बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 31 / कमलेश पुण्यार्क

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क्षण भर में ही काय-कम्प थमने लगा। गायत्री मेरे साथ स्वर में स्वर मिलाने लगी–

कर्पूरं मध्यमान्त्यस्वरपररहितं सेन्दु वामाक्षियुक्तं, बीजं ते मातरेतत् त्रिपुरहरवधु त्रिः कृतं ये जपन्ति। तेषां गद्यानि पद्यानि च मुखकुहरादुल्लसन्त्येव वाचः, स्वच्छन्दं ध्वान्तधाराधररुचिरुचिरे सर्वसिद्धिं गतानाम्॥१॥

ईशानः सेन्दुवामश्रवणपरिगतो बीजमन्यन्महेशि, द्वन्द्वंते मन्दचेता यदि जपति जनो वारमेकं कदाचित्। जित्वा वाचामधीशं धनदमपि चिरं मोहयन्नम्बुजाक्षी वृन्दं चन्द्रार्धचूडे प्रभवति स महाघोरशावावतंसे॥२॥

ईशौ वैश्वानरस्थः शशधरविलसद्वामनेत्रेण युक्तो, बीजं ते द्वन्द्वमन्यद्विगलितचिकुरे कालिके ये जपन्ति। द्वेष्टारं घ्नन्ति ते च त्रिभुवनमभितो वश्यभावं नयन्ति, सृक्कद्वन्द्वास्रधाराद्वयधरवदने दक्षिणे कालिकेति॥३॥

ऊर्ध्वं वामे कृपाणं करकमलतले छिन्नमुण्डं ततोऽधः, सव्येऽभीतिं वरं च त्रिजगदघहरे दक्षिणे कालिके च। जप्त्वैतन्नाम ये वा तव विमलतनुं भावयन्त्येतदम्ब, तेषामष्टौ करस्थाः प्रकटितरदने सिद्धयस्त्र्यम्बकस्य॥४॥

वर्गाद्यं वह्निसंस्थं विधुररतिवलितं तत्त्र्ययं कूर्चयुग्मं, लज्जा द्वन्द्वं च पश्चात् स्मितमुखि तदधष्ठद्वयं योजयित्वा। मातर्ये वा जपन्ति स्मरहरमहिले भावयन्तः स्वरुपं, ते लक्ष्मीलास्यलीलाकमलदलदृशः कामरुपा भवन्ति॥५॥

प्रत्येकं वा द्वयं वा त्रयमपि च परं बीजमत्यन्तगुह्यं , त्वन्नाम्ना योजतित्वा सकलमपि सदा भावयन्तो जपन्ति। तेषां नेत्रारविन्दे विहरति कमलावक्त्रशुभ्रांशुविम्बे, वाग्देवी देवि मुण्डस्रगतिशयलसत्कण्ठपीनस्तनाढ्ये॥६॥

गतासूनां वाहुप्रकरकृतकाञ्चीपरलसन्नितम्बां दिग्वस्त्रां त्रिभुवनविधात्रीं त्रिनयनाम्। श्मशानस्थे तल्पे शवहृदि महाकालसुरत प्रसक्तां त्वां ध्यायन् जननि जडचेता अपि कविः॥७॥

शिवाभिर्घोराभिः शवनिवहमुण्डास्थिनिकरैः परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां हरवधूम्। प्रविष्टां सन्तुष्टामुपरि सुरतेनातियुवतीं सदा त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि न तेषां परिभवः॥८॥

वदामस्ते किं वा जननि वयमुच्चैर्जडधियो न धाता नापीशो न हरिरपिन ते वेत्ति परमम्। तथाऽपि त्वद्भक्तिर्मुखरयति चास्माननमिते तदेतत् क्षन्तव्यं न खलु पशुरोषः समुचितः॥९॥

समन्तादापीनस्तनजघनदृग्यौवनवती रतासक्तो नक्तं यदि जपति भक्तस्तव मनुम्। विवासास्त्वां ध्यायन् गलितचिकुरस्तस्य वशगाः समस्ताः सिद्धौघा भुवि चिरतरं जीवति कविः॥१०॥

समाः स्वस्थीभूतां जपति विपरीतां यदि सदा, विचिन्त्य त्वां ध्यायन्नतिशयमहाकालसुरताम्। तदा तस्य क्षोणीतलविहरमाणस्य विदुषः कराम्भोजे वश्या हरवधु महासिद्धिनिवहाः॥११॥

