बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 8 / कमलेश पुण्यार्क
मैंने घड़ी की ओर देखा-अभी तो मात्र नौ बजे हैं। घंटे भर की बैठकी तो और लगायी ही जा सकती है। अतः बोला- ‘ आओ बैठो गायत्री ! इस कृष्ण प्रसंग को समेट ही लें,फिर भोजन किया जायेगा। ग्यारह बजे मुझे एक बार फिर दफ्तर जाना होगा- फाइनल टच के लिए। ये तो अब रोज रात का बखेड़ा रहेगा ही। खैर,एक-दो दिनों की ही बात है,फिर तो दफ्तर और आवास सब एक ही कम्पाउण्ड में होगा...बस गया और आया।’
“ तो तुम्हें फिर दफ्तर जाना है ग्यारह बजे रात में भी? ”- बाबा और गायत्री दोनों ने एक साथ सवाल किये। और नहीं तो क्या। बड़ी कुर्सी का बोझ भी तो ज्यादा होता है। इसे तो सम्भालना ही होगा। नौकर रहने और मालिक बनने में क्या फर्क है- एक ही दिन में समझ आ गया। खैर,आप प्रसंग प्रारम्भ करें। हमने भी ठान ही लिया है- पूरा रतजग्गा होगा आज। वैसे भी इस कुटिया में आज अन्तिम रात है हमलोगों की। जाग कर ही इसे विदाई दी जाय।
बाबा पुनः अपने प्रसंग पर आगये- “ क्या तुमने कभी गहराई से सोचा है कृष्ण के बारे में? ” - फिर, मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर स्वयं ही बोलने लगे- “ सोचे होगे,पर गहरे रुप में नहीं, और बिना तलछट टटोले कुछ पा न सकोगे इस छलिया के विषय में। तुलसीबाबा ने भी कुछ ऐसा ही कहा है- जनम-जनम मुनी जतन कराही...जन्म-जन्मांतर के कर्मफल जब परिपक्व होते हैं तो कृष्ण का चिन्तन हो पाता है। जरा सोचो तो—बांकेविहारी...त्रिभंगी...नटवर...क्या ये किसी सीधे-सादे व्यक्ति की संज्ञा है या उलझे व्यक्तित्व की व्याख्या का संकेत? कृष्ण के व्यक्तित्व को लेकर कई सवाल उठते हैं,और उन्हें सुलझाने का प्रयास, और भी उलझन में डाल देता है। इसी भय से मुक्ति के लिए कुछ लोगों ने युक्ति निकाली- कृष्ण को टुकड़ों में ग्रहण करके। सूर के कृष्ण कोई और हैं, और मीरा के कृष्ण कोई और- भले ही सुनने में यह अटपटा लग रहा हो,पर दोनों में कोई तालमेल नहीं है। श्रीमद्भभागवत के कृष्ण बिलकुल ही अलग हैं, गीता के कृष्ण से। एकांगी कृष्ण को जानना शायद थोड़ा सरल हो,पर सर्वांगी कृष्ण...?
“…कृष्ण अबूझ हैं। कृष्ण का व्यक्तित्व अपरम्पार है, अगम्य है। कृष्ण को बूझने का प्रयास आकाश को मुट्ठी में बाँधने जैसा है। कृष्ण नाम की अन्वर्थता गोपालतापनियोपनिषद के इस श्लोक से दर्शनीय है- कृषिर्भूवाचकः शब्दः ण श्च निवृतिवाचकः । तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।। कृष् (कृषि) "भू" वाचक है, और "ण" निवृति(आनन्द)वाचक । ध्यातव्य है कि भू- भावसत्ता का ख्यापक है। कृष्ण की उपासना पर गहन पकड़ रखने वाला ग्रन्थ "गौतमीयतन्त्र" में इस आशय को और भी पल्लवित किया गया है । यथा- कृषिशब्दश्च सत्तार्था णश्चानन्दस्वरूपकः। सुखरुपो भवेदात्मा भावानन्दमयस्ततः ।
“...वस्तुतः यहाँ हेतु और हेतुमान का अभेदोपचार है । या कहें- परम बृहत्तम सर्वाकर्षण आनन्द ही "कृष्ण" पदवाच्य है। कृष्ण को समझने के लिए महात्रिपुरसुन्दरी रासराशेश्वरी श्री राधा की कृपा प्राप्त करनी होगी,क्यों कि "रा" शब्दोच्चारणा देव,स्फीतो भवति माधव । "धा" शब्दोच्चारणा देव पश्चात् धावति सम्भ्रमम् ।। वृत्त के केन्द्र को जानने के लिए परिधि को लांधने की आवश्यकता होती है, और यदि केन्द्र और परिधि में ही अभेद हो-भेदाभेद हो तो क्या करे सामान्य मानव?
