बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 4 / कमलेश पुण्यार्क
लम्बी,गहरी चिन्तन परक बातें करते,पैदल चलते,हमलोग घर पहुँच गये। बाबा को देख कर गायत्री प्रफुल्लित हो उठी- “वाह भैया खूब आये जल्दी ही…।”
भैया तुम्हारे आये नहीं है,लाये गये हैं। इसलिए आने का श्रेय इन्हें न देकर,मुझे लाने की शाबासी दो। जल्दी से कुछ खिलाओ-पिलाओ। बडी भूख लगी है।
“मैं आज खीर बनायी हूँ, बस, पूड़ी बनाना बाकी है- गरम-गरम। मगर
सब्जी तो तुम लाये नहीं होगे। जाते वक्त मैं भी कहना भूल गयी थी।”
“तो क्या हुआ,खीर के साथ ही पूड़ी खा लिया जायेगा। वैसे भी मेरा ‘अलोन’ व्रत चल रहा है सप्ताह भर से।”-बाबा ने सब्जी की समस्या हल कर दी,अपनी स्वीकृति देकर।
‘ये अलोन व्रत का क्या औचित्य और महत्त्व है बाबा?’- मैंने पूछा।
बाबा ने कहा- “ये सही है कि शरीर को नमक और चीनी दोनों प्रचुर मात्रा में चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं है कि ये सीधे प्रत्यक्ष रुप से ही केवल प्राप्त होते हैं। अन्य विविध खाद्य पदार्थों के माध्यम से हम जितनी मात्रा शरीर को दे देते हैं,उनसे भी शरीर की आवश्यकता पूरी हो जाती है लवण की। यदि अभ्यास से बिलकुल ही लवण का त्याग कर दें,तो भी शरीर की कोई क्षति नहीं होगी। चौबीस घंटों में अधिकतम पांच ग्राम लवण पर्याप्त है शरीर के लिए,जब कि आम आदमी दो से चार गुणा अधिक दे देता है,विविध रुप से। साधना की दृष्टि से नमक पृथ्वी तत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है। पृथ्वी का धर्म है स्थूलता। इसकी अधिक मात्रा के संग्रह से शरीर भारी हो जाता है। स्थूलता दोष की वृद्धि होने लगती है।फलतः ‘उर्ध्वमनोदैहिक’ विकास रूक सा जाता है। अतः इसे संतुलित रखने के लिए बीच-बीच में लवण रहित भोजन लेना चाहिए। इसके परित्याग से आन्तरिक सौरऊर्जा का विकास होता है। सूर्य से विशेष शक्ति अर्जित करने में ये अद्भुत सहायक है। डॉक्टर लोग अपने अंदाज में इसे व्याख्यायित करते हैं। वे कहते हैं- धमनियां संकीर्ण होती हैं,जिसके कारण रक्त परिभ्रमण वाधित होता है।”
हमलोग हांथ-मुंह धोकर भोजन के लिए बैठ गये। गायत्री खीर-पूड़ी परोस लायी। भोजन के बाद बाबा ने कहा- “आज फिर भोजन कराकर,तुमने मुझ पर एहसान लाद दिया।”
“किस बात का एहसान भैया ! एक दिन के भोजन के बदले तुमने जो मुझे दिया है,उसका मूल्य जीवन भर भोजन करा कर भी चुकता नहीं किया जा सकता। सच में अद्भुत गुण है,उन दोनों सामग्रियों में। इसका प्रत्यक्ष अनुभव मैं इन थोड़े ही दिनों में करने लगी हूँ। पहला प्रभाव तो मेरे स्वास्थ्य पर पड़ा है। इनकी कमाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा डॉक्टर के यहां चला जाता था।ऐसा शायद ही कोई दिन गुजरा हो,कि मैं कोई दवा न खायी होऊँ; किन्तु इधर चार दिनों से मैंने कोई दवा
नहीं ली। मानसिक शान्ति और सुकून भी बहुत महसूस कर रही हूँ। ”- गायत्री के
कहने पर बाबा मुस्कुराये।
