बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 6 / कमलेश पुण्यार्क
“...द्रव्य शुद्धि में ही बहुत सी बातें आ जाती हैं। जो चावल,आटा,दाल हम खा रहे हैं वह कैसा है? हालाकि आज बाजार वादी व्यवस्था में इन बातों का कोई परख-सूत्र नहीं रह गया है,फिर भी कम से कम उस ‘द्रव्य’ का विचार तो थोड़ा सावधान रह कर, कर ही लिया जा सकता है। जिस पैसे का उपयोग हम कर रहे हैं- वह कैसा है- मेरे पसीने की सही कमाई है,या कि चोरी,छीना-झपटी,लूट-हत्या, कुकर्म आदि से अर्जित सम्पत्ति है…?
“…इनमें बहुत सी बातों को हम जानकर भी अनजान बने रहते हैं। पापकर्म करते समय पापी से भी पापी की अन्तरात्मा एक बार कोसती – सावधान करती जरुर है, किन्तु अपने ज़मीर की आवाज को हम नज़रअन्दाज़ कर देते हैं। धन अर्जन करते समय जरा भी विचार नहीं करते कि आगे क्या होगा। तुमने देखा होगा- कुछ थोड़े से लोग ऐसे होते हैं,जो आर्थिक दृष्टि से तो बहुत ही कमजोर होते हैं, किन्तु सुख-शान्ति उनकी झोली में ज्यादा होती है। और ठीक इसके विपरीत ज्यादातर ऐसे लोग होते हैं, जिनके पास दौलत तो अपार होता है,पर सुख-शान्ति कोसों दूर होती है। कमाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा डॉक्टर या वकील या पुलिस ले जाती है। जन्मजात असाध्य रोगी, या विकलांग सन्तान उत्पन्न हो जाती है। प्रायः लोग इसे प्रारब्ध-दोष मान कर सन्तोष करते हुए, आजीवन दुःख झेलते रहते हैं। प्रारब्ध तो अपनी जगह पर ठीक है,परन्तु तात्कालिक कर्म भी कम प्रभावशाली नहीं है। द्रव्य-दोष इसमें बहुत बड़ा कारक है- इसे न भूलो। गायत्री की बातों का जवाब मैंने यहीं से शुरु किया था,कि बीच में ही आहार की बात आगयी- तुम्हारे द्वारा। ”
“हां भैया,मैंने यही पूछा था कि शादी की मंडप से भाग क्यों गये। खैर,
इसका जबाव तो तुमने दे दिया- दूषित धन के पहरेदार और भोगनहार बनने के डर से भागे थे, शादी से नहीं। किन्तु अभी जवाब अधूरा है- मेरे प्रश्न में यह भी था कि गये तो कहां गये,और इतने दिनों तक क्या करते रहे...ये औघड़ी बाना क्यों अख़तियार किये? ”- गायत्री ने प्रसंग को आगे खींचते हुए कहा।
मैंने गायत्री को टोकते हुए कहा- ‘ ये बातें तो तुम बाबा की जीवनी के बीच से उठा रही हो। बाबा ने अपनी कहानी पूर्णाडीह के साधक श्री ज्ञानेश्वर जी के संरक्षण-स्वीकृति तक पहुँचाकर छोड़ी है। क्यों न बात फिर वहीं से शुरु हो।’ मेरी बात पर गायत्री ने भी हामी भरी- ‘ ठीक है,वहीं से शुरु हो,क्या फर्क पड़ता है; किन्तु अब भोजन का भी समय हो रहा है,तुमलोग कुछ और बातें करो,तबतक मैं अपना रसोई घर का काम निपटा लूँ। भोजन के बाद,जमकर बातें होगी। कल तो मैं कुछ थकी-थकी सी थी,खाकर तुरत सो गयी थी,और तुम चला दिये थे भैया को।’
‘अपने भगोड़ू भैया को चलाने का इल्ज़ाम मुझ पर न लगाओ। मैंने बहुत कहा,पर इन्हें गृहस्थों के घर से डर लगता है। खैर,अब समझ गया। अतः रोकना फ़िजूल है। जब तक बातें होंगी, होंगी। फिर अगले अध्याय में जायेगा। तुम्हारे भैया की दिलचश्प कहानी इतनी जल्दी पूरा होने वाली थोड़े जो है।’
