बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 25 / कमलेश पुण्यार्क
गायत्री को अच्छा सा उदाहरण मिल गया। अतः बीच में ही टोक दी- ‘भैया! ये तो बड़े मार्के की बात कह रहे हो- साधु-संन्यासी, भगोड़ू होना तो और बात है, आजकल नौकरी के बहाने या लाचारी में पति लोग गाँव में बेवश पत्नी को छोड़ कर लम्बें समय के लिए महानगरों, या कि विदेशों में निकल पड़ते हैं। यहाँ तक कि प्रायः लोग वहीं की मौज-मस्ती भरी दुनियां में खोकर, विवाहिता साध्वी पत्नियों को विसार देते हैं, यह कितना अन्याय है।’
बाबा ने सिर हिलाते हुये कहा- ‘अन्याय ही नहीं घोर अन्याय कहो इसे। विवाह समय लिए गये संकल्प और शपथ को भी भुला देते हैं। शास्त्रकार तो यहाँ सन्तान-रहित होने की ही बात पर जोर दे रहे हैं, इसका भी पुरुष गलत अर्थ लगा लेते हैं। सन्तान हो जाने के बाद क्या उसकी मनोदैहिक आवश्यकतायें समाप्त हो जाती हैं? फिर सन्तान होने की ही सीमा-रेखा क्यों? सन्तान पालन कौन करेगा, क्या उस पुरुष का धर्म नहीं है यह? इसीलिए मैं कहता हूँ कि यथोचित गृहस्थ धर्म का निर्वाह करो। यहाँ भी तो आश्रम विभाजन बतलाया ही गया है। संन्यासी होने न होने में पत्नी कहाँ बाधक बन रही है? पत्नी को साथ रखे वानप्रस्थी हो जाओ, फिर संन्यास तो स्वयं ही उतर जायेगा धीरे-धीरे। ‘त्यागना’ और ‘त्यगाजाना’, छोड़ना और छूटजाना में बहुत बड़ा अन्तर है– आसमान और जमीन का सा फर्क है। पतंजलि ने वृत्तियों को रोकने नहीं कहा है- वृत्तियों को निरुद्ध होने की बात कही गयी है- इस विन्दु पर गौर करो।’
यहाँ बाबा की बातें मुझे भी आंशिक रुप से आपत्तिजनक लगी, अतः बोला- कलयुग में भी तो एक से एक संन्यासी हुए हैं- महान शंकराचार्य से लेकर रामकृष्ण और विवेकानन्द जैसे महान पुरुष। क्या इनका निर्णय गलत था?
‘ये कुछ अपवाद हैं-अंगुलियों पर गिने जाने योग्य, और अपवाद नियम की सार्थकता सिद्ध करता है। तुमने ये जो तीन नाम लिए, जरा इनके बारे में कुछ और जान लो- रामकृष्ण तो अन्त-अन्त तक माँ शारदादेवी के साथ रहे, जो उनकी अर्द्धांगिनी थी। असली अर्द्धांगिनी उसे ही कहा जा सकता है। आद्यशंकर तो अपने आप में अभूतपूर्व उदाहरण हैं, बहुत से कार्य उन्होंने ऐसे किए जो संन्यास धर्म के बिलकुल विपरीत है। जानते हो- उन्होंने अपनी माँ को वचन दिया था, जिसे निभाने के लिए अन्तिम अवस्था में उपस्थित हुए, और सामाजिक विरोध का खंडन करते हुए माँ का दाह-संस्कार भी किये, जब कि संन्यासी के लिए अग्नि-स्पर्श भी मना है। संन्यास-आश्रम में रहते हुए गृहस्थों के लिए उन्होंने जो मार्ग दर्शाया, अद्वितीय है। पंचदेवोपासना का सूत्र देकर, देश के चार दिशाओं में चारों धाम की स्थापना करके, राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का जो श्लाघ्य कर्म उन्होंने किया है, उसके लिए आर्यावर्त चिर ऋणि रहेगा। आद्यशंकराचार्य न होते तो आज सनातन धर्म भी शायद न होता। आपस में ही लड़कर मर मिट जाते कृष्ण के वंशजों की तरह। आर्यावर्त की रूपरेखा सम्भवतः और भी बिकृत होगयी रहती, यदि ये न होते। वैष्णव, शाक्त, शैव, सौर्य, गाणपत्य पराम्पराओं ने साधना कम , शास्त्रार्थ और झगड़ा अधिक किया है। एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए। आज भी आपसी विसंगतियाँ बहुत है, फिर भी शंकर के पंचदेवोपासना ने इसे काफी हद तक एकसूत्र में पिरोने में सफलता पायी है। मैं ये कभी सलाह नहीं दूँगा कि सर्वोत्कृष्ट गृहस्थ-जीवन को त्याग कर जंगलों में भाग जाओ, कन्दराएँ पकड़ लो। संसार में रोकने, बाँधने, और छुड़ाने का जो काम करता है, वह है तुम्हारा मन। और ये चंचल मन कन्दराओं में भी तुम्हारे साथ ही रहेगा। सच पूछो तो तुम भागे कहाँ? भाग भी कैसे सकते हो? मन एव मनुष्याणाम् कारणं बन्धमोक्षयोः इस चतुर मन की गति को नियंत्रित करो- यहीं रह कर, पत्नी-पुत्रादि बन्धु-बान्धवों सहित। हमारे शास्त्रों में कितनी अच्छी व्यवस्था सुझायी गयी है- वर्णाश्रम धर्म की। व्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और अन्त में संन्यास। इन चारों आश्रम-धर्मों का सम्यक् पालन करते हुए पुरुषार्थचतुष्टय – धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की सिद्धि करनी है। यही अभीष्ट है मानव-जीवन का।’
मैंने कहा- मन को ही बन्धन और मोक्ष का कारण कहा आपने, और इस पर नियन्त्रण की बात भी कह रहे हैं, किन्तु इसकी चंचलता तो जग-ज़ाहिर है। साधा कैसे जाय इस अड़ियल टट्टू को?