“…श्रीकृष्ण का ‘द्विभुजमुरलीधर’ रुप ही पूर्णतम है- शेष क्या? वे तो लीलाविलास मात्र हैं— पूर्ण और पूर्णतर मात्र; पूर्णतम कदापि नहीं। द्वारका के कृष्ण,मथुरा के कृष्ण और व्रजविहारी कृष्ण में क्रमिक भेद है- पूर्ण > पूर्णतर > पूर्णतम । जैसा कि हरिभक्तिरसामृत- सिन्धु में कहा गया है- कृष्णस्य पूर्णतमता व्यक्ताऽभूद् गोकुलान्तरे। पूर्ण पूर्णतरता द्वारकामथुराऽऽदिषु ।। इस बात को जरा और खुलासे से समझना हो तो इस पौराणिक प्रसंग में झांक कर टटोलो —
“...एक बार गिरिराज की उपत्यका में पारसौली नामक रासस्थली के कुंज में बांकेविहारी विराज रहे थे। प्रेम-विह्वल गोपियाँ उन्हें ढूढ़ती हुयी वहाँ पहुँच गयी। प्रेमातुराओं को देखकर,गोपीनाथ को परिहास सूझा,और चट अपना मुरलीधर रुप त्याग कर चतुर्भुज हो गये। गोपियाँ अचकचा गयीं। यहाँ तो ‘तुलसी’ से भी विकट स्थिति हो गयी। तुलसी ने तो पहचान लिया था,अड़चन स्वीकारोक्ति में थी— कित मुरली कित चंद्रिका,कित गोपियन का साथ । तुलसी मस्तक तब नवैं धनुष-वाण लेयो हाथ ।। किन्तु यहाँ चतुर्भुज का अंगीकार तो दूर, पहचान भी अस्वीकार। त्रिलोकी के ‘प्रियतम’ से ही अपने ‘प्रियतम’ का पता पूछने लगीं,और स्पष्टी के अभाव में,निराश गोपियाँ उन्हें अन्यत्र ढूढ़ने लगीं। तभी अचानक ‘रासेश्वरी’ का प्रवेश हुआ। परम अंतरंगा ‘स्व-रुप-शक्ति’ वृन्दावनेश्वरी,राज-राजेश्वरी राधा के समक्ष कृष्ण का छद्म रुप कैसे टिक पाता? चतुर्भज को लज्जित होना पड़ा। कहा गया है- भुजाचतुष्ट्यं क्वापि नर्मणा दर्शयन्नपि । वृन्दावनेश्वरी प्रेम्णा द्विभुजः क्रियते हरिः ।। प्रेम के महामाधुर्य के समक्ष ऐश्वर्य का निर्वाह असम्भव है। वस्तुतः श्रीकृष्ण का परम अधिष्ठान तो उनका द्विभुज विग्रह ही है- निराकारो महाविष्णुः साकारोऽपि क्षणे क्षणे । यदा साकाररुपोऽसौ द्विभुजो मुरलीधरः ।। (सर्वोल्लास तंत्र १६/४२) ”
गायत्री ने बीच में ही टोका- ‘उपेन्दर भैया ! तो क्या चार भुजाओं वाले विष्णु स्वरुप की अपेक्षा दो भुजाओं वाला मुरलीधर रुप अधिक महत्त्वपूर्ण है?’- गायत्री के प्रश्न पर बाबा जरा मुस्कुराये । फिर कहने लगे- “ हम मनुष्य, दो हाथ वाले मनुष्य रुप धारी को जितनी आसानी से समझ सकते हैं, उतना चार हाथ वाले को समझ नहीं पाते। किन्तु इसका ये अर्थ न लगा लेना कि कृष्ण ने स्वयं को समझाने के लिए ऐसा किया। पहले यहाँ इनकी मुरली को ही थोड़ा समझ लो,फिर मुरलीधारी को बूझने का प्रयत्न करना। ”
मैंने तपाक से टोका- ‘ मुरली को क्या समझना है? ’- मेरे इस टोक पर बाबा जरा झल्ला उठे।