गायत्री चली गयी,रंधन कार्य में। मैंने पुराने प्रसंग से ही एक नया प्रसंग निकाला- ‘ भाईजी ! आपने काम के बारे में तो काफी कुछ स्पष्ट कर दिया। उसे सही रुप से साधने का तरीका भी बता दिया। किन्तु जैसा कि आपने कहा कि काम के बाद क्रोधादि जो और सहज विकार हैं मनुष्य के अन्दर,उन पर नियन्त्रण कैसे किया जा सकता है? ’
बाबा ने कहा- “ मूल सूत्र तो एक ही है- सदा होश में रहने का प्रयत्न,और अस्त्र है- श्वांस। होश में यानी चैतन्य रहोगे तो मित्र-शत्रु की सही पहचान सही समय पर कर लोगे,और पहचान हो जाने पर आगे की कारवाई भी समझ जाओगे। इस काम(कामना मात्र)का जब दमन होता है,किसी कारण से तब,क्रोध का जन्म होता है। अनियन्त्रित स्थिति मंह क्रोध प्रबल शत्रु की तरह हावी होजाता है;और हमसब उसके गुलाम हो जाते हैं। फिर कुछ के कुछ कर बैठते हैं। किन्तु होश में रह कर, यदि उसे पहचान लो, दूर से आते हुए ही,तो उसपर नियन्त्रण बड़ी आसानी से किया जा सकता है। यहां भी वैधिक रुप से विशेष कुछ करना नहीं है। क्रिया वही करनी है जो काम को नियन्त्रित करने के लिये मैंने बतलाया। तुम अनुभव किये होगे- काम के आवेग में सांस तेज हो जाती है, वैसे ही क्रोध के आते ही सांस तेज होने लगती है,और जैसे-जैसे क्रोध का वेग बढ़ता है,सांस की गति भी बढ़ने लगती है। कृष्ण ने गीता में इन काम-क्रोधों को रजोगुण से उद्भूत कहा है- काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।। रजोगुण से उत्पन्न काम क्रोधादि महा अशन(भोजन)वाले हैं। और इसके पूर्व प्रसंग में ही कहा है- ...संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।। और फिर क्रोध के आगमन के बाद की स्थिति स्पष्ट करते हैं, जो बहुत ही खतरनाक है- काम दमित होकर क्रोध को आहूत करता है,क्रोध आते ही अपने आप का सम्मोहन हो जाता है,यानी योग्यायोग्य का विचार खो जाता है,और सम्मोहित चित्त में स्मृति-विभ्रम हो जाना स्वाभाविक है। स्मृति ही जब विभ्रमित हो जाय,फिर बुद्धि का नष्ट हो जाने में क्या संशय? और संशययुक्त बुद्धि तो सबकुछ नष्ट करने की क्षमता रखता ही है। कृष्ण के ये वचन बहुत ही गुनने लायक हैं-क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। ”
‘ ये तो बड़े ही महत्व की बात आपने कही । यदि काम,क्रोध आदि को सही रुप में पहचान लिया जाय,तो उन पर नियंत्रण पाना सरल हो जा सकता है। तो क्या श्वांस के अवलोकन वाली क्रिया से यह कार्य भी हो सकता है? ’- मैंने सवाल किया।
“ये सांसों का खेल बड़ा ही निराला है। योगशास्त्रों में तरह-तरह के श्वांस नियामक सूत्र दिये गये हैं। एक बड़ा ही उपयोगी ग्रन्थ है- विज्ञानभैरवतन्त्र, जिसमें कुल जमा एक सौ बारह सूत्र हैं- शिव-पार्वती संवाद में। इसके पहले ही सूत्र की साधना से सिद्धार्थ बुद्ध बन गये। उनके बुद्धत्व प्राप्ति से चमत्कृत,परवर्ती जनों ने अज्ञानता में इसे बुद्धों का ही ग्रन्थ समझ लिया। आज भी बौद्ध लामाओं द्वारा इन सिद्धान्तों का भरपूर उपयोग होता है। मैं कुछ विशेष करने की बात नहीं कर रहा हूँ। कह रहा हूँ ,सिर्फ इतना ही कि शान्त बैठने की आदत डालो। व्यर्थ के शारीरिक-मानसिक हलचलों को रोको-समझाओ अपने मन को कि व्यर्थ का बकवास बन्द करो। वाणी के प्रयोग में कंजूस बन जाओ। किन्तु ऐसा नहीं कि बोलना बन्द और सोचना शुरु। ये नटखट मन जो है,सर्वाधिक चंचल और गतिशील है। अर्जुन ने भी कृष्ण से असमर्थता ज़ाहिर की है- मन को वश