मेरी बात पर बाबा ने कहा- ‘ये समस्या तुम्हारी अकेली नहीं है। कृष्ण के समझाने पर अर्जुन ने भी यही कहा था कि हे कृष्ण, ये मन बड़ा ही चंचल है। इसपर नियन्त्रण करना बहुत कठिन है। दरअसल बात वैसी ही है- जैसे परम्परा से चली आ रही है कि काम मनुष्य का प्रबल शत्रु है, और इस पर मैंने काफी कुछ समझा चुका हूं तुमलोगों को। ठीक वैसे ही बारबार कहा गया है- मन को नियन्त्रित करने की बात। किन्तु मैं कहता हूँ, नहीं...नहीं...मैं क्या कहूंगा शास्त्र कहते हैं, जिसे लोगों ने गलत रुप से समझ लिया है– काम शत्रु नहीं है, वो एक सहज वृत्ति है। उसी तरह मन पर काबू करने की चिन्ता ही फिज़ूल है। मन को दौड़ लगाने दो नटखट बालक की तरह। कुलांचे भरने दो मृग की तरह। तुम बस एक ही काम करो- उस मन को उछलने के लिए जो शक्ति दे रहा है- भोजन दे रहा है- उस प्राण का ध्यान रखो। उसे भी रोकने की बात नहीं कर रहा हूँ। सिर्फ और सिर्फ निरीक्षण करो कि शरीर की जो प्राणऊर्जा है- कैसे क्या हो रहा है उसके साथ। बिना किसी रोक-टोक के, बिना छेड़छाड़ के, सिर्फ देखो और देखते जाओ। थोड़े ही दिनों के अभ्यास से पाओगे कि यह चंचलातिचंचल प्रमाथी मन थक गया है दौड़ लगाकर।’
मन की चर्चा करते हुए बाबा अचानक बाबा रुक गये। जरा ठहर कर बोले- ‘अरे हाँ! तुमलोगों को त्रिकोणयात्रा भी करनी है न?’
जी करनी तो है, पर ये क्या उससे कम पुण्य-कार्य हो रहा है?