“दरअसल तुम्हारा ये जो आवास है न,अतिशय पीड़ित है वास्तुदोषों से। तुम्हारे घर का प्रवेश द्वार दक्खिन दिशा में है। तुम्हारा भोजन नैर्ऋत्य कोण में बनता है। उसी ओर मुंह करके तुमलोग भोजन करने बैठते भी हो। शयन कक्ष भी वैसा ही बेढंगा है। अपने अधिकार-क्षेत्र में पड़ने वाले जमीन का मध्य भाग बोझल है,उसे बोझ-मुक्त करने का भी कोई उपाय नहीं दीखता। अब भला दो-ढ़ाई सौ बर्गफुट के आवास में आदमी चाह कर भी कितना निवारण करे वास्तु-दोषों का। नतीजा ये होता है कि अज्ञान में या लाचारी में आदमी झेलता रहता है इसके परिणामों को। वो जो सियारसिंगी और मोतीशंख मैंने दिये हैं तुम्हें,उससे इन दोषों का मार्जन होना शुरु हो गया है। स्वास्थ्य ठीक हुआ,तो दवा के पैसे बचेंगे,साथ ही मानसिक शान्ति भी मिलनी ही है। बहुत जल्दी ही और भी परिवर्तन महसूस करोगी अपने जीवन में। विकास के अनेक मार्ग खुलते नजर आयेंगे।”
“सो तो ठीक है,तुम्हारी कृपा रही तो सबकुछ हो जायेगा; किन्तु मैं अपने
स्वार्थ वश नहीं,बल्कि स्नेहवश कह रही हूँ,तुम यहां-वहां क्यों भटकते फिरते हो ? निःसंकोच यहीं आ जाओ।” - गायत्री के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए मैंने,आज वाली घटना का जिक्र किया कि किस स्थिति में बाबा से मुलाकात हुयी। जानकर गायत्री बहुत दुःखी हुयी,उसे तो इसका रहस्य पता था नहीं।
बाबा ने गायत्री को समझाया - “इसमें तुम्हें दुःखी होने की आवश्यकता नहीं। यह तो मेरी साधना का अंग है। वैसे भी मेरे जैसे अभ्यासी साधक को सीधे गृहस्थी के अधिक सम्पर्क में नहीं रहना चहिए। सिद्ध और साधक में बहुत अन्तर होता है।”
मैं पुनः विषय पर आना चाहता था,जो डेरा पहुँचने पर रुक गया था,और भी कई सवाल घुमड़ रहे थे मस्तिष्क में,जिनमें एक था- बाबा का अद्भुत ज्ञान,जब कि कहते हैं कि ठीक से स्टेल-पेन्सिल भी नहीं पकड़े हैं। अतः मैंने फिर छेड़ा- ‘आप तो कहते हैं - अंगूठा छाप हूँ, बामुश्किल हस्ताक्षर भर कर पाता हूँ ,फिर ये जो हर विषय पर अधिकार पूर्वक बोला करते हैं,उसका क्या रहस्य है?’
मेरी बात पर बाबा मुस्कुराये,और इत्मिनान से चौकी पर बैठते हुए कहने
लगे – “तुम क्या समझते हो ये ज्ञान किताबों और विद्यालयों का दास है? बिलकुल नहीं। किताबें, और विद्यालय जानकारियों के बाहक भर हैं। ये केवल संग्रहित जानकारियों को साझा करते हैं। ज्ञान यहाँ से हासिल नहीं होता। तुमने सुना होगा- शिकागो धर्मसम्मेलन में भाग लेने के लिए स्वामी विवेकानन्द एक जर्मन प्रोफेसर से मिलने गये, क्यों कि उनकी अनुशंसा आवश्यक थी। उनके घर पहुँचकर,द्वार पर दस्तक दिये। दो-तीन बार के दस्तक की भी कोई प्रतिक्रिया न हुयी,क्यों कि प्रोफेसर महोदय किसी पुस्तक में तल्लीन थे। चौथी बार विवेकानन्द ने शिष्टता पूर्वक आवाज लगायी। इस बार प्रोफेसर की नजरें ऊपर उठी। अन्दर आने का आदेश दिया। बैठते हुए,अपना परिचय और उद्देश्य स्पष्ट करने के बाद स्वामी जी ने एक सवाल किया- ‘क्या मैं जान सकता हूँ कि आप किस विषय में इतने तल्लीन थे कि मेरे द्वारा बारबार दस्तक दिये जाने पर भी ध्यान भंग न हुआ?’ प्रत्युत्तर में प्रोफेसर ने कहा कि आज कई दिनों से एक समस्या सुलझाने के प्रयास में हूँ ,किन्तु समाधान मिल नहीं रहा है...।
“....स्वामी जी ने पुनः आदेश मांगा- ‘यदि मुझे देखने-जानने योग्य है,तो कृपया इस पुस्तक को मुझे देखने दें। हो सकता है,इसमें मैं आपकी मदद कर सकूँ।’ जिस पर प्रोफेसर ने कहा कि देखने- जानने में तो कोई आपत्ति नहीं,किन्तु यह
पुस्तक जर्मन भाषा में लिखी हुयी है। क्या आप जर्मन जानते हैं ?