में करने हेतु। यह मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण बनता है- मन एव मनुष्याणाम् कारणं बन्धमोक्षयोः। और इस मन को नियंत्रित करने में श्वांस ही सर्वाधिक सहायक हो सकता है। अतः इसकी गति पर ध्यान को केन्द्रित करने का प्रयास करो। मैं ध्यान करना नहीं बतला रहा हूँ। सच पूछो तो ध्यान कुछ करने वाली चीज भी नहीं है। ध्यान किया नहीं जाता है, वह तो स्वतः हो जाता है। करने और होने में भारी अन्तर है। काम का वेग हो या कि क्रोध का,सांस पर ध्यान गया नहीं कि वह थिर होने लगेगा। अति चंचल पारद को तुलसी के पत्ते से नियंत्रित किया जाता है,वैसे ही मन को नियंत्रित करने के लिए सांस पर ध्यान देना जरुरी है। वैसे करने को तो जीवन में बहुत कुछ करता ही है मनुष्य। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त सिर्फ करना ही करना तो है। अब जरा न करने की भी आदत डालो। सुनने में यह बड़ा आसान लग रहा होगा,और मन में ये सवाल भी उठ रहा होगा कि इतने जोग-जाप-जतन से तो कुछ होता नहीं जल्दी,फिर ये सब छोड़ कर कुछ न करने से कैसे होगा भला ? सच पूछो तो करना ही आसान है।
कुछ न करना ज्यादा कठिन है...। ”
बाबा का प्रसंग चल ही रहा था,कि गायत्री ने आवाज लगायी- “ मैं भी यही कह रही हूँ कि कुछ करने की जरुरत नहीं है किसी को। किन्तु सांस चलती रहे, इसके लिए शरीर में कोयला-पानी डालना तो पड़ेगा ही। भोजन तैयार है। तुमदोनों हाथ-मुंह धोकर यहीं आ जाओ। आज यहीं व्यवस्था कर दी हूँ। कल ही भैया ने टोका था कि भोजन बनाने और करने का स्थान गलत है। बनाने का तो कोई विकल्प नहीं है,किन्तु भोजन करने का स्थान तो कुछ बदला ही जा सकता है।
कहते हैं न – ना मामा से भला काना मामा...। ”
आधे घंटे के बाद हम तीनों पुनः इत्मिनान से बैठ गये। बाबा की जीवनी सुनने के लिए विशेषकर मैं, उतावला हो रहा था। अतः मौका पाते ही छेड़ दिया- ‘ हां,तो फिर क्या हुआ आगे पूर्णाडीह के ज्ञानेश्वरजी के अभिभावकत्व में आपने कितने दिन,और कैसे गुजारे?’
उपद्रवी बाबा ने कहना शुरु किया- “ दादाजी मुझे ज्ञानीजी को सुपुर्द कर,गांव चले गये,यह कर कि अब यहीं रहना है। सीधे छठ के समय ले चलूंगा मां से मिलवाने। अपने वायदे के अनुसार दादाजी सप्ताह-दस दिन पर घोड़ा दौड़ाये चले आते थे,मुझसे मिलने। पिताजी या औरों को ये बात मालूम नहीं थी कि मैं यहां हूँ। लोग तो यही जान रहे थे कि मेरी पढ़ाई शुरु हो गयी है खरखुरा,गया के अवस्थीजी के विद्यालय में। किन्तु मैं कौन सी पढ़ाई पढ़ रहा हूँ ज्ञानीजी ही समझ रहे थे केवल। ज्ञानीजी पर भरोसा करके दादाजी भी कभी ये सवाल नहीं उठाये कि क्या सिखलाया-बतलाया जा रहा है मुझे। उन्हें तो बस अपने कुलदीपक पौत्र के विकास से मतलब था,और इसके लिए ज्ञानीजी ने उन्हें पूरा आश्वस्त कर दिया था।
