बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 29 / कमलेश पुण्यार्क
गत रात्रि की तरह ही आज भी वैसी ही व्यवस्था थी। भोजन उसी तरीके से हम सबने लिये। भोजन के बाद अपने कमरे की ओर जाने लगा तो, वृद्धबाबा ने रोक कर कहा- “विन्ध्याचल आये हो तो एक और रहस्यमय स्थान का दर्शन अवश्य कर लेना। यहाँ से कोई तीन मील पश्चिम रेलवे लाइन के किनारे ही विरोही नामक गांव में एक स्थान है- कंकालकाली का। प्रायः लोग उसे जानते भी नहीं हैं। अतः आमलोगों की ओर से बिलकुल उपेक्षित है।”
वृद्धबाबा के कहने पर बाबा ने कहा- “स्थान तो बहुत ही जागृत और दर्शनीय है; किन्तु वहाँ का असली रहस्य देखना-जानना है, तो आधी रात के समय ही जाना अनुकूल होगा।”
बाबा की बात पर गायत्री बच्चों सी मचलती हुयी बोली- ‘तो दिक्कत क्या है, मेरे उपेन्दर भैया साथ हैं, फिर क्या रात क्या दिन!’
“ यानी कि तुम मुझे भी घसीटना ही चाहती हो वहाँ तक?” - बाबा ने हँसते हुए कहा- “तो ठीक है, भोजन हो ही गया। थोडा विश्राम कर लो। फिर चला जायेगा। अभी तो समय भी बहुत है। रात ग्यारह के करीब निकलेंगे यहाँ से। विरोही रेलवे स्टेशन तक ऑटोरिक्सा मिल जाता है। वहाँ से बिलकुल समीप ही है भगवती का स्थान।”
आराम-विश्राम तो रोज दिन करना ही होता है। ऐसा सौभाग्य हर दिन थोड़े जो मिलता है- एक साथ दो-दो बाबाओं का सानिध्य मिला है। इस सुअवसर का अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहिए– मैंने कहा तो बाबा फिर हँस पड़े।
वृद्धबाबा मुस्कुराते हुए बोले- “यानी कि तुम दोनों को आराम करने का विचार नहीं है अभी। कुछ सत्संग करना चाहते हो।”
गायत्री ने सिर हिलाया- “जी महाराज! विचार तो ऐसा ही है, यदि आपलोगों को कोई कष्ट न हो।”
“तो फिर आओ बैठा जाय, वटवृक्ष तले। ‘शिवचैत्य’ से अधिक उत्तम स्थान और क्या हो सकता है सत्संग के लिए?” - कहा वृद्धबाबा ने, और आगे बढ गये वटवृक्ष की ओर। हम तीनों भी साथ हो लिए।
मेरे मन में भारद्वाज आश्रम की घटना घूम रही थी। मौके की तलाश में था कि कब बाबा से पूछा-जाना जाय। अभी संयोग से दोनों मिल गये हैं। जिज्ञासा-पूर्ति का समय अनुकूल है। अतः शिला पर बैठते के साथ ही पूछ बैठा – भारद्वाज आश्रम के बारे में कुछ बताएँ महाराज। जब से दर्शन किया हूँ, कई सवाल उठ रहे हैं। वहाँ की वास्तु-कला भी बहुत ही आकर्षक लगी, और स्थान की चैतन्यता तो अकथनीय है। मेरे जैसा साधारण सा आदमी, जब इतनी शान्ति क्षण भर में ही लब्ध कर ले सकता है, फिर साधकों का क्या कहना। अब से पहले भी कई बार प्रयास किया था ध्यान लगाने का, किन्तु लम्बें समय के प्रयास के बाद भी कुछ हो नहीं पाता, सिर्फ व्यर्थ के विचार ही घुमड़ते रह जाते हैं घंटों बैठने पर भी। जब कि उस दिन, वहाँ क्षणभर में घटित हो गया। अजीब शान्ति मिली, आनन्द भी।
