बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 32 / कमलेश पुण्यार्क

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‘‘....इसी भाँति आगे श्लोक में कूर्चबीज- ‘हूँ’, पुनः लज्जा बीज ‘ह्रीं’ का भी प्रकटन हुआ है। करालवदना, विगलितचिकुरा, मुक्तकेशी, दिगम्बरा, मुण्डमालिनी महाकाली के दिव्य ध्यान का स्वरुप और विधि भी बतलायी गयी है। जैसा कि कालीतन्त्रम् में कहा गया है- कामत्रयं वह्निसंस्थं रतिविन्दुविभूषितम्। कूर्चयुग्मं तथा लज्जायुग्मं च तदनन्तरम्॥

दक्षिणे कालिके चेति पूर्वबीजानि चोच्चरेत्। अन्ते वह्निवधूं दद्याद्विद्याराज्ञी प्रकीर्तिता॥
महानुभाव ने तन्त्र के गुत्थियों को तोड़-तोड़ कर समझाने का प्रयास किया है। इन मन्त्रोद्धारों से जो प्रकट होता है, वह मन्त्र है- क्रीं ह्रूं ह्रीं दक्षिणे कालिके स्वाहा। क्रीं क्रीं ह्रूँ ह्रूँ दक्षिणे कालिके स्वाहा। क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके स्वाहा। - इन मन्त्रों को स्पष्ट करने के पश्चात् कहते हैं- तेषां भावनापूर्वकजपपराणां नेत्रारविन्दे नयन पद्मे कमला लक्ष्मी र्विहरति- विलासं करोति इति। तत् साधक दृष्टिपातेन प्राकृतोऽपि सकलैश्वर्यभाजनं भवतीति भावः। पुनर्वक्त्रशुभ्रांशुबिम्बं वक्त्रं मुखं शुभ्रांशुबिम्बमिव चन्द्रमण्डलमिव तस्मिन् वाग्देवी विहरतीत्यत्रान्वेति। इन संकेतों में कितना स्पष्ट है। योग की भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि इनकी साधना से हठात् षष्टम् चक्र (आज्ञाचक्र) का उद्भेदन हो जाता है, और जब यह सिद्ध हो जायेगा तो साधक को स्वयमेव बहुत कुछ लब्ध हो जायेगा। किन्तु वैसे ही जैसे तक्था (पटरी) बनाने के लिए लकड़ी चीरते समय कुन्नी बनाने की कोई विधि नहीं बरती जाती, विधि तो सिर्फ बरती जाती है तक्था बनाने की। कुन्नी तो स्वतः प्राप्त हो जाता है, होना ही है। अंग्रेजी में इसे बाईप्रोडक्ड कहते हैं। एक के प्राप्ति के प्रयास में दूसरे की स्वतः प्राप्ति...।’’

वृद्धबाबा की बातों से मैं आश्चर्चचकित होते हुए पूछ बैठा- यानि कि महाराज संसार की सारी अलभ्य वस्तुएँ साधकों को यूँ ही सहज ही प्राप्त हो जाती हैं?