प्रसूते संसारं जननि जगतीं पालयति वा समस्तं क्षित्यादि प्रलयसमये संहरति च। अतस्त्वां धाताऽपि त्रिभुवनपतिः श्रीपतिःरतिरपि महेशोऽपि प्रायः सकमपि किं स्तौति भवतीम्॥१२॥

अनेके सेवन्ते भवदधिकगीर्वाणनिवहान् विमूढास्ते मातः किमपि न हि जानन्ति परमम्। समाराध्यामाद्यां हरिहरविरञ्च्यादिविबुधै प्रपन्नोऽस्मि स्वैरं रतिरसमहानन्दनिरताम्॥१३॥

धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम्। स्तुतिः का ते मातस्तव करुणया मामगतिकं प्रसन्ना त्वं भूया भवमननुभूयान्मम जनुः॥१४॥

श्मशानस्थः स्वस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः सहस्रं त्वर्काणां निजगलितवीर्येण कुसुमम्। जपंस्तत् प्रत्येकं मनुमपि तव ध्याननिरतो महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढः॥१५॥

गृहे सम्मार्जन्या परिगलितवीर्यं हि चिकुरं समूलं मध्याह्ने वितरति चितायां कुजदिने। समुच्चार्य प्रेम्णा मनुमपि सकृत् कालि सततं गजारुढो याति क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः॥१६॥

सुपुष्पैराकीर्णं कुसुमधनुषो मन्दिरमहो पुरो ध्यायन् ध्यायन् जपति यदि भक्तस्तव मनुम्। स गन्धर्वश्रेणीपतिरिव कवित्वामृतनदी नदीनः पर्यन्ते परमपदलीनः प्रभवति॥१७॥

त्रिपञ्चारे पीठे शवशिवहृदि स्मेरवदनां महाकालेनोच्चैर्मदनरसलावण्यनिरताम्। समासक्तो नक्तं स्वयमपि रतानन्दनिरतो जनो यो ध्यायेत्त्वामपि जननि स स्यात् स्मरहरः॥१८॥

सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते परं मैषं वौष्ट्रं नरमहिषयोश्छागमपि वा। वलिं ते पूजायामपि वितरतां मर्त्त्यवसतां सतां सिद्धिः सर्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति॥१९॥

वशी लक्षं मन्त्रं प्रजपति हविष्याशनरतो दिवा मातर्युष्मच्चरणकमलध्याननिरतः। परं नक्तं नग्नो निधुवनविनोदेन च मनुं जपेल्लक्षं सम्यक् स्मरहरसमानः क्षितितले॥२०॥

इदं स्तोत्रं मातस्तव मनुसमुद्धारणमनु स्वरुपाख्यं पादाम्बुजयुगल- पूजाविधियुतम्। निशार्धे वा पूजा समयमधि वा यस्तु पठति प्रलापस्तस्यापि प्रसरति कवित्वामृतरसः॥२१॥

कुरङ्गाक्षीवृन्दं तमनुसरति प्रेमतरलं वशस्तस्य क्षोणीपतिरपि कुबेरप्रतिनिधिः। रिपुःकारागारं कलयति परं केलिकलया चिरं जीवन् मुक्तः स भवति च भक्तः प्रतिजनु॥२२॥

॥ ऊँ श्री कालीकर्पूरस्तोत्रंदेव्यार्पणमस्तु॥

स्तुति समाप्त होते-होते शरीर में अद्भुत स्फूर्ति का समावेश हो गया। शरीर इतना हल्का प्रतीत होने लगा, मानों हवा में उड़ चलूँ। माँ के वरद हस्त का स्पष्ट स्पर्श सिर पर अनुभव कर रहा था। साथ ही ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ऊँचे आकाश में कहीं प्रेंखादोला पर दोलायमान हो रहा हूँ। चारो ओर दिव्य परिमल सुवासित है। आँखें खोलने की इच्छा न हो रही थी, भय लग रहा था कि कहीं ये अनुभूति खो न जाये।

बाबा ने पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- “चलो, अब तो आँखें खोलो। स्तुति पूरी हो गयी, और माँ ने स्वीकार भी कर लिया, तुमदोनों की प्रार्थना को। आज तुम दोनों सच में धन्य हो गये, मेरे गुरुमहाराज का अतिशय अहैतुकी कृपा वर्षण होगया तुमलोगों पर।”

आँखें खोलती हुई गायत्री ने कहा- ‘धन्य तो अवश्य हो गयी, मातेश्वरी की कृपा से, किन्तु इसमें आपके गुरुमहाराज की कृपा...?’

बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा- “तो क्या समझती हो, मुस्कुराते हुये बाबा ने कहा- “ये सब दृश्य तुम मेरी वजह से देखने में सक्षम हुई? कदापि नहीं। वृद्धमहाराज ने ही प्रेरित किया यहाँ आने को, और आगे की व्यवस्था भी सब उन्हीं की कृपा का परिणाम है। विन्ध्याचल तो हजारों-लाखों लोग आते हैं, किन्तु बहुत कम ही लोग ऐसे हैं, जो यहाँ के बारे में जानते हैं या यहाँ तक आ पाते हैं। और उन दर्शन-लब्ध व्यक्तियों को भी क्या इस दिव्यलीला का दर्शन-लाभ मिल पाता है! कदापि नहीं। यह तो कहो कि उन्होंने ही तुम्हें प्रेरित किया आने को, और मुझे इशारा किया कि तुमलोगों को मातेश्वरी के असली रुप का दर्शन कराने में सहयोगी बनूँ। सो मैंने उनके आदेश का पालन किया— मात्र निमित्त बनकर। सच पूछो तो यदि उनकी कृपा न हुई होती तो मुझमें भी इतनी क्षमता न थी, जो तुम्हें ये रुप दिखा सकता। ये कोई बाजीगरी थोड़े जो है।”

मैं अभी भी अभिभूत था, कालिका के दिव्य रुप का दर्शन करके। ऐसा लग रहा था, मानों नशा तो उतर गया, पर ‘खुमारी’ अभी गयी न हो। बाबा उठ खड़े हुए, और इशारा किये- यहाँ से बाहर चलने को। मैंने गौर किया- मन्दिर से बाहर निकलते समय वे मूर्ति की ओर मुँह किये, पीछे की ओर सरकते हुए निकल रहे थे, साथ ही इस बात का ध्यान भी रख रहे थे कि मार्ग में गिरे ताजे लहु पर कदाचित पाँव न पड़ जाएँ। आसपास की अधिकांश भूमि रक्त-रंजित थी। उनके देखादेखी, हमदोनों ने भी ऐसा ही किया।

बाहर आकर बाबा पुनः रुक गये, और कोई मन्त्रोच्चारण करने लगे। इस बार का मन्त्र भी कुछ वैसा ही था, जिसके शब्द तो स्पष्ट सुनायी पड़ रहे थे, किन्तु अर्थ और भाव कुछ समझ न पा रहा था।

मन्त्र पाठ समाप्त करके उन्होंने कहा- “अब जरा इधर आ जाओ, कुएँ के समीप, और ध्यान उधर मन्दिर की ओर भी लगाये रखो।”

मैंने देखा- मन्दिर का चौखट लाँघता एक नरमुण्ड वापस आ रहा है, उसी भाँति सरकता हुआ, और कुएँ के समीप आकर छलांग लगा गया, जैसे कोई आदमी आत्महत्या करने के लिए कुएँ में कूद रहा हो। कोई घड़ी भर लगे होंगे, सारा का सारा नरमुण्ड पूर्व की भाँति सरकता हुआ कुएँ के पास आया, और छलांग लगाता गया। कुएँ में गिरने से पहले प्रत्येक मुण्ड उछाले गये कन्दुक की तरह कोई दो हाथ भर ऊपर उठ रहा था, और झपाक से अन्दर जा पहुँचता था। दृश्य अत्यन्त कौतूहल पूर्ण रहा। मैं मन ही मन गिनती भी गिने जा रहा था- मुण्डों की संख्या पूरे एक माला के बराबर- एक सौ आठ थी। संख्या पूरी हो गयी, तब बाबा ने साष्टांग दण्डवत् किया भूमि पर लोट कर। हम दोनों ने भी उनका अनुपालन किया। आसपास की पूरी भूमि तो साफ थी, किन्तु कुएँ के जगत पर एक जगह थोड़ा का ताजा रक्त अभी भी नजर आ रहा था। आगे बढ़ कर बाबा ने उसे अपने अंगूठे में लगाया, और सीधे मेरे भ्रूमध्य में तिलक लगा दिया। फिर शेष बचे रक्त से अपनी मध्यमा को रंजित कर गायत्री के कण्ठ देश में लगा दिया। पुनः मध्यमा द्वारा ही स्वयं भी तिलक किया, और कहा- “अब यहाँ से चलना चाहिए।”