“ यही तो तुम नयी पीढ़ी वालों की चूक है। समझते कुछ नहीं, और सबकुछ समझने का दम्भ भरते हो। मुरली में तो वह रहस्य है, जो अच्छे-अच्छों का होश ठिकाने लगा दे। वह मेले में बिकने वाली ‘नरकुल ’ की बांसुरी नहीं,जो कोई भी दो पैसे में लेकर फूंक मार दे। श्रीकृष्ण का मुरलीधर नाम रहस्यमय है,तो उनके होठों पर थिरकने वाली मुरली भी। मुरली एक सुषिर वाद्य है। वेणु,वंशी आदि इसके समकक्ष होकर भी आकारिक भेद युक्त हैं- हस्तद्वयमितायामा मुखरन्ध्रसमन्विता । चतुःस्वरश्छिद्रयुक्ता मुरली चारुनादिनी ।।—से इसे व्याख्यायित किया गया है। यह ‘चारु’ नादवाली विशेष रुप से लम्बी है- दो हाथ लम्बी,जो मुखरन्ध्र सहित चार स्वरछिद्रयुक्त है...।
“…वेणु का एक नाम ‘पाविक’ भी है। छः छिद्रों से युक्त बारह अंगुल लम्बाई वाला, स्थूलता में अंगुष्ठ परिमित, जैसा कि कहा गया है- पाविकाख्यो भवेद्वेणुर्द्वादशांगुलदैर्घ्यभाक् । स्थौल्येंऽगुष्ठमितः षड्भिरेष रंध्रैः समन्वितः ।।
“ और वंशी —अर्धांगुलान्तरोन्मानं तारादिविव राष्टकम् । ततः सार्द्धांगुलाद्यत्र मुखरन्ध्रं तथांऽगुलम् ।। शिरो वेदांगुलं पुच्छं त्र्यंगुलं सा तु वंशिका । नवरन्ध्रा स्मृता सप्तदशांगुलमिता बुधैः ।। दशांगुलान्तरा स्याच्चेत् सा तारमुखरन्ध्रयोः । महानन्देति विख्याता तथा सम्मोहिनीति च ।। भवेत् सूर्यांतरा सा चेत्तत आकर्षणी मता । आनन्दनी तदा वंशी भवेदिन्द्रान्तरा यदि ।।- ये सारी बातें बहुत विस्तार से हरिभक्तिरसामृतसिन्धु में कही गयी हैं। तुम इसे ध्यान से सुनो,और हृदयंगम करने का प्रयास करो। आधे-आधे अंगुल के अन्तर पर तारादि अष्ट विवरों के बाद, डेढ़ अंगुल पर मुखरन्ध्र होता है इसमें, तथा शिरोभाग चार अंगुल और पुच्छ भाग तीन अंगुल मात्र। परिमितिक भेद से - नवरन्धों और सत्रह अंगुल वाली वंशी को ‘वंशिका’ कहते है। किंचित आकारिक भेद से महानन्दा, संमोहिनी, आकर्षणी,आनन्दी आदि इसकी अन्य संज्ञायें भी हैं। वैसे महानन्दा तो संमोहिनी में ही समाहित है । थोड़े और गहराई में जायें तो कायिक भिन्नता भी लक्षित होती है- मणिमयी,हैमी(स्वर्णमयी) और वैणवी- यानि बाँस की बनी हुयी...।
“...अब जरा इससे आगे की बात को समझो- वंशी > वंशुली > वाँसुरी गोपांगनाओं को अतिशय प्रिय है। वावली वृषभानुनन्दिनी ने मचलकर कभी कहा था- ‘श्याम तेरी वंशी मैं नेकू बजाऊँ...तुम बनो वृषभानु नन्दिनी, मैं नन्दलाल कहाऊँ...।’ ‘श्रीराधाकृष्णगणोद्देशदीपिका’ में वंशी को ‘भुवनमोहिनी’ कहा गया है, जो रासेश्वरी के सुकोमल हृदमीन के लिए बडिशी(कांटा) का काम करता है। ध्यान देने योग्य है कि ‘मीनहारी’- मछली मारने वाला, जिस उपकरण का उपयोग करता है उसे भी ‘वंशी’ ही कहते हैं, जो जलक्रीड़ारत मछलियों की वेधिका है। प्रेमक्रीड़ा-विह्वल गोपांगनाओं के हृदय को बींधकर, कायसौष्ठव को ‘कर्षित’ कर लेता है जो, वह ‘वंशी’ ही है...राधाहृदयमीन- बडीशी महानन्दा भिधाऽपि च...। छः रन्ध्र-युक्त इस वेणु की एक संज्ञा ‘मदनझंकृति’ भी है। क्यों न हो? कृष्ण का यह मोहक स्वरुप,जिसका योगीजन नित्य ध्यान करते हैं, किसी बडीशी से कम है क्या? जरा देखो तो इस पदलालित्य में झांककर- वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्, पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्। पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्, कृष्णात्परं किमपितत्त्वमहंनजाने।। और ऐसा ही आकर्षक एक और स्वरुप चिन्तन श्रीमद्भागवत दशम् स्कन्ध ‘वेणुगीत’ प्रसंग में शुकदेवजी की उक्ति-वर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं, विभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालां। रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दैर्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः।।.... इति वेणुरवं राजन् सर्वभूतमनोहरम्। श्रुत्वा व्रजस्त्रियःसर्वा वर्णयन्त्योऽभिरेभिरे।। त्रिभंगललित मुद्रा में मन्दस्मित खड़े, नवनीरद आभावाले,पीताम्बरधारी नटवरनागर मुरलीमनोहर की सुपरिपक्व विम्बाफल (कुन्दरी) सदृश अधरोष्ठों पर विराजित वेणु में ‘क्लीँ..क्लीँ..क्लीँ’ महा सम्मोहन की झंकृति जब होती है,तो अनंग ‘मन्मथ’ का मन भी आलोड़ित हो उठता है,अन्य की क्या विसात? इतना ही नहीं,जो स्मरारि-शिव के मन को भी मथित कर दे— तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः । पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथ ।। श्रीमद्भागवत १०-३२-२ में शुकदेवजी का भाव द्रष्टव्य है । सामान्य जन-मन-मन्थन-कर्ता कामदेव के भी चित्त को मथित करने वाले स्वरुप का वर्णन है यहाँ,जिसकी व्याख्या चैतन्यमार्गी प्रभुपाद श्री जीवगोस्वामी किंचित भिन्न रीति से करते हैं। इनके अनुसार मन्मथ का पदच्छेद है—मद् मथ। ‘मदयतीति मदः’ वा ‘मथ्नातीति मथ्’
अर्थात् मदन को भी मथित करने वाले- रुद्र से अभिप्राय है...।
“....वस्तुतः यहाँ बात इससे भी आगे बढ़ गयी है-असीम / निःसीम लंघन-प्रयास है। सामान्य जन-मन को मथित करने वाले कामदेव को पराभूत किया शिव ने, और स्वयं को कामजयी सिद्ध किया,किन्तु श्रीकृष्ण के मोहिनी रुप दर्शन ने उस कामजयी को भी मथित कर दिया। ओह ! कैसा अद्भुत-रोमांचकारी दृश्य रहा होगा- अपने ही वरदान से आवद्ध, भस्मासुर से भयभीत, भूतभावन भोलेनाथ का इतस्ततः भागना,और तभी अचानक मोहिनीरुप-प्राकट्य...। आद्यशंकरने आनन्दलहरी में इस मनोहारी क्षण को इन शब्दों में वर्णित किया है-हरिस्त्वामाराध्य प्रणतजनसौभाग्यजननीं, पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षेभमनयत्....स्मरोऽपि त्वां नत्वा रतिनयनलेह्येन वपुषा,मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम् ।। - ध्यातव्य है कि ये स्तवन महात्रिपुरसुन्दरी के साथ-साथ श्रीकृष्ण के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है।”
