बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 28 / कमलेश पुण्यार्क
तारा मन्दिर पहुँचते-पहुंचते अन्धेरा हो गया था। हमलोग को अपने कमरे में विश्राम के लिए कहकर, बाबा सीधे चले गये वृद्धबाबा की कुटिया की ओर, यह कहते हुए कि घंटे भर बाद भोजन-कक्ष में तो मिलना होगा ही।
मुंह-हाथ धोकर अभी बैठा ही था कि बाल्टी में ताजा पानी, और दो दोने में प्रसाद लेकर वाजू आया।
‘आपलोग आज सारा दिन घूमते रहे। थकान हो गयी होगी, और भूख भी लगी होगी। तबतक प्रसाद पायें। भोजन भी जल्दी ही तैयार हो जायेगा।’
प्रसाद की मात्रा कल से भी अधिक ही थी। कहने को तो सारा दिन घूमना हुआ, किन्तु थकान लेशमात्र भी न थी, और न भूख की ही खास तलब थी।
गायत्री रासेश्वरीस्थान की चर्चा छेड़ दी- ‘आज के भ्रमण में रासेश्वरीस्थान और नन्दजा की अनुभूति अद्भुत रही। ऐसा अनुभव तो भारद्वाज आश्रम में भी नहीं हुआ था। भैया ने जो नीचे का सुरंग दिखलाया, उधर जाने को मन ललच कर रह गया। वहाँ से कालीखोह जाने में जो सुरंग मिला, कुछ इसी तरह का सुरंग कैमूर जिले के गुप्ताधाम में भी है। लम्बाई बहुत अधिक तो नहीं है वहाँ की, किन्तु बनावट हू-ब-हू वैसी ही लगी मुझे। बहुत पहले एक बार पिताजी के साथ गयी थी वहाँ। अब तो सुनते हैं, भक्तों ने काफी कुछ इन्तजाम कर दिया है। फाल्गुन शिवरात्रि मेले के समय जेनरेटर से बिजली भी दी जाती है, बाकी समय तो भुच्च अन्धेरा रहता है। पहाड़ की चढ़ाई भी बहुत ही बीहड़ है। जरा भी चूक हुई कि
सैकड़ों फीट नीचे खाई में गिर कर जान गँवानी पड़ेगी।’
ये वही स्थान है न जहाँ भस्मासुर को वरदान देने के बाद, उसके डर से भोलेनाथ भागने लगे थे?
‘हाँ, वही स्थान है। दुनिया के लोगों पर विपत्ति आती है तब आशुतोष शिव उसका त्राण करते हैं, किन्तु उनका पीछा, उनका ही वरदान विपत्ति का दैत्य बनकर करने लगा, तो उससे रक्षा करने हेतु मोहिनीरुपधारी विष्णु को आना पड़ा। बड़ा ही निराला खेल है- इन लोगों का- शिव और विष्णु की एकरुपता और बहुरुपता अच्छे-अच्छों को उलझन में डाल देती है। तुलसी बाबा ने तो यहाँ तक कह दिया है- शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहुं नहीं भावा - शिव से द्रोह करे, और राम से प्रीति-ये कदापि सम्भव नहीं। न शिव खुश होगें और न विष्णु। सच पूछो तो इन दोनों में जरा भी भेद कहाँ है! आमजन यूं ही पचरे में पडे रहते हैं, और भ्रमित होते हैं।’-गायत्री ने गुप्तेश्वरशिव की महिमा का बखान करते हुए कहा- ‘तुम तो कभी उधर गये भी नहीं हो, किन्तु बहुत पहले मेरा एक बार जाना हुआ है। सासाराम के दक्षिण-पश्चिम कोण पर स्थित चेनारी के पास की पनारी पहाड़ी से लगभग आठ मील की पूरी चढ़ाई है। बीच में सुगिया पहाड़ी तो और भी खतरनाक है। वहाँ से भी डेढ मील करीब और जाना होता है, जहाँ विष्णु के मोहिनी माया के वशीभूत भस्मासुर अपने ही सिर पर हाथ रख कर भस्म हो गया था, और इस प्रकार भोलेनाथ का वरदान फलित हुआ था।’