मेरे मन में कुछ सवाल घुमड़ रहे थे, किन्तु मेरे कुछ पूछने से पहले गायत्री ने ही सवाल कर दिया- ‘भैया! ये कर्पूरस्तोत्र के बारे में कुछ कहो न। इनको बहुत पहले औरंगावाद, पंणरिया के शिवशंकर पंडितजी ने बतलाया था नियमित पाठ करने के लिए विशेष कर रात्रि में सोने से पहले। और यह भी कहा था कि इसे साध लो, बहुत ही उपयोगी चीज है। किन्तु जानते ही हो कि इनको इन सब चीजों में बहुत आस्था तो है नहीं। हर चीज को भ्रम और अविश्वास से मापते हैं। नतीजा ये हुआ कि कभी भी नियमितता बनी नहीं। उन्होंने लगातार, अवाधित रुप से पूरे एक वर्ष अवश्य साधने को कहा था। इनकी अनास्था देखकर, मैं ही साध ली। मेरा क्रम कभी टूटा नहीं, कुछखास पाँच दिनों को छोड़ कर। और इसी का सुफल मानती हूँ कि लाख परेशानी झेलते हुए भी ऐसा कभी नहीं हुआ कि नित्य के अत्यावश्यक खर्च में कोई दिक्कत हुई हो। किसी न किसी तरह गृहस्थी की गाड़ी चलती ही गयी; और अब तो तुम्हारी कृपा से...।’

बाबा ने बीच में ही टोका- “मेरी कृपा-वृपा की बात न करो। मातेश्वरी की ही कृपा सर्वोपरि है। वही सृष्टि का सृजन करती है, वही संहार भी। उन्हीं की प्रेरणा से मैं मिला तुमलोगों को। उन्हीं की प्रेरणा से यहाँ तक आये भी तुमलोग; और आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आगे भी उनकी अहैतुकी कृपा मिलती रहेगी; वशर्ते कि मेरे बताये हुए मार्ग का अनुशरण करते रहो। विन्ध्याचल की इस यात्रा में बहुत कुछ देने-दिखाने, जताने का प्रयास किया है मैंने। आगे तुमलोग जानो और तुम्हारा काम जाने।”

बातें करते हुए हमलोग सड़क पर आ पहुँचे। लाइट-पोस्ट के नीचे ऑटो वाला हमलोगों का इन्तजार कर रहा था।

तारा-मन्दिर पहुँचते-पहुँचते रात काफी बीत चुकी थी। करीब पौने दो बजने वाले थे। प्रवेश द्वार से भीतर आते ही वृद्धबाबा पर नजर पड़ी, वहीं वटवृक्ष तले, शिलापर विराज रहे थे, अकेले ही, मानों हमलोगों की प्रतीक्षा में ही हों। समीप आते ही बोले- “आ गये तुमलोग, बड़ी देर लगा दी।”

“अभी और भी देर लग सकती थी, यदि इनलोगों के साथ प्रश्नोत्तर में उलझता।” -मेरे कुछ कहने के पूर्व ही बाबा ने उत्तर दिया।

“प्रश्नोत्तर स्वाभाविक है, किन्तु यह तो यहाँ बैठ कर भी हो सकता है। अभी तुमलोगों के पास पूरे एक दिन का समय है। कल का व्यक्तिगत कार्यक्रम यथासम्भव समेट कर, बैठ जाना गुरुमहाराज की समाधि पर, जितनी देर बैठकी लगा सको। अधिकांश प्रश्नों का उत्तर स्वयंमेव मिल जायेगा। कुछ शेष रह जायेंगे, उनके लिए तो तुम्हारे उपेन्द्र बाबा ही पर्याप्त हैं।” —वृद्धबाबा ने कहा।