बाबा भावविभोर हो रहे थे- इन वर्णनों में। अच्छा तो हमें और गायत्री को भी लग ही रहा था,किन्तु कहीं-कहीं अतिगूढ़ बातें ऊपर-ऊपर ही निकल जा रही थी। परन्तु बाबा के कथन-प्रवाह में विघ्न बनना उचित न जान मौन साधे, सुनता जा रहा था,और बाबा कहे जा रहे थे- “…अब जरा एक और प्रसंग सुनो – मोहिनी कृत कृष्णस्तोत्रम् में...रतिबीज रतिस्वामिन् रतिप्रिय नमोऽस्तुते- कह कर स्तवन किया गया है। क्या तुमने कभी जानने का प्रयास किया है कि यह रतिबीज है क्या चीज? यह ‘रतिबीज’- कामराज ‘क्लीँ’,मूलतः सरस रुप है ॐ का। ओंकार का उदात्तीकरण ही क्लींकार है। क्लींमोंकारं च एकत्वं पठ्यते ब्रह्मवादिभिः – ऐसा ही इशारा है गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद् में। शायद तुम नहीं जानते होगे कि गायत्री मन्त्र अनेक हैं,और उन समस्त गायत्रियों का शिरमौर है यह कामगायत्री- क्लीँ कामदेवाय विद्महे पुष्पबाणाय धीमहि तन्नोऽनंगः प्रचोदयात् , और इस कामगायत्री का बीज क्लीँ - सर्वसार-निःसृतसार। इसकी विरुदावली के लिए कोई शब्द हो सकता है क्या? ‘वैखरी’ में सामर्थ्य कहाँ? और ‘परा’ बहुत दूर है...।”
हम अनुभव कर रहे थे कि बाबा की प्रखर वाणी,और कथन शैली धीरे-धीरे गूढ़ से गूढ़तर-गूढ़तम की ओर बढ़ रही थी,जो मुझ जैसे अल्पज्ञों के लिए समझना बड़ा ही कठिन हो रहा था। फिर भी टकटकी लगी थी बाबा के दिव्य मुखमंडल पर,और कान पीने का प्रयास कर रहे थे,उनकी सरस वाणी को। बाबा कह रहे थे- “...श्रीकृष्ण के प्रियतम राग—गौरी और गुर्जरी में,प्रियतमा-नाम— ‘राधा’ ही तो निरन्तर निर्झरित होते रहता है। कृष्ण की वंशी और कुछ नहीं कहती,बस प्रियतमा का नाम-जप मात्र करती है। महर्षि व्यास ने इस अलौकिक क्षण का अद्भुत चित्रण किया है। श्रीमद्भागवत का रास प्रसंग (स्कन्ध १०, अध्याय २९ से ३३) इस सम्बन्ध में गहन अवलोकनीय है। अनुभवी जन कहते हैं- रासपञ्चाध्यायी की चतुर्मासीय साधना से, उन्मुक्त ‘काम’ निर्मूल होता है। महर्षि व्यास के इस ललित पद को जरा परखो - विक्रीडितं ब्रजवधूभिरिदं च विष्णोः, श्रद्धान्वितोऽनुश्रृणुयादथ वर्णयेद् यः । भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं, हृद् रोगमाश्र्वपहिनोत्यचिरेण धीरः ।। - कहते हैं कि जो व्यक्ति श्रद्धाभक्ति पूर्वक इस पंचाध्यायी का सेवन करता है,वह निश्चित रुप से हृदयरोग से सदा सर्वदा के लिए मुक्त हो जाता है। ये कोई ‘एन्जाइना-पेक्टोरीश’ और ‘मायोकार्डियल-एनफॉर्कशन’ की बात नहीं कर रहे हैं व्यास जी। संसार का सबसे बड़ा हृदयरोग तो है- कामविकार। इससे लड़ते-झगड़ते ही जिन्दगी गुजर जाती है। और मजे की बात तो ये है कि झूठ बोलना पड़ता है कि मुझे कोई परेशानी नहीं है,मैं तो कामजयी हो गया हूँ। साधकों का पहला चुनौती तो यही है। दमन तो प्रायः सभी साधक करते रहते हैं- आजीवन। शमन के इस अद्भुत रसायन का एक बार तो सेवन करके देखा जाय...। रासपंचाध्यायी का अनुष्ठानिक पाठ करना हो तो भाद्रकृष्णाष्टमी से प्रारम्भ करके कार्तिक शुक्ल एकादशी तक करे- रात सोने से पहले एक पाठ नित्य। बड़ा ही सुन्दर अवसर है यह। या फिर अकेले कार्तिक महीने में भी साधा जा सकता है। मार्गशीर्ष महीने की साधना का तो अपना अलग महत्त्व है ही । गोपियाँ श्रीकृष्ण की साधना इसी महीने में की थी। कृष्ण के रहस्यों का कोई अन्त नहीं...