गया है। विज्ञान भी मानता है, जल में मल या किसी अन्य वस्तु की घुलनशीलता की एक खास सीमा होती है, वो अब पार कर चुकी है। पार करनी ही है। एक गिलास पानी में बोरी भर शक्कर घोल पाओगे– सोचो जरा! आज, अपने ग्रन्थों को त्याग कर, विसार कर म्लेच्छों का शास्त्र पढ़ने में रुचि अधिक हो गयी है– म्लेच्छशास्त्रं पठिष्यन्ति स्वशास्त्राणि विहाय ते...(प्रकृतिखंड ७-२५)। यीशु का अनुयायी अंग्रेजी जानता है, पैगम्बर का अनुयायी भी अरबी-उर्दु-फ़ारसी जानता है, पर क्या तुम संस्कृत जानते हो? नहीं न। पढ़ना तो दूर रहे, कितने हिन्दु हैं जो वेद देखे हैं, पुराण देखे हैं, अपना धर्मशास्त्र और उपनिषद का ज्ञान रखते हैं? अंगुलियों पर भी गिनने चलोगे तो फेरे में पड़ जाओगे। खैर चलो, अभी तो कालीखोह चल रहे हो न। वो देखो कालीवाड़ी का कलश दीख रहा है।अब हमलोग पहुँचने ही वाले हैं।’
मैंने धीरे से कहा- ‘जी।’
मेरी आवाज की दुर्बलता पर बाबा ताड़ गये- ‘लगता है तुमलोग थक गये हो। अच्छा चलो, अब ज्यादा दूर नहीं है। वहीं चल कर थोड़ा विश्राम कर लेना। मन हो तो कुछ फलाहार भी ले लेना। मीठा-नमकीन हर तरह का फलाहारी सामान वहाँ उपलब्ध है। और जगहों की तरह यहाँ तेल-वेल का प्रयोग नहीं होता, शुद्ध घी के सारे सामान मिल जायेंगे।’
कहने को तो कलश दीख गया, पर वहाँ पहुँचने में काफी देर लगा। गायत्री वाकयी थक चुकी थी। थक तो मैं भी गया था। आज तो सुबह वाली चाय भी नहीं मिली है। किन्तु बाबा बमबम थे। उन्हें क्या परवाह- न चाय की, न कुछ और खाने-पीने की।
बाबा का संकेतात्मक आदेश मिल ही चुका था। मन्दिर के पास पहुँचते ही, मैंने गायत्री को इशारा किया, किन्तु बाबा की दुलारी मेरा पोल खोलने पर तुली थी।
‘मैं जानती हूँ कि तुम्हें चाय के लिए बैचैनी हो रही है, तो पीते क्यों नहीं, यहाँ रोक कौन रहा है?’-कहती हुयी गायत्री पास के एक दुकान की ओर मुड़ी, और मेरे हाँ-ना के जवाब के पहले ही ऑडर कर दी दो चाय के लिए।
मैंने बाबा की ओर देखते हुए कहा- ‘देखा न महाराज आपने, अपनी लाडली बहन का करिश्मा? चाय की तलब इसे हो रही थी, और बदनामी का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ डाली।’
‘कोई बात नहीं, क्या फर्क पड़ता है, ठीकरा तुम्हारे सिर फूटे या कि गायत्री के। अच्छा, तो तुमलोग चाय-वाय पीओ, तब तक मैं अपना एक काम निपटा लूँ।’-कहते हुए बाबा मन्दिर के पास ही एक ढोंके की आड़ में मुड़ गये। उन्हें जाते हुए, मैंने गौर किया- कुछ चट्टाने अजीब ढंग से आपस में जुड़ कर छोटी सी गुफा का सृजन कर रही थी, जिसे गुफा कम, सुरंग का मुहाना कहना अधिक सही होगा। पास ही अप्रत्याशित, कदम्ब का एक वृक्ष भी था, काफी पुराना सा। आम तौर पर कदम्ब का वृक्ष ऐसी जगहों पर पाया नहीं जाता। उसके लिए यहाँ की भूमि कदापि अनुकूल नहीं है, किन्तु प्रकृति की लीला, प्रभु की लीला का ही तो प्राक्कटन है।
