बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 3 / कमलेश पुण्यार्क
“...वैसे तो ये सब तन्त्र की बातें बहुत ही गोपनीय है। हर कोई इसे जानने का अधिकारी भी नहीं है, पता नहीं कौन कब किस वस्तु का दुरुपयोग कर बैठे। यही कारण है कि योग्य शिष्य को ही इसका ज्ञान देने की बात कही जाती है ग्रन्थों में। किन्तु देखता हूँ कि इस गोपनीयता से भी तन्त्र-विद्या की क्षति हो रही है। एक ओर तन्त्र-मन्त्र के नाम पर ठगी का बाजार गरम है,तो दूसरी ओर तन्त्र का सही अर्थ भी खो सा गया है। आम आदमी जो थोड़ा भी समझदार,पढ़ा-लिखा है,सीधे मान लेता है कि तन्त्र बहुत ही घटिया चीज है। इस विषय पर हम कभी बाद में विस्तार से बातें करेंगे। अभी सिर्फ इस अद्भुत वस्तु की साधना की संक्षिप्त चर्चा किये देता हूँ। तुम अखबारी लोग तो आसानी से इन बातों में विश्वास करने वाले नहीं हो,किन्तु हम देख रहे हैं कि गायत्री को उत्सुकता अधिक हो रही है जानने की, और दे भी रहे हैं इसे ही। इसकी साधना प्रक्रिया कोई जटिल और खतरनाक नहीं है, इस कारण कह-बतला देने में भी कोई हर्ज नहीं है।
“...असली सियारसिगीं जब कभी भी प्राप्त हो जाय,उसे सुरक्षित रखकर, शारदीय नवरात्र की प्रतीक्षा करे। वैसे अन्य नवरात्रों में भी साधा जा सकता है। गंगाजल से सामान्य शोधन करने के पश्चात् नवीन पीले वस्त्र का आसन देकर यथोपलब्ध पंचोपचार/ षोडशोपचार पूजन करें। तत्पश्चात् श्रीशिवपंचाक्षर एवं देवी नवार्ण मन्त्रों का कम से कम एक-एक हजार जप कर लें। इतने से ही सियारसिंगी प्रयोग-योग्य हो गया। प्रयोग के नाम पर तो "बहुत और व्यापक" शब्द लगा हुआ है,किन्तु गिनने पर कुछ खास मिलता नहीं। बस एक ही मूल प्रयोग की पुनरावृत्ति होती है। सियारसिंगी बहुत ही शक्ति और प्रभाव वाली वस्तु है। पूजन-साधन के बाद इसे एक डिबिया में (चांदी की हो तो अति उत्तम) सुरक्षित रख देना चाहिये। जैसा कि ये रखा हुआ है। रखने का सही तरीका यही है कि डिबिया में पीला कपड़ा बिछा दे। उसमें सिन्दूर भर दे,और साधित सियारसिंगी को स्थापित करके,पुनः ऊपर से सिन्दूर भर दें। नित्य पंचोपचार पूजन किया करें। पूजन में सिन्दूर अवश्य रहे। इस प्रकार सियारसिंगी सदा जागृत रहेगा। यह जहां भी रहेगा, वास्तुदोष, ग्रहदोष आदि को स्वयमेव नष्ट करता रहेगा। किसी प्रकार की विघ्न-वाधाओं से सदा रक्षा करता रहेगा। सियारसिंगी की उस डिबिया से निकाल कर थोड़ा सा सिन्दुर अपेक्षित व्यक्ति को अपेक्षित उद्देश्य (तन्त्र के षटकर्म) से दे दिया जाय तो अचूक निशाने की तरह कार्य सिद्ध करेगा- यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। प्रयोग करते समय चुटकी में उस खास सिन्दूर को लेकर बस पांच बार पूर्व साधित दोनों मंत्रों का मानसिक उच्चारण भर कर लेना है- प्रयोग के उद्देश्य और प्रयुक्त के नामोच्चारण के साथ-साथ। किन्तु ध्यान रहे- इस दुर्निवार वस्तु का दुरुपयोग बिना सोचे समझे (नादानी और स्वार्थ वश) न कर दे,अन्यथा एक ओर तो कार्य-सिद्धि नहीं होगी,और दूसरी ओर वह साधित सियारसिंगी सदा के लिए निर्बीज(शक्तिहीन)हो जायेगी। शक्तिहीनता का पहचान है कि उसमें से अजीब सा दुर्गन्ध निकलने लगेगा- सड़े मांस की तरह,जब कि पहले उस साधित सियारसिंगी में एक आकर्षक मदकारी-मोदकारी सुगन्ध निकला करता था- देवी-मन्दिरों के गर्भगृह जैसा सुगन्ध। अतः सावधान- स्वार्थ के वशीभूत न हो।
“...प्रसंगवश यहां एक बात और स्पष्ट कर दूं कि सियारसिंगी की साधना में जो सिन्दूर प्रयोग किया जाय वह असली सिन्दूर ही हो,क्यों कि आजकल कृत्रिम पदार्थों से तरह-तरह के सस्ते और महंगे सिन्दूर बनने लगे हैं,जो शोभा की दृष्टि से भले ही महत्वपूर्ण हों,किन्तु पूजा-साधना में उनका कोई महत्व नहीं है। नकली सिन्दूर के प्रयोग से साधना निष्फल होगी- इसमें जरा भी संदेह नहीं। फिर कभी मौका मिलने पर मैं तुम्हें असली सिन्दूर के बारे में भी बतलाउंगा,और हो सका तो सिन्दूर बनाने का तरीका भी। फिलहाल तो इसे डिबिया में बन्द करदो,और ले जाकर पूजा-स्थान में रख दो; और मुझे इज़ाजत दो। रात बहुत बीत चुकी है। तुमलोग अब आराम करो।”- इतना कह कर बाबा उठ खड़े हुए।
“ इतनी रात गये कहाँ जाओगे भैया ? क्या यहीं सो नहीं सकते ? किस बात के संकोच में हो ? मैं उधर सोफे पर सो रहूँगी,और तुमदोनों यहाँ चौकी पर आराम करो । इतनी बड़ी चौकी है,दोनों तो हवा पहलवान ही हो। ” – गायत्री ने हँस कर कहा।
“नहीं...नहीं गायत्री ! संकोच काहे का ! अपनों के बीच संकोच और औपचारिकता का कोई जगह नहीं होना चाहिए। बात दरअसल कुछ और है। गृहत्यागी के लिए किसी गृहस्थ के यहाँ वास करना भी उचित नहीं है। मिलना-जुलना और बात है। अब ये सिलसिला लगभग जारी रहेगा।जब भी अवसर होगा,आकर तुमलोगों से मिला करुँगा। अभी तो रुकसत करो। ”
इतना कहकर बाबा निकल गये। नीचे गेट तक छोड़ने के लिए हमदोनों भी गये। विदाई के प्रणामपाती-कृत्य में पीठ ठोंकते हुए बाबा ने कहा- “अरे इतनी देर हमलोग गपशप करते रहे। अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा,और न तुम बतलाये ही।”- फिर अपने आप में बुदबुदाये- “ छोडो भी, नाम में क्या रखा है। काम से मतलब है। मुझे तुमसे बहुत काम लेना है। करोगे न?”
मैंने हाँ में सिर हिलाया। बाबा विदा हो गये। हमदोनों ऊपर आकर सोने
का उपक्रम करने लगे, किन्तु नींद और आँखों की संगति देर तक भी, बैठ न पायी। बाबा के विषय में ही बातें करते-करते सबेरा हो गया।
दिन अपने अंदाज में गुजरता रहा- वही घिसे-पिटे क्षण,मिनट और घंटे। दो सप्ताह गुजर गये। हमलोगों को बाबा का इन्तजार रहा,पर बाबा नहीं आये। उनका दिया हुआ दोनों कृपा-प्रसाद— मोतीशंख और सियारसिंगी गायत्री के नित्य उपासना में शामिल हो चुके थे। अपने भाग-दौड़ भरी जिन्दगी से समय चुराकर, मैं भी कभी-कभार मिनट-दो मिनट गायत्री के साथ ही बैठ लिया करता था उपासना में। उपासना क्या ! कुछ देर आँखें बन्द कर, खुली आंखों वाली हरकतें ही करते रहना- ये क्या कोई उपासना है,साधना है,ध्यान है?—खुद से ये सवाल करता,पर कोई जबाव तो था नहीं मेरे पास,अतः करते रहता,जो प्रायः दुनिया के बहुत से लोग करते रहते हैं,और स्वयं ही साधक होने का सेहरा भी बांध देते हैं। साधना क्या है,कैसे की जाती है- जानने के लिए मन हमेशा ललकता रहा है। किन्तु कोई योग्य व्यक्ति मिला नहीं,जिससे कुछ जान-सीख सकूं। बाबा से मुलाकात के बाद, अचानक लगा कि अब कुछ पते की बात होगी,पर बाबा हवा के झोंके की तरह आये,और उड़ गये।
एक दिन चिड़ियाघर के पास कुछ घटना हो गयी। ‘स्टोरी कवर’ करने के लिए मुझे ही जिम्मेवारी मिली। ड्यूटी बजाकर,थका शरीर,और बोझिल मन लिए पैदल ही चल दिया डेरे की ओर। रास्ते में ही शनि मन्दिर पड़ता था। उस दिन शनिवार भी था। काफी भीड़ होती थी शनि-मन्दिर में । कभी-कभी मुझे भी लगता कि मन्दिर जाना चाहिये, देवी-देवताओं का दर्शन करना चाहिए। गायत्री भी उलाहने के लहजे में उपदेश दे दिया करती- ‘ तुमको तो मन्दिर-वन्दिर से वास्ता नहीं रहता,किसी पर विश्वास और भरोसा ही नहीं। दुनिया क्या पागल है,जो दौड़ लगा रही है?’
हालाकि मैं कौन होता हूँ दुनिया को पागल कहने वाला;किन्तु औरों की तरह आस्तिकता ओढ़ लेना भी नहीं भाता। क्या सच में लोग इतना आस्तिक हैं? इतनी आस्था है ईश्वर पर ? तो फिर वो ईश्वर कहाँ है,जिसे हम मन्दिर, मस्जिद,गिरजाघरों में ढूढते फिर रहे हैं? आज तक दीखा किसी को? क्या चार हाथ,दश हाथ,अठारह हाथ वाला विविध स्वरुप ही ईश्वर है? किन्तु भीतर से हमेशा यही आवाज आती- दुनिया सच में पागल नहीं फिर भी, मूर्ख और अज्ञानी तो जरुर है। ईश्वर के ये सारे तथाकथित स्वरुप उसके कल्पना प्रसूत हैं। संसार की अलभ्य वस्तुओं के लिए उसने स्वर्ग की कल्पना की। और स्वर्ग की कल्पना हो जाने के बाद,नरक की कल्पना तो आसान हो जाती है- स्वर्ग के ठीक विपरीत नरक की मानसी सृष्टि सहज हो जाता है। मुझे यही लगता है कि मनुष्य अपनी सांसारिक वासनाओं(इच्छाओं) की भूख लिये भिखारियों की तरह झोली फैलाता है- किसी मूर्ति के सामने,और इसी को पूजा समझता है। सर्वव्यापी,सर्वशक्तिमान ईश्वर तो अमूर्त है,फिर इस मूर्ति में हम क्या ढूढते हैं ? जो सब कुछ जानता है,उसे हम क्या जनाने की कोशिश करते हैं? पत्रंपुष्पंफलंतोयं तुभ्यमेव समर्पयेत् – उसकी ही तो सारी चीजें हैं,फिर उसे ही अर्पण करने का क्या औचित्य ? तो क्या मैं भी उसी का नहीं हूँ? यदि हूँ,तो खुद को ही क्यों नहीं अर्पित कर देता? सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।- ये अद्भुत संदेश है कृष्ण का ! आह्वान है कृष्ण का ! सबकुछ त्याग कर अपनी शरण में आजाने की बात कर रहे हैं । फिर ये अक्षत,फूल,पत्र, पुष्प, धूप,दीप,नैवेद्य- ये आलंकारिक पूजा? ये बड़े-बड़े यज्ञ ! यज्ञों में दिये जाने वाले विविध बलि विधान भी ….क्या है ये सब ? और तो और, बुद्ध,महावीर, पैगम्बर मुहम्मद, ईशा सबने तो यही कहा –मूर्ति से बाहर आकर,मूर्ति को त्याग कर; स्वयं में भीतर घुसकर, उपासना का सही मार्ग दर्शन कराया, और हम कितने मूर्ख हैं कि उन मार्गदर्शकों की ही मूर्ति बनाकर उपासना करने बैठ गये। क्या कृष्ण ने कभी कहा कि मेरी मूर्ति बनाकर पूजो? उनके उपदेशों का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ—वेद-शास्त्र,उपनिषदों का सारभूत गीता-सर्वोपनिषदो गावो,दोग्धा गोपालनन्दनः। पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।— में तो नहीं कहा गया ऐसा। और उससे भी मजे की बात है कि ये तुम्हारी मूर्ति...ये मेरी मूर्ति...ये तुम्हारा ईश्वर...ये मेरा ईश्वर...अखिल ब्रह्माण्ड का रचयिता, क्या अलग-अलग है मेरा... उसका...उसका ? कृष्ण और बुद्ध में अन्तर क्या है? रास्ते का ही तो फर्क है ! मंजिल तो एक ही है सबका फिर ये झगड़ा किस बात का? चलो,जाओ अपने रास्ते से- राह पकड़ तू एक चला चल,पा जायेगा मधुशाला- कविवर बच्चन ने क्या शरावखाने का रास्ता दिखलाया है ? कहते हैं, जन्नत में शराब की दरिया है। पीओ जी भरकर,जितना पी सको। किसी ने कहा था एक बार कि ये इशारा किसी दिव्य पेय का है,जिसका कोष कभी रिक्त नहीं होता। किन्तु इसे पाया कैसे जाय-
समझ नहीं आता।
ऐसे ही विविध द्वन्द्वों से मैं हमेशा जूझते रहा हूँ। उस दिन भी यही कुछ उमड़-घुमड़ रहा था मन में,और पांव धीरे-धीरे शनि-मन्दिर की ओर बढ़े जा रहे थे।
शनि-मन्दिर में पहुँचने के लिए तेइस सीढ़ियां तय करनी होती थी। किसी जानकार ने बड़े ही सोच-विचार कर इसका निर्माण कराया होगा। शनि के लिए जप की संख्या भी तेइस हजार ही है न। इस तेइस का क्या चक्कर है- सोच रहा था, सीढियां भी चढ़े जा रहा था। तीन-चार सीढी चढ़ा,तभी ध्यान गया-सीढियों से नीचे, बांयी ओर पंक्तिवद्ध भिखारियों की जमघट पर।
अन्य दिनों दान न देने वाले भी शनिवार को दान जरुर करते हैं। ज्योतिष के अनुसार शनि की चाल और भावों पर पकड़ शतरंज के घोड़े जैसा खतरनाक है। बारह घरों में अधिकांश पर इनका प्रभुत्व किसी न किसी पाद वा दृष्टि से बना ही रहता है। ये शनिदेव थोड़े कुपित ‘से’ देव हैं न, ज्यादातर लोगों को परेशान करते हैं।
शनिदेव की कृपा से इस दिन भिखारियों की चांदी रहती है। खाने को दहीबड़े भी नसीब हो जाते हैं,लगाने के लिए तेल भी मिल जाता है। कोई-कोई भक्त तो स्टील के कटोरे में भर कर तिल का तेल,और दहीबड़ा भी दे जाता है। पंडित जन बताते हैं कि इस दिन भिखारियों को दान देना ब्राह्मण से भी अधिक महत्वपूर्ण है। ऐसे में भिखारियों की भीड़ स्वाभाविक है।
भीड़ को निहारते हुए मैं अचानक ठिठक गया। एक परिचित सा चेहरा लगा। उत्सुकता जगी। शनिदेव के दर्शन से भी अधिक जरुरी लगा— उस चेहरे का दर्शन। तुरत उल्टे पांव सीढ़ियां उतर, उसके करीब गया। भिखारियों को लगा कि कोई दान-दाता आ रहा है। सभी आवाज लगाने लगे, आतुर होकर, ताकि कहीं वे चूक न जायें। मैं उनकी आवाज को अनसुना करते हुए आगे बढ़कर, उस चेहरे को गौर से देखने लगा। यदि मेरी आँखें धोखा नहीं खा रही हैं,तो निश्चित ही ये उपद्रवी बाबा ही हैं,जो अपने रूप को जरा और विकृत कर यहाँ भिखारियों की जमात में विराज रहे हैं—विचारते हुए बिलकुल समीप जाकर टोका- ‘ उपेन्द्रबाबा ! आप यहाँ ?’ पहले उन्होंने मुझ पर ध्यान नहीं दिया था। शायद, किसी और ही धुन में खोयें हों,अतः मेरी आवाज सुनकर चौंक गये। मेरी ओर गौर से देखते हुए,क्षणभर को झिझके,या सिर्फ मुझे ऐसा लगा कह नहीं सकता।
“अरे अखबारी बाबू ! तुम इधर,मन्दिर आये थे क्या? तुम तो कहते हो कि
मन्दिर वन्दिर जाता नहीं। आज क्या बात है...?”- बात तो वे सोलह आना सही
कह रहे थे। मैं इतना निश्चित तौर पर जानता हूँ कि ईश्वर मन्दिरों में कैद रहने वाला नहीं है,अतः उसे यहाँ छोड़ कहीं और ही तलाशने की जरुरत है।
‘जी,औरों की तरह नियमित मन्दिर सेवी मैं नहीं हूँ,मगर कोई कसम तो नहीं है कि जाऊँ ही नहीं। आज ऑफिस के काम से इधर आना हुआ था। जी में आया कि जरा इधर भी होता चलूँ।’- मैंने उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा- ‘पर,आप यहां क्या कर रहे हैं,भिखारियों के साथ?’
वे उठ खड़े हुए। बिछाया हुआ चट उठाकर,मोड़-माड़ कर वहीं पेड़ की डाल पर रख दिये, जहाँ पहले से ही एक बोरीनुमा झोला टंगा हुआ था। सामने रखा स्टील का गन्दा सा,बड़ा सा भिक्षा-पात्र पड़ा हुआ था,जो आधे से अधिक भरा हुआ था,उसे भी उठा लिए। फिर बिना कुछ बोले, थोड़ा-थोड़ा निकाल कर पंक्तिवद्ध बैठे भिखारियों में बांटने लगे। पात्र रिक्त हो जाने पर,मेरी ओर मुखातिब हुए- “चलो,घर यानी डेरा जा रहे हो या कहीं और भी जाना है? ”
‘नहीं बाबा,और कहीं नहीं जाना है। शाम हो रही है। सीधे डेरा ही जाऊँगा। चलिए ना आप भी।’- मेरे कहते ही,वे साथ हो लिए।
“मैं भी सोच रहा था,बहुत दिन होगये,तुमलोगों से मिले हुए। आज रात से पहले वैसे भी मैं आता ही वहाँ। अच्छा हुआ साथ मिल गये।”
‘एक बात पूछूं बुरा तो न मानेंगे ?’ – मैंने सवाल किया।
“एक क्या दस पूछो। बुरा क्यों मानने लगा ?” – चलते हुए बाबा ने कहा।
‘यहाँ,आपको इन भिखारियों की पंक्ति में बैठा देख मुझे बड़ा ही अजीब लगा। उस पर भी,जो कुछ भी भिक्षापात्र में था सब,आपने इन्हीं में बांट दिया।’
मेरी बात पर बाबा मुस्कुराते हुए बोले- “ यह तो मेरा रोजदिन का काम है। हर मन्दिर में भीड़-भाड़ का एक समय होता है। कभी किसी मन्दिर में,तो कभी किसी मन्दिर में। आज शनिवार को यहां भीड़ बहुत ज्यादा होती है,जैसा कि तुमने देखा।”
सो तो मैंने देखा ही,पर भिक्षा मांगना,और फिर भिखारियों में ही बांट भी
देना- ये बात मुझे समझ नहीं आयी।
“ये कोई रहस्य जैसी बात नहीं है। अहं को विसर्जित करने का एक उत्तम
मार्ग भर है। मैं अपने लिए तो भीख मांगता नहीं, इतनी रकम भीख में मिलती है, उसे रख कर भी क्या करना है, कौन कहें कि महल उठाना है। दो रोटी का जुगाड़ उपर वाला किसी न किसी तरह कर ही देता है। भीख में प्राप्त रकम में से उतने ही अपने लिए रखता हूं , जितने में रोटी मिल जाय,शेष पैसे इनमें ही बांट दिया करता हूं। प्रतिदिन का यही काम है।”
किन्तु ,अहं का विसर्जन ? मैं कुछ समझा नहीं।
“ हाँ, अहं यानी अहंकार का विसर्जन- अहंकरोति इति अहंकारः। यही मनुष्य का सर्वाधिक बलवान शत्रु है, ममता इसकी जननी है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद,मत्सर- ये छः इसके छोटे भाई हैं। ये क्रमशः विचित्र प्रकार का ‘व्यूह’ - ‘उत्तरोत्तरशक्तिमान व्यूह’ बना कर पंक्ति वद्ध रुप से खड़े हैं। सबसे पहले है- काम, उसके बाद क्रोध,उसके पीछे लोभ,उसके पीछे मोह,उसके पीछे मद, उसके पीछे मत्सर, और सबसे अन्त में खड़ा है यह विकराल अहंकार। कमाल की बात ये है कि ये सातो भाई उत्तरोत्तर सौगुना बलवान हैं,यानी काम से सौ गुना बलवान क्रोध,है, क्रोध से सौगुना बलवान लोभ है,लोभ से सौ गुना बलवान, मोह है,मोह से सौ गुना बलवान मद है,मद से सौगुना बलवान मत्सर है,और मत्सर से भी सौगुना बलवान है यह अहंकार। और इससे भी आश्यर्य की बात ये है कि शक्ति में जैसे-जैसे बलवान होते गये हैं- उत्तरोत्तर, ठीक इसके विपरीत,आकार में सूक्ष्म होते गये हैं। इसे तुम यूं समझो कि वालू की भीत के पीछे कच्ची मिट्टी की भीत है,जो बालू वाली भीत से अपेक्षाकृत छोटी है,फलतः यदि हम सामने खड़े होकर देखते हैं,तो सिर्फ बालू वाली भीत ही दिखायी देगी। इसी भांति कच्ची मिट्टी वाली भीत के ठीक पीछे पक्की ईंटों वाली भीत भी है,जो पहले वाली से छोटी है। किन्तु है तो मजबूत न। उसके पीछे कंकरीट की भीत,थोड़ी छोटी,और उसके पीछे लोहे की भीत है, उससे भी छोटी। इस प्रकार आकार तो छोटा होते जा रहा है,जिस कारण सामने खड़ा रह कर देख पाना कठिन हो रहा है,किन्तु ताकत में तो उत्तरोत्तर बलवान है- हर अगली भीत ? यही कारण है कि इन्हें पहचानने में अच्छे अच्छों को भी भ्रम हो जाता है। छठी मंजिल तक पहुंच कर भी सबसे बलवान शत्रु- अहंकार पराजित नहीं होता। एक तो उसकी ताकत सबसे ज्यादा है,और दूसरी बात है देखने, समझने, पहचानने में असुविधा।”
‘किन्तु मैंने तो सुना है कि काम मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।’- मैंने संशय
व्यक्त किया।
“दरअसल, हम आकार से किसी को पहचानने के आदी हैं,और आकार में तो काम सबसे बड़ा है ही- इसमें कोई दो राय नहीं। तुमने यह भी सुना होगा कि मरणं विन्दु पातेन् जीवनं विन्दु धारयेत्- वीर्य का एक बूंद-पातन भी मरण समान है। इसका गणित भी बड़ा अजीब है। इसे ठीक से समझो । हमारा यह शरीर सात धातुओं से बना हुआ है। सात धातु यानी सोना-चांदी नहीं। सात धातु हैं-रस,रक्त, मांस, मेद्य, अस्थि,मज्जा और शुक्र। हम जो भी भोजनादि ग्रहण करते हैं, उससे रस निचोड़ कर हमारा शरीर ग्रहण कर लेता है, और अवशिष्ट (सिट्ठी)को मल के रुप में विसर्जित कर देता है। उस रस का भी निकलता है,उसका भी विसर्जन,उत्सर्जन हो जाता है। रस के शोधन के पश्चात् रक्त का निर्माण होता है,पुनः उसका शोधन, और उसके मलभाग का विसर्जन होता है,तब मांस का निर्माण होता है। मांस के शोधन,और उसके मलभाग के विसर्जन के बाद मेद्य का निर्माण होता है। मेद्य के शोधन,और उसके मलभाग के उत्सर्जन के बाद अस्थि का सृजन होता है। अस्थि का शोधन और उसके मलभाग का विसर्जन होकर मज्जा धातु का निर्माण होता है। और अन्त में मज्जा का शोधन,और उसके मलभाग का विसर्जन होकर शुक्र का निर्माण होता है। इस प्रकार आहार के रुप में ग्रहण किये गये भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, लेप्य,चौष्य,चर्व्य आदि विविध पदार्थो का क्रमशः रसादि सात धातुओं में परिवर्तन,और आवश्यकतानुसार संग्रह होते रहता है हमारे शरीर में। कोई भी धातु जरुरत से ज्यादा संग्रहित न होकर,अगली धातु में परिवर्तित हो जाता है। इसका परिणाम होता है कि पूर्व का कोई भी धातु विकृत होने से बच जाता है। और अन्तिम धातु शुक्र भी शोधित होकर ओज में परिवर्तित होकर ‘तेजपुञ्ज’ बन जाता है। तुमने देखा होगा- संत महात्माओं का लिलार चमकते रहता है,चेहरे पर अद्भुत आभा होती है। स्वस्थ सबल शरीर दमकते रहता है,बिना किसी प्रसाधनिक क्रीम-पाउडर के। इस ओज की कोई सीमा नहीं है। यह निःसीम है। ध्यान देने की बात है कि ओज बनने के लिए बीर्य का सघन होना आवश्यक है। वैसे ही जैसे दूध को सघन कर के खोवा बनाते हैं,किन्तु ठीक खोवे से उपमा देना भी उचित नहीं,क्यों कि यह सघनता शोधन-प्रक्रिया की है। अतः यदि इसे हम रोज-रोज के सम्भोग में बरबाद करते रहेंगे, व्यर्थ बहाते रहेंगे, तो संग्रहित कहां से होगा? और संग्रहित ही नहीं होगा,तो ‘संघनित’ होकर ओज कैसे निर्मित करेगा ? वीर्य की महत्ता के इसी सूत्र को पकड़ कर हमारे संतों ने ब्रह्मचर्य को सर्वाधिक महत्व दिया है। किसी भी प्रकार की साधना का पहला सोपान है- ब्रह्मचर्य।”
किन्तु महाराज,मैंने तो सुना है कि मैथुन के दौरान जो क्षरित होता है वह शुक्रकीट (Sperm) के साथ-साथ पौरुषग्रन्थि (Prostetgland) का स्राव होता है। विशेष मात्रा उसी की होती है।
“हाँ, यह भी गलत समझ नहीं है आधुनिक विज्ञान का। आधुनिक विज्ञान अभी अपने खोज में वहीं तक पहुँचा है। और हम बात कर रहे हैं- उससे आगे की खोज वाली, जो हमारे महर्षियों ने खोज रखा है।”
‘यानी कि काम के बेग को नियंत्रित करके,वीर्य की बरबादी रोकी जा सकती है?’-मैंने जिज्ञासा व्यक्त की।
“हाँ, करना तो यही है,किन्तु करते हैं हम गलत तरीके से। काम के वेग को रोकने के लिए हम उस पर पहरा बिठा देते हैं। उसके साथ जोर-जबरद्स्ती करने लगते हैं। काम का दमन करने लगते हैं- एक शत्रु की तरह। यदि उसे हम मित्र बनाकर, बहला-फुसलाकर रखें,तो कभी घात नहीं करेगा। और,मित्र बनाने के लिए ठीक से पहचानना जरुरी है उसे। एक बहुत बड़ी गलती हुयी है- इसे पहचानने में। समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इसे शुरु में ही शत्रु कहकर,सम्बोधित कर दिया। और एक बार जो शत्रु बन जाता है,उसे मित्र बनाना बड़ा दुष्कर हो जाता है। साधना की अभिलाषा लिए हमारे बन्धुजन आजीवन उस गलत परिचय प्राप्त ‘मित्र’ से लड़ने में ही गुजार देते हैं। काश ! उसका सही परिचय दिया गया होता। जीवन के अन्तिम अवस्था में पहुँचे हुए किसी सन्यासी से भी जाकर पूछो,और यदि वह सच बोलने का साहस रखता हो,तो यही कहेगा कि अभी तक वह काम से लड़ रहा है। सच में वह शत्रु मान लिये गये काम से ही लड़ रहा होता है। उससे आगे एक पग भी साधना की डगर पर बढ़ ही नहीं पाया है। हमारी भलाई इसी में है कि हम काम को मित्रवत स्वीकार करें।”