इनकी साधना भी अनन्त ही है। वश कोई एक पगडंडी पकड़कर चल पड़ने की जरुरत है,क्यों कि हर पगडंडी वहां पहुँचा ही देगी- यह निश्चित है। गीता में कृष्ण ने दावे के साथ कहा है- नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।(२-४०) कृष्ण-प्रेम के इस रास्ते पर उठाया गया एक छोटा सा कदम भी भवसागर को पार करा ही देगा- यह तय बात है,क्यों इसमें ‘प्रत्यवाय’ भी नहीं होता...। एक पैसा भी कृष्ण के इस बैंक में जमा कर दो तो चक्रातिचक्रवृद्धि-दर से व्याज मिलता रहेगा....।
“...एक और बानगी यहाँ प्रस्तुत है—दृष्ट्वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं, रमाननाभं नवकुङ्कुमा रुणम्। वनं च तत्कोमलगोभिरञ्जितं,जगौ कलं वामदृशां मनोहरम्।। (श्रीमद्भागवत,१०-२९-३)। कितनी दक्षता पूर्वक व्यासजी यहाँ सबकुछ कह कर भी कुछ न कहने जैसा प्रतीत हो रहे हैं। इस गोपनतन्त्र का ही चमत्कार है कि विद्वत् जन भी प्रायः भ्रमित होकर, साक्षात् श्रीकृष्णविग्रह-श्रीमद्भागवत में ‘राधा’ नाम की अप्राप्ति में उलझ जाते हैं। अब भला ‘गोस्तन-क्षरित’ दुग्ध में किसी नादान बालक को घृत कहाँ से दीखे? जब कि पूर्ण व्याप्ति है...।
“…अब तनिक इस कामबीज को क्षरित करने वाले वेणु के विषय में विचारो–– श्रीकृष्ण का चिदानन्दमय वेणु—‘व’+‘इ’+‘अणु’ यानि ब्रह्मानन्द + विषयानन्द दोनों को अणु(तुच्छ) कर दे,या कहें- जिसके समक्ष दोनों तुच्छ हो जायें, जो परमानन्द का विधायक है- वह है वेणु- वेणुरिति वश्च इश्च वयौ स्वरुपानन्दविषयानन्दावणू यस्मात् स वेणुः। (श्रीमद्भागवत) वस्तुतः ‘नादब्रह्म’ किंवा ‘शब्दब्रह्म’ का अधिष्ठान व प्रकाशक है- वेणु। यह नाद ही सृष्टि का बीज है,जो ‘प्रणव’ में अन्तर्निष्ठ है। नाद की अनन्त शक्तियां समाहित हैं इसमें। प्रथम स्पन्दन स्वरुप सृजनात्मक नाद प्रणव ही है। नाद ही किंचित स्थूल होकर शब्दब्रह्म- प्रणव में व्यक्त होता है,जो विन्दु स्वरुप वेद-बीज है, जिससे चौबीश अक्षरा त्रिपदा वेदमाता ‘गायत्री’ का स्फुरण होता है। सच पूछो तो ‘क्लींकारी’ वेणु का माहात्म्य अनिर्वचनीय है। नादब्रह्म > शब्दब्रह्म > प्रणव-निष्णात होकर ही परब्रह्मपरमात्मा की प्राप्तव्यता सिद्ध हो सकती है। यथा- द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्। शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति।। (विष्णुपुराण ६/५/६४)। इस ‘शब्दतत्त्व’ को ही अनादि-अनन्त ब्रह्म कहा गया है-अनादि निधनं ब्रह्म शब्दत्त्वं यदक्षरम् । विवर्त्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः।। (वाक्यपदीयम्)
