बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 26 / कमलेश पुण्यार्क
‘महत्त्वपूर्ण तो है ही, अभी इसका कुछ और भी रहस्य जानो।’- बाबा ने कहा- ‘वाम-दक्षिण दोनों साधना विधियों में इसका बहुत ही महत्त्व है। आमतौर पर अलग-अलग मन्त्रों के लिए अलग-अलग मालाओं की बात कही जाती है, जैसे- लक्ष्मी के लिए कमलगट्टा का माला, चन्द्रमा के लिए मोती, बगला के लिए हल्दी, दुर्गा-काली के लिए रक्त चन्दन, विष्णु के लिए तुलसी या मलयगिरि चन्दन। क्रूरकर्मों के लिए घोड़े के दांतों की माला का प्रयोग होता है, सौम्य कर्मों के लिए मोती या शंख की माला का प्रयोग बतलाया गया है। और ये सब कह करके भी, रुद्राक्ष को सर्वग्राहिता का स्थान भी दे दिया गया है। किन्तु करमाला का महत्त्व तो अवर्णननीय है- दक्षिण-वाम दोनों के लिए अत्यन्त जागृत माला है- यह तो सीधे नरास्थिमाला है न! इसके महत्त्व और रहस्य का कितना हूँ बखान किया जाय कम ही है। अन्यान्य मालाओं पर हजार जपकरो, और करमाला को सिद्ध करके, एक माला जप करो, दोनों का फल समान है। ठीक उधर, जैसे कि वाचिक, उपांशु, और मानसिक जप का उत्तरोत्तर महत्त्व है। योग और तन्त्र में एक और भी रहस्यमय माला का प्रयोग होता है- मातृकामाला का। खैर उसकी चर्चा कभी बाद में की जायेगी। अभी तो तुमलोग इस करमाले का ही प्रयोग करो। कृष्ण-भगिनी के दरवार में आये हो, तो ध्यान और न्यासान्तर से नवार्ण के तीसरे बीज- क्लीँकार का स्मरण तो करना ही चाहिए न। इस महामन्त्र की महिमा तो पहले ही काफी कुछ बता चुका हूँ तुमलोगों को।’
‘हाँ भैया! कामदेवबीज की तो काफी चर्चा हुई है। तो क्या कृष्ण-न्यास-ध्यान सहित देव करमाला पर इसे कर लूँ? और फिर इसे ही न्यास-ध्यान भेद से देवी करमाला पर भी, ताकि कृष्ण के साथ-साथ माँ भारती या कहें यशोदानन्दिनी का भी स्मरण हो जाये?’- गायत्री ने सवाल किया।
बगल में बैठी गायत्री की पीठ ठोंकते हुए बाबा ने मेरी ओर देखते हुए कहा- ‘देखा, मेरी बहना कितनी बुद्धिमती हो गयी है?’
मैंने मजाक में ताड़ते हुए कहा- अब आप पीठ ठोंक कर इसे इतना न बुद्धिमती बना दें कि हमें कुछ गदाने ही नहीं। वैसे भी धर्म-कर्म के मामले में हमें कमअक्ल ही समझती है।
‘चलो कोई बात नहीं, बुद्धि की पिटारी मेरे पास रही कि तुम्हारे पास, क्या फ़र्क पड़ना है! फिलहाल तो इस पर बहस बेकार है। अभी तो ध्यान-जप में लग जाओ।’
स्थान का प्रभाव, बाबा का सानिध्य, जगदम्बा की कृपा- कारण चाहे जो भी हो, ध्यान और जप में अद्भुत आनन्द आया। जिस न्यास का संकेत बाबा ने किया था, सच में न्यस्त हो गया मन-प्राणों में। अब से पहले भी कई बार न्यासों का प्रयोग किया था, किन्तु आज का न्यास झंकृत कर गया सम्पूर्ण कायसौष्ठव को। इस प्रकार करीब घंटे भर से अधिक गुजर गये वहीं, नन्दजा के दरबार में ही। गायत्री की इच्छा जरा भी न हो रही थी, यहाँ से चलने को। किन्तु अभी कालीखोह, और अष्टभुजी दर्शन बाकी ही है। अतः मन मसोस कर उठ खड़ा हुआ- तो अब चला ही जाय।
बाबा भी उद्दत हुए चलने को। पूर्व रास्ते से ही वापस चलते हुए उसी तिमुहानी पर पहुँचे, जहाँ से एक रास्ता मूलप्रकृति राधा-स्थान को जाती थी, और दूसरी ओर जाने पर कालीखोह।
यहाँ से कालीखोह बहुत करीब ही था। यहीं पर संकटमोचन स्थान भी है। कालीखोह कहने को तो खोह है, पर इससे अधिक खोहों से तो हमलोग अभी-अभी गुजर कर आये हैं। उसकी तुलना में यह कुछ भी नहीं। मां काली के स्थान में भीड़-भाड़ भी अपेक्षाकृत कम ही थी उस दिन। यहीं पास में ही एक गोस्वामी परिवार रहता था, जो बाबा का पुराना सम्पर्की जान पड़ा। देखते ही आगे बढ़कर बाबा को दण्ड-प्रणाम किया, और आदर सहित भीतर ले गया।
कुछ देर वहाँ गुजारने के बाद हमलोग कालीमन्दिर में आ गये दर्शन हेतु। माँकाली की दिव्य प्रतिमा बड़ी ही तेजपूर्ण प्रतीत हुयी। बाबा ने कहा- ‘यहाँ भी थोड़ी देर आसन मार लो, और सप्तशती के प्रथम बीज का कम से कम एक माला जप कर लो। तृतीय बीज तक पहुँचाने में यह प्रथम बीज ही मार्गदर्शक बनता है। इस सम्बन्ध में एक बड़ा ही रोचक प्रसंग है- नारद-ब्रह्मा संवाद में। एक बार नारदजी अपने पिता ब्रह्मा के पास पहुँचे और साधना के गूढ़तम मन्त्र की दीक्षा हेतु निवेदन किये। प्रसन्नचित ब्रह्मा ने नारद की भक्ति से प्रमुदित होकर उन्हें सीधे वह अमोघ कल्याणकारी बीज मन्त्र प्रदान किया, जिससे रासेश्वरी के दिव्यधाम में सीधे प्रवेश मिलता है। प्रफ्फुलित नारद वहाँ से चल दिये, पिता प्रदत्त मन्त्र का मानस जप करते हुए।
‘देवर्षि नारद तो बहुधन्धी ठहरे। संसार के कल्याण हेतु, देवताओं के अटके काम बनाने हेतु प्रायः उनका ही सहयोग लिया जाता रहा है। ब्रह्माजी से विदा होने के थोड़े ही क्षण बाद नारद देव-कार्यों में व्यस्त हो गये, परिणामतः पिता द्वारा दिया गया बीज मंत्र विस्मृत हो गया। देवों का कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् जब उन्हें ध्यान आया अपने उद्देश्य का तो बहुत ही व्याकुल हुए। पुनः पिता के पास निवेदन करने पहुँचे।
‘इस बार ब्रह्माजी ने सप्तशती का प्रथम बीज उन्हें प्रदान किया, और साथ ही हिदायत किया कि लापरवाही में इसे भी भूल न जाना। पिता को प्रणाम कर नारद प्रसन्न चित्त वहाँ से प्रस्थान किये। पूर्व की भांति ही प्राप्त मन्त्र का मानसिक जप करते हुए। अभी वे ब्रह्मलोक की सीमा में ही थे कि उन्हें ज्ञान हो आया- अरे! इस बार तो पिताजी ने कोई और ही मन्त्र दे डाला। या तो उन्हें देने में भूल हुई या कि...। ऐसा इसलिए हुआ कि इस बीच ब्रह्माजी द्वारा दिया गया पुराना मन्त्र- क्लीँबीज का स्मरण हो आया था। अतः तुरत पलट पड़े, पिता के श्रीचरणों में निवेदन करने।
’ इतनी जल्दी वापस आने का कारण पूछा ब्रह्मा ने। नारद ने कहा- “पिताजी! आज जो मन्त्र आपने दिया मुझे, वह तो वह मन्त्र नहीं है, जो पहले दिया था, क्यों कि थोड़ी ही दूर जाने पर मुझे स्मरण हो आया उस पुराने मन्त्र का। क्या आपने भूल से ये नया मन्त्र दे दिया था?”
‘नारद की जिज्ञासा पर पितामह ब्रह्मा ने कहा- “नहीं मैं भूला नहीं हूँ। मैंने जानबूझ कर ये नया मन्त्र तुम्हें दिया हूँ। भूल तो मुझसे पहली बार हुई थी कि पुत्र-मोह में मैं वह महामन्त्र दे दिया था, जिसके तुम अभी अधिकारी ही नहीं हो। यही कारण है कि वह मन्त्र स्वयं ही भूल गये तुम।”
‘नारद ने नम्रता पूर्वक कहा- “आपके दिये इस नये मन्त्र का निरंतर जप
करते हुए मैं मार्ग में चला जा रहा था, तभी अचानक मुझे भान हुआ कि पिछली बार तो आपने कुछ और ही मन्त्र दिया था, और फिर थोड़ा और एकाग्र होने पर उस महामन्त्र का स्वतः स्मरण भी हो आया।”
‘नारद की बात पर मुस्कुराते हुए पितामह ने कहा- “यही तो विशेषता है इस ऐंकार बीज की। साधक को अभिज्ञानित कर देता है- अपने कर्तव्य का, और आगे का मार्गदर्शन भी करा देता है।”
बाबा की बातों का रहस्य और संकेत मैं समझ गया। उनके कथन का अभिप्राय था कि हठात् क्लींकार की साधना करने से विचलन भी हो सकता है। ध्यान देने की बात है कि सप्तशती क्रम में भी इसके पहले दो और बीज आ चुके हैं। अति उच्चकोटि के साधक ही सिर्फ सीधे इस तीसरे बीज से साधना प्रारम्भ कर सकते हैं।
मैं गायत्री के साथ माँकाली के समीप आसन लगा लिया। बाबा पुनः बाहर निकल गये यह कहते हुए कि जप-ध्यान के बाद वहीं गोस्वामी के निवास पर आ जाना, फिर अष्टभुजी चला जायेगा।
कहने को तो बाबा ने कम से कम एक माला जप का ही आदेश दिया था,
जो चन्द मिनटों का काम था, किन्तु जप के बाद ध्यान में तन्मयता ऐसी बनी कि घंटा भर समय गुजर गया, फलतः आशा देखकर, बाबा को ही वापस आना पड़ा।
‘जागिये प्रभु!’– पीठ पर बाबा के मृदुल हथेली का स्पर्श पाकर आँखें खुली। बाबा पूछ रहे थे- “कैसा रहा जप और ध्यान?”
अवर्णननीय। कोई शब्द नहीं मेरे पास– मैंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।
‘बस, अब और कुछ नहीं। सांसारिक जंजालों से थोड़ा समय चुराकर, लग जाना है इसी धुन में। मौका मिला तो और भी कुछ मार्गदर्शन कर दूँगा इसी यात्रा में। साधना प्रारम्भ करने का विन्ध्याचल से अच्छा और कौन स्थान हो सकता है? सौभाग्य से यहाँ पहुँच गये हो, और मातेश्वरी की कृपा से मैं पहले ही आ गया था यहाँ।’
‘हाँ भैया! कुछ रास्ता दिखाओ इन्हें। इनका मार्ग अवरुद्ध है, जिसके कारण मेरे विकास में भी बाधा आती है। सीधे तौर पर कुछ करने से रोकते तो नहीं, किन्तु अज्ञानवश अनास्था है, और इस कारण साधना का उपहास करने में चूकते नहीं। इनका उपहास बहुत खल जाता है मुझे। मैं निराश हो जाती हूँ, कभी-
कभी हताश हो जाती हूँ।’- गायत्री ने शिकायत की।
‘कोई बात नहीं। अब धीरे-धीरे सब दुरुस्त हो जायेगा। पहले अच्छे ‘काम’ की चिन्ता थी- सांसारिक निर्वहण के लिए। वह तो रासेश्वरी की कृपा से पूरी हो गयी। अतः अब ‘धाम’ की चिन्ता करो। कछुए की तरह समेटो संसार को, और चल पड़ो मूलधाम की यात्रा में।’
मैंने बाबा के समक्ष दोनों हाथ जोड़कर निवेदन किया- जी! आपकी कृपा बनी रहनी चाहिए, रासेश्वरी तक पहुँचाने का मार्ग तो स्वतः ही प्रशस्त हो जायेगा।
बाबा ने आँखें तरेर कर हाथ हिलाते हुए कहा- ‘चतुराई न दिखाओ। केवल मेरी कृपा से कुछ होना-जाना नहीं है। मैं सिर्फ कदम बढ़ाने को प्रेरित कर सकता हूँ, गलत कदम न पड़ जायें- इसके लिए सावधान कर सकता हूँ; किन्तु जीवन-पथ पर चलना तो तुम्हें ही होगा न? वो भी दृढ़ संकल्प पूर्वक, अन्यथा कोई दूसरा उपाय नहीं है।’
दिन ढलने लगा था, जब हमलोग कालीखोह से बाहर निकले। थोड़ी चढ़ाई के बाद ज्यादा उतार ही उतार था उसके आगे। अष्टभुजी पहँचते-पहुँचते अपराह्न के तीन बजने लगे। भीड़-भाड़ कोई विशेष नहीं था, इस कारण यहाँ भी शान्त और एकान्त मिल गया। छोटे से मोके जैसे स्थान में देवी की सुन्दर मूर्ति प्रतिष्ठित थी। वातावरण कालीखोह से भी अधिक सुहावना और आनन्ददायक प्रतीत हुआ। बाबा ने कहा- यहाँ भी थोड़ी बैठकी लगा लो, और सप्तशती के दूसरे बीज का जप कर लो।
हम तीनों बैठ गये। आधे घंटे बाद ध्यान-जप से निवृत हुए तो, गायत्री ने अपनी अनुभूति की चर्चा छेड दी- ‘भैया! यूँ तो सभी स्थान एक से बढ़कर एक हैं, किन्तु न जाने क्यों यहाँ मुझे कुछ खास प्रतीत नहीं हुआ। सबसे आकर्षक और आनन्ददायक लगा था तुम्हारे उस गुप्तखोह वाली रासेश्वरी मूर्ति के पास। लगा कि एकदम रासेश्वरी की गोद में ही बैठी हूँ- दिव्य अनुभूतियों से आप्लावित होकर। उसके बाद कालीखोह का ध्यान-जप भी बहुत ही सुखद अनुभूति वाला रहा, किन्तु यहाँ वस वैसा ही जितना कि आमतौर पर घर में बैठने पर कभी-कभी एकाग्रता स्वतः बन जाती है। परन्तु एक बात मैं कहना चाहूँगी कि जो अनुभूति प्रयाग के भारद्वाज आश्रम में मिली, वो और कहीं नहीं, उसका स्वाद ही कुछ और था। मैं तब से ही आपसे वार्ता के लिए लालायित हूँ। आखिर क्या देखा-अनुभव किया मैंने?’
गायत्री की बातों को मनोयोग पूर्वक सुनते हुए बाबा ने कहा- ‘क्रिया में
तन्मयता का तो महत्त्व है ही, किन्तु स्थान का भी अपना योगदान होता है- प्रभाव होता है। ये सब स्थान अपेक्षाकृत अधिक सार्वजनिक हो गये हैं। यहाँ का आभामंडल कई तरह से प्रभावित है, किन्तु वो जो दो स्थानों पर मैं ले गया, अपेक्षाकृत बहुत अधिक चैतन्य है। मूलप्रकृति का स्थान तो अतिशय दिव्य है ही। वैसे भी वहाँ आमजन का प्रवेश असम्भव है। साधकों में भी बहुत कम ही हैं, जो वहाँ तक जाते हैं, या कहें जा पाते हैं। वो तो मेरे गुरुमहाराज की कृपा है कि सभी दिव्य स्थानों का भ्रमण करा दिया है उन्होंने। उनके साथ विध्याचल के अन्तः त्रिकोण, जो कि अन्दर झांक कर मैंने तुमलोंगों को दिखलाया, की कई बार यात्रायें पूरी की है, मैंने उनके मार्गदर्शन में। आज भी तुमलोंगो के साथ होने के बजह से बाहर-बाहर चल रहा हूँ ज्यादातर, अन्यथा इधर बाहरी मार्ग से कभी आता भी नहीं हूँ। भीतरी गुप्त मार्ग से पूरे त्रिकोण की यात्रा के योग्य अभी तुमलोगों का शरीर नहीं हुआ है। फिर भी जहाँ तक सम्भव था, तुमलोगों को दिखा दिया। अकेले उन मार्गों में जाने का कभी प्रयास भी न करना, वरना बहुत परेशानी में पड़ जाओगे, जान भी जा सकती है।’
थोड़ी देर और, अष्टभुजी के पास रुकने के बाद, चल पड़े त्रिकोण-यात्रा के अन्तिम पड़ाव- पुनः गंगा किनारे वाली विन्ध्यवासिनी मन्दिर की ओर। रास्ते में गायत्री ने पुनः अपनी बात छेड़ी। उसके मन में कई तरह के सवाल चल रहे थे, रात सोते समय भी उन्हीं खयालों में वह डूबी रही थी। जब तक जगी रही मुझसे घुमा-फिरा कर भारद्वाज आश्रम की अनुभूतियों की ही चर्चा करती रही थी। प्रयाग का प्रसंग अभी भी उसका पीछा नहीं छोड़ा था- सारे प्रश्न एक साथ बाबा के समक्ष रख कर उसका उत्तर चाह रही थी। सवाल तो मेरे पास भी थे, जिसमें सर्वाधिक उत्सुकता पैदा किये हुए था- ध्यान में बाबा का दर्शन और घंटे की तीब्र ध्वनि।
अष्टभुजी से बाहर निकलते ही मैंने पूछ दिया बाबा से- ‘महाराज! भारद्वाज आश्रम में मैं एक अद्भुत दृश्य देखा, उसके विषय में कुछ सवाल घुमड़ रहे हैं मेरे मस्तिष्क में।’