“....मेरे रहने का प्रबन्ध ज्ञानीजी ने अपने ही कमरे में कराया था,और आठ पहर के दिन-रात में सात पहर उनकी आंखों के सामने ही गुजरता था लगभग। मुझे भी बड़ा अच्छा लग रहा था उनका सानिध्य। पहुँचने के दूसरे ही दिन सुबह-सुबह मुझे जगा दिया गया, और, एक झोला और दो लोटा लेकर ज्ञानीजी के साथ गांव के पास की पहाड़ी पर चला आना हुआ। रास्ते में ही शौचादि से निवृत होने की व्यवस्था थी। ऊपर पहाड़ी पर पहुँचने पर मैंने देखा कि काठ का एक छोटा सा पेटी लिए काला-कलूटा एकाक्षी पुरुष पहले से ही प्रतीक्षा में बैठा था- मन्दिर के बाहर ही, एक ढोंके पर। बाद में पता चला कि वह गांव का नापित है,जिसे मेरे मुण्डन के लिए ही बुलाया गया है। मेरा मुण्डन हुआ। मन्दिर के पिछवाड़े में ही एक छोटा सा जलकुंड था,जिससे पानी निकालने के लिए ज्ञानीजी ने एक बाल्टी दी,भीतर मन्दिर में से लाकर,और कहा कि जल्दी से स्नान करके आ जाओ। थोड़ी देर बाद,स्नान करके लौटने पर, मैंने देखा कि ज्ञानीजी स्वयं स्नानादि से निवृत होकर,नापित की मदद से वहीं मन्दिर के सभागार में छोटी सी वालुका वेदी, और पूजा मंडप सजा चुके हैं। एक ओर आसन लगाकर स्वयं विराज रहे हैं,मेरी प्रतीक्षा में। आसपास यथेष्ट मात्रा में सभी पूजा-सामग्री भी उपलब्ध है। सबसे पहले मुझे नयी धोती और गमछा दिये,अपने झोले में से निकाल कर। मुझे तो ठीक से धोती पहनना भी नहीं आता था, अतः नापित के सहयोग से पहनना पड़ा,और यह भी कहा गया कि ठीक से देख-समझ लो,कल से ये धोती स्वयं ही पहननी है। नया वस्त्र और आसन देकर,मेरा संस्कार शुरु हुआ। चार-पांच घंटे के वृहत् कर्मकाण्ड से, मुझे यज्ञोपवीत के साथ गायत्री की दीक्षा दी गयी। कुछ अन्य वैदिक मन्त्रों का भी मौखिक अभ्यास कराया गया। ज्ञानी जी के स्पर्श का प्रभाव कहें या कुछ और, मैंने पाया कि दो से तीन बार के सम्यक् उच्चारण के बाद मन्त्र मुझे कंठस्थ हो जा रहे थे। उन्होंने बतलाया कि अब नित्य सुबह-दोपहर और शाम ये सभी क्रियायें करनी हैं- इस क्रिया को त्रिकाल संध्या कहते हैं। जीवन में कुछ भी करने के लिए आगे का रास्ता यहीं से निकलता है। इसे बीज समझो, और इस बीज की रक्षा भी सावधानी पूर्वक तुम्हें करनी है...।
“....ज्ञानीजी रोज सुबह मुंह अन्धेरे ही मुझे जगा दिया करते, और साथ लिए उसी उमगा पहाड़ी पर चल देते। लगभग दोपहर तक उनके साथ, निर्दिष्ट विविध क्रियायें संध्या-गायत्री,देवीपूजन,स्तोस्त्र-पाठ आदि सम्पन्न होता। इस बीच उनका एक सेवक दूध और कुछ मेवे,या कभी अन्य मौसमी फल दे जाता,जिसे मौका पाकर बीच में हमलोग ग्रहण करते,और फिर क्रिया शुरु हो जाती। ज्ञानीजी ज्यादातर सिर्फ दूध ही लेते। मेवे और फल तो मैं ही गटकता। दूध के साथ यथेष्ट मात्रा में गुड़ या रावा(विशेष प्रकार का शक्कर)का प्रयोग करते। उनका कहना था कि चीनी तो विदेशियों द्वारा बनाया गया मीठा जहर है, साथ ही एक दूषित पदार्थ भी। हमारे यहां इसकी सफाई गन्धक,चूना,फिटकिरी आदि से करने का चलन था; किन्तु पश्चिम ने इसकी सफाई के लिए सीधे मवेशियों की हड्डी के चूर्ण (हाईड्रस)का प्रयोग सिखला दिया,और इसे ही हमारे देश की कम्पनियां भी अख़्तियार कर ली। परोक्ष रुप से हमारी शुचिता पर छद्मघात है ये,जिसे हम भारतवासी समझने-बूझने को भी राजी नहीं हैं। विदेशी आततायियों में किसी ने दावे के साथ कहा था कि सोने की चिड़िया वाली भारतभूमि पर काबू पाना है, तो सबसे पहले उसके धर्म और संस्कृति पर प्रहार करो। भारत की आत्मा अध्यात्म में वसती है,उसपर प्रहार करो,अन्यथा इसे बस में करना बहुत ही दुरुह है। उसे धर्म के सही रास्ते से चालाकी पूर्वक घसीट कर कुमार्ग पर ले आओ...। विविध पेय- चाय,कॉफी,कोला,तरह-तरह के सुस्वादु वाइन...ये सब उसी सांस्कृतिक प्रहार के अमोघ अस्त्र हैं,जिनसे हमारी संस्कृति चोटिल होते रही; और अब तो अभ्यस्त हो गयी है। मस्त हो गयी इन्हीं संस्कारों को विकास और उत्थान मान कर। खान-पान,रहन-सहन, व्यसन,वेशभूषा सब कुछ प्रभावित हो गया है...।