चायवाले ने दो गिलासों में पानी रखते हुए पूछा, साथ में कुछ और लेने की बात और बिना कुछ कहे ही रटे-रटाये तोते की तरह सामानों का फ़ेहरिस्त सुना गया। लम्बी सूची में उसने क्या-क्या बतलाया ये तो कहना मुश्किल है, पर उसका अन्तिम शब्द याद रहा- ‘सिंघाड़े की पकौड़ी-खालिस घी में, सेन्धा नमक वाला...।’ सिंघाड़े की पकौड़ी मुझे अति प्रिय है। अतः उसके अन्तिम बात पर हामी भर दिया। गायत्री जब कभी व्रत करती है, सिंघाड़े का प्रयोग जरूर करती है, और उसके व्रत के बहाने हमें भी सुस्वादु फलाहार का लाभ तो हो ही जाता है। व्रत-उपवास मुझसे कभी होता नहीं, और न इसमें हमारी विशेष आस्था ही है। हाँ, गायत्री को व्रत करने से मना भी नहीं करता। हँसी-हँसी में वह अकसर कहा करती है- ‘मेरे व्रत का चवन्नी भर फल तो तुम्हें मुफ्त में ही मिल जाता है, फिर क्या जरूरत..।’ सुनते हैं कि पति के पुण्य का आधा फल पत्नी को स्वतः ही मिल जाता है, और पाप का कुछ भी हिस्सा उसे नहीं मिलता। ठीक इसके विपरीत पत्नी के पुण्य का चतुर्थांश पति को स्वतः मिल जाता है, और पाप का दशमांश भी भोगना पड़ता है। किन्तु मुझे आज तक ये न्याय व्यवस्था समझ नहीं आयी।
ताजे पतों से बने, बड़े से दो दोनों में सिंघाड़े की गरमागरम पकौड़ियां सामने हाजिर हो गयी। हमदोनों वहीं पत्थर की बनी लम्बी सी बेंचनुमा चट्टान पर बैठ कर पकौड़ियों का आनन्द लेने लगे। दोना का आकार पर्याप्त था, और सामग्री भी तदनुसार ही। पकौड़ियां खाकर पूरी तृप्ति मिली। चाय भी वैसी ही- शुद्ध दूध की, पानी का नामोनिशान नहीं, इलाइची, अदरख वाली। महानगरीय फाइवस्टार होटलों में भी ऐसी कड़क चाय कहाँ नसीब होती है, पर वहाँ तो लोग पैसा पीने जाते हैं, चाय तो अन्यत्र भी मिल जाती है।
जलपानादि से निवृत होकर, बाबा का इन्तजार करने लगे, और घंटे भर
गुजर गये। अन्त में लाचार होकर उधर देखने जाना पड़ा, क्या बात है, अभी तक
लौटे क्यों नहीं।
कदम्ब के मोटे तने से सुरंग का अधिकांश ढका हुआ था। रही सही कसर आसपास उगी झाड़ियाँ पूरा कर रही थी। बिलकुल समीप जाने पर भी कुछ पता नहीं चल पाता था। वृक्ष के पास जाकर टोह लेने लगा- भीतर की आहटों का, किन्तु कुछ ज्ञात न हो पाया। लाचार होकर, कटीली झाड़ियों को टेढ़ाकर, भीतर झाँकने का प्रयास किया। अनुमान था कि अन्दर अन्धेरा होगा, या रौशनी की कमी तो अवश्य होगी, किन्तु ये दोनों अन्दाज गलत निकले।
गुफा का सिर्फ मुँह ही छोटा था, इतना छोटा कि सहज ही कोई आदमी उसमें प्रवेश नहीं कर सकता। दुबला-पतला आदमी भी बहुत प्रयास करने पर देह सिकोड़ कर घुस सकता था, बशर्तें कि फँसने का डर उसे न हो। झाड़ियों को एक ओर हटा कर, मुहाने में सिर डाल कर भीतर झाँका- हल्की, किन्तु प्रखर, नीली रौशनी से एक छोटा सा कक्षनुमा स्थान आप्लावित था, जिसमें एक साथ चार-छः लोग आसानी से बैठ सकते थे। प्रकाश के स्रोत की ओर मुँह किये, पद्मासन लगाये बाबा बैठे नजर आये। उनकी पीठ से प्रकाश का स्रोत बिलकुल ढका हुआ था, फलतः जान न पाया कि प्रकाश कहाँ से, कैसे निकल रहा है। किन्तु इतना तो तय है कि ये बिजली की रौशनी नहीं हो सकती, दिए की तो है ही नहीं। अवश्य ही कुछ चमत्कारी तत्व है यहाँ। कुछ देर यूँ ही गर्दन लगाये, देखता रहा। गायत्री पीछे, झाड़ियाँ चांपे खड़ी पूछ रही थी- ‘क्या है अन्दर?’ किन्तु उसकी बातों का जवाब, बाहर सिर निकाले वगैर असम्भव था, फलतः हाथों से ही इशारा किया, चुप रहने के लिए।
कुछ देर भीतर का निरीक्षण करने के बाद, सिर बाहर निकाला, और झाड़ियों को पकड़ कर, गायत्री को अन्दर झाँकने का इशारा किया। मेरे कहने पर गायत्री ने वैसे ही अपना सिर डाला मुहाने के भीतर, किन्तु तभी बाबा की धीमी- सी आवाज सुनाई पड़ी- ‘अच्छा! तो, तुमलोग यहाँ तक आ ही पहुँचे, मुझे तलाशते? आ गये , तो आ ही जाओ भीतर। बाहर क्यों खड़ी हो?’