वृद्धबाबा ने सिर हिलाते हुए कहा- “सच पूछो तो अष्टांगयोग के विषय में बहुत सी बातें जानने-समझने जैसी हैं, किन्तु आमजन इसकी क्रिया-वैविध्य पर किंचित विचार भी नहीं करते। उनके पास कोई खास जिज्ञासा भी नहीं होती, फिर विचार और प्रश्न का सवाल ही कहाँ रह जाता है। प्रसंगवश सबसे पहले तो मैं ये स्पष्ट कर दूँ कि तुम जिसे ध्यान कहते हो, वह वस्तुतः धारणा है। किसी विशिष्ट केन्द्र पर चित्त को एकाग्र करने का प्रयास ही आमजन में ध्यान कहा जाता है। एकाग्रता को ही लोग ध्यान समझ लेते हैं; जबकि ध्यान प्रयास और अभ्यास का चीज नहीं है। वह तो स्वतः हो जाने वाली स्थिति है। अंग्रेजी में भी Consentretion and Meditation दो बिलकुल भिन्न शब्द हैं। अष्टांगयोग में यम से लेकर प्रत्याहार तक का पञ्च-पादान साधन पथ के वाह्य क्रिया-कलाप हैं, धारणा अन्तः-वाह्य का चौखट-तुल्य है, और उसके बाद के दो पादान(ध्यान और समाधि) अन्तःक्रियायें हैं। सत्संग और स्वाध्याय से इन वाह्य क्रियाओं का निरन्तर विकास करते हुए साधक चौखट तक आता है, और फिर अन्तःक्रियाओं में छलांग लगा जाता है।”
वृद्धबाबा जरा ठहर कर फिर बोले- “अभी तुम प्रयाग के भारद्वाज आश्रम की बात कर रहे थे। वहाँ हुयी अनुभूतियों पर कुछ सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं तुम्हारे मन में। प्रसंगवश पहले उन दिव्य महानुभाव भारद्वाज के बारे में ही कुछ जान लो। फिर अवसर पर कभी अष्टांगयोग पर बातें होंगी, क्यों कि अभी ये तुम्हारी जिज्ञासा में भी नहीं है, और प्रश्न जब तक अपना नहीं होता, तब तक दिया गया उत्तर भी व्यर्थ हो जाता है। इसका बड़ा ही अद्भुत प्रयोग किया है श्रीकृष्ण ने अपने सखा अर्जुन के जिज्ञासाओं के शमन में। इस रहस्य को समझे बिना ही लोग आक्षेप लगा देते हैं कि युद्ध जैसे विकट अवसर पर गीता जैसे दिव्य ज्ञान का क्या औचित्य! अरे भाई दवा तो बीमार को ही खिलायी जायेगी न! अर्जन का दुर्बल चित्त बीमार हुआ कुरुक्षेत्र में, तो फिर उसे उसका उपचार हस्तिनापुर में कैसे किया जाता?” -प्रश्नात्मक सिर हिलाते हुए बृद्धमहाराज ने कहा, और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये पुनः कहने लगे- “हमारे आर्यावर्त में एक से एक विभूति हुए हैं, जिनका चिर ऋणि रहेगा समस्त मानव समाज; जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया मानव-कल्याण हेतु। ऋषि भारद्वाज के जन्म और लालन-पालन के विषय में भी बड़ा ही रोचक और विडम्बना पूर्ण प्रसंग है। ये उतथ्य ऋषि के क्षेत्रज सन्तान कहे गये हैं, जब कि देवगुरु बृहस्पति के औरस पुत्र हैं।”
वृद्धबाबा की बातों पर बीच में ही टोकती हुयी, गायत्री ने जिज्ञासा व्यक्त की- ‘ये औरस, क्षेत्रज क्या होता है महाराज?’