‘‘इसमें कोई दो राय नहीं। किन्तु विडम्बना भी यही है कि साधक इन्हीं प्रलोभनों में फँस कर, मुख्य साधन-पथ से भटक भी जाता है। जरा सोचो, वो बढ़ई कितना मूर्ख होगा, जो चीरे गये पटरियों को सहजने के वजाय धूलमय कुन्नियों (कुनाई) को सहजने और उनके प्रयोग में अपना जीवन गँवा देता है। आह! मन मुग्ध हो जाता है- ऋषियों की निर्देशन-कला पर। अर्थ-काम का प्रलोभन देकर, स्तोत्रपाठ का खड़िया-पट्टिका पकड़ा दिया, ताकि कभी होश में आवे तो सारा भेद खुल जाय, और कामार्थ की आड़ में मोक्ष लब्ध हो जाय। और धर्म की चिन्ता भी न करनी पड़े। वो तो यूँ ही साथ-साथ सधता ही रहता है। जरा सजावट तो देखो- धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष––– धर्म और मोक्ष के बीच में अर्थ और काम को रख दिया गया है। वस्तुतः होता ये है कि जब हम किसी स्तोत्र का तन्मयता पूर्वक पाठ करते हैं, और दीर्घ काल तक क्रिया चलती है, तो रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान –– वाली बात सिद्ध हो जाती है। तुमने डीजल ईंजन वाले जनरेटर को देखा होगा- चालक उसमें एक हैंडिल जोड़ कर दो-चार बार गोल-गोल घुमाता है, और फिर छोड़ देता है। उस अल्पकालिक घुर्णनक्रिया से ईंजन के भीतर का विद्युतचुम्बकीय क्षेत्र सक्रिय हो जाता है। और फिर मोटर स्वतः चलने लगता है। इन समस्त स्तोत्रों की जो वर्णयोजना है, अद्भुत है। हर स्तोत्र हमारे अन्दर के किसी न किसी ईंजन को चालित करता है, और फिर शनैःशनैः कायगत समस्त यन्त्र स्वचालित हो उठते हैं- सृष्टि का रहस्य उद्घाटित हो जाता है। अहम् ब्रह्माऽस्मि का सद्यः भान हो जाता है।’’

मैंने पुनः जिज्ञासा व्यक्त की – तो क्या हमारे शरीर के अन्दर भी बहुत सारे यन्त्र सच में हैं, या सिर्फ किताबों की कल्पना है? क्योंकि शल्यक्रिया द्वारा परीक्षण करने पर कुछ यन्त्र– यकृत, प्लीहा, अवटुका, वृक, हृदय, फेफडा, मस्तिष्क आदि तो नजर आतें हैं, किन्तु इसके अलावे और कुछ खास दिखता नहीं।

वृद्धबाबा ने सिर हिलाते हुए कहा – “वैसे अब तुम विषयान्तर हो रहे हो। बात कालीकर्पूर की चल रही थी, और खींच ले जा रहे हो- शरीरक्रियाविज्ञान, और प्रत्यक्षशरीरम् पर। साथ ही योग-दर्शन की भी बात समझाने की आवश्यकता प्रतीत हो रही है। इन सब बातों पर फिर कभी अवसर मिला तो चर्चा की जा सकती है, या समझो कि तुम्हारे उपेन्द्र भैया ही काफी है वर्णन के लिए। फिलहाल मैं कालीतन्त्र के कुछ खास रहस्यों पर प्रकाश डाल कर अभी की ये सभा समाप्त करना चाहता हूँ, कारण कि तुमलोगों के जलपानादि का भी समय निकला जा रहा है।’’

नहीं महाराज, आहारनिद्राभयमैथुनम् च...जैसा कुछ सूक्ति है न–– ये सब तो नित्य, और कहीं भी, होते ही रहता है; किन्तु आप महानुभावों का सानिध्य-लाभ तो बड़े भाग्य से ही मिलता है। खैर, कहने की कृपा करे। पहले कालीतन्त्र पर ही बातें हो जाए। हम अल्पज्ञों के पास बचकाने सवालों का तो ढेर रहता है।

मुस्कुराते हुए वृद्धबाबा ने कहा- ‘‘कालीतन्त्रम् में इस क्रिया विधि को और भी स्पष्ट किया गया है- निजबीजं तथा कूर्चं लज्जाबीजं ततः परम्। दक्षिणे कालिके चेति तदन्ते बह्निसुन्दरी॥