“…स्वामी जी ने कहा कि जानता तो नहीं हूं,किन्तु प्रयास करने में क्या हर्ज है।
“…उन्होंने पुस्तक स्वामीजी की ओर बढ़ा दी। विवेकानन्द ने आदर पूर्वक पुस्तक को लेकर, अपने ललाट से लगाया, और फिर उलट-पुलट कर थोड़ी देर देखने के बाद, वापस कर दिया। फिर इत्मिनान से बैठते हुए,उनकी समस्या पर चर्चा करने लगे। गहन चर्चा हुयी। प्रोफेसर अवाक था। जिस समस्या से वह तीन-चार दिनों से जूझ रहा था,उसे स्वामीजी ने चुटकी बजाकर हल कर दिया,जब कि इस भाषा और लिपि का भी ज्ञान नहीं है।
“…ज्ञान किसी भाषा,लिपि,और पुस्तक का मोहताज़ नहीं है। योग मार्ग में ऐसे अनेक सूत्र हैं,जिन्हें साध कर किसी पुस्तक का ज्ञान सहज ही किया जा सकता है। स्वामीजी ने भी वही किया । ये जो ललाट है न,मानव शरीर का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। भीतर जाने का सर्वोत्तम सहज द्वार भी यहीं है। विधियां और स्थान तो कई हैं,किन्तु इसे सबसे निरापद,सरल,और सुसाध्य कहना चाहिए। हो सका तो किसी योग्य काल में इसके बारे में और भी बातें करुंगा,और तुम्हें इस मार्ग से प्रवेश की विधि भी बतलाऊँगा। अभी तो मुझे लगता है कि तुम आज वाले विषय में ही उलझे हुए हो। पूरी बात स्पष्ट रुप से गले में उतर नहीं पायी है।”
बाबा ने सच में मेरे मन की बात छेड़ दी। आज की बात अहंकार के विसर्जन से शुरु हुयी थी,और उसके सबसे छोटे भाई काम पर आकर ठहर गयी थी। बाबा ने बड़े-बड़े संन्यासियों की समस्या का जिक्र किया था। आंखिर क्यों ऐसा होता है,क्यों अपने अन्तिम क्षणों तक साधक जूझते रह जाता है- इस प्रथम द्वार पर ही?