‘इन जानकारियों को ज्ञान में बदलो। सिर्फ जानकारियाँ तो उधार जैसी होती हैं, ज्ञान अपना।’-कहते हुए बाबा उठ खड़े हुए- ‘आओ, चलो तुम्हें पहले कालीगोह ले चलता हूँ।’
हमदोनों उठकर, गुफा के मुहाने की ओर मुड़े, जिधर से आये थे। किन्तु तभी, बाबा ने टोका- ‘कोई जरुरत नहीं है बाहर निकलने की, सीधे यहाँ से भी हमलोग वहाँ पहुँच सकते है।’- कहते हुये बाबा खोह के पीछे वाली चट्टान पर हाथ रखते हुए, फिर उसी तरह कुछ मन्त्रोच्चारण करने लगे, जैसा कि अबसे पहले नीचे के दृश्य को दिखाते वक्त किया था। ऐसा करते ही, हमने देखा कि एक साथ दो कार्य सम्पन्न हो गये- एक छोटी सी शिला सरक कर इस मुहाने के मुँह पर आ लगी, जिससे वह अब वैसा भी न रहा कि कोई प्रयास करके प्रवेश कर जाये अन्दर मूर्तियों तक, और दूसरी ओर एक रास्ता भी बन गया, जिससे होकर आसानी से यहाँ से बाहर निकला जा सकता था। हमने झाँक कर देखा, सूर्य का धीमा प्रकाश कुछ छिद्रों से आरहा था। नीचे की ओर उतरने के लिए सीढियाँ तो नहीं बनी थी, किन्तु छोटी चट्टानें इस कदर थी कि सहज ही उन पर पाँव धर कर नीचे जाया जा सकता था।
बाबा आगे बढ़कर खोह में उतर गये। उनके पीछे गायत्री, और उसके पीछे मैं। चार-पाँच पायदान नीचे उतरने पर पतला-लम्बा सा सुरंग दीखा, जो सीधे दाहिनी ओर कुछ दूर तक गया हुआ था। सुरंग की ऊँचाई अधिक न थी, और न चौड़ाई ही। एक साथ दो मोटे आदमियों को चलना मुश्किल होता। हमलोग एक दूसरे के पीछे-पीछे चलने लगे। करीब पचास कदम चलने के बाद बाबा रुक गये, और हाथ के इशारे से बतलाये- ‘अब देखो, यहाँ आकर ये तिमुहानी बन रही है, यहाँ से दायें जाने पर कोई दो घड़ी लागातर पैदल चलोगे, तो असली नन्दजा के प्रांगण में पहुंचोगे। और बायीं ओर जाने पर सौ कदम के बाद ही कालीखोह आ जायेगा।’
गायत्री ने कहा- ‘भैया! तुमने तो अभी कहा था कि नन्दजा, जो असली यशोदा-नन्दिनी हैं, वहाँ तक जाने का रास्ता बड़ा बीहड़ है और खतरनाक भी। फिर वहाँ तक कैसे चल कर दर्शन किया जाय?’
‘बस, इसी कारण तो तुमलोगों को इस गुप्त साधक-मार्ग से ले आया हूँ। इधर से वहाँ पहुँचना बिलकुल निरापद है। इस रास्ते से चल कर हमलोग सीधे यशोदानन्दिनी के गर्भगृह में पहुँचेंगे, और दर्शन करके पुनः इसी रास्ते वापस इस तिमुहानी तक आयेंगे। वैसे भी वह जगह बिलकुल सुनसान सा रहता है। ज्यादातर लोग उस स्थान को जानते ही नहीं, फिर भीड़-भाड़ होने का सवाल कहाँ है।’– कहते हुए बाबा हमलोगों के साथ ही उसी ओर बढ़ चले। तिमुहानी से आगे बढ़ने के बाद रास्ता और भी संकीर्ण हो गया था। किन्तु अजीब बनावट था, सुरंग में भी अन्धकार का नामोनिशान न था। रौशनी किधर से आ रही थी, यह तो पता नहीं चल पा रहा था, किन्तु सूर्योदय से कुछ पूर्व जैसा उजाला सुरंग में सर्वत्र था। ताजी हवा भी मिल रही थी, बिलकुल ठंढ़ी-ठंढी, जबकि घड़ी के मुताबिक वक्त दोपहर का हो चला था।
कोई पौन घंटे लगातार चलने के बाद हमलोग रुके। सुरंग में ही अपेक्षाकृत थोड़ी चौड़ी जगह थी, जहाँ दायें-बायें दोनों ओर एक-एक चुँआड़ बना हुआ था। बाबा ने कहा- ‘यदि प्यास लगी हो तो, उस दाहिने वाले चुँएं से जल निकाल कर पी सकते हो। बिलकुल ही स्वच्छ और शीतल है। वायीं ओर के चुँए में ठीक विपरीत गरम पानी मिलेगा। प्रकृति की अद्भुत लीला है- चार कदम के अन्तराल पर दो चुंए- एक शीतल एक उष्ण। किसी भी मौसम में यहाँ आओगे, जल इसी भांति भरा मिलेगा।’
बाबा के कहने पर हमदोनों ने जल पीया। मैंने देखा- बाबा अपने दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली से शीतल चुंए के जल का स्पर्श किया, और होठों से स्पर्श कर आगे बढ़ गये, यह कहते हुए कि चलो अब चला जाय। अब हमलोग बिलकुल करीब आ चुके हैं।
बाबा का हर काम रहस्यमय ही हुआ करता है। उनका यह जल-पान भी प्रश्न खड़ा कर दिया, किन्तु हर बात में टोक-टाक करना भी अच्छा नहीं लगता। अतः संकोचवश चुप ही रहा।
कोई दस मिनट बाद, हमलोग एक कक्षनुमा स्थान पर पहुँच गये। सामने की चट्टान पर बाबा ने हाथ फेरकर, मन्त्रोच्चारण करते हुए, उसी भाँति एक छोटे टुकड़े को खिसका दिया, जहाँ से होकर सीधे गर्भगृह में हमलोग पहुँच गये। घुटने भर की ऊँचाई वाले छोटे से चबूतरे पर कोई हाथ भर की मूर्ति बिराज रही थी- बिलकुल मोहक अन्दाज में- ऐसा लग रहा था मानों भयभीत बालिका आ दुबकी हो इस चट्टान की ओट में, और गर्दन टेड़ी करके, टोह ले रही हो अपने शत्रु का।स्थान बिलकुल ही संकीर्ण था, किन्तु नीरव, शान्तिपूर्ण। हमतीनों बैठ गये आसन मारकर। बाबा ने बताया- ‘कृष्ण की साधना के लिए इससे बढ़िया और कोई स्थान क्या होगा? ये तो साक्षात् कृष्ण प्रेरित महामाया हैं। चलो एक काम करो तुमदोनों – करमाला की जानकारी है कि नहीं?’