एकादशाक्षरी विद्या चतुर्वर्गफलप्रदा।  मूलबीजंद्वयं ब्रूयात् ततः कूर्चंद्वयं वदेत्॥
लज्जायुग्मं समुद्धृत्य सम्बोधनपदद्वयम्। स्वाहान्ता कथिता विद्या चतुर्वर्गफलप्रदा॥
मूलत्रयं ततः कूर्चत्रयं मायात्रयं तथा। सम्बोधनपदैद्वन्द्वमन्ते च वह्निसुन्दरी। एषा विद्या महादेवी कालीसानिध्यकारिणी॥
इन्हीं भावों को कुमारीतन्त्रम् में भी व्यक्त किया गया है – कामाक्षरं वह्निसंस्थं रतिविन्दुविभूषितम्। मन्त्रराजमिदं ख्यातं दुर्लभं पापकर्मणाम्। भोगमोक्षैकनिलयं कालिकाबीजमुत्तमम्। एकं द्वयं त्रयं वाऽपि निजबीजवदुत्तमम्। दक्षिके कालिके नाम पुटितं वा यथोदितम्। निजबीजं तथा कूर्चं लज्जाबीजमिति त्रयम्। एकद्वित्र्यादिपूर्वं स्यात् सम्बोधनपदद्वयम्। पुटितं वा तथा पूर्वबीजैरेकादिकैरिति। नाम ठद्वय मित्याद्या भेदाः स्युर्दक्षिणागताः॥

’’

वृद्धबाबा द्वारा उक्त संकेतों की स्पष्टी सुनकर, पुनः उत्सुकता जगी, जिसे संवरित न कर पाया –- महाराज, वैसे तो संस्कृत का विशेष ज्ञान नहीं है, किन्तु स्तोत्र में कहे गये- श्मशानस्थः स्वस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः। सहस्रं त्वर्काणां निज गलित वीर्येण कुसुमम्.....इत्यादि जो पद हैं, जिसमें श्मशान भूमि में सूर्यपुष्प और निज वीर्य से हवन करने की बात कही गयी है, इतना ही नहीं, तन्त्र की पुस्तकों में निकृष्ट से निकृष्ट वस्तुओं के पूजन-प्रयोग की बात कही जाती है- आखिर ये सब क्या रहस्य है?

बहुत देर से चुप बैठे, सुनते आ रहे, उपेन्द्रबाबा ने इस बार चुप्पी तोड़ी- ‘‘बहुत पहले मैंने किसी प्रसंग में तुमसे कर्पूरस्तोत्र के एक श्लोक की चर्चा की थी - सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते परं मैषं वौष्ट्रं नरमहिषयोश्छागमपि वा। वलिं ते पूजायामपि वितरतां मर्त्त्यवसतां सतां सिद्धिः सर्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति— जिसमें इन प्रसंगों में प्रयुक्त गूढ़ार्थों की भी खुल कर चर्चा हुई थी। क्या इन्हीं अर्थो के आलोक में अन्यान्य तान्त्रिक शब्दों का गूढ़ार्थ नहीं ढूँढा जा सकता?’’

जी हाँ, बिलकुल ढूढ़ा जा सकता है, और स्मरण भी हैं आपकी वे बातें-- मैं थोड़ा लज्जित होते हुए बोला।

उपेन्द्रबाबा ने ही आगे कहा- ‘‘कुलचूणामणितन्त्रम् में कहा ही गया है- नखं केशं स्ववीर्यं च यद्यत् सम्मार्जनीगतम्। मुक्तकेशो दिगावासो मूलमन्त्रपुरःसरम्। कुजवारे मध्यरात्रौ जुहुयाद्वै श्मशानके... तथा उत्तरतन्त्र में कहा गया है—

मांसं रक्तं तिलं केशं नखं भक्तं च पायसम्। आज्यं चैव विशेषेण जुहुयात् सर्वसिद्धये॥