“मैंने कहा था कि काम को मित्रवत स्वीकारने की जरुरत है,शत्रुवत नहीं। तुमने रबर के गेंद की हरकत को देखा है कभी गौर से- धरती की ओर उसे प्रेषित करते हैं,और वह दूने वेग से पुनः ऊपर की ओर उठता है। यही हाल काम का है। शत्रु समझ कर हम उसे दमित करने में अपनी पूरी ऊर्जा खपा देते हैं। परिणाम ये होता है कि हर प्रेषण के साथ वह अधिकाधिक बलवान होकर ऊपर उठता है।”
‘आंखिर इसे मित्रवत कैसे स्वीकारा जाय महाराज?’- मैंने उत्सुक होकर पूछा।
बाबा ने कहा- “शास्त्रों ने चार आश्रम- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास की बात की है। ये बहुत ही वैज्ञानिक व्यवस्था है। मनुष्य की मानक पूर्णायु सौ वर्ष को चार बराबर भागों में बांट कर पचीस-पचीस वर्षों की आश्रम व्यवस्था कही गयी है। आजकल औसत आयु साठ से अस्सी वर्ष रह गयी है,तद्नुसार चौथाई-चौथाई भाग व्रह्मचर्य आदि चारों आश्रमों के होने चाहिए। जब कि पश्चिम की देखा-देखी हो रहा है ठीक इससे उल्टा- तीस-पैंतिस में पढ़ाई-लिखाई,नौकरी व्यवस्था से निश्चिन्त होकर,तब शादी की बात सोचते हैं,और इस मुकाम तक लड़के-लड़कियां कितना ब्रह्मचर्य पालन कर पाते हैं- भगवान जाने। प्रथम आश्रम में यज्ञोपवीतादि दीक्षा लेकर,अध्ययन करने की बात कही गयी है, तत्पश्चात् विवाह बन्धन में बन्धकर सिर्फ विवाहिता पत्नी से ही सम्भोगरत होने का आदेश है, वो भी मर्यादित ढंग से। ये मर्यादा भी देश-काल सापेक्ष कही गयी है। सम्भोग-काल को चन्द्रमा से जोड़कर,दिन,तिथियों का निर्धारण किया गया है,तो सूर्य से जोड़कर कालादि मान नियत किया गया है। तुलसीदास ने इसे बड़े ही ललित शब्दों में वर्णित किया है- ‘दीप शिखा सम युवती तन,मन जन होसि पतंग। भजहिं राम तजि काम मद करहिं सदा सत्संग।। काम,क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि,तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारुपी नारि।।’ पत्नी के साथ भोग-विलास करना है,किन्तु पद्मपत्रमिवामभषा- कमल के पत्ते सदृश,जल में रह कर भी जल से अलग जैसी स्थिति बनाने की जरुरत है। भोगो,भरपूर भोगो, किन्तु सदा ध्यान रहे- अनुरक्ति पतंगे वाली न हो कि दीपशिखा पर प्राण ही गंवा दे। नारी तो दीपक की लौ है ही। उसमें अनुरक्त होकर स्वयं को खपा मत दो। मैं पहले भी स्नेह और मोह पर तुमसे चर्चा कर चुका हूँ। मैं निर्मोही होने नहीं कह रहा हूँ। निःसंग होने की बात कर रहा हूँ। ‘नारि नरक की खान ’- भी मेरा अभिमत नहीं है। सोचने वाली बात है कि जो सृष्टि की आधारशिला है,वो नरक की खान कैसे हो सकती है ? किसी न किसी नारी के गर्भ से ही पुरुष की उत्पत्ति होती है,तो क्या पुरुष नरक से उपजा है ? जो आज किसी की पत्नी है,वो कल किसी की माता होने का सौभाग्य पायेगी। और माता होने के लिए पत्नी होना भी जरुरी है। मगर अफसोस, नारी की अतिशय निन्दा भी की गई है,उसमें हमारे संत कहे जाने वाले लोग ही अधिक हैं। अभी हाल में एक बहुत बड़े संत हुए। लाखों की भीड़ जुटती- उनके प्रवचन सुनने के लिए। उनके संतत्व पर तो मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता,किन्तु इतना जरुर कहना चाहता हूँ कि उन्हें नारी से घोर घृणा थी। भूल से भी कोई नारी चली आये उनके समीप तो ,इतना अपमानित करते कि कोई गुंड़ा भी शरमा जाये। गाली बकने में महराथ हासिल था उन्हें। क्या ये सन्त के लक्षण हैं? नारी के हर स्वरुप में महामाया का दर्शन नहीं कर पाये,और हर नारी उन्हें कामिनी ही दीखी??? ये तो उनके आँखों की चूक है । मन का भ्रम है,और इसी भ्रमजाल को अपने अनुयायियों में वितरित किया। जिसके पास जो होगा, वही तो बांटेगा भी ! दमित काम का प्रबल वेग क्रोध का रुप बड़ी आसानी से ले लेता है,क्यों कि उसके बाद का भाई वही है न? इन स्थितियों को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘कुपित ब्रह्मचर्य का असाध्य रोगी’ कहा है,अपने एक औपन्यासिक प्रसंग में। जीवन भर शायद उन्होंने कुछ न किया,बस काम से लड़ने,और चेला मंडली के विस्तार में गवां दिया...