“…मध्याह्न संध्या के पश्चात् पहाड़ी से नीचे आते हमलोग गांव वापस। घर आकर भोजन होता साथ-साथ ही- गुरु-चेले का। थोड़े विश्राम के बाद,अपने कमरे,जो बड़े से दालान के पूर्वी भाग में बना हुआ था,हमलोग बैठ जाते, और पहर भर करीब पौराणिक कहानियां, धर्मशास्त्र, आदि विविध प्रसंगों पर चर्चा होती। इस बीच गांव-जेवार के कुछ लोग मिलने-जुलने,सत्संग सुनने वाले भी आ जाते,या कोई अपनी व्यक्तिगत समस्या का समाधान ढूढ़ने ही आ टपकता। घड़ी भर दिन रहते कमरे की बैठकी समाप्त होती,और पुनः पहाड़ी की चढ़ाई करके,सायंकालीन क्रियाएँ सम्पन्न होती। दो घड़ी रात बीतने पर हमलोग वापस घर आते,रात्रि भोजन होता। कुछ देर तक हितोपदेश-पंचतन्त्र की कहानियां सुनाते। तरह-तरह के सामान्य जीवनोपयोगी सवाल-जवाब भी होता,और फिर रात्रि-विश्राम–यही थी— ज्ञानीजी की दिनचर्या,और मेरी दिनचर्या तो उनके साये की तरह ही पीछे-पीछे चलने वाली थी...। एक बात मैंने और गौर किया,कई बार- जब कभी देर रात लघुशंका के लिए नींद खुलती तो,ज्ञानीजी को अपनी चौकी पर पद्मासन में बैठे पाता। पता नहीं वे रात में कितनी देर सोते थे,या कि पूरी रात जगे ही रहते। कभी ढिठाई पूर्वक पूछ देता,तो हँसते हुए कहते कि बुढ़ापे का शरीर है, बच्चों जैसी नींद कहाँ से लाऊँ?...
“...इसी तरह समय गुजरने लगा। इस बीच दादाजी कई बार आ चुके थे, और मेरी स्थिति से पूर्ण संतुष्ट भी थे। दिन और महीने किधर निकलते गये पता भी न चला। ध्यान तो तब आया जब एक दिन ज्ञानीजी ने कहा कि परसों से शारदीय नवरात्र शुरु हो रहा है। कल अमावश्या को हमलोग पहाड़ी पर जायेंगे,सो सीधे अगली एकादशी को ही वापस आयेंगे। इस बीच रहने-खाने की पूरी व्यवस्था वहीं मन्दिर में ही रहेगी। तुम्हें भी मेरे साथ रात में कुछ अधिक जगना पड़ेगा। दिन में खेलने-घूमने के लिए तो पहाड़ और जंगल है ही। हाँ एक बात- इस पूरी अवधि में तुम्हें लड्डू खाने को नहीं मिलेगा, और न भात-रोटी ही। हाँ,मेवे और फल जितना खा सको,खाओ। यानी कि पूरा फलाहारी बनकर रहना है...।
“...हमलोगों का डेरा उमगा मन्दिर में पड़ गया। नवरात्र शुरु हो गया। सामान्य दैनन्दिनी के अतिरिक्त कई नयी क्रियायें भी होने लगी। ज्ञानीजी श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करने लगे,किन्तु मैंने देखा, जैसा कि पाठ पिताजी या दादाजी करते थे,उससे बिलकुल भिन्न था इनका पाठ। मुझे तो विशेष ज्ञान था नहीं, फिर भी ऐसा लगता था कि इनकी विधि कुछ और है। सीधे-सीधे कवचार्गलाकीलक,रात्रिसूक्त,नवार्ण,चरित्रत्रय,नवार्ण,देवीसूक्त,रहस्यत्रय, कुञ्जिका आदि का क्रम न होकर बड़ा ही बेतरतीब सा था....। ”
बहुत देर से मनोयोग पूर्वक बाबा के मुखार्विन्द से उनका जीवन-वृत्त सुनता रहा था,कि अचानक सप्तशती के प्रसंग ने टोकने को विवश कर दिया। प्रश्न तो गायत्री के मन में भी उठा,किन्तु मुखर न हो पाया। अतः पहल मैंने ही की- ‘ महाराज ! सप्तशती पाठ का ये कौन सा विधान है,जो आपके ज्ञानीजी कर रहे थे?’