“अब जाओ, विश्राम करो तुमलोग। कल सुबह वहीं गुरुमहाराज की समाधि पर मिलूँगा। व्यर्थ के सवालों से मस्तिष्क को बोझिल न बनाया करो। प्रायः उत्तर समय पर स्वतः मिल जाया करते हैं। कर्पूरस्तव के विषय में मैं स्वयं ही कुछ प्रकाश डालूँगा। इतने दिनों से निर्जीव सा उसे ढोते रही है गायत्री, अब सजीव होने का अवसर आ गया है।” -हमलोगों को निर्देश देकर, उपेन्द्र बाबा ने वृद्धबाबा से कहा- “तो अब चलें हमलोग भी अपने कार्य में।”

दोनों बाबा चल दिये मन्दिर परिसर से बाहर की ओर। सम्भवतः उनके श्मशान-साधना का समय हो गया था। गायत्री के साथ मैं भी अपने कमरे में विश्राम के लिए चल दिया।

कमरे में आकर, विस्तर पर गिरते ही नींद के आगोश में डूब गया। और डूबा तो डूबा ही रहा गया। आदतन, रात में भी दो बार लघुशंका के लिये उठने की प्रवृति भी आज परेशान न की। सीधे सूर्योदय के कोई घड़ी भर बाद ही नींद खुली। हड़बड़ा कर उठा। गायत्री अभी नींद में ही थी। उसे जगाया, और यथाशीघ्र नित्य क्रियादि से निवृत्त होने को कहा। कल की स्थिति देख कर, आज गंगातट पर जाने की इच्छा न हुई। सोचा तो था कि मुँहअन्धेर ही गायत्री के साथ जाकर डुबकी मार लूँगा, पर शायद गंगा को भी मंजूर न था। अतः मन्दिर-परिसर में ही कूप-

जल-स्नान करने को विवश हुआ। कोई घंटे भर बाद तैयार हो कर गुरुबाबा की समाधि पर पहुँचा, तो दोनों बाबाओं को पहले से ही वहाँ उपस्थित पाया।

“आ जाओ। तुमलोगों की ही प्रतीक्षा कर रहा था।” - एकसाथ दोनों बाबाओं ने आहूत किया।

समाधि-परिसर के चौखटे को प्रणाम कर हमदोनों अन्दर आये। बाबा ने इशारा किया एक ओर बैठ जाने को। बैठ कर क्या करना है- इसका संकेत रात सोने से पहले ही मिल चुका था, अतः पुनः पूछने-कहने की गुंजाइश न थी।

घंटों बैठा रहा। गायत्री भी बैठी ही रही। उधर दोनों बाबा भी बैठे रहे। सब कुछ शान्त...शून्य...निःशब्द सा...। मैंने गौर किया- लम्बी बैठकी के बावजूद मन का उड़ान थमता नहीं था, साँसों पर चित्त को एकाग्र करने के लिए विज्ञानभैरवतन्त्रम् का पहला सूत्र जो संकेत देता है, उसका भी अभ्यास कोई काम नहीं आया कभी। उब सी हो आती, और आँखें खोल, उठने को विवश हो जाता था –– अब से पूर्व; किन्तु आज ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। विन्ध्याचल आने के बाद से ही महसूस कर रहा हूँ कि इस महाविघ्न में निरन्तर सुधार होता प्रतीत हो रहा है। इसे बाबाओं का सानिध्य कहूँ, स्थान का प्रभाव कहूँ, क्षेत्रेशी की कृपा कहूँ या कि सबका मिला-जुला प्रभाव!

कोई दो घंटे व्यतीत हो गये- ये तो तब पता चला, जब उपेन्द्रबाबा ने आवाज लगायी। इस दीर्घकालान्तराल में क्या कुछ देखा-दिखा- कुछ भी कह नहीं सकता। साक्षी में कलाई घड़ी न होती तो कह सकता था कि कुछ मिनट ही तो गुजरे हैं। गायत्री की भी यही दशा थी, क्योंकि आँखें खुलने के बाद वह भी बार-बार घड़ी ही देख रही थी, साथ ही खुले आसमान को भी, जहाँ सूरज काफी ऊपर चढ आया था।