गायत्री ने बाहर गर्दन निकाल कर, मुझझे कहा अन्दर आने को, जब कि बाबा की बातें मैं सुन चुका था, और व्याकुल हो रहा था, उनके आदेश के लिए; किन्तु भय भी लग रहा था, कि कहीं फँस न जाऊँ। कैसे घुसूँगा इस छोटे से दरबे में।
मेरी हिचकिचाहट देख, गायत्री बोली- ‘क्यों, डर लग रहा है, अन्दर चलने
में? तो ठहरो, मैं पहले घुसती हूँ। ऐसी कितनी ही सुरंगों में घूम चुकी हूँ बचपन में अपने दादाजी के साथ।’
डर अन्दर घुसने में नहीं लग रहा है। लग रहा है- कहीं बीच में ही फँस न जाँऊ, तुम्हारी तरह मुलायम शरीर तो मेरा है नहीं, जो बिल्ली-सी सिकोड़ लूँ। – मैं कह ही रहा था, तब तक गायत्री सच में बिल्ली सी छपक कर, घुस ही गयी अन्दर।
अन्दर से बाबा की आवाज आयी- ‘डरने की कोई बात नहीं। ऐसा करो कि पैर को पहले भीतर डालो, फिर धड़ को हल्का भांजते हुये अन्दर कर लो।’
बाबा के निर्देशात्मक संकेत का पालन करते हुए, अगले ही क्षण मैं भी अन्दर आ पहुँचा। बाबा की बतायी विधि वाकयी काम आयी।
ऊपर सिर उठाकर देखा, मुश्किल से खड़ा होने भर ऊँचाई थी। तन कर खड़ा होना चाहूँ तो सिर ऊपर वाली चट्टान से टकराने लगे। सामने एक ताख बना हुआ था– सतह के लगभग बराबर में ही, कोई दो हाथ भर लम्बा-चौड़ा, और इतना ही गहरा भी। उसमें कुछ मूर्तियाँ रखी हुयी थी- बालिस्त भर की। उन्हीं में, एक मूर्ति में से ये अद्भुत रौशनी निकल रही थी। प्रकाश की किरणें इतनी तेज थी कि मूर्ति को सही रुप से पहचानना कठिन हो रहा था कि किस देवी-देवता की है। हाँ, अगल-बगल की दो मूर्तियों को आसानी से पहचाना जा सकता था, जो काले पत्थर की बनी किसी देवी की मूर्ति थी। सीधी किरणों से बचते हुए, थोड़ा तिरछा होकर, देखने पर, स्पष्ट पहचान लिया कि चमकदार मूर्ति की बायीं ओर वाली मूर्ति लक्ष्मी की है, जो पद्मासना हैं, पद्मधारिणी भी, और दायीं ओर वाली भी किसी देवी की ही है, दोनों हाथ किसी खास मुद्रा में चेहरे पर भंगिमा दिखाती हुयी-हाथों में कुछ दीख नहीं रहा था, किन्तु अंगुलियों की मुद्रा, कुछ संकेतात्मक प्रतीत हुयी। मूर्ति किसकी है– कुछ समझ न पाया। ताख के बगल में दोनों ओर करीब बित्ते भर गोलाई वाला मोका बना हुआ था, जिससे छन-छनकर ताजी हवा आ रही थी- बिलकुल स्वच्छ-सुगन्धित, मानों सीधे मलयसिन्धु में डुबकी लगाकर चली आरही हो। मूर्ति के समीप ही छोटा सा त्रिभुजाकार त्रिवलीय हवन-कुण्ड बना हुआ था, जिससे निकलता गुगुल-अगरु का मदिर सुगन्ध नथुनों को तृप्त कर रहा था। दायीं ओर की चट्टान में बीचो-बीच एक वैसा ही मुहाना नजर आया, जो किसी दूसरी ओर निकलने का रास्ता प्रतीत हुआ।
बाबा के कहने पर हमदोनों वहीं बैठ गये, पास में ही।बाबा ने अपनी