गायत्री ने कहा- ‘जानकारी तो है भैया, किन्तु अभ्यास नहीं रहने के कारण प्रायः भूल जाती हूँ कि पुरुष और स्त्री मन्त्रों के लिए भेद कैसे करुं।’
गायत्री की बात से मैं जरा चौंका- पुरुष और स्त्री मन्त्र या कि पुरुष और स्त्री के लिए माला की भिन्नता- क्या कहना चाहती हो?
गायत्री मुस्कुरायी- ‘लो भैया, अब इन्हें समझाओ जरा। इनको लग रहा है कि मैं कहना कुछ चाह रही हूँ, और कह कुछ और रही हूँ। ठीक कहते हो तुम- ये अखबार वाले बाल की खाल खींचते रहते हैं। इनको ये भी नहीं पता कि करमाला में किंचित स्थान भेद होता है- देवताओं के लिए और देवियों के लिए मन्त्र-जप करने हेतु।’
‘गायत्री ठीक कह रही है- ये भी सही है कि मन्त्रों का भी लिंग होता है; किन्तु यहाँ उसकी बात नहीं हो रही है। वो तो और भी गहन विषय है। यहाँ बात हो रही है, सिर्फ देव-देवी मन्त्रों के जप की। मनकों वाली माला में जिस तरह सुमेरु की मर्यादा है, जिसका उलंघन सर्वथा वर्जित है; उसी भाँति यहाँ करमाला में भी तो सुमेरु का विचार होगा ही न। माला है तो सुमेरु भी होना ही है। गणना का प्रारम्भ तो देव या देवी किसी भी मन्त्र में दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली के मध्य पोरुए से ही करेंगे- यही १ हुआ, अनामिका का ही निचला पोर २, तथा अब कनिष्ठा के निचले को ३, मध्य को ४, अग्र को ५ गिनेंगे। पुनः अनामिका के अग्र पर आ जायेंगे ६ गिनकर, और अब मध्यमा के अग्र पर ७, मध्य ८, निम्न ९, और तर्जनी का निम्न १० के रुप में गणित होगा। इस प्रकार देखते हो कि तर्जनी का मध्य और अग्र अनछुआ ही रहा गया। इसका स्पर्श कदापि नहीं होना चाहिए जप के बीच। दस तक की गणना के बाद अंगूठे को अंगुलियों के जड़ों से सटाये हुए सरकाकर पुनः अनामिका के मध्य यानि निर्दिष्ट संख्या १ पर लायेंगे, और फिर उसी भांति २, ३, ४ गिनते हुए १० तक पहुँचेंगे। यहाँ इस बात का भी ध्यान रखना है कि अंगुलियों के पोरुओं का उलंघन कदापि नहीं होना चाहिए वापसी क्रम में। इस प्रकार १० की १० आवृत्ति हो जाने के बाद, शेष आठ के लिए दोनों ओर से एक-एक स्थान छोड़कर ही ८ की गणना करेंगे। इस प्रकार १०८ की करमाला पूरी हो गयी। इस करमाला का प्रयोग समस्त शक्ति (देवी) मन्त्रों के लिए किया जा सकता है। देवमन्त्रों के लिए प्रयुक्त करमाला में किंचित भेद है- गणना प्रारम्भ तो वहीं से करेंगे, फर्क सिर्फ सुमेरु का है। क्रमांक ७(मध्यमा का अग्र पोर)के बाद तर्जनी के अग्र पोरुये पर चले जायेंगे- ये ८ हुआ, ९ के लिए तर्जनी का मध्य, और क्रमांक १० पूर्ववत ही रहेगा- तर्जनी का अन्तिम पोरुआ। इस प्रकार देवमन्त्रों की कर माला में मध्यमा का मध्य और अन्तिम पोरुआ सुमेरु होता है।’
मैंने प्रसन्न होते हुए कहा- ये तो बड़ी ही महत्त्वपूर्ण जानकारी दी आपने।