किन्तु उसी प्रसंग में आगे यह भी स्पष्ट किया गया है- श्मशान क्या है, वीर्य किसे कहते हैं, आहुति से क्या तात्पर्य है, स्रुवा क्या है, क्रिया क्या है, मैथुन क्या है, रति और विपरीत रति में क्या अन्तर है..आदि-आदि—मूलाधारगते देवि देवताग्नि समुज्ज्वले। धर्माधर्मान्विते त्र्यस्रैर्मूलमन्त्रपुरःसरम्। अहं जुहोमि स्वाहेति प्रत्येकं जुहुयात् सुधीः। अहन्तासत्यपैशून्य- कामक्रोधादिकं हविः। मन एव स्रुवः प्रोक्तः उन्मनी स्रुगुदीरिता॥
अतः तन्त्र के इन गूढ़ शब्दों पर कदापि शंका न करो, और न इन्हें निकृष्ट भाव से देखो ही।

इतना कह कर उपेन्द्रबाबा ने वृद्धबाबा की ओर देखा। उन्होंने भी सिर हिलाते हुए उनकी बातों का समर्थन किया।

आशा देखते-देखते वाजूगोस्वामी को आना ही पड़ा। उसे आता देख उपेन्द्रबाबा उठ खड़े हुए, साथ ही वृद्धमहाराज भी। हमलोगों को भी उठना ही पड़ा। आज की ये प्रातः कालीन सभा विसर्जित करनी पड़ी। सूर्य भी मध्याह्नगामी होने को आतुर हो रहे थे। मन की प्यास को तन की भूख के सामने किंचित झुकना पड़ा। न भी झुकता यदि, तो बाबाओं की अवज्ञा होती।

विलम्बित जलपान के वजाय, अग्रिम भोजन सम्पन्न करके, घड़ी भर विश्राम किया। भोजन कक्ष में ही उपेन्द्रबाबा ने अगाह कर दिया था- ‘‘थोड़ा विश्राम कर लो, फिर बैठकी लगायी जायेगी। रात की गाड़ी से तो तुमलोगों की वापसी भी है न! मैं तो सदा तुम्हारे साथ हूँ ही, किन्तु विन्ध्यवासी बाबा का सानिध्य जितना लिया जा सके ले लो। कौन जाने फिर कब मिलना हो!’’

पुनः वटवृक्ष तले शिवचैत्य पर बैठकी लग गयी, अपराह्न दोबजे करीब। मेरे कुछ अनुत्तरित प्रश्नों पर वृद्धमहाराज ने स्वयं चर्चा छेड़ दी -- ‘‘तुम्हारी जिज्ञासा या कहो आशंका थी न कि शरीर में विविध यन्त्र दिखते तो हैं नहीं कहीं, तथा ये विभिन्न स्तोत्रों और मन्त्रों की वर्ण योजना जिसका तोतारट लगाते जीवन चुक जाता है, पर कुछ होता-जाता नहीं- आखिर क्या रहस्य है इसमें। तुम्हारे अन्दर ये कुलबुलाहट भी निरन्तर चलते रहा है कि ‘धीमहि...धीमहि’ का रट लगाने से क्या सच में ‘धी’ - बुद्धि मिल जायेगी?—ये सारे सवाल बिलकुल बचकाने हैं- अज्ञानता पूर्ण हैं। ऐसा इसलिए क्यों कि जानकारी नहीं है। वर्णों के रहस्य का ज्ञान नहीं है। वर्णों की क्षमता का कुछ पता नहीं है। देवनागरी के ये वर्ण तुम्हारे अंग्रेजी के अल्फावेट नहीं हैं। इन्हें निर्जीव और निर्बीज समझने की भूल न करो। ये जो भी हैं परमजागृत, परमचैतन्य और स्वरुपवान हैं। इसे पूर्णरुप से समझने के लिए वर्णों और मात्रिकाओं का रहस्य जानना अत्यावश्यक है। मानव कायस्थ, इन्हीं मात्रिकाओं को स्तोत्रपाठ वा जप के क्रम में चैतन्य(जागृत) करते हैं। वैसे परमचैतन्य को जागृत करने का कोई तुक नहीं। जगे हुए को क्या जगाना! दूसरे शब्दों में कह सकते हो कि परमचेतना की चेतनता की अनुभूति करते हैं हम, वस और कुछ नहीं। जो है सदा-सर्वत्र, हम उसे ही समझते-देखते, अनुभव करते हैं। तुमने मन्त्रों के द्रष्टा, उपदेष्टा, छन्द, ऋषि, देवता, शक्ति, कीलन, उत्कीलन आदि के बारे में सुना या पढ़ा होगा। इतना ही नहीं प्रत्येक वर्णों के निज तत्त्व, वर्ग, ग्रह, राशि, नक्षत्र, स्थान, स्वरुप, ध्यान, न्यास आदि भी निश्चित हैं। ये सब कोई कोरे बकवास थोड़े जो हैं। दीर्घ साधना के पश्चात् हमारे महर्षियों ने इनका साक्षात् दर्शन किया है। तज्जनित पूरी बातों का ज्ञान प्राप्त किया, न कि महज जानकारी। प्रायः तुम नये लोग तो जानकारी को ही ज्ञान समझने की भूल कर बैठते हो। हाँ, ये बात अलग है कि सद्गुरुमुख से कर्णगुहा में प्रवेश के पश्चात् प्राप्त जानकारी को आधार बना कर साधक को ज्ञान-दर्शन के शिखर तक पहुँचना होता है। सैद्धान्तिक रुप में बहुत सी बातें हैं। उन सबका विश्लेषण, और प्रस्तुति यहाँ आवश्यक भी नहीं है। समयानुसार स्वयं भी जान जाओगे, यदि अभिरुचि होगी इन विषयों में। अल्प समय में मैं इनसे सम्बन्धित कुछ खास बातों का संकेत किये देता हूँ।’’