झोली से एक मुठ्ठी गुगुल निकाल कर कोई वाचिक मन्त्रोच्चारण करते हुए सामने के हवन कुण्ड में झोंक दिये। थोड़ी ही देर में हमने अनुभव किया कि गर्भगृह में व्याप्त प्रखर नीली रौशनी धीरे-धीरे मन्द पड़ने लगी, और कुछ ही देर में स्थिति ऐसी हो गयी कि मूर्ति से आसानी से आँखें मिलायी जा सकती थी। मैंने देखा- यह मूर्ति स्फटिक की बनी हुयी थी, आकार में उन दोनों मूर्तियों से थोड़ी बड़ी थी। बाबा ने पहले मेरी ओर देखा, फिर गायत्री की ओर देखते हुए सवाल किया- ‘देखो, पहचानों तो जरा, ये मूर्ति किसकी है?’
अपने स्थान पर बैठी-बैठी ही, जरा आगे झुककर गायत्री ने मूर्ति को पहचानने का प्रयास किया। मैं भी लपका- शायद पहचान जाऊँ, किन्तु कुछ पल्ले न पड़ा, न मुझे और न गायत्री को ही। देखने में तो मूर्ति बहुत ही आकर्षक, और बिलकुल जागृत-सी लगी। किन्तु आकृति, आयुध, तथा मुद्राओं से कुछ समझना मुश्किल था।
बाबा ने कहा- ‘मैं जानता था, तुमलोग पहचान नहीं पाओगे। दरअसल पहचाने का जो चिन्तन स्रोत है, वही नहीं है तुमलोगों के पास। तुम क्या, कोई और भी सामान्य व्यक्ति यह कयास नहीं लगा सकता कि यहाँ, इस तरह की मूर्ति भी हो सकती है। राधा के बारे में तो हर कोई जानता है। अदना -सा आदमी भी राधा-कृष्ण के बारे में कुछ न कुछ जरूर बता देगा, किन्तु ये वह राधा है जिनसे राधा की उत्पत्ति हुयी है।’
राधा की उत्पत्ति हुयी- यानी की वृषभानु की पत्नी की यह मूर्ति है? - मैंने चौंकते हुए पूछा। मेरी बात पर बाबा मुस्कुराये। ‘कहाँ वृषभानु-पत्नी, और कहाँ ये मूलप्रकृति। वस्तुतःये मूलप्रकृति श्रीराधा की मूर्ति है। संसार की सारी देवियां इन्हीं की विभूति हैं। लक्ष्मी, काली, सरस्वती, दुर्गा सबके सब इन्हीं से निकली हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में इसका विशद वर्णन मिलेगा। सृष्टि के प्रारम्भ में इन्हीं से त्रिदेवियाँ आविर्भूत हुई हैं। ये जो दायीं ओर देख रहे हो- यही महालक्ष्मी हैं- पद्मासना, और ये जो बायीं ओर की मूर्ति है, जिसके हाथों की भंगिमा आयुध-रहित होकर भी कुछ ईंगित कर रही हैं- ये ही राधा है, जो कृष्णप्रिया बनी हैं, और ये ही मूलप्रकृति, महात्रिपुरसुन्दरी हैं। इन्हीं का लीलाविलास है यह समस्त जगत-प्रपंच। ये वो राधा हैं, जिनसे अनन्त राधाओं, अनन्त कृष्ण की व्यूह-रचना होती है। जगदाधार भगवती यही हैं मुख्यतः।’
बाबा बड़े ही आनन्द-मुद्रा में थे। आज से पहले इतना दर्पित मुखमंडल नहीं देखा था मैंने इनका। लगता था मूलप्रकृति की सारी विभूतियाँ इन्हीं में उतर आयी हैं। मद्धिम रौशनी में भी चेहरा चमक रहा था, मानों नीलमणि हो।