मेरी बात पर बाबा मुस्कुराये। उनके चेहरे पर स्नेह और प्रसन्नता की लाली दौड़ गयी। गायत्री की ओर देखते हुए बोले- “ ये तो परम वैष्णव परम्परा से आया है- निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित थे इसके दादाजी; किन्तु तुम तो शाक्त परम्परा वाली हो। क्या तुम्हें भी इसके बारे में कुछ पता नहीं है? कभी देखा-सुना-जाना नहीं? ”
बाबा के प्रश्न पर गायत्री भी मुस्कुरायी,और सिर हिलाते हुए बोली- “ देखी-सुनी जरुर,पर जानी-समझी नहीं कभी। दादाजी प्रेरित करते थे,इन रहस्यमय विषयों की ओर, किन्तु न जाने क्यों पिताजी नहीं चाहते थे,और अफसोस कि दादाजी का सानिध्य-सुख बहुत लम्बे समय तक नहीं मिल पाया मुझे। पिताजी को देखती थी कुछ भिन्न तरीके से पाठ करते हुए। प्रत्येक दोनों नवरात्रियों में पिताजी प्रेरित करके श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करवाते थे हम दोनों भाई-बहनों से- घर में ही कुलदेवी के पास बैठा कर। और स्वयं तो चारो नवरात्र- चैत्र, आषाढ़, आश्विन और फाल्गुन पूरे विधि-विधान से सम्पन्न किया करते थे,पूरे अनुष्ठानिक विधि से।”
बाबा ने बतलाया- “ महर्षि मार्कण्डेय प्रणीत पुराण अपने आप में एक अद्भुत तन्त्र-ग्रन्थ है। मैं तो अन्य पुराणों की अपेक्षा इसे अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ। इसी महापुराण का अंश है श्री दुर्गासप्तशती। साधना का अद्वितीय ग्रन्थ इसे कहो। इसके एक एक मन्त्र अमोघ हैं। बनाने वाले ने तो इसे बहुत सोच-समझकर बनाया था मानव-कल्याण के लिए, मगर अफसोस, हम ब्राह्मणों ने इसे आजीविका का साधन मात्र समझ लिया। नवरात्र में यजमान के यहाँ सादा या सम्पुट पाठ करके कुछ अन्न,वस्त्र,द्रव्यादि पाकर ही खुश,और निश्चिन्त हो गया ब्राह्मण समुदाय। तुम कभी ध्यान से इसे पढ़ो,किसी गुरु के सानिध्य में पुस्तक खोलो तो परत-दर-परत इसका रहस्य खुलता जायेगा। कितना अद्भुत कथन शैली है- एक ओर सुरथ राजा समाधि वैश्य और मेघा ऋषि का आपसी संवाद चल रहा है,बिलकुल सांसारिक कथा की तरह,तो दूसरी ओर साधना की पृष्ठभूमि गढ़ी जा रही है। सप्तशती की पूरी यात्रा वस्तुतः सप्तपादानों की यात्रा है। इसकी साधना की कई विधियां हैं- अनुलोम,विलोम, प्रतिलोम,प्रतिप्रतिलोम, मन्त्रप्रतिलोम,वर्णप्रतिलोम आदि। इन गूढ़ रहस्यों के बारे में बहुत कम लोग ही जान-समझ पाते हैं। पुस्तक के अन्त में सिद्धकुञ्जिका का समावेश,तो मानों किसी गड़े खजाने की चाभी थमाने जैसी ही है,मगर दुर्भाग्य कि हम इसे देखते हुए भी समझ नहीं पाते। कुछ अनाड़ी लोग सप्तशती के अमोघ मन्त्रों को बाहर निकालकर षट्कर्मों में घसीट लेते हैं, तो कुछ सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए प्रयोग करते रहते हैं...। ये तो वैसा ही है न गायत्री ! कि कलछुल रसोई घर की चीज है,और उसे उठाकर किसी के सिर पर दे मारो,सिर तो फूटेगा ही न,पर इसमें कलछुल बनाने वाले का क्या दोष है ? सिद्ध ज्ञानेश्वरजी महाराज इसके त्रैविध क्रिया साधक थे,चतुर्विध पर वे भी स्वयं को निष्णात नहीं समझते थे- जैसा कि बातचित में उन्होंने कहा था एकदफा। साल के चारों प्रधान नवरात्रियों में अलग-अलग विधि से इसकी साधना करते थे...।
“…उस नवरात्रि में मुझे भी कुछ खास करने का निर्देश दिये। पुस्तकीय