“...नारी के ताड़नात्मक उपदेश ने ही तुलसी को तुलसीदास बना दिया....कामातुर विल्वमंगल को सूरदास; किन्तु जटाजूट बढ़ाये,धूनी रमाये,चीवर-चिमटाधारी भगोड़ुओं से भी संसार पटा पड़ा है। क्या इन्हें सन्त कह सकते हो ? जो गृहस्थी का बोझ नहीं सम्भाल पाया,वो साधना का बोझ क्या सम्भालेगा ? घर-गृहस्थी छोड़कर तो भाग गया,पर संसार क्या छूटा कभी उससे? वो और भी अनुरक्त हो गया,आसक्त हो गया— कंचन-कामिनी में। आश्रम बनाकर चेले-चेलियों की भीड़ इकट्ठी करने में हीरा जनम गंवा दिया। साधक को आश्रम की स्थापना,और संचालन की क्या जरुरत पड़ गयी ? दरअसल वो परम स्वतन्त्र रहकर,ऐशोआराम की जिन्दगी गुज़ारने की ख्वाहिस रखता है, और वो भी बिना मेहनत के। इसलिए ही ये सब करता है। साधना न उसका ध्येय होता है,और न लक्ष्य...।”
बाबा पूरे प्रवाह में आगये थे। धर्म के नाम पर फैली सामाजिक कुरीतियों पर कठोर प्रहार कर रहे थे। मैं चुप सुनता जा रहा था। बहुत दिनों से ऐसे ही सवाल दिमाग में खाँव-खाँव करते रहे थे,आज उनका सही जवाब देने वाला सौभाग्य से मिल गया है।
बाबा कह रहे थे- “...संतो का एक बहुत बड़ा समुदाय है,जो क्रोध के लिए सुख्यात है। लड़ाई-झगड़े के लिए विख्यात है। उनके भय से शासन-प्रशासन भी थर्राता है। धर्म के नाम पर आजतक जितने युद्ध,और कत्ल हुए हैं,उतना किसी और कारण से नहीं। क्या धर्म यही कहता है ? मोक्ष का अधिकारी मानव मात्र है, प्राणीमात्र कहना,अधिक उचित होगा। फिर ये तरह- तरह के धार्मिक राजनीति ? मन्दिर तोड़कर मस्जिद बना दो,मस्जिद तोड़कर मन्दिर बना दो...ये कौन सा धर्म है ? सच पूछो तो यही कारण है कि ईश्वर-अल्लाह इन स्थानों को त्याग कर अन्यत्र अपना ठिकाना ढूढ़ने को विवश है। तुम इस भ्रम में कदापि न रहना कि भगवान मन्दिर में रहते हैं, और अल्लाह मस्जिद में,वो तो सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। हमारे भीतर हृदय-गुहा में छिपा बैठा है। उसे वहीं ढूढ़ो,वहीं मिलेगा। कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है,वस शान्त होने का प्रयास करो। सरोवर में तरंगे उठ रही हैं, इसी कारण विम्ब नहीं बन पा रहा है। उसे थिर होने दो। एक झलक मिल जायेगी प्रभु की। और एक बार मिल गयी,तो फिर नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति, प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्प मप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। (गीता २-४०) कृष्ण ने यही इशारा किया है- इस छोटे से एक प्रयास का भी नाश नहीं होता,उत्तरोत्तर विकास ही होता जायेगा...।