मैंने गायत्री को बीच में ही टोका- ‘कह ही रही हो तो विस्तार से कहो, क्या है पूरा प्रसंग। भस्मासुर का नाम तो सुना हूँ। गुप्तेश्वर महादेव की भी चर्चा अकसर यहाँ सुनता हूँ। खास कर फाल्गुन महीने की महाशिवरात्रि को बड़ा मेला लगता है वहाँ, किन्तु कभी जाने, देखने का सौभाग्य नहीं हुआ है। सुनते हैं आजकल उस पूरे क्षेत्र पर अपराधियों का कब्जा है। और अपराधी भी उच्च तबके के, जिनपर दोनों राज्य- बिहार और उत्तरप्रदेश की सरकार को भी घुटने टेकना पड़ता है। आमजन के लिए जरा भी निरापद नहीं रह गया है।’
‘तुम भी यही बात बोलते हो? सरकारें घुटने नहीं टेकती, वो तो अपराधियों को कंधे पर बिठाकर घुमाती हैं। उन्हीं के बूते तो इनकी गद्दी आबाद रहती है। खैर, फिलहाल छोड़ो इस राजनैतिक पचरे को। पता नहीं आजकल क्या स्थिति है वहाँ की, किन्तु मैं जिस समय गयी थी, ऐसा कुछ नहीं था। बहुत ही अमन-चैन था। रास्ते में ही कुसुमा नामक एक गाँव है- पहाड़ी पर ही। वहीं किसी परिचित के यहाँ पिताजी ठहरे थे। रात भर विश्राम करने के बाद अगले दिन वहाँ गये थे हमलोग। पिताजी ही भस्मासुर की कहानी सुनाये थे- पौराणिक प्रसंग है कि एक असुर ने शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया। दर्शन -लाभ कराकर शिव ने वर मांगने को कहा, जिसके उत्तर में उसने कहा कि जिसके सिर पर हाथ रखूँ, वह तत्काल ही भस्म हो जाय। आशुतोष भोलेनाथ तो भोलाभाला हैं ही। बिना कुछ मीन-मेष के तथास्थु कह डाले।भस्मासुर तो आसुरि प्रवृति का था ही, छल-कपट, प्रपंच की प्रतिमूर्ति। शिव की बात पर उसे सहज ही भरोसा क्यों कर होता? इस कारण वह शिव के माथे पर ही हाथ रखने के लिए आगे बढ़ा, ताकि वरदान की सार्थकता प्रमाणित हो सके। उसकी इस हरकत से शिव घबरा उठे, और पीछे सरककर भागने लगे। उस मूर्ख को शिव की इस स्थिति पर भी भरोसा नहीं हुआ, कि बात सच है, इसलिए शिव भाग रहे हैं। उसे लगा कि वरदान गलत प्रमाणित होगा, इस कारण शिव भाग रहे हैं। अतः वह भी दौड़ने लगा उनके पीछे-पीछे।
‘इधर शिव की परेशानी देख सारा देवलोक घबरा उठा। प्राणीमात्र का कल्याण करने वाले शिव का कल्याण कौन करे! आखिरकार, भगवान विष्णु के शरण में जाकर सभी देवता निवेदन किये। विष्णु ने तत्काल प्रस्थान किया, जहाँ भस्मासुर शिव का पीछा कर रहा था। उन्होंने अचानक अतिसुन्दर नारी का मोहिनी रुप धारण किया, और भस्मासुर से पूछा- “क्या बात है, कहाँ भागे जा रहे हो? बड़े चिन्तित लग रहे हो?” उसने अपनी चिन्ता का कारण बताया, क्यों कि उसे शिव के आश्वासन पर भरोसा नहीं था।’
गायत्री की बात पर मैंने हंसते हुए कहा -’मुझे तो लगता है कि उसे किसी लोकतान्त्रिक नेता ने धोखा दिया होगा, वोट लेने के लिए कुछ का कुछ वादा किया होगा, और फिर उधर झाँकने भी न आया होगा। तभी से उसे किसी पर भी भरोसा नहीं हो रहा होगा। आखिर इतना खून-पसीना जलाकर, तपस्या किया, और वरदान भी न जाँचे- यह तो उसका संवैधानिक अधिकार बनता है।’
गायत्री ने जरा तुनक कर कहा- ‘उपेन्दर भैया ठीक कहते हैं कि तुम अखवारी लोग बाल की खाल खींचते रहते हो। क्या तुम्हें इतना भी आइडिया नहीं है कि जिस काल में भस्मासुर हुआ था, उस काल में लोकतन्त्र था ही नहीं। कहने को तो राजतन्त्र था, किन्तु लोकतन्त्र हजारगुना गुणकारी होकर भी उसका मुकाबला नहीं कर सकता। खैर, अभी हमलोग राजनैतिक चर्चा के लिए नहीं बैठे हैं। बात चल रही है- वरदान और उसकी परीक्षा की।
‘...हाँ तो मैं कह रही थी कि मोहिनीरुपधारी विष्णु ने भस्मासुर को अपने रुप-लावण्य से मोहित कर लिया। तुम मर्दों की तो वैसे भी आदत होती है, जहाँ कोई सुन्दर औरत दिखी कि बस लोट-पोट होने लगे। भस्मासुर की भी यही दशा हुई। मोहिनी की बातों में आगयी। मोहिनी ने बड़ा ही आसान उपाय सुझाया था- “वरदान की परीक्षा के लिए व्यर्थ ही शिव का पीछा कर रहे हो, अरे सिर तो तुम्हारे पास भी है, उसी पर अपना हाथ रखकर परीक्षा क्यों नहीं कर लेते।” काम के वशीभूत पुरुष सम्मोहित हो जाता है। अच्छे-बुरे का ज्ञान तिरोहित हो जाता है। मोहिनी के रुप-लावण्य पर मोहित असुर ने वही किया, जो मोहिनी ने कहा; और तत्क्षण भस्म हो गया। गुप्ताधाम गुफा के बाहर ही, ठीक प्रवेश-द्वार पर उसका स्थान बना हुआ है। उधर शिव अपने अमोघ त्रिशूल से पहाड़ को काटते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। विष्णु की पुकार जब तक पहुँची, तबतक करीब आधे मील की गुफा बन चुकी थी। यहीं विष्णु और शिव का मिलन हुआ। यही गुप्तेश्वर दिव्य धाम कहलाता है।’
गायत्री ने जरा रुक कर कहा- ‘बहुत ज्ञान-अनुभव तो नहीं था उन दिनों, किन्तु पता नहीं क्यों वह दिव्य मिलन-धाम मुझे बहुत ही आकर्षित किया। वहाँ से वापस आने की जरा भी इच्छा न हो रही थी। लौटते वक्त पिताजी ने गुफा के बीच दौर में ही दायें-बायें जाती कई सुरंगों के बारे में बतलाया था कि इनमें अन्दर जाकर, कहीं का कहीं जाया जा सकता है। यहाँ से विन्ध्याचल, प्रयाग, यहाँ तक की, हिमाचल तक की गुप्त यात्रा की जा सकती है। एक रास्ता सीधे कामरुप कामाख्या तक भी गया हुआ है। सुनते हैं कि दरभंगा नरेश के प्राचीन किले में एक रानी सरोवर है, वहाँ भी सुरंग का एक मुहाना खुलता है। उस राजकुल में भी एक से एक दिग्गज तान्त्रिक हुए हैं। आज भी श्री कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के विशाल पुस्तकागार में तन्त्र की बहुत सी दुर्लभ कृतियाँ संग्रहित हैं। स्वयं राजा साहब इसके बहुत प्रेमी और अद्भुत जानकार व्यक्ति थे। अपने जीवन काल में कई विद्वानों को अन्वेषण-कार्य हेतु नियुक्त किये थे।’
मैंने उत्सुकता जतायी- तो क्या इन गुप्त रास्तों से कोई भी आ-जा सकता है?
‘नहीं, कदापि नहीं।’- गायत्री नकारात्मक सिर हिलाती हुई बोली- ‘यदि ऐसा होता तब तो तमाशा बन जाता। ये सब रास्ते आमजनों के लिए बिलकुल बन्द हैं; और बन्द भी ऐसा कि कोई गुमान भी नहीं कर सकता कि बन्द है, या कि कोई रास्ता भी है। कोई दुस्साहस करके किंचित दीख रहे रास्तों में आगे बढ़े भी तो भयंकर कष्ट झेले, या फिर आगे जाकर बुरी तरह फँस जाये। कई लोगों ने जान भी गँवाये हैं। यही कारण है कि कुछ रास्तों को शुरु में ही बन्द कर दिया गया। तुमने तिलिस्म की बहुत सी कहानियां सुनी होगी। आज के आधुनिक विचारों वाली पीढ़ी इन सबको कपोल कल्पना माने बैठी है; किन्तु तिलिस्म कल्पना बिल्कुल नहीं है। हाँ, ये भले कह सकते हो कि इन्हें औपन्यासिक जामा पहना दिया गया है। ताकि आम आदमी व्यर्थ परेशान न हो, और जान जोखिम में न डाले। ये सारे के सारे इलाके ऐसे ही रहस्यमय हैं। सासाराम जिला मुख्यालय है, जिले का नाम रोहतास है, जो सतयुग के महाराज हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित के नाम पर रोहतासगढ के कारण प्रसिद्ध है। कलियुग में विक्रमादित्य के बाद भी बहुत लम्बें समय तक यहाँ ब्राह्मण राजा राज्य करते रहे हैं। बीच में मुगलकाल में यहाँ काफी उथल-पुथल हुआ। फिर अंग्रेजों ने अपने अन्दाज में कहर ढाये। तिलस्मी खजाने के लिए कई बार प्रयास किये, राजा, मन्त्री, पुरोहित आदि को डराये, धमकाये, सताये। एक बहुत ही गोपनीय बात की चर्चा अकसरहाँ मेरे मैके में होती थी कि रोहतासगढ़ के खजाने की चाभी चन्द्रगढ़(नवीनगर प्रखंड) के राजपुरोहित के पास है। राजा ने सुरक्षा के ख्याल से उन्हें गुप्त भेदों को समझाते हुए सुपुर्द कर दिया था। पिताजी के एक चचेरे भाई थे, जो इन सबके अच्छे जानकार थे। वे एक उच्च कोटि के साधक भी थे, और तिलिस्मी मामलों के अच्छे जानकार भी। उनके साथ एक बार जाने का मौका मिला था मुझे भी। दादाजी, और पिताजी को भी ले गये थे रोहतासगढ़ का सैर कराने। मैं देखकर दंग रह गयी- बिलकुल खुला दरवाजा, परन्तु समीप जाकर, अन्दर घुसने के लिए कदम बढ़ाते ही दरवाजे के बगल से दोनों ओर से तलवारें निकल कर, यूँ चलने लगी, मानों हाथ में लिए दो सिपाही उसे भांज रहे हों। चाचा जी कहते थे कि एक गोरा साहब उसकी ताकत की परीक्षा के लिए लोहे की मोटी सलाका बीच में डाला, और खट से दो टुकड़े हो गये। अब भला किसी आदमी की क्या गत होगी- सोच सकते हो। पता नहीं अब चाचा जी कहाँ हैं, किस स्थिति में, क्यों कि एक बार गाँव की टोली गयी थी गुप्ताधाम, और उनके देखते-देखते ही चाचा जी समा गये थे एक सुरंग में, यह कहते हुए कि अब कोई मेरा पीछा न करे। अब मुझे वापस गाँव नहीं जाना है। यहीं गुहा-वास करते, हुए शेष साधना पूरी करनी है।’
चन्द्रगढ़ की बात पर मुझे याद आयी एक रहस्यमय घटना, जो इसी सदी के सातवें दशक की है। वहीं के पुरोहित परिवार की बेटी रोहतास के पास रामडिहरा गांव में व्याही गयी थी। एक दिन अचानक वह बकझक करने लगी। देहाती माहौल ठहरा। लोगों ने भूत-प्रेत के भ्रम में ओझा-गुनी के द्वार खटखटाने शुरु किए; किन्तु कोई लाभ न हुआ। लड़की ने स्पष्ट कहा कि किसी ओझा-गुनी से कुछ होना-जाना नहीं है। मेरे पिता ने जो अपराध किया है, उसका दण्ड मुझे भुगतना पड़ रहा है। पूछने पर उसने एक रोचक, और रहस्यमयी कहानी सुनायी।