इतना कह कह वृद्धबाबा जरा रुके, और मेरे चेहरे पर गौर करने लगे। वे कुछ कहना ही चाहते थे कि उसके पूर्व गायत्री करवद्ध प्रार्थना पूर्वक कहने लगी–– ‘नहीं महाराज! समय तो हमेशा कम ही होता है, ज्यादा हुआ कहाँ है किसी के पास। मैं सिर्फ इतना ही आग्रह करुंगी कि यदि हमें इन विषयों का अधिकारी समझते हों तो यथासम्भव अधिक से अधिक जानकारी देने का कष्ट करें, साथ ही समुचित मार्गदर्शन भी करें, ताकि....।’

गायत्री की इच्छा की अनुशंसा करते हुये उपेन्द्र बाबा बीच में ही बोल पड़े- “समझ गया...समझ गया, तुम्हारी वांछा क्या है। बाबा जाने या नहीं जाने, मैं तो तुम्हारे रग-रग से वाकिफ़ हूँ। नीम्बू से रस की अन्तिम बूंद तक निचोड़ लेना चाहती हो। अतः चिन्ता न करो, मैं भी महाराज से यही प्रार्थना करूंगा कि जहाँ तक कथ्य हो कह ही डालें। इतना तो तय है कि घी किसी उपले पर नहीं उढेला जा रहा है...।”

उनकी इस बात पर बृद्धबाबा हँसने लगे। गायत्री अपने पुराने अंदाज में ठुनकती-तुनकती हुयी बोली- ‘तुम तो उपेन्दर भैया मेरी कलई ही खोलते रहते हो। ये भी जान रखो कि जहाँ भी गाड़ी फंसेगी, तुम्हारा ही सिर चाटूंगी।’

इस बार दोनों बाबा हठाकर हँस पडें। उपेन्द्रबाबा ने कहा- ‘‘ठीक है

चाटती रहना। परन्तु पहले ‘ककहरा-मनतरा’ तो सुनाओ। देखूं तो जरा, ठीक से याद भी है या नहीं।’’

तुनकती हुयी गायत्री, एक ही सांस में सब सुना गयी, फिर बोली- ‘तुम्हें

क्या लगता है, दिल्ली वाली होकर, ये भी भूल गयी हूँ? अभी भी पूरे औरंगावादी ही हूँ।’

