बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 34 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझे भी सुनना ही उचित लगा, लिखने का साधन भी तत्काल उपलब्ध नहीं था। बाबा कहने लगे–

क्रम वर्ण ऋषि छन्द रुद्र शक्ति विष्णु शक्ति १. अ अर्जुन्यायन मध्या श्रीकण्ठ पूर्णोदरी केशव कीर्ति २. आ अर्जुन्यायन मध्या अनन्त विरजा नारायण कान्ति ३. इ भार्गव प्रतिष्ठा सूक्ष्म शाल्मली माधव तुष्टि ४. ई भार्गव प्रतिष्ठा त्रिमूर्ति लोलाक्षी गोविन्द पुष्टि ५. उ अग्निवेश्य सुप्रतिष्ठा अमरेश्वर वर्तुलाक्षी विष्णु धृति ६. ऊ अग्निवेश्य सुप्रतिष्ठा अर्धीश दीर्घधोणा मधुसूदन क्षान्ति ७. ऋ अग्निवेश्य सुप्रतिष्ठा भावभूति सुदीर्घमुखी त्रिविक्रम क्रिया ८. ॠ गौतम गायत्री तिथि गोमुखी वामन दया ९. लृ गौतम गायत्री स्थाणु दीर्घजिह्वा श्रीधर मेघा १०. ॡ गौतम गायत्री हर कुण्डोरी हृषीकेश हर्षा ११. ए गौतम गायत्री झिंटीशा ऊर्ध्वकेशी पद्मनाभ श्रद्धा १२. ऐ लौहित्यायन अनुष्टुप भौतिक विकृतमुखी दामोदर लज्जा १३. ओ लौहित्यायन अनुष्टुप सद्योजात ज्वालामुखी वासुदेव लक्ष्मी १४. औ वशिष्ठ वृहति अनुग्रहेश्वर उल्कामुखी सङ्कर्षण सरस्वती १५. अं वशिष्ठ वृहति अक्रूर श्रीमुखी प्रद्युम्न प्रीति १६. अः माण्डव्य दण्डक महासेन विद्यामुखी अनिरुद्ध रति १७. क मौद्गायन पङ्क्ति क्रोधीश महाकाली चक्री जया १८. ख अज त्रिष्टुप चण्डेश सरस्वती गदी दुर्गा १९. ग अज त्रिष्टुप पंचान्तक गौरी शार्ङ्गी प्रभा २०. घ अज त्रिष्टुप शिवोत्तम त्रैलोक्यविद्या खड्गी सत्या २१. ङ अज त्रिष्टुप एकरुद्र मन्त्रशक्ति शंखी चंडा २२. च योग्यायन जगती कूर्म आत्मशक्ति हली वाणी २३. छ गोपाल्यायन अतिजगती एकनेत्र भूतमाता मुरली विलासिनी २४. ज नषक शक्वरी चतुरानन लम्बोदरी शूली विरजा २५. झ अज शक्वरी अजेश द्राविणी पाशी विजया २६. ञ काश्यप अतिशक्वरी शर्व नागरी अंकुशी विश्वा २७. ट शुनक अष्टि सोमेश्वर वैखरी मुकुन्द वित्तदा २८. ठ सौमनस्य अत्यष्टि लांगलि मञ्जरी नन्दज सुतदा २९. ड कारण धृति दारुक रुपिणी नन्दी स्मृति ३०. ढ माण्डव्य अतिधृति अर्द्धनारीश्वर वारिणी नर ऋद्धि ३१. ण माण्डव्य अतिधृति उमाकान्त कोटरी नरकजित समृद्धि ३२. त सांकृत्यायन कृति आषाढ़ी पूतना हरि शुद्धि ३३. थ सांकृत्यायन कृति दण्डी भद्रकाली कृष्ण भुक्ति ३४. द सांकृत्यायन कृति अद्रि योगिनी सत्य मुक्ति ३५. ध सांकृत्यायन कृति मीन शंखिनी सात्वत मति ३६. न कात्यायन प्रकृति मेष गजिनी शौरि क्षमा ३७. प कात्यायन प्रकृति लोहित कालरात्रि शूर रमा ३८. फ कात्यायन प्रकृति शिखी कुब्जिनी जनार्दन उमा ३९. ब दाक्षायण आकृति छगलण्ड कपर्दिनी भूधर क्लेदिनी ४०. भ व्याघ्रायण विकृति द्विरण्ड महावज्रा विश्वमूर्ति क्लिन्ना ४१. म शाण्डिल्य संकृति महाकाल जया वैकुण्ठ वसुदा ४२. य काण्डल्य अतिकृत कपाली सुमुखेश्वरी पुरुषोत्तम वसुधा ४३. र काण्डल्य अतिकृत भुजंगेश रेवती बली परा ४४. ल दाण्ड्यायन उत्कृति पिनाकी माधवी बलानुज परायणा ४५. व जातायन दण्डक खङ्गीश वारुणी बाल सूक्ष्मा ४६. श लाट्यायन दण्डक वक वायवी वृषघ्न सन्ध्या ४७. ष जय दण्डक श्वेत रक्षोविदारिणी वृष प्रज्ञा ४८. स जय दण्डक भृगु सहजा सिंह प्रभा ४९. ह जय दण्डक नकुली लक्ष्मी वराह निशा ५०. क्ष माण्डव्य दण्डक संवर्तक माया नृसिंह विद्युता ५१. ळ माण्डव्य दण्डक शिव व्यापिनी विमल अमोघा