“…अतः ‘काम’ को साधन-पथ का विघ्न न मानो,और न बनाओ। उसे साधना-शिखर पर आरुढ़ होने की सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करो। वामतन्त्र साधकों के एक बहुत बड़े वर्ग ने यहीं से रास्ता चुना है,और अपेक्षाकृत कम समय में साधना के अन्तिम सोपान पर विजय-ध्वज की स्थापना की है। किन्तु दुर्भाग्य,यहाँ भी बहुतों ने धोखा खाया है। अज्ञान और भ्रम वश,स्वर्णपथ से च्युत होकर,कुमार्गी हुए। तन्त्र के नाम पर आज जो समाज में उपेक्षा,घृणा और भय का सा भाव है,सम्यक् ज्ञान(जानकारी)के अभाव का ही नतीजा है। ‘तन्त्र’ शब्द कहते के साथ जो छवि आमजन-मानस में बनती है,वह है- जाल,फरेब,धोखा, सम्मोहन, उच्चाटन, विद्वेषण, स्तम्भन और यहाँ तक कि मारण भी। तन्त्र काला जादू नामक कुत्सित कृत्य के रुप में ही ज्यादातर देखा,सुना,जाना और प्रचारित भी किया जा रहा है। चारों ओर तथाकथित तन्त्र का जाल विछाये बैठे हैं,समाज के ठग-उच्चके,जो करने के नाम पर तो एक तिनका भी नहीं हिला सकते,परन्तु सृष्टि को ही विनष्ट करने का ढिंढोरा पीटते हैं। भोली जनता अपनी विविध कामनाओं से संत्रस्त होकर, उनके जाल में सहज ही फंस जाती है। तन्त्र का मौलिक अर्थ और व्यवहार कहीं खो गया है। सच पूछो तो, हमारे ज्ञानकोष का एक बड़ा सा हिस्सा आततायियों के हाथ पड़कर,नष्ट-भ्रष्ट हो चुका है। जो थोड़ा कुछ बचा,उसे अतिगोपनीयता का दीमक चाट गया। कुछ ऐसा भी हिस्सा है, जो ऐसे हाथों में पड़ा है,जिसके पास उसकी चाभी ही नहीं है। अतः इस पर गहन मनन-चिन्तन-साधन करके, धीरे-धीरे उसे पुनरुज्जीवित करने की आवश्यकता है। आचार्य प्रवर डॉ. गोपीनाथ कविराज जी ने अपनी अनन्यतम कृति- ‘भारतीय संस्कृति और साधना’ में गहन प्रकाश डाला है। कहीं उपलब्ध हो तो समय निकाल कर उसका अध्यवसाय अवश्य करो। तुम तो पढ़े-लिखे हो, खुद को पत्रकार कहते हो,तब तो अजन्ता,एलोरा,खजुराहो आदि के भित्तिचित्र,और उत्कीर्ण विविध मूर्तियों के बारे में भी अवश्य जानते होओगे,जो हमारे ऐतिहासिक धरोहर हैं।’’
बाबा के इस बात पर गायत्री ने मेरी ओर कनखियों से देखा,और कुछ कहने का इशारा की। मैंने उसका संकेत समझकर कहा- हाँ महाराज ! वहां के बारे में सिर्फ किताबों में पढ़ा भर नहीं है,संयोग से एक बार घूमने का मौका भी मिला है। किन्तु वहां के बारे में जो देखा,सुना,जाना वह तो बड़ा ही शर्मनाक है। क्या कोई सभ्य-समझदार आदमी अपने पूरे परिवार सहित उसे घूम-देख सकता है? सुनते हैं किसी शासक ने उसके अधिकांश भागों को बन्द करवा दिया। अधिकांश नष्ट भी कर दिये गये। पर्यटकों में कुछ के मुंह से मैंने स्वयं सुना है कि ये सब किसी जमाने के विकृत मस्तिष्क के खुराफ़ात हैं...।
मेरी बात पर बाबा एकदम से झल्ला गये– ‘ हां, खुराफ़ात तो हैं ही,पर