उन्होंने स्पष्ट किया- “सन्तान के कई प्रकार कहे गये हैं। अपनी विवाहिता पत्नी से उत्पन्न सन्तान सर्वोत्तम कोटि की होती है। सन्तानोत्पत्ति हेतु जिस पुरुष का वीर्य उपयोग होता है, उस पुरुष के लिए उसका औरस पुत्र कहलायेगा। किन्तु निज विवाहिता स्त्री के गर्भ में कोई अन्य पुरुष अपना वीर्य स्थापित कर दे, तो इस प्रकार उत्पन्न सन्तान उसके लिए क्षेत्रज कही जायेगी। यानी की क्षेत्र तो अपना ही हुआ, पर बीज किसी और का। क्षेत्र और बीज दोनों ही किसी अन्य के ही हों, और लालन-पालन हेतु किसी और ने ग्रहण कर लिया हो, तो वह सन्तान उस ग्रहीता दम्पति के लिए दत्तक पुत्र कहलायेगा। महर्षि भारद्वाज की माता (जननी) ममता थी, जो ऋषि उतथ्य की पत्नी थी, और गर्भ में वीर्य स्थापित हुआ बृहस्पति का। परिणामतः लोकभय या जो भी कारण रहा हो, ममता ने उसका परित्याग कर दिया। उधर वपनकर्ता बृहस्पति भी ग्रहण करने से अस्वीकर कर दिये। पालन-कार्य हुआ किसी और के द्वारा। माता ममता और पिता बृहस्पति दोनों द्वारा परित्याग कर दिए जाने पर मरुद्गणों ने इनका पालन किया, और तब इनका एक नाम पड़ा-वितथ। सौभाग्य कहो या कि दुर्भाग्य, कालान्तर में, जब राजा दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र सम्राट भरत का वंश डूबने लगा, तो उन्होंने पुत्र-प्राप्ति हेतु ‘मरुत्सोम’ नामक यज्ञ किया। यज्ञ से प्रसन्न होकर मरुद्गणों ने अपने द्वारा पालित पुत्र वितथ को उपहार स्वरूप, शकुन्तलानन्दन भरत को समर्पित कर दिया। भरत का दत्तक-पुत्र बनने पर ये ब्राह्मण से क्षत्रिय हो गए, और नाम पड़ गया भरद्वाज। मूलतः ब्राह्मण होने के कारण आचार-विचार-व्यवहार तो वही रहेगा न! राजकीय परिवेश इन्हें रास न आया, फलतः हस्तिनापुर का लगभग परित्याग कर, व्रज-क्षेत्र स्थित गोवर्द्धन पर्वत को अपना निवास बनाया, जहाँ इन्होंने काफी संख्या में वृक्ष लगाए। ध्यान देने की बात है कि ये उस जमाने का प्रसंग है, जब ‘ब्रज’ ब्रज के रुप में प्रतिष्ठित नहीं हुआ था, और न गोवर्द्धन ही गोवर्द्धित था।”
ये सब तो सत्युग का प्रसंग है न महाराज?- मैंने जिज्ञासा व्यक्त की।
सिर हिलाते हुए वृद्धबाबा ने कहा- “हाँ। उसी समय का प्रसंग है। महर्षि भारद्वाज आंगिरस की पन्द्रह शाखाओं में से एक शाखा के प्रवर्तक तथा मंत्रदृष्टा ऋषि भी हैं। इन्हें आयुर्वेद शास्त्र का प्रवर्तक भी कहा गया है। इन्होंने आयुर्वेद को आठ भागों में विभाजित और व्यवस्थित किया, जिसे अष्टांग आयुर्वेद के नाम से जाना जाता है। प्राय: सभी आयुर्वेदज्ञ सुपरिचित हैं इस बात से। महर्षि ने इस अष्टांग आयुर्वेद का ज्ञान अपने शिष्यों को प्रदान किया। स्वयं, आयुर्वेद की शिक्षा इन्होंने इन्द्र से ली थी। वायुपुराण, हरिवंश, भावप्रकाश आदि के अध्ययन से इन बातों की जानकारी मिलती है। काशिराज दिवोदास और धनवन्तरि इन्हीं के शिष्य थे। भारद्वाज ऋषि काशीराज दिवोदास के पुरोहित भी रह चुके हैं। इतना ही नहीं, महर्षि भारद्वाज ने सामगान को देवताओं से प्राप्त किया था। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है- यों तो समस्त ऋषियों ने ही यज्ञ का परम गुह्य ज्ञान जो बुद्धि की गुफा में गुप्त था, उसे जाना, परन्तु भारद्वाज ऋषि ने स्वर्गलोक के धाता, सविता, विष्णु और अग्नि देवता से ही बृहत्साम का ज्ञान प्राप्त किया था। राष्ट्र को समृद्ध और दृढ़ बनाने के लिए भारद्वाज ने राजा प्रतर्दन से यज्ञानुष्ठान कराया था, जिससे प्रतर्दन का खोया राष्ट्र उन्हें मिला था। इन्हें उत्तम कोटि का वैज्ञानिक कहने में भी जरा भी संकोच नहीं। रत्नप्रदीपिकाम् नामक प्राचीन संस्कृत ग्रंथ में वर्णन है – भारद्वाज ने प्राकृतिक हीरे और कृत्रिम हीरे के संघटन को विस्तार से बताया है। ध्यातव्य है कि पचास के दशक के अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी द्वारा पहले कृत्रिम हीरे के निर्माण से भी लाखों वर्ष पूर्व मुनिवर भारद्वाज ने कृत्रिम हीरा के निर्माण की विधि बतलाई थी। इस प्रकार स्पष्ट है कि वे रत्नों के पारखी ही नहीं, प्रत्युत, रत्नों की निर्माण-विधि के पूर्ण ज्ञाता भी थे। तुम नयी पीढी वालों को तो यह सुन कर आश्चर्य होगा कि ऋषि भारद्वाज एक अद्भुत विलक्षण प्रतिभा-संपन्न विमान-शास्त्री भी थे। सच पूछो तो विमानन तकनीक का इन्हें अन्वेषक कहना चाहिए। इनके द्वारा वर्णित, प्रायोगित विमान-सिद्धान्त अद्भुत हैं।”
मैं चौंका- क्या कहा आपने, दुनिया तो जानती और मानती है कि विमान के आविष्कारक राइटबन्धु थे?
“नहीं, बिलकुल नहीं।” -एक साथ दोनों बाबाओं ने नकारात्मक सिर हिलाया। बृद्ध बाबा ने आगे बतलाया - “आर्यावर्त की बहुत सी चीजें यहाँ से बाहर जाकर, या ले जायी जाकर प्रसिद्ध हुई हैं। किन्तु दुःख इस बात का है कि उनके अन्वेषकों का नाम भी वहीं वालों का हो गया है। विमानन, विद्युत आदि भी इसी में एक है। आज बैट्रीसेल के विविध रुपों को दुनिया अपनाये हुए है, जो भारतीय मनीषी अगस्त का आविष्कार है। महर्षि भारद्वाज ने ही अगस्त्य के समय के विद्युत ज्ञान को विकसित किया था। इस सम्बन्ध में एक रोचक जानकारी दे रहा हूँ- महर्षि भारद्वाज द्वारा वर्णित विमानों में से एक है- मरुत्सखा विमान सिद्धान्त, जिसके आधार पर १८९५ ई. में मुम्बई स्कूल ऑफ आर्ट्स के अध्यापक शिवकर बापूजी तलपड़े, जो एक महान वैदिक विद्वान थे, ने अपनी पत्नी, जो स्वयं भी संस्कृत की विदुषी थीं, की सहायता से विमान का एक नमूना तैयार किया था। दुर्भाग्यवश इसी बीच तलपड़े की विदुषी जीवनसंगिनी का देहावसान हो गया। फलत: वे इस दिशा में और आगे न बढ़ सके। १७ सितंबर १९१७ ई. को उनका स्वर्गवास हो जाने के बाद उस मॉडल विमान तथा अन्य सामग्रियों को उनके उत्तराधिकारियों ने एक ब्रिटिश फर्म- राइटब्रदर्स के हाथों बेच दिया था। आगे चलकर उन बन्धुओं ने ही विमानन-विद्या पर अपना ठप्पा लगा दिया। महाराष्ट्र के सरकारी संग्रहालय में इस सम्बन्ध में काफी सूचनाएँ हैं...।
“…ऋग्वेद के मंत्रों की शाब्दिक रचना जिन ऋषि समूहों द्वारा हुई है, उनमें भी भारद्वाज का स्थान है। ये छठे मण्डल के ऋषि के रूप में ख्यात हैं। इनके नाम से भारद्वाज गोत्र भी प्रचलित है। अन्तरराष्ट्रीय संस्कृत शोध मंडल ने प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज का विशेष प्रयास किया, जिसके परिणाम स्वरूप जो ग्रंथ मिले, उनके आधार पर भारद्वाज का विमान-प्रकरण प्रकाश में आया। महर्षि भारद्वाज रचित यंत्रसर्वस्वम् के विमान-प्रकरण की यती बोधायनकृत वृत्ति (व्याख्या) सहित पाण्डुलिपि मिली है, जिसमें प्राचीन विमान-विद्या सम्बन्धी अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा चमत्कारिक तथ्य उद्घाटित हुए हैं। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली द्वारा इस विमान-प्रकरण का स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक की हिन्दी टीका सहित सम्पादित संस्करण वृहत विमान शास्त्र के नाम से १९५८ ई. में प्रकाशित हुआ है, जो दो अंशों में प्राप्त है। इसके कुछ अंश बड़ौदा, गुजरात के राजकीय पुस्तकालय की पाण्डुलिपियों में मिले, जिसे वैदिक शोध-छात्र प्रियरत्नआर्य ने विमान-शास्त्रम् नाम से वेदानुसंधान सदन, हरिद्वार से प्रकाशित कराया। बाद में कुछ और महत्वपूर्ण अंश मैसूर राजकीय पुस्तकालय की पाण्डुलिपियों से प्राप्त हुए। इस ग्रंथ के प्रकाशन से भारत की प्राचीन विमान-विद्या सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण तथा आश्चर्यजनक तथ्यों का पता चला। भारद्वाज प्रणीत यंत्रसर्वस्वम् ग्रंथ तत्कालीन प्रचलित सूत्र शैली में लिखा गया है। इसके वृत्तिकार यतिबोधायन ने अपनी व्याख्या में स्पष्ट लिखा है कि- महर्षि भारद्वाज ने वेदरूपी समुद्र-मन्थन करके, मनुष्यों को अभीष्ट फलप्रद यंत्रसर्वस्वम् ग्रंथरूप नवनीत (मक्खन) प्रदान किया। 'यंत्रसर्वस्वम्’ में स्पष्ट है विमान बनाने और उड़ाने की कला– यानी सम्पूर्ण वैमानिकी-प्रकरण की रचना वेदमंत्रों के आधार पर ही की गई है। विमान की तत्कालीन प्रचलित परिभाषाओं का उल्लेख करते हुए महर्षि भारद्वाज कहते हैं कि वेगसाम्याद् विमानोण्डजजानामितिं अर्थात् आकाश में पक्षियों के वेग सी जिसकी क्षमता हो, वह विमान कहलाता है। वैमानिक प्रकरण में आठ अध्याय हैं, जो एक सौ अधिकरणों में विभक्त और पांच सौ सूत्रों में निबद्ध हैं। इस प्रकरण में बतलाया गया है कि विमान के रहस्यों का ज्ञाता ही उसे चलाने का
अधिकारी है। इन रहस्यों की संख्या बत्तीस है। यथा- विमान बनाना, उसे आकाश में ले जाना, आगे बढ़ाना, टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना, वेग को कम या अधिक करना, लंघन(लांघना), सर्पगमन, चपल, परशब्दग्राहक, रूपाकर्षण, क्रिया- रहस्य-ग्रहण, शब्दप्रसारण, दिक्प्रदर्शन इत्यादि। रहस्यलहरी नामक ग्रंथ में विमानों के इन रहस्यों का विस्तृत वर्णन है।”