इतना बतला कर वृद्धबाबा ने थोड़ी लम्बी सांस ली, और फिर कहने लगे- ‘‘इस प्रकार इक्यावन मातृकायें न्यस्त हैं हमारे शरीर में। दूसरे शब्दों में कह सकते हो कि इक्यावन शक्तिपीठ हैं हमारे शरीर में, उन्हीं का ध्यान-चिन्तन करना है साधक को। ये जो वृहत् सारणी बतलायी गयी तुम्हें, इन्हें सही ढंग से स्मरण रखना तो अति दुरुह होगा। बिना लेखनी के यह सम्भव नहीं, किन्तु अब इसका भी सरल उपाय कहे देता हूँ। शारदातिलकतन्त्रम् में थोड़े ही शब्दों में इन्हें व्यक्त किया गया है, जिन्हें सहज ही स्मरण में उतार सकते हो। यथा- अर्जुन्यायनमध्ये द्वौ भार्गवस्तौ प्रतिष्ठिका। अग्निवेश्यः सुप्रतिष्ठा त्रिषु चाब्धिषु गौतमः॥

गायत्री च भरद्वाज उष्णिगेकारके परे। लोहित्यायनकोऽनुष्टुप् वशिष्ठो वृहती द्वयोः॥
माण्डव्यो

दण्डकश्चापि स्वराणां मुनिछन्दसी। मौद्गायनश्च पङ्क्तिः केऽजस्त्रिष्टुप् द्वितये घङों॥