उपेन्द्र बाबा थोड़ा समीप आ जाने का संकेत करते हुए बोले- “कर्पूरस्तव का पाठ तो तुमलोग बहुत ही सुन्दर कर लेते हो। स्वरों के आरोह-अवरोह पर अच्छी पकड़ हो गयी है। इस उतार-चढ़ाव को समझने में तो अभ्यासियों को वर्षों लग जाते हैं। आज तुम्हें इसके कुछ रहस्यों का संकेत कर रहा हूँ। जैसा कि कल गायत्री ने कहा कि लम्बें समय से पाठ करती आ रही है, पड़रिया के पंडितजी के आदेशानुसार- एक खास उद्देश्य को लेकर; किन्तु जान रखो- ये वही हुआ, जैसा कि कहा जाता है- पारस पड़ा चमार घर, नित उठ कूटे चाम..। अब भला किसी चमार को पारस पत्थर मिल ही जाय तो वह मूढ़ क्या उपयोग करेगा? चाम ही तो कूंटेगा? आमजन भी यही करते हैं। सांसारिक लोगों को तो संसार ही चाहिए न- धन, सुख, समृद्धि...। पता नहीं उन्हें इसके सेवन से कितना क्या मिलता है...।”

गायत्री ने बीच में ही टोका- ‘नहीं भैया! पाठ करने से नहीं कुछ मिलता है- ये मैं नहीं मान सकती, मुझे पूरी आस्था है, इस स्तोत्र पर। और आस्था भी निराधार नहीं है- बार-बार तो कहा गया है, स्तोत्र में ही- लक्ष्मी, सरस्वती, रुप, लावण्य...सबकुछ मिलेगा। सभी पुरुषार्थों की सिद्धि होगी।’

बाबा मुस्कुराये- “ये तो प्रायः हर स्तोत्र के महात्म्य में कहा जाता है, क्योंकि सांसारिकों को संसार की वस्तुओं का प्रलोभन न दिया जाय, तो वे संसार से पार जाने की किसी बात को सुनने को भी राजी न हों। यही कारण है कि लाभ की बात पहले बता दी जाती है। किन्तु , बात बनती नहीं। लोग यहीं के यहीं रुके रह जाते हैं। बच्चाक्लास में स्लेट-पेन्सिल पकड़ा दिया जाता है, इसका ये मतलब तो नहीं कि एम. ए. तक इसे ही ढोते रहो।”

तो फिर क्या मतलब है?— मैंने पूछा।

“मतलब है, और बहुत खास है।” — इस बार वृद्धबाबा ने स्वीकृति मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा— “मात्र बाइस श्लोकों के कालीकर्पूरस्तोत्र में अद्भुत रहस्य अवगुंठित है। तन्त्र के इस गोपन रहस्य को स्वयं महाकाल ने, स्वविमर्श रुपिणी महाकाली की स्तुति के व्याज से लोक-कल्याणार्थ प्रणीत किया है। इसके प्रथम श्लोक को ही जरा ध्यान से देखो- इसमें महाकाली के प्रियतम बीजाक्षर ‘क्रीं’कार का मन्त्रोद्धार है, साथ ही क्रिया-विधि, और परिणाम का भी निस्पादन किया गया है। महासाधक श्रीरङ्गनाथजी की कर्पूरदीपिका की टीका करते हुए पंडित नारायणशास्त्री, जो कि योगीन्द्र विशुद्धानन्द जी के परम भक्त थे, विक्रम सम्बत् १९८५(ई.सन् १९२८) में ही अपनी ‘परिमल’ टीका का प्रणयन किया है। आमजन के लिए यह सरलातिसरल टीका भी अति कठिन ही है। अब सोचो जरा कि टीका का भी टीकान्तरण कठिन है, तो मूल की क्या स्थिति होगी! पंडितजी कहते हैं -- ‘‘प्रणम्य शक्तित्रितयं पितरौ च गुरुत्रयम्। कर्पूरस्तवसम्भूतं कुर्वे परिमलं नवम्॥’’ पंडितजी आगे कहते हैं- ‘‘भगवान् परप्रकाशात्मको महाकालः स्वविमर्शरुपिणीं परदेवतां महाकालीं प्रीणयिष्यन् संसारतापतप्तानां जीवानां चोद्धारं करिष्यन् चतुर्विध पुरुषार्थसाधनं कालीकर्पूरस्तवं प्रकटयति। मध्यमान्त्यस्वरपररहितं सेन्दुवामाक्षियुक्तं ते बीजमिति योजना...एतेन क्रीं इति महाबीजम् उद्धृतं...।’’