विकृत मस्तिष्क वालों के नहीं,बल्कि उन तथाकथित दिमागदार पागलों के,उन मूर्खों के जिन्हें भारतीय संस्कृति का जरा भी ज्ञान नहीं है। तुम्हें क्या लगता है- कोई सामान्य कलाकार ने बनाया है इन मूर्तियों को...किसी कामी और भोगी ने बनवाया है इन्हें ? लानत है ऐसी सोच पर,जो खुद के दिमाग से कभी सोचने का प्रयास भी नहीं करता। तुम्हारे दिमाग से ये कूड़ा निकालने के लिए मैं ये स्पष्ट कर दूं कि वस्तुतः ये तन्त्र-साधना के महान केन्द्र रहे हैं किसी जमाने में। किसी महान तन्त्र–साधक के दीर्घ अनुभव और ज्ञान के प्रतिविम्ब हैं ये भित्ति-शिल्प। इतना तो तुम जानते ही हो कि कोई भी विषय हो उसका दो पथ,दो विचार-धारा या कहो पहलू अवश्य होता है- सीधा और उल्टा,दक्षिण और वाम। हमारा तन्त्र भी लेफ्ट-राइट से अछूता नहीं है,बल्कि ये कहो कि इसी ढर्रे पर सभी जगह दक्षिण-वाम भेद होता गया।मुक्ति के दो रास्ते हैं,जो एक दूसरे को काटते नहीं,विरोधी भी नहीं। एक है आरज़ू-विनती वाला- सौम्य रास्ता; और दूसरा है जोर-जबरदस्ती वाला कठिन रास्ता। एक पूर्णतः निरापद है,तो दूसरा असिधार वत, पूर्णतः कंटकाकीर्ण। किन्तु हां,एक कछुए की चाल है,तो दूसरा विमाननगति। एक रास्ता त्याग की प्रशस्त पगडंडी से होकर जाता है,और दूसरा रास्ता भोग के कटीले चौड़े पथ से...।’
मुझे एक बात याद आयी- पिताजी कहा करते थे- कुलपरम्परानुसार ही साधना करनी चाहिए। यानी वाम-दक्षिण जो भी हो,मार्ग परिवर्तन करने से,स्वयं की सिर्फ हानि ही नहीं,सर्वनाश होजाता है। अतः मार्ग कदापि न बदले– आखिर इसका क्या मतलब हुआ महाराज?
जरा दम लेकर बाबा फिर कहने लगे - ‘ पहले मैं इस प्रसंग को पूरा करलूं,फिर तुम्हारी बात का जवाब दूंगा। हो सकता है,इन्हीं बातों में तुम्हारे लिए उत्तर भी हो। हां,तो मैं कह रहा था कि उन स्थानों का भ्रमण यदि तुम ठीक से किये हो, तो देखे होवोगे कि परिसर की भित्तियां पटी पड़ी है- मैथुन रत विविध मिथुनों से,विभिन्न भंगिमाओं में । पश्चिम के पर्यटकों यहां तक दार्शनिकों,मनोवैज्ञानिकों और सामाजशास्त्रियों को भी ये सब रहस्य समझ नहीं आया- क्या मतलब- परिसर में नग्न मूर्तियां,और अन्दर सब कुछ खाली-खाली...बिलकुल रिक्त...कहीं कुछ नहीं...आकाश की तरह शून्य...नीरव...शान्त कोष्ठ के सिवा। क्या कभी तुमने सोचा- ऐसा क्यों? नहीं न। सोच भी नहीं पाओगे, समझ भी नहीं सकते इस गहन तन्त्र-विज्ञान को। पशु हो न और ये पशुता से पार लेजाने वाला विषय है। ’
मैंने नम्रता पूर्वक जिज्ञासा व्यक्त की- महाराज ! यदि मेरे सुनने-जानने लायक हो तो कृपया अवश्य बतायें- आखिर क्या रहस्य है इन नग्न मिथुनों में।
सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- ‘ समझने वालों के लिए बहुत साधारण सी बात है,और न समझने वाले के लिए बिलकुल बकवास। स्कूलों में नर्सरी का क्लास होता है न,आजकल तो ‘प्ले’ भी हो गया है। वामतन्त्रसाधना का ये प्ले है। साधना की पवित्र दीक्षा-भूमि में पदार्पण करने से पूर्व यानि इस महामन्दिर में प्रवेश करने से पूर्व परिसर की भित्तियों का अवलोकन करो,लम्बें समय तक