योग्यायनश्चजगती गोपाल्यायनको मुनिः। छन्दोऽतिजगती चे छेन्नषकः शक्वरी ह्यजः॥
शक्वरी काश्यपश्चातिशक्वरी झञयोष्टठोः। शुनकोऽष्टिः सौमनस्योऽत्य ष्टिडे कारणो धृतिः॥
ढणोर्माण्डव्यातिधृति साङ्कृत्यायनकः कृतिः। त्रिषु कात्यायनस्तु स्यात् प्रकृतिर्नपफेषु बे॥
दाक्षायणाकृति व्याघ्रायणो भे विकृतिर्मता। शाण्डिल्यसङ्कृती मेऽथ काण्डल्याति-कृति यरोः॥
दाण्ड्यायनोत्कृती लेऽथ वे जात्यायनदण्डकौ। लाट्यायनो दण्डकः शे षसहे जयदण्डकौ। माण्डव्यदण्डकौ ळक्षे कादीनामृषिछन्दसी॥
- इस प्रकार वर्णों के ऋषि और छन्दों का ज्ञान सहज ही कर सकते हो इन श्लोकों को स्मरण में रखकर। वहीं आगे-पीछे, इसी प्रसंग में कुछ और भी महत्त्वपूर्ण संकेत तुम्हें मिल जायेंगे- वर्णों का स्वरुप, कला वगैरह, जिसके सहयोग से ध्यान करने में सुविधा होगी। कुछ अन्य तन्त्र-ग्रन्थों का भी यत्किंचित सहयोग लेना पडता है, ताकि स्वरुप, वाहनादि को अधिक स्पष्ट किया जा सके। विविध ग्रन्थों का सार-संक्षेप थोड़े शब्दों में अभी मैं तुम्हें बताये दे रहा हूँ, क्यों कि समय को भी ध्यान में रखना है। काफी देर से हमलोग यहाँ बैठे हुए हैं। फिर कभी संयोग हुआ तो और बातें हो सकेगी, या फिर तुम्हारे उपेन्द्र भैया भी कोई कम थोड़े जो हैं। मेरे पास जो भी था, पिछले कई वर्षों में सबकुछ उढेल दिया हूँ इनकी गागरी में।’’- कहते हुए बाबा ने पहले तो ऊपर आकाश की ओर देखकर, समय का अनुमान किया, और फिर उपेन्द्रबाबा की ओर देखते हुए बोले- ‘‘क्या विचार है, सभा-विसर्जित किया जाय अब?’’

उपेन्द्रबाबा ने पहले गायत्री की ओर देखा, क्यों कि उसकी तृप्ति-सहमति के बिना उठ जाने का मतलब है, अपना सिर चटवाना, भले ही यहाँ, सुधनीगाय बनी बैठी है।

उनका मनोभाव समझती गायत्री ने कहा- ‘समय तो पंख लगाये उड़ा जा रहा है, अब बताओ न- इतनी जल्दी भला चार बज जाना चाहिए?’

उपेन्द्रबाबा ने हँसते हुए कहा- ‘चार तो ठीक चार बजे ही बजता है गायत्री! ना क्षणभर पहले और ना क्षणभर बाद। वैसे तुम्हारी तृप्ति अभी नहीं हुयी हो, तो तुम्हारी ओर से महाराजजी से निवेदन करता हूँ कि कम से कम वर्णों के वर्ण (रंग), स्वरुप और वाहनादि पर थोड़ा और प्रकाश डाल दें, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा भी - संक्षेप में ही सही।’

‘‘ठीक है। ठीक है, सबकी राय है तो बता ही देता हूँ।’’- कहते हुए, वृद्ध महाराज ने कुछ देर के लिए अपनी आँखें मूंदी, मानों वर्ण-स्वरुपों का साक्षात्कार कर रहे हों, और फिर कहना शुरु किये- ‘‘तन्त्रशास्त्र का मत है कि अकारादि सभी वर्ण अमृतमय होने के कारण अतिनिर्मल हैं। ललाटदेश में आज्ञाचक्र से जरा ऊपर स्थित अर्द्धचन्द्र से जो अमृतविन्दु क्षरित होता है, वही नीचे मूलाधारादि कमलदलों में आकर वर्णरुप में परिलक्षित होता है। सनत्कुमारसंहिता में इस विषय में विस्तृत वर्णन मिलता है। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ, पुनः स्मरण दिला दूं कि पञ्चभूतात्मक, पञ्चप्राणात्मक त्रिदेवादि विभूषित होने के कारण इन मातृकाओं का नील-पीतादि त्रिवर्णीय होना तो स्वतः सिद्ध है, फिर भी किंचित मतान्तर भी है। वस्तुतः ये कोई विशेष शंका वाली बात नहीं है। साधनाक्रम में जिस साधक को यत्किंचित अन्तर प्रतीत हुआ, या कहो, उसने जो जैसा अनुभव किया, लोककल्यार्थ उसे प्रकट करने का, व्यक्त करने का प्रयास किया। स्थूल रुप से कहा जाय तो कह सकते हैं कि अकारादि स्वरों का वर्ण (रंग) धूम्र है। ‘क’ से लेकर ‘ट’ पर्यन्त सभी वर्ण सिन्दूरी आभावाले हैं। यहाँ यह ध्यान रखना कि आजकल तरह-तरह के सिन्दूर उपलब्ध हैं बाजार में- लाल, पीले, काले, हरे, नीले..., जो सिर्फ श्रृंगार-प्रसाधन मात्र हैं, जिसे जो रुचिकर लगे; किन्तु असली सिन्दूर जो हिन्गुल नामक खनिज-द्रव्य से तैयार होता है, उसका अपना विशिष्ट सौन्दर्य है। पारद के उर्ध्वपातन के पश्चात् जो अवशिष्ट रह जाता है, वही असली सिन्दूर है। हिंगुल से पारद निकाल लेने के बाद, अवशिष्ट द्रव्य को विधिवत अतिपिष्ट कर लो, बस शुद्ध असली सिन्दूर तैयार हो गया। इसी सिन्दूर का उपयोग समस्त तान्त्रिक क्रियाओं में फलद होता है, न कि बाजार का रंग-रोगन। अब जरा सोचो- पारद यानी शिववीर्य के अलग हो जाने के पश्चात् पार्वती का शोणितांश ही तो शेष रह गया सिन्दूर नाम-ख्यात होकर।”