“....वस्तुतः यह शब्दतत्व-कुछ और नहीं, प्रत्युत ॐ ही है- ऐसा कहने पर आशंका हो सकती है- किंचित भेद भासित हो रहा है न - ॐ और परब्रह्म में ! इसे निर्मूल किया है- तैत्तिरीयोपनिषद् (१/४/१)- ब्रह्मणः कोशोऽसिमेधया पिहितः कहकर। कुहरे में सूर्य दिखलायी नहीं पड़ता,तो सूर्य की अनुपस्थिति नहीं हो जाती,तद्भांति ही ‘लौकिक बुद्धि’-आवृत परब्रह्म की स्थिति है यहाँ। शब्दब्रह्म के अभ्यन्तर में परब्रह्म की उपस्थिति है। ‘ॐ’ परब्रह्म का वाचक है। वर्ण्य प्रसंग में यह मुरलीधर के लिए प्रयुक्त है। नाम-नामी अभिन्न हैं- नामचिंतामणिः कृष्णश्चैतन्यरसविग्रहः। पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः ।। (हरिभक्तिरसामृत)। इस प्रकार नादब्रह्म श्रीकृष्ण से अभिन्न है। यथा- नादात्मकं नाद बीजं प्रयतं प्रणवस्थितम्। वंदे तं सच्चिदानन्दं माधवं मुरलीधरम्।। सुस्पष्ट है कि नादब्रह्म<>शब्दब्रह्म का ही सूक्ष्मरुप है। प्राणीमात्र की अन्तरात्मा में ‘नादात्मादेवी’ का निरंतर नदन होते रहता है- सोऽन्तरात्मा तदादेवी नादात्मा नदते स्वयम् (शारदातिलक) ।
“...अब पुनः एक और पक्ष पर विचार करो— श्री कृष्ण की तान्त्रिकउपासना में कामबीज-‘क्लीँ’ कथित है, जिसकी अधिष्ठात्री दुर्गा हैं। ”
इतनी देर से लगभग सांस रोके,चुप्पी साधे गायत्री ने अचानक टोका- ‘ये कृष्ण की तान्त्रिक साधना में दुर्गा कहां से टपक पड़ी उपेन्दर भैया? और इसके पहले आपने कृष्ण और काली में अभेद कहा था। आंखिर क्या रहस्य है इसमें? वैसे तो एक ही परम सत्ता के सभी अंश हैं- इसे स्वीकारती हूँ,फिर भी बहुत संशय है....। ’
गायत्री की बात पर बाबा मुस्कुराये। सिर हिलाते हुए बोले - “ मैं जानता था कि तुम ये सवाल जरुर करोगी,क्यों कि दुर्गोपासक कुल की हो न,और यहां बात आगयी कृष्ण की साधना की। तो क्या लगता है- ये घालमेल हो गया? नहीं, गलती नहीं हुयी है,मिलावट भी नहीं हुआ है। बस समझ का जरा फेरा है। यहां वो तुम्हारी वाली त्रिगुणात्मिका दुर्गा नहीं, बल्कि वृषभानुनन्दिनी रासेश्वरी राधा हैं। इस ‘दुर्गा’ शब्द पर जरा विचार करो तो कुछ गुत्थी सुलझे,मामला कुछ स्पष्ट हो- कृच्छ्रेण दुराराधनादि अर्थात् बहु प्रयासेन गम्यते ज्ञायते इति...यानी जिसकी प्राप्ति हेतु कठिन साधना करनी पड़े। नारदपांचरात्रोक्त राधासहस्रनाम श्लोक ४५ के पूर्वार्द्ध में कहा गया है- एकानंशा शिवा क्षेमा दुर्गा दुर्गातिनाशिनी...। इतना ही नहीं,सम्मोहनतन्त्र में स्वयं दुर्गा(यहाँ दुर्गा अपने प्रचलित अर्थ में हैं) के वचन हैं- यन्नाम्ना नाम्नि दुर्गाऽहं गुणैर्गुणवती ह्यहम्। यद् वैभवान्महालक्ष्मी राधा नित्या पराद्वया।। (ब्रह्मसंहिता) अर्थात् जिसके नाम से मैं गुणयुक्त दुर्गा हूँ,जिसके वैभव से महालक्ष्मी हैं,वही नित्या...