ज्ञान तो था नहीं मुझे,सीधे व्यावहारिक विधि पर उतार दिये। मैं उनके आदेशों-निर्देशों का बड़े मनोयोग से पालन करता रहा। महाष्टमी और नवमी की संधिबेला में, निशीथ काल में मुझे मन्दिर-प्रांगण से भीतर गर्भ-गृह में बुलाया गया। ज्ञानीजी पहले से ही वहां ध्यानस्थ थे। समय पर मुझे अन्दर आ जाने का संकेत पहले ही दे चुके थे। मैं कौतुहल पूर्वक भीतर प्रवेश किया। मेरे आगमन का आभास पा उनकी आँखें थोड़ी खुलीं। हाथ से इशारा किये सामने- माँ की मूर्ति के समक्ष वीरासन में विराज जाने के लिए। मुझे दोनों हथेलियों को केले के एक पत्ते पर उल्टा करके रखने का संकेत दिये; और स्वयं वाचिक रुप से मन्त्रोच्चारण करते हुए, मेरी हथेली की पूजा करने लगे,वहां उपलब्ध पूजन सामग्रियों से। पूजन के पश्चात् मेरा दाहिना हाथ कस कर पकड़ लिए, और थोड़ा ऊपर उठाकर,मूर्ति के हाथों में सुशोभित कटार पर छप्प से दे मारे। अगले ही पल मैंने देखा- दाहिने हाथ का अतिरिक्त अंगूठा कटकर मां के चरणों में लोट रहा था,मानों कोई आतुर छटपटा रहा हो माँ की कृपा-प्रसाद पाने को। फिर बिजली की−सी फुर्ती दिखायी उन्होंने, और पास के हवन कुण्ड से थोड़ा भभूत लेकर कटे हुए भाग पर मल दिये। पहले तो मैं क्षणभर के लिए घबराया,डरा; किन्तु अगले ही क्षण सब गायब हो गया- न डर न घबराहट। कटे भाग से रिसता हुआ रक्त भी थम चुका था,और दर्द-पीड़ा तो भभूत लगाते ही काफूर हो चुका था। पुनः मुझे अपने आसन पर बैठने का आदेश हुआ और एक मन्त्र धीरे-धीरे मेरे कानों में बुदबुदाते हुए बोले कि बस यही तुम्हारा असली मन्त्र है। अगले निर्देश तक केवल यही चलेगा,बाकी की किसी क्रिया में अब उलझने की आवश्यकता नहीं है...। ”
गायत्री ने कौतूहल पूर्वक बाबा का हाथ पकड़ लिया- “ अरे ! कहते हो कि अतिरिक्त अंगूठा कट गया था, मगर मैं तो देख रही हूँ कि दोनों हाथ में अभी भी एक-एक और अंगूठा मौजूद ही है।”
गायत्री की बात पर बाबा मुस्कुराये। पैरों की ओर अंगुली दिखाते हुए बोले- “ ये देखो, यहाँ भी दोनों अतिरिक्त अंगूठे मौजूद ही हैं; किन्तु जरा ध्यान से देखो,हाथ-पैर के मुख्य अंगूठों के बगल में सटा हुआ एक-एक और अंगूठा किसी वृक्ष की कटी हुयी डाल के समीप सट कर उग आयी,नयी डाल की तरह ही है। चार मुख्य नवरात्रियों के अष्टमी-नवमी संधिवेला में बारी-बारी से एक-एक अंगूठे का बलिदान होते रहता है,माँ के चरणों में और फिर नयी शाख−सी उगकर अपने स्थान पर यथावत तैयार हो जाता है,अगली नवरात्रि के लिए। तुमने सुना होगा- राक्षसराज लंकापति दशानन अपने सिर काटकर शिव को अर्पित करता था,और शिव की कृपा से उसका मस्तक पुनःपुनः यथावत्,अक्षुण्ण रह जाता था। वैदिक और तान्त्रिक दोनों साधना पद्धतियों का अद्भुत संगम है रावण का व्यक्तित्व। रावण एक महासिद्ध कापालिक था। कौल-कापालिक तो संसार में बहुत हुए हैं,किन्तु रावण अपनी जगह पर अकेला है,उसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं,कोई बराबरी नहीं। वाल्मीकि रामायण युद्धकांड मंई इसका विशद वर्णन महर्षि ने किया है। उसके परिवार में साधना की अद्भुत परम्परा थी। रावण-पुत्र मेघनाद भी महाव्रती कापालिक था,जो निकुम्भिलादेवी की उपासना में निष्णात था। युद्धभूमि में उसके विविध चमत्कारों की जो चर्चा महर्षि ने की है वह सब इन्हीं भगवती का कृपा-प्रसाद है। जगदम्बा की कृपा पानी है,तो महर्षि मार्कण्डेय प्रणीत इस गूढ़ ग्रन्थ की विधियों में डूबो,बड़ा ही आनन्ददायक है यह सब।”