सिन्दूर-निर्माण की चर्चा सुन गायत्री मेरी ओर देखी। मैं भी उसका भाव समझ गया। उपेन्द्रभैया ने सियारसिंगी के पूजन में इसी असली सिन्दूर के प्रयोग के बारे में कहा था, किन्तु बनाने की विधि की चर्चा उस समय न हो सकी थी। अभी बृद्धबाबा के श्रीमुख से उस विधि को जान कर अतिशय प्रसन्नता हुयी गायत्री को, क्यों कि उसका मुखमंडल ही गवाही दे रहा था- इस बात के लिए।

बृद्धबाबा ने कह रहे थे–– ‘ड’ से लेकर ‘फ’ तक वर्णों का रंग गौर है। ब, भ, म, य और र का रंग अरुण है। ल, व, श, ष, स - ये पांच, स्वरों की भांति स्वर्णवर्णी ही हैं। ‘ह’ और ‘क्ष’ सौदामिनी(विजली) के समान आभायुक्त हैं। इस सम्बन्ध में सूतसंहिता के वचन हैं–– अकारादिक्षरान्तैर्वर्णैरत्यन्तनिर्मलैः। अशेषशब्दैर्या भाति तामानन्दप्रदां नुमः॥

वर्णों के वर्ण(रंग) को सनत्कुमारसंहिता के इस वचन से तुम सहज ही स्मरण में रख सकते हो- अकाराद्याः स्वरा धूम्राः सिन्दूराभास्तु कादयः। डादिफान्ता गौरवर्णा अरुणाः पञ्च वादयः। लकाराद्याः काञ्चनाभाः हकारान्त्यौ तडिन्निभौ॥
किंचित तन्त्र-ग्रन्थों में स्वरों को स्फटिक सदृश, स्पर्श वर्णों को विद्रुम सदृश, यकारादि नव वर्णों को पीत, और क्षकार को अरुण भी कहा गया है। सौभाग्यभास्कर भी विविध वर्ण भेदों को स्वीकारता है। कामधेनुतन्त्रम् में भी कुछ ऐसी ही चर्चा है। कहा जाता है कि ये मातृकावर्ण ही पचास युवतियां हैं, जो विश्वब्रह्माण्ड में सर्वव्याप्त हैं। गीतवाद्यादि में निपुण और रत, ये सब के सब किशोरवयसा, शिवप्रियायें हैं। पुष्प-कलिका के गर्भ में जिस भांति गन्धादि संनिहित होता है, तद् भांति ही त्रिधा विभक्त शक्तियां- इच्छा, ज्ञान और क्रिया, साथ ही पंचतत्त्व, पंचदेव और पंचप्राण सहित आत्म-तत्त्व, विद्या-तत्त्व एवं शिव-तत्त्व आदि निहित हैं। इन मातृका अभिरूपों का विवरण वर्णोद्धार तन्त्रम् में भी विशद रुप से मिलता है, साथ ही वर्णमातृकाओं के लिपिमय संकेत भी उल्लिखित हैं वहाँ। यह प्रसंग अवश्य सेवनीय है। अतः भले ही समय कम है, फिर भी इसका विस्तार से वर्णन करने का लोभ-संवरण मैं नहीं कर सकता।’’