प्रत्येक दृष्य को देखो,मानों किसी देव मूर्ति को देख रहे हो,और उससे होने वाली मानसिक प्रतिक्रियाओं- कामोत्तेजना,आसक्ति,मोह आदि मनोवृत्तियों को टटोलो अपने भीतर। समझने का प्रयास करो,नापने का प्रयास करो कि किस वृत्ति ने कितना प्रभावित किया तुम्हारे चंचल चित्त को। और दीर्घ काल तक खुद को जांचते-परखते हुए, जब ये पाओ कि इन मूर्तियों से उठी कोई तरंग तुम्हारे चित्त सरोवर को अशान्त नहीं कर रहा है,उद्वेलित नहीं कर रहा है जरा भी,तब परिसर के भीतर,प्रकोष्ट में प्रवेश होगा। परन्तु अभी खुश होने की बात नहीं है। क्यों कि अबतक तो दीवारों पर पत्थर की नंगी मूर्तियां मिली थी,पर अब द्वार पर तुम्हारे स्वागत और परीक्षा के लिए जीती-जागती नग्न मूर्तियां मिलेंगी- पुरुष भी,स्त्री भी। और इस प्रकार इस कठिन परीक्षा में भी जब उतीर्ण हो जाओगे तब जाकर उस वामतन्त्र-दीक्षा के अधिकारी बनोगे। साधना की असली विधि का निर्देश तो तब प्राप्त होगा। तन्त्र कोई बच्चों का खेल नहीं है,और न कामियों का क्रीड़ास्थल– इस बात को ठीक से न समझ पाने के कारण ही मूर्खों,जाहिलों कामलोलुपों ने तन्त्र की गरिमा को ही धूमिल कर दिया है पिछले दो-ढाई हजार वर्षों में। वैदिक-तान्त्रिक भारतीय संस्कृति की गंगा-यमुनी छवि को बहुत विकृत कर दिया गया है। विकृति के इस दौर में ही ऐसी बातें भी कही गयी एक दूसरे के विरोध में।शैव,शाक्त,वैष्णव आदि के टंटे इसी दौर में चले। वैष्णव कब चाहेगा कि कोई शाक्त होजाय,शाक्त कब चाहेगा कि कोई वैष्णव हो जाय। किन्तु मैं कहता हूँ कि ये दोनों ही बचकानी बात कर रहे हैं,क्यों कि यह द्वैत(भेद) उनमें विद्यमान है,यानी परिधि के ही यात्री है, केन्द्र की ओर यात्रा शुरु भी नहीं हुयी है उनकी। मैं तो ये कहना चाहूंगा कि वाममार्ग का अभ्यास शुरु करने से पूर्व लम्बे समय तक दक्षिणमार्ग का अभ्यास करना चाहिए,ताकि वाममार्ग की अड़चनें,बाधायें दूर हों। महानगर की भीड़ में तेज रफ़्तार से गाड़ी चलाने से पूर्व गांव की गलियां तय करो। किन्तु हां,मेरे इस कथन का ऐसा अर्थ भी न लगा लेना कि वाम बड़ा है,महान है। मैं यहां ऐसी तुलना कर ही नहीं रहा हूँ। मैं केवल आपद-निरापद,सुविधा-असुविधा की बात कर रहा हूँ। गांव की गली में टकराने-गिरने का खतरा नहीं है। गिरोगे भी तो चोट कम लगेगी,परन्तु शहर की भीड़ में टक्कर ही टक्कर है,और उठने-सम्भलने का भी अवकाश-सुविधा न के बराबर है। अतः सावधान। इस सम्बन्ध में अभी सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि दक्षिण-वाम तन्त्र पर फिर कभी अनुकूल समय देख कर और भी चर्चा हो सकती है। फिलहाल वस इतना ही समझो कि हमारी संस्कृति न समग्र रुप से वैदिक है और तान्त्रिक,प्रत्युत वैदिक-तान्त्रिक परम्परा का अद्भुत संगम है। इसमें अवगाहन करके आनन्द-विभोर हो जाओगे...।