और फिर मेरी ओर देखते हुए बोले- “ तुम ये न समझो कि ये सब सिर्फ शाक्त (यहां वाम के अर्थ में प्रयुक्त) विधि से ही सम्भव है,तुम्हारी वैष्णव परम्परा को भी इसे स्वीकारने में कोई आपत्ति थोड़े जो है। राधा और काली में जरा भी भेद-भाव न रखो। राधा-काली के अभेद को समझना हो तो व्रह्मवैवर्त पुराण या देवीभागवत पुराण में डूबो। सब कुछ साफ झलक जायेगा। यह तो साधना का राजपथ है, कोई भी साधक जा सकता है,इस मार्ग से। जरुरत है सिर्फ सिद्ध गुरु की, जो सही दिशा-निर्देश दे सके,पहुँचा सके— यात्री को अपनी मंजिल तक...। किन्तु यहाँ भी प्रायः समझ की चूक हो जाती है। मुझे कुछ ऐसे लोग भी मिले हैं,जो शाक्त हो जाने के भय से वेदमाता गायत्री की सामान्य उपासना से भी घबराते हैं। वैष्णव,शाक्त,शैव,सौर्य,और गाणपत्य का ये रहस्य बड़ा ही उलझा देता है नासमझ लोगों को। हम एक−दूसरे के विरोध में खड़े हो जाते हैं। बुद्ध के काल में ऐसी विसंगति अपने चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। तभी तो भगवान शंकर को अवतरित होना पड़ा- शंकराचार्य के रुप में। आद्यशंकराचार्य ने पंचदेवोपासना का सूत्र देकर,बांधा तत्कालीन समाज को। भारतवर्ष के चार दिशाओं में चार सिद्धपीठों- बद्रीकाश्रम्,रामेश्वरम्, द्वारका,और पुरी का न्यास करके,चारधाम की महत्ता समझायी जाहिलों को,अन्यथा आपस में लड़-कट कर नेस्तनाबूत हो जाते- दुर्वासा शापित वृष्णिवंशियों की तरह। ‘शंकर’ के स्वधाम गमन के आज करीब ढाई-हजार वर्षों बाद,फिर कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति पैदा हो रही है- नासमझ लोगों की भीड़ इकट्ठी हो रही है। और ना समझ भी कैसे कहें ! कोई सही ढंग से समझने का प्रयास करे तब न । पागल खुद को पागल नहीं कहता,नासमझ के साथ भी यही समस्या है। पहले से गड़ा हुआ नासमझी का खूंटा उखाड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है। लाख समझाओ,पर उसका असर नहीं हो पाता। इसीलिए कहता हूँ- शिष्य को गुरु के पास खाली झोली लेकर जाना चाहिए। पहले से ही कंकड़-पत्थर भरे रखोगे,तो फिर कहाँ रखोगे गुरु का दिया प्रसाद ?”
कमरे में लगी घड़ी की ओर अंगुली दिखाते हुए बाबा ने कहा- “वो देखो
दोनों कांटे अब आपस मिलने को उतावले हो रहे हैं। मुझे भी अपने गन्तव्य पर पहुँचने का वक्त चाहिए। तुम दोनों अब विश्राम करो,और मुझे फुर्सत दो।”
बाबा उठ खड़े हुए। हमदोनों को भी खड़ा ही हो जाना पड़ा। उन्हें यहीं रात्रि विश्राम के लिए बार−बार आग्रह करना फिज़ूल था। नीचे गेट तक चलने को बढ़ा,तभी टोका उन्होंने- “ ये व्यर्थ की औपचारिकता छोड़ो,जाओ विश्राम करो। आगे दो-तीन दिन तो आ नहीं पाऊँगा। दिल्ली से बाहर निकलना है। ”
बाबा निकल गये सो निकल ही गये। दो-तीन दिन के वजाय सात-आठ दिन गुजर गये। रोज दिन संध्या समय दफ्तर से वापस आकर,उनकी प्रतीक्षा करता, किन्तु आये नहीं। गायत्री भी रोज सवाल करती, ‘ क्या कुछ कहा था विशेष?’ लेकिन विशेष क्या कहा था, कुछ तो नहीं। जो भी बात हुयी गायत्री के सामने ही हुई। फिर भी हमसे ज्यादा गायत्री ही चिन्तित थी। मैं तो माने बैठा था- रमता जोगी, बहता पानी- का क्या ठिकाना, कहीं रम गये होंगे,कहीं जम गये होंगे। मेरे ही जैसा कोई जिज्ञासु मिल गया होगा। किन्तु गायत्री जैसी मुंहबोली बहन तो कहीं नहीं मिल सकती न- गायत्री यही सोच-सोच कर बेचैन हो रही थी। इन थोड़े ही दिनों में बाबा ने ऐसा स्नेह-सूत्र जोड़ दिया था अपने साथ कि मन-प्राण तड़प रहे थे।