मैंने अनुभव किया- वृद्धमहाराज भी आज अति प्रमुदित हैं। उनकी मुख-भंगिमा निहारते हुए उपेन्द्रबाबा ने कहा- ‘जी महाराज! समय को किसने पकड़ पाया है, ये तो अपनी गति से चलता ही रहेगा; किन्तु सुअवसर तो सौभाग्य से ही मिलता है न। अतः इसका अधिकाधिक लाभ ले लिया जाना चाहिए। कौन जाने जीवन सरिता के किस घाट पर किसकी, किससे और कब मुलाकात हो!’

उपेन्द्रबाबा की इस बात पर वृद्धमहाराज थोडे गम्भीर हो गये। उनके मुखमंडल का प्रमोद अचानक कहीं खो सा गया। आँखें मुंद गयी। कुछ पल मौन साधे रहे, फिर उच्चरित होने लगे। उनका कंठ-स्वर अद्भुत ओजपूर्ण प्रतीत हुआ। लग रहा था साक्षात् शिव ही वाचन कर रहे हों, शिवा के समक्ष, तन्त्र का गोपन रहस्य—(अ) - श्रृणु तत्त्वमकारस्य अतिगोप्यं वरानने। शरच्चन्द्रप्रतीकाशं पञ्चकोणमयं सदा॥

पञ्चदेवमयं वर्णं शक्तित्रयसमन्वितम्। निर्गुणं त्रिगुणोपेतं स्वयं कैवल्यमूर्तिमान्॥
विन्दुतत्त्वमयं वर्णं स्वयं प्रकृतिरुपिणी।

(आ)- आकारं परमाश्चर्यं शङ्खज्योतिर्मयं प्रिये। ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं तथा रुद्रमयं प्रिये॥

पञ्चप्राणमयं वर्णं स्वयं परमकुण्डली।

(इ)- इकारं परमानन्दसुगन्धकुसुमच्छविम्। हरिब्रह्ममयं वर्णं सदा रुद्रयुतं प्रिये॥

सदाशक्तिमयं देवि गुरुब्रह्ममयं तथा। ( ग्रन्थान्तर से- सदाशिवमयं वर्णं परं ब्रह्मसमन्वितम्। हरिब्रह्मात्मकं वर्णं गुणत्रयसमन्वितम्॥
इकारं परमेशानि स्वयं कुण्डली मूर्तिमान्॥

)

(इ)- ईकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली। ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं तथा रुद्रमयं सदा॥

पञ्चदेवमयं वर्णं पीतविद्युल्लताकृतिम्। चतुर्ज्ञानमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा॥

(उ)- उकारं परमेशानि अधःकुण्डलिनी स्वयम्। पीतचम्पकसंकाशं पञ्चदेवमयं सदा॥

पञ्चप्राण मयं देवि चतुर्वर्गप्रदायकम्।

(ऊ)- शङ्खकुन्दसमाकारं ऊकारं परमकुण्डली। पञ्चप्राणमयं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा॥

धर्मार्थकाममोक्षं च सदासुखप्रदायकम्॥

(ऋ)- ऋकारं परमेशानि कुण्डली मूर्तिमान् स्वयम्। अत्र ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्रश्चैव वरानने। सदाशिवंयुतं वर्णं सदा ईश्वरसंयुतम्॥

पञ्चप्राणमयं वर्णं चतुर्ज्ञानमयं तथा॥
रक्तविद्युतल्लताकारं ऋकारं प्रणमाम्यहम्॥