उसने बतलाया– “मेरे जन्म से कुछ पहले की बात है- परिवार में ही रोहतासगढ़ खजाने की गुप्त ताली थी। पुरोहित का आवास चन्द्रगढ़ राजमहल का ही एक हिस्सा था। प्रत्येक वर्ष विजयादशमी के अवसर पर राजा स्वयं एक गुप्त रास्ते से, जो महल के भीतर ही कुलदेवी के स्थान से होकर जाता था, रोहतासगढ किले के अन्दर जाकर साफ-सफाई का काम करता था। कुलदेवी के कक्ष में ही एक गहरा रहस्यमय कुआँ था, जो बड़े से कड़ाह से ढका रहता था, और उसके ऊपर एक तलवार और ढाल रखा रहता था। सामान्य तौर पर उसे ही देवी का प्रतीक मानकर पूजा-अर्चना की जाती थी। महानिशा में बकरे की बलि भी दी जाती थी, उसी तलवार से, उसी स्थान पर। बलि के पश्चात् ही कोई उस कड़ाह को हटाकर, अन्दर प्रवेश कर सकता था। पुरोहित ने सुन रखा था कि बकरे के स्थान पर किसी विप्र बालक की बलि दी जाये यदि तो चन्द्रगढ़ की कुलदेवी उस साधक पर प्रसन्न होकर रोहतासगढ़ खजाने की अकूत सम्पदा का स्वामी बना दें उसे।
“…मेरे पिता को धन का लोभ सता रहा था। वे ताक में लगे रहे किसी ब्राह्मण बालक की। संयोग से उनके पड़ोस में ही चचेरी बहन का शिशु दिख गया, जो हाल में ही मैंके आयी थी, बालक का ‘सुदिन’ सधाने। लोभ, मनुष्य को कहाँ तक खड्ड में घसीट ले जाता है, इसके जीते-जागते उदाहरण हैं मेरे पिता। दौलत की लालच में भागिनेय की बलि देकर, आश्वस्त हो पिताजी लाश खपाने के लिए आधी रात को पास की नदी की ओर जा रहे थे, स्वयं को निरापद समझते हुए। संयोग से रात की गाड़ी पकड़ने के लिए नवीनगर रेलवे स्टेशन की ओर जाता, छुट्टी पर घर आया एक सैनिक मिल गया, किन्तु गाड़ी पकड़ने की जल्दवाजी में राम-सलाम के बाद अपनी रफ्तार में आगे बढ़ गया, बिना किसी मीन-मेष के। कश्मीर घाटी में अपनी ड्यूटी ज्वॉयन करने के दूसरे ही दिन वह गम्भीर रुप से बीमार हुआ। मिलिटरी हॉस्पीटल में दाखिले के बाद वह अनाप-सनाप बकने लगा। फौजी भला भूत-प्रेत पर विश्वास क्या करते, किन्तु वह सैनिक बारम्बार बके जा रहा था- ‘मुझे मार कर दफनाने जा रहे पंडित को तुमने पकड़ा क्यों नहीं...।’ सैनिक अस्पताल के डॉक्टरों के पूछताछ करने पर उसने पूरी कहानी सुना दी- एक चश्मदीद गवाह की तरह; और अन्त में उनलोगों ने भी तय किया कि क्यों न घटना की तहकीकात की जाय। सप्ताह भर बाद पूरी टीम पहुँच गयी गाँव में। इधर गायब बालक की खोज जारी थी गांव में। छानबीन के बाद पिताजी पकड़े गये। समय पर उन्हें समुचित सजा हुयी। घटना के एक साल के बाद, यानी कानूनी कारवाई के बीच में ही उनके घर एक बच्ची ने जन्म लिया, वही मैं हूँ। मैं अपने पिता से बदला लिये बिना नहीं मानूंगी, क्यों कि मैं कोई और नहीं, बल्कि वही बालक हूँ, जिसका उन्होंने बध किया था।”
प्रसंग चल ही रहा था कि गिरधारी आ पहुंचा - ‘अब चला जाय, भोजन के लिए।’
भूख मुझे बहुत जोरों की लग रही थी, अतः गिरधारी के कहते ही चल दिया गायत्री के साथ।