परा...अद्वया राधा हैं। ध्यातव्य है कि मन्त्रशास्त्र के सामान्य नियमानुसार कोई कह सकता है कि जिस देवता का मन्त्र होता है,वही उसका अधिष्ठाता भी होता है; किन्तु क्या यहाँ यह नियम अपवाद है? कदापि नहीं। राधा ही कृष्ण मन्त्र की अधिष्ठात्री हो सकती हैं, अन्य कैसे? ‘‘ राधा रासेश्वरी रम्या कृष्ण मंत्राधिदेवता”- (राधिकोपनिषद्)। वस्तुतः राधा-कृष्ण में अभेद का उद्घोष है यह। राधाकृष्ण मूलतः अद्वय हैं। दो रुपों में प्रतिभास- मात्र लीला और क्रीड़ा है- येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहेनैकः क्रीडनार्थं द्विधाऽभूत (राधिकोपनिषद्) या कहें- यस्माज्जोतिरेकमभूद् द्वेधा राधामाधव रुपधृक् (सम्मोहनतन्त्र)। दीप शिखा से प्रकाश को अलग कैसे किया/माना जा सकता है? हाँ,इतना कह सकते हैं कि दीपशिखा में ध्यान से देखने पर कुछ अन्तर भिन्नता दीख पड़ती है- यही तो श्यामज्योति और गौरज्योति है। गौरज्योति से रहित श्यामज्योति की कल्पना भी सम्भव नहीं। इस द्वय प्रतिभासित अद्वय की सम्यक् आराधना की बात कही गयी है। सम्मोहनतन्त्रान्तर्गत,पार्वतीश्वरसंवाद--श्री गोपालसहस्रनाम में कहा गया है- गौरतेजो विना यस्तु श्यामतेजः समर्चयेत् । जपेद्वा ध्यायते वाऽपि स भवेत् पातकी शिवे ।। एक को छोड़ कर दूसरे की आराधना को शिव ने महापातक कहा है।
“….इन बातों की गहराई और भी लक्षित हो जायेगी आगे के कथन से- गोपीश्वर कृष्ण के उद्घोष का संकेत है यह श्लोक- ‘रा’ शब्दोच्चारणादेव स्फीतो भवति माधव । ‘धा’ शब्दोच्चारणा देव पश्चात् धावति संभ्रमः ।। इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति है ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी- रा शब्दं कुर्वतः पश्चाद् ददामि भक्तिरुत्तमा । धा शब्दं कुर्वतः पश्चाद् यामि श्रवणलोभतः ।।- अद्भुत सम्मोहन है राधा शब्द में। कृष्ण रस हैं,तो राधा उसका माधुर्य- रसो वै सः। तन्त्र-ग्रन्थों में चर्चित महात्रिपुरसुन्दरी,ललिता आदि ये सारे नाम किसी और के नहीं,बल्कि राजराजेश्वरी,रासेश्वरी श्रीराधा का ही है। राधा की सम्यक् आराधना ही श्रीकृष्ण-प्राप्ति का एक मात्र उपाय है। ब्रह्मवैवर्तपुराण,प्रकृति खण्ड (५६/३२-४९)में वर्णित राधाकवच नामक अमोघ संजीवनी के बारे कुछ भी कहना,सूर्य को दीपक के प्रकाश में ढूढ़ने की नादानी जैसी बात होगी। फिर भी यहाँ वैसी ही नादानी करने की मैं धृष्टता कर रहा हूँ। कृष्ण को राधा के रास्ते से ढूढ़ो,आसानी होगी पहुंचने में,पाने में। जरा इसके विनियोग-मन्त्र में ही इशारा देखो- ऊँ अस्य श्री जगन्मङ्गल कवचस्य प्रजापति ऋषिर्गायत्री छन्दः स्वयं रासेश्वरी देवता श्रीकृष्णभक्ति सम्प्राप्तौ विनियोगः।।”