‘‘कौन कहता है कि भूल गयी हो, भूलने की बात तो तब आती है, जब कभी याद की गयी हो। सच पूछो तो सही ढंग से इन अद्भुत वर्ण-मात्रिकाओं का ज्ञान ही नहीं कराया जाता। पहले के समय में कम से कम लधुसिद्धान्त कौमुदी पढ़ाई जाती थी। पाणिनीशिक्षा का ज्ञान कराया जाता था। पतञ्जलि के महाभाष्य का मन्थन भी होता था। फिर भी बहुत कसर रह जाता था। पर अब तो सही ढंग से अक्षरों का ज्ञान भी नहीं कराया जाता।’’- नकारात्मक सिर हिलाते हुए बृद्धबाबा ने कहा- ‘‘मात्रिकाओं के रहस्य को समझने के लिए बहुत कुछ जानने-समझने की आवश्यकता है। भाषा और व्याकरण की दृष्टि से सामान्य स्वर-व्यंजनों की जानकारी, और उच्चारण भर से प्रायः काम चल जाता है दुनिया का, किन्तु साधक को इसके रहस्य में डूबना होता है। अतः तन्निहित गूढ़ बातों का ज्ञान अति आवश्यक है। पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड आदि में तुमने मात्रिका पूजन अवश्य सुना होगा। किया भी होगा। क्या कभी जानने का प्रयत्न किया कि ये सप्तमात्रिकायें, षोडशमात्रिकायें, चतुःषष्ठीमात्रिकायें क्या हैं?’’

जी महाराज! पूजा-पद्धतियों में इन सबके नाम और आवाहन मन्त्र जो दिये रहते हैं, उनकी तो जानकारी है, थोडा-बहुत। विशेष न कभी प्रश्न उठा मन में, और न जानकारी ही हुयी – बाबा की बातों का मैंने उत्तर दिया।

सिर हिलाते हुए बृद्धबाबा ने कहा- ‘‘समझ रहा हूँ। अधिक से अधिक इतने तक ही आम आदमी की पहुंच रहती है। विशेष के लिए तो विशेष ही होता है। तुम्हें यह स्पष्ट कर दूं कि विविध तन्त्र-ग्रन्थों में इनकी विशद चर्चा है। ललितासहस्रनाम के १६७ वें श्लोक में मात्रिका वर्णरुपिणी कह कर इसकी गरिमा सिद्ध की गयी है। सामान्य रूप से वर्णों को अलग-अलग, तथा वर्णमाला को एकत्र रूप से मातृका के नाम से जाना जाता है। ये चार प्रकार से प्रयुक्त होती हैं- १) केवल, २) विन्दुयुक्त, ३) विसर्गयुक्त, ४) उभयरुप। महाभाष्य में केवलमातृका को साक्षात् ब्रह्मराशि कहा गया है-

सोऽयं वाक्समाम्नायो वर्णसमाम्नायः पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो वेदितव्यो ब्रह्मराशिः॥

तो, स्वच्छन्दतन्त्रम् में न विद्या मातृकापरा कह कर प्रतिष्ठित किया गया है। यह जान लो कि सम्पूर्ण वर्णमाला रूप मातृका की उत्पत्ति प्रणव से हुयी है। यही कारण है कि ओंकार का एक नाम मातृकासूः भी है। तथा इस पर भी ध्यान दो कि सामान्य तौर पर लोग अक्षमाला का अर्थ रूद्राक्ष की माला समझ लेते हैं, किन्तु इसका तान्त्रिक अर्थ कुछ और ही है। महायोगी शिव जिस अक्षमाला का निरन्तर जप करते रहते हैं वह है- अकार से क्षकार पर्यन्त विन्दुयुक्त मातृका , न कि कुछ और। जैसा कि कहा गया है- कथयामि वरारोहे यन्मया जप्यते सदा। अकादिक्षकारान्ता मातृका वर्णरूपिणी। चतुर्दशस्वरोपेता बिन्दुत्रय विभूषिता ...॥
ध्यातव्य है कि वैष्णव व्याकरण(हरिनामामृत) में जीवगोस्वामी ने जिस वर्णमाला की चर्चा की है, और पाणिनी प्रणीत माहेश्वर वर्णमाला में किंचित मातृका-क्रम-भेद है। वर्णमाला को स्थूलमातृका भी कहते हैं। यही वैखरी वाक् है- विशेषेण न खरः कठिनस्तस्येयं वैखरी सैव रूपं यस्याः ...वै निश्चयेन खं कर्णविवरं राति गच्छतीति व्युत्पत्तिः ...विखरे शरीरे भवत्वात् वैखरीपदाभिधेया...प्राणेन विखराख्येन प्रेरिता पुनरिति योगशास्त्रवचनाद्विखरवायुनुन्नेति वा... इन वचनों से तन्त्रालोकविवेक, सौभाग्यभास्कर आदि ग्रन्थों में इसे स्पष्ट किया गया है। कथन का अभिप्राय ये है कि कठिन या घनीभूत है, निश्चित रूप से कर्णविवर यानी ‘ख’ में पैठती है, विखर नामक प्राण से प्रेरित होती है- इन कारणों/लक्षणों से इसका वैखरित्व सिद्ध होता है। वर्णों से बने शब्दों का जो प्रत्यक्ष उच्चारण करते हो, जिसके माध्यम से संवाद करते हो–– वक्ता के मुखविवर से स्रोता के कर्णविवर तक की वर्णयात्रा जो होती है, वह वाणी वस्तुतः वैखरीवाणी कही जाती है। इसके बाद की उत्तरोत्तर स्थितियां क्रमशः मध्यमा, पश्यन्ती, और परा कही जाती है। परा और पश्यन्ती को सूक्ष्मतर या कि सुसूक्ष्म मातृका कहते हैं। सच पूछो तो ये भगवती मातृका ही समस्त वाच्यवाचकात्मक चराचर जगत के अभेद का भोगानन्द प्रदान करने वाली शब्दराशि की विमर्शिनी हैं। अरणिकाष्ठ में जिस भांति अग्नि छिपी होती है, वा उसके मन्थन से प्रकट होती है, तद्भांति ही सभी मन्त्र इसी से उत्पन्न होते हैं। बुद्धि से संयुक्त होकर, उसके सम्पर्क में आकर यही मध्यमा वाणी का रूप ग्रहण करती है। यह मातृका ही परमदेवी है, परम शक्तिस्परूपा है। घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फोट, ध्वनि, झंकार, ध्वंकृति आदि अष्टविध शब्दों में व्याप्त होने के कारण इसे ही अक्रमामातृका भी कहते हैं। सूतसंहिता यज्ञवैभव खंड में कहा गया है- 

मन्त्राणां मातृभूता च, मातृका परमेश्वरी। बुद्धिस्था मध्यमा भूत्वा विभक्ता बहुधा भवेत्॥

सा पुनः क्रमभेदेन महामन्त्रात्मना तथा॥
मन्त्रात्मना च वेदादिशब्दाकारेण च स्वतः। सत्येतरेण शब्देनाप्याविर्भवति सुव्रताः॥
मातृका परमादेवी स्वपदाकारभेदिता। वैखरीरुपतामेति करणैर्विशदा स्वयम्॥
इस संहिता के टीकाकार श्रीमाधवाचार्यजी तो यहाँ तक कहते हैं कि मातृका का पररूप परा और पश्यन्ति से भी परे है- बिन्दुनादात्मक है– परापश्यन्त्याद्यवस्थातः प्राक् बिन्दुनादाद्यात्मकं यन्मातृकायाः सूक्ष्मं रूपम्। इसका विशद वर्णन करने में वाणी सर्वथा अक्षम है। साधकगण ध्यानावस्था में ही इसकी सही अनुभूति कर सकते हैं, जिसका आंशिकरुप ही शब्दरुप में प्रकट हो सकता है, या कहो किया जा सकता है।”

जरा ठहर कर बृद्धमहाराज फिर कहने लगे–– “इस सम्बन्ध में किंचित मतान्तर, और स्थिति भेद से सप्त, अष्ट और नव वर्गों की चर्चा भी मिलती है। किन्तु इन सब पर चर्चा करने से पूर्व सभी वर्णों की बात करता हूँ। सबसे पहले कम से कम इनकी सही संख्या और स्थिति तो जान-समझ लो-

१.अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, लृ, ॡ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः- ये १६ स्वर वर्ण हैं, चौदह नहीं, जैसा कि अभी तुम सुनायी। २.क, ख, ग, घ, ङ ३.च, छ, ज, झ, ञ ४.ट, ठ, ड, ढ, ण ५.त, थ, द, ध, न. ६.प, फ, ब, भ, म. ७.य, र, ल, व. ८.श, स, ष, ह, क्ष- ये चौंतीश व्यंजन कहे गये हैं। व्यंजन अर्थात् मिले हुए। इस प्रकार कुल पचास वर्ण कहे गये हैं। यहाँ प्रसंगवश एक और बात जान लो कि मात्रिकाचक्रविवेक और भास्कर राय के मत से ‘ळ’ इस विशिष्ट वर्ण की भी गणना की गयी है–– श्लिष्टं पुरः स्फुरितसद्वय कोटिळक्ष- रुपं परस्परगतं च समं च कूटम्॥

ये स्वर और व्यंजन तन्त्रशास्त्रों में पुनः दो नामों से जाने जाते हैं। स्वरों को बीज, और व्यंजनों को योनि जानो। योनि और बीज से ही सारा जगत प्रपंच रचा-बसा है। वामकेश्वरीमतम् में कहा गया है –– यदक्षरैकमात्रेऽपि संसिद्धे स्पर्द्धते नरः। रवितार्क्षेन्दुकन्दर्पशङ्करानलविष्णुभिः॥
यदक्षरशशिज्योत्स्नामण्डितं भुवन त्रयम्। वन्दे सर्वेश्वरीं देवीं महाश्रीसिद्धमातृकाम्॥
यदक्षरमहासूत्रप्रोतमेततज्जग- त्त्रयम्। ब्रह्माण्डादिकटाहान्तं जगदद्यापि दृश्यते॥
अर्थात् उक्त वर्णों में किसी एक की भी सिद्धि हो जाये तो मनुष्य सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, कंदर्प, अग्नि, यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी स्पर्द्धा करने लगता है। कथन का अभिप्राय ये है कि इतना महान हो जाता है वह साधक। सर्वेश्वरी महासिद्धिमातृका देवी के एक अक्षररुप चन्द्रमा की ज्योत्सना से ये त्रिभुवन प्रकाशित हो रहा है। समस्त ब्रह्माण्ड उस सिद्धमातृका के वर्णमय महासूत्र में अनुस्यूत हैं। इसमें जरा भी अतिशयोक्ति न समझो। ये ‘अ’ वर्ग ही भैरव है- स्वतः प्रकाशित, ‘शब्दन’ स्वभावशील, भेदरुप उपताप तथा विश्व का आक्षेप करने के कारण भैरव- स्वर वाच्य है। इसे ही मूल बीज जानो। इस प्रकार भैरव को ही स्वरों का अधिष्ठाता कहा गया है। और उधर ‘क’ आदि योनिवर्ण हैं, उन्हें ही भैरवी जानो। दूसरे शब्दों में इसे ही महेश्वर और उमा कह सकते हो। उमा शरीरार्द्ध हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि शक्तिवर्गों के अधिष्ठातृदेवता भैरव और अधिष्ठातृदेवी उमा (भैरवी) हैं। स्वच्छन्दतन्त्रम् में कहा गया है- 

अवर्गे तु महालक्ष्मीः कवर्गे कमलोद्भवा, चवर्गे तु महेशानी टवर्गे तु कुमारिका। नारायणी तवर्गे तु वाराही तु पवर्गिका॥