बाबा का गुस्सा / रूपसिंह चंदेल

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१९७८ के अप्रैल महीने का पहला रविवार. साफ चमकता हुआ दिन. सूरज आसमान पर चढ़ते ही उग्र होने लगा था, लेकिन उत्तर से बहकर आती ठण्ड की हल्की खुनक लिए हवा उसके ताप को अधिक प्रभावकारी होने से रोक रही थी. गढ़वाल के पहाड़ों पर दो दिन पहले बर्फ पड़ी थी.

उस दिन बाबा को आना था. बाबा यानी हिन्दी के महान जनकवि बाबा नागार्जुन.

बात मुरादनगर की है. मुरादनगर की पहचान वहां अवस्थित आर्डनैंस फैक्ट्री के कारण है. मैं वहां के रक्षा लेखा विभाग में था और फैक्ट्री होस्टल में रहता था. होस्टल फैक्ट्री के पूर्वी छोर पर एस्टेट से बिल्कुल अलग-थलग था. होस्टल और फैक्ट्री के बीच से होकर गुजरने वाली सड़क रेलवे स्टेशन से एस्टेट के 'एच' टाइप मकानों के बीच से होती हुई 'आर' टाइप मकानों तक जाती थी और कम आम़द-रफ्त वाली थी. कहते हैं कि फैक्ट्री के 'आर' और 'एस' टाइप मकानों में कभी अंग्रेजों के घोