बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 27 / कमलेश पुण्यार्क
मुस्कुराते हुए बाबा ने कहा- ‘तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा, किन्तु साधना जगत के लिए यह बहुत ही सामान्य सी बात है। क्षणिक रुप से कहीं व्यूह रचना कर देना, स्वयं को आभाशित कर देना, कोई बहुत बड़ी बात नहीं। धारणा की गहराई में थोड़ा उतरते ही ये सब होना सम्भव है। अब उस बार जैसे तुम्हारे नये दफ्तर में मैं अचानक पहुँच गया था, और तुम्हें आश्चर्य हुआ था- इस विषय पर तो मैं काफी कुछ समझा गया था तुमलोगों को, बस उसी का थोड़ा विकसित रुप समझो। हाँ, इस तरह से व्यूह-रचना करके अधिक देर तक कहीं रुके रहना, या रोकना साधकों के लिए उचित नहीं है। अन्ततः मैं भी तो अभी साधक ही हूँ न, कोई सिद्ध तो हुआ नहीं। जिस प्रकार दो दिनों से निरंतर तुम्हारी चेतना मुझे याद कर रही थी, और तुम्हें साधना का कुछ भी अभ्यास न होने के बावजूद, तुम्हारा संदेश मुझ तक पहुँच गया, उसी भांति अपनी चेतना को थोड़ा गहरे में ले जाकर, मैंने भी वह दृश्य दिखाया। भारतीय साधना पद्धति में एक से एक अद्भुत चीजें है ऐसी। इस सम्बन्ध में झ़ेनसाधकों के बारे में थोड़ी चर्चा अप्रासंगिक न होगी। जापान में साधकों का एक वर्ग है, जो अद्भुत साधनायें करता है। गुरु अभ्यास कराता है- आँखें बन्द करके हरियाली, रौशनी, अन्धकार आदि का अनुभव करना तो बहुत आसान है, किन्तु सर्दी-गर्मी का भी, भय, आनन्द, हास्य, लज्जा आदि मनोंभावों का भी अभ्यास कराया जाता है। कल्पना करो कि तुम्हें सर्दी लग रही है, कल्पना करो कि तुम्हें गर्मी लग रही है। और यह कल्पना एकदम घनीभूत हो जाती है। एकान्त निर्जन स्थान में भूत-प्रेत हों या नहीं, उसकी याद मात्र ही रूह कंपा देती है, दुर्बल इन्सान की। आनन्द का स्रोत समीप हो या नहीं, कल्पना मात्र से ही हम आनन्दित हो उठते हैं। उसी भांति सर्दी-गर्मी की गहन अनुभूति भी करनी होती है साधकों को। साधक कितनी गहराई में उतरने में सक्षम है- यह उसकी दैहिक स्थिति से कोई अन्य भी भांप सकता है। सर्दी लग रही है, तो शरीर कांपने लगेगा, गर्मी लग रही है तो शरीर पसीने से लथपथ हो जायेगा। तुम्हें सुन कर यकीन नहीं होगा- जापानी झेन साधकों में अन्तिम परीक्षा की घड़ी आती है, तो ऊष्मा की ऐसी गहन अनुभूति करनी होती है कि सिर्फ पसीना ही नहीं निकलता, बल्कि शरीर पर फफोले भी निकल आते हैं। और तब जाकर गुरु का आशीष मिलता है। तब उसे आगे की साधना सिखलायी जाती है। मन्त्र जपते-जपते, ध्यान करते-करते साधक स्वरुपवान होने लगता है- उसे वही कुछ दीखने लगता है- जो वह देखने का प्रयास करता है। प्रारम्भ में तो बहुत सी अवांछित, अपरिचित चीजें भी दिखलायी पड़ती हैं। कभी-कभी साधक भयभीत भी हो उठता है। विचलन भी होने लगता है। इसलिए पग-पग पर योग्य गुरु की आवश्यकता प्रतीत होती है। ठीक है कि कोई परेशानी न हो, किन्तु यदि होगी, तो फिर उसे सम्हालेगा कौन- यदि गुरु का सानिध्य न हुआ। यही कारण है कि विशेष साधना में चाहे वह तन्त्र की हो या कि योग की गुरु दीक्षा, और गुरु सानिध्य आवश्यक है। हाँ, सानिध्य की अपनी सीमा और स्थिति भी है। कोई जरुरी नहीं कि हमेशा गुरु बगल में बैठा ही रहे, किन्तु जरुरत पड़ने पर आसानी से प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क साधा जा सके- इतना ज्ञान तो होना ही चाहिए। साधना जगत में प्रायः ऐसा भी होता है कि गुरु स्थूल शरीर में हो, ना हो, शिष्य को उसका सानिध्य मिला करता है, वशर्ते कि उसकी शारीरिक, मानसिक क्षमता उस योग्य हो।’
जरा दम लेकर बाबा कहने लगे- ‘ये बड़े सौभाग्य की बात है कि हमलोग बिहारी हैं। ये बिहार नामकरण तो बौद्धकालीन संस्कृति के प्रभाव से हुआ है। किन्तु मगध, चेदि, कुण्डिनपुर, राजगृह आदि और भी प्राचीन नाम हैं, जो इसी क्षेत्र में हैं। कृष्ण-पुत्र शाम्ब ने शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को अपने राज्य का यही हिस्सा विशेष कर प्रदान किया था। सच पूछो तो समूचा प्रान्त ही साधना स्थली है। साधना से यहाँ सिर्फ तन्त्र-योग ही मत समझ लेना, महान ज्योतिर्विद आर्यभट्ट का खगोलशाला (वेधशाला) पाटलीपुत्र के समीप खगौल ही रहा है, जो वर्तमान में दानापुर खगौल के नाम से ख्यात है। खासकर इसका मगध क्षेत्र एक से एक साधकों का गढ़ रहा है। मगध के ही वर्तमान औरंगाबाद जिले के एक साधक की घटना तुम्हें सुना रहा हूँ। औरंगाबाद के पास भैरवपुर की पहाड़ियों में भी कई गुफाएँ हैं, जो साधकों के लिए बड़े उपयोगी है। वहीं महाभैरव के एक साधक साधना रत थे।’
अचानक गायत्री पूछ बैठी - ‘भैया! ये ‘भैरव’ भैरवी साधना वाले या कि कोई और हैं?’
बाबा ने स्पष्ट किया- ‘शक्ति के कई स्वरुप हैं। शक्ति हैं तो उनके भैरव भी होंगे ही। वहाँ भैरवी साधना में साधक-साधिकायें स्वयं को उस रुप में स्थापित कर, कामजयी होकर, साधना करते हैं। वह साधना हमेशा भैरवीचक्र में की जाती है, जहाँ साधकों का समूह होता है; किन्तु ये भैरव-साधना की बात कर रहा हूँ, न कि भैरवी साधना की। यहाँ साधक एक साधक के रुप में अकेले, एकान्त में होता है, और भैरवमन्त्र की साधना करता है। ये साधना तीन, सात, नौ, अठारह, इक्कीस, या तैंतीस दिनों की होती है। साधना सम्पन्न हो जाने पर, परीक्षा-काल में महाभैरव अपने रौद्ररुप में, अति भयंकर आकृति में साधक को दर्शन देकर मनोवांछित वर प्रदान करते हैं। ये भैरव भी मुख्यतः आठ प्रकार के होते हैं- कालभैरव, बटुकभैरव, महाभैरव आदि। भैरवपुर नामक स्थान खास कर इस साधना के लिए किसी जमाने में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। इन्हीं की साधना में वे बिहारी द्विज महाशय संलग्न थे। सत्रह दिनों की क्रिया पूरी हो चुकी थी। बस अब अन्तिम चरण का जप पूरा करना था। एकान्त गुफा में सतत साधना-लीन विप्र ने अचानक देखा कि विशाल गुफा के बाहर पीपल का एक दरख्त है। गर्मी की दोपहर , चारों ओर सुनसान, भांय-भांय करती लू चल रही है। वैसे भी बिहार प्रान्त गर्मी की जानलेवा लहरों के लिए प्रसिद्ध है। पहाड़ियाँ गरम होकर और भी कष्टप्रद हो जाती हैं। वैसी ही भीषण गर्मी से बचने के लिए नटों का एक परिवार वहाँ आकर दोपहरी में टिक गया। पंडित जी की आँखें खुली उनकी आहटों से, तो मन ही मन भुनभुनाये- हूँ, इन चांडालों को भी आज ही आना था, और यही जगह मिली थी खेमा गाड़ने को। किन्तु कर ही क्या सकते थे। साधना से उठ कर उन्हें मना भी तो नहीं किया जा सकता, और क्या जरूरी है कि वे मान ही जाए...।
‘...खैर, पंडितजी को इतना ही संतोष था कि वे एकान्त गुफा में थे, और गुफा भी अन्धेरी थी। बाहर पीपल के पास चहल-पहल करते नटों को इनके बारे में कुछ पता चलना नामुमकिन है। सो वे अपने काम में लगे रहे। किन्तु ध्यान तो किंचित विचलित हो ही चुका था। जप करते हुए ही, उनकी गतिविधियों पर भी ध्यान बना हुआ था। सबसे पहले उनलोगों ने खूंटा गाड़ कर अपने दो-तीन भैंसों को बांधा, उन्हें कुछ चारा डाल दिया, और वे अपने लिए खेमा गाड़ने लगे। फिर बड़ी सी खंती से मिट्टी खोद कर, छोटा गड्ढा बनाया, चूल्हे के लिए। चूल्हा जल गया, हाड़ी चढा दी गयी। बस थोड़ी ही देर में भोजन भी तैयार हो जाना था। इसी बीच उनके साथ का एक आठ-नौ साल का बच्चा अचानक रोने-चीखने लगा। माँ ने रोने का कारण पूछा, तो उस बच्चे ने कहा कि जोरों की भूख लगी है, बहुत दिन हो गये कुछ खाया-पीया नहीं हूँ। खाना पकने में अभी बहुत देर है, पेट में कलछुल फिर रहा है, बहुत जोर का दर्द है...।
‘...माँ ने कहा कि ज्यादा तकलीफ है, तो तब तक भैंस के बच्चे को ही खाले, कुछ राहत मिल जायेगी। माँ के आदेश का पालन करते हुए बच्चे ने चमचमाता हुआ बलुआ (लोहे की गड़ासी) उठाया, और एक ही बार में भैंस के पाड़े का काम तमाम कर दिया। और फिर उसे नमक-मिर्च की भी जरुरत न महसूस हुई, कच्चे ही चबा गया, थोड़ी देर में। पाड़ा खाकर, कुछ देर तो शान्त रहा बच्चा, पर फिर शोर मचाना शुरु किया। इस बार माँ ने कहा कि पाड़े से पेट नहीं भरा तो एक भैंसा ही खाले। बच्चे ने वही किया, जो माँ ने सुझाया, किन्तु इससे न बच्चे की क्षुधा तृप्त हुई, और न माँ का अगला आदेश ही रुका। परिणाम ये हुआ कि घड़ी-दो घड़ी में ही तीनों भैंसे हजम कर गया, और अब बारी थी बाप(नट)की, क्योंकि माँ ने उसे ही खाने का आदेश दे दिया था। थोड़ी ही देर में बाप भी उसकी जठराग्नि की आहुति चढ़ गया, पर छटपटाहट जारी ही रही। माँ ने झल्ला कर कहा- “अब क्या मुझे खायेगा?” बच्चे ने कहा- “नहीं माँ तुझे कैसे खा सकता हूँ, तुम तो मेरी माँ हो, परन्तु मुझे आश्चर्य होता है कि इतना कुछ खिला दी तुम, और वो गुफा में दुबका बैठा पंडित तुम्हें नजर नहीं आया? उसे पहले ही खा लिया होता तो मेरी ये दुर्दशा न होती। पाड़ा, भैंस, भैंसा, बाप सब बच गये होते।” बच्चे की बात पर माँ बहुत खुश हुई, और बोली- “अरे हाँ, मुझे ध्यान ही नहीं आया कि वहाँ एक पंडित बैठा है। वह तो तुम्हारा सबसे प्रिय भोजन हो सकता है।” - माँ का आदेश मिलना था कि बच्चा दौड़ पड़ा बलुआ चमकाते गुफा की ओर। पंडितजी के तो होशोहवाश उड़ गये। कहाँ माला, कहाँ आसन...फेंक-फाँक कर दौड़ पड़े बाहर, और फिर दौड़ते ही रहे काफी देर तक, जब तक कि एक ग्रामीण ने जबरन उन्हें दबोच न लिया। दरअसल पिछले कई दिनों से घर-परिवार उनकी खोज में वेचैन था।’
‘तो क्या पंडितजी सच में डर गये उस नट से?’-गायत्री ने पूछा।
‘क्यों नहीं डरते। डरना स्वाभाविक था, किसी के पीछे कोई बलुआ लेकर दौड़ेगा तो भय तो होना ही है न, और वो भी ऐसा व्यक्ति जो तीन भैंस और अपने बाप को भी खा चुका हो।’- गायत्री के संशय को दूर करते हुए मैंने कहा। किन्तु बाबा मुस्कुराये मेरी बातों पर, और बोले- ‘क्या समझते हो सच में ऐसा कुछ था, या हो रहा था? नहीं, ऐसा प्रत्यक्ष कुछ भी नहीं था। ये सब साधना की परीक्षा थी। महानट तो भोलेनाथ हैं- महाभैरव, और महाभैरवी हैं उनकी सहधर्मिणी भगवती। सारा प्रपंच उन्हीं का है। ये जो वटुकभैरव हैं उन्हीं की विभूति हैं। साधक की परीक्षा हो रही थी, जिसमें वह अनुतीर्ण रहा। भैरव की साधना करने वाले को मृत्यु का भय सता ही दिया तो फिर सिद्धि की कल्पना ही क्यों? सिद्धि तो मिली नहीं, ऊपर से मिला आजीवन पागलपन। लम्बे समय तक वह साधक विक्षिप्त सा जीवन गुजार कर इहलीला समाप्त किये।’
भैरवसाधक की करुण कथा सुन कर, बड़ा अजीब लगा। इस घटना से यह भी ज़ाहिर होता है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से, स्थूल न भी हो, तो सूक्ष्म रुप से गुरु अनिवार्य है। गुरुपरम्परा नामक प्राचीन ग्रन्थ में गुरुओं की महिमा और परम्परा का विशद वर्णन मिलता है। संयोग से एक बार इस पुस्तक को गायत्री के मैके में, यानी कि अपने ससुराल में पढ़ने का अवसर मिला था, जिसमें बहुत सी रहस्यमय बातें थी साधना सम्बन्धी, किन्तु किसी योग्य व्याख्याता के अभाव में अधिक कुछ जान समझ न सका।
बाबा ने गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हुए आगे कहा- ‘योग्य गुरु का सच में अभाव सा हो गया है, और दूसरी ओर ये भी कह सकते हो कि योग्य शिष्य का भी उतना ही अभाव है, या कहो, और अधिक। आजकल तो ये गुरुपरम्परा विशुद्ध बाजारवादी हो गया है। मठों, आश्रमों का बाजार है, जहाँ भावनाओं से खिड़वाड़ हो रहा है। आप जितने भावुक हैं, ठगे जाने की उतनी ही गुंजाइश है। आस्था और धर्म के नाम पर ठगी का धंधा चल रहा है। ये न समझना कि सिर्फ शिक्षा के स्तर में ही गिरावट आयी है, साधना का स्तर उससे भी अधिक नीचे गिरा है। साधना की प्रथम भूमि का भी जो अधिकारी नहीं है, उसे भी तीसरी क्या सीधे पांचवीं भूमि में घोषित कर दिया जा रहा है। पहले ज्ञान की श्रुति परम्परा थी, साधना भी इसी परम्परा से चलती थी। आजकल पुस्तकें हो गयी हैं, और उससे भी खतरनाक हो गया है इन्टरनेट। ज्ञान बरसाती मेढक सा उछल रहा है चारो ओर; किन्तु समझ रखो कि ये ज्ञान नहीं है, ये सिर्फ फिजूल की जानकारियाँ हैं- जानकारियों का गट्ठर...। टॉनिक की किताब पढ़ कर कोई तन्दुरुस्त नहीं हो सकता। उसके लिए अच्छी कम्पनी की बनी दवा का सेवन करना होगा...।’
बाबा की बात पर बीच में ही टोकते हुए मैंने कहा- पिछले कई मर्तबा मन में उबाल आया, गायत्री भी हमेशा प्रेरित करती रही- कहीं चल कर दीक्षा लेने के लिए, किन्तु सन्तोष जनक कोई मिला नहीं। बारीकी से छानबीन करने पर सबके सब ढाक के तीन पात ही नजर आये। अब भला सैकड़ों दुर्गुणों का पिटारा, गुरु के प्रति आजीवन श्रद्धा कैसे बनी रह सकती है!
बाबा ने कहा- ‘ठीक कह रहे हो। अच्छा किये कि कहीं फंसे नहीं। साधना-क्षेत्र का नियम है कि शिष्य बनाने से पूर्व छःमाह परीक्षा करनी चाहिए, और गुरु बनाने के लिए कम से कम एक साल तो परीक्षा करनी ही चाहिए। परन्तु आज इसके लिए न गुरु के पास वक्त है, और न चेले के पास। और सबसे बड़ी बात है कि परख की दृष्टि का सर्वथा अभाव है। और जब परख की कला ही नहीं तो, परखेगा क्या खाक! आजकल तो एक और नया ट्रेन्ड चल पड़ा है- संयम-परहेज के नाम पर कुछ नहीं। गुरुजी चेलों की भीड़ बटोरने के चक्कर में सीधे कह देते हैं- ये लो मन्त्र और शुरु हो जाओ....धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा। क्या खाते हो, क्या करते हो...इससे कोई खास मतलब नहीं। क्यों कि गुरुजी को पता है कि नियम-संयम चेलों से सधना नहीं है, और न उसे साधना की सच्ची प्यास ही है। दरअसल गुरुजी को चेला चाहिए, और चेला को एक नया चोला..। सम्प्रदायों की रेवटियां गड़ी हैं। असंख्य सम्प्रदाय पैदा हो गये हैं। एक ही विषय को तोड़-मरोड़ कर नये सम्प्रदाय की स्थापना कर ली गयी है, नया साइनवोर्ड- तिलक, दंड, विभूति आदि अपना लिए गये हैं। अब भला इन दुकानदारों को कौन समझाये कि अध्यात्म को इन साइनवोर्डों से कोई मतलब नहीं है। हम कौन सा तिलक लगा रहे हैं, किस माला पर जप कर रहे हैं, आसन क्या है- इससे असली अध्यात्म को कुछ भी लेना-देना नहीं है। ईश्वर एक है, रास्ते अनेक , राही भी अनेक। कालान्तर में ये अनेक पगडंडियां ही थोड़ी चौड़ी हो गयी हैं, और स्वतन्त्र पथ (पंथ)की घोषणा कर बैठी है- अपनी-अपनी मर्जी से।’
बातें करते हमलोग गंगाकिनारे वाले विन्ध्यवासिनी मन्दिर पहुंच गये। इस समय संयोग से भीड बहुत कम थी, अतः लम्बी लाइन में लगना न पड़ा। बगल में एक खिड़की बनी है। वहीं से आसानी से दर्शन हो गया।उस समय इसके बारे में जानकारी ही नहीं थी, और न बाबा ने ही बतलाया।
दर्शन करने के बाद गायत्री ने पूछा - ‘अब तो त्रिकोण का नियम पूरा हो गया न भैया? अब आगे क्या करना है?’
बाबा ने कहा- ‘करना क्या है, सूर्यदेव भी अस्ताचल को उत्सुक हैं। अतः हमलोग भी वापस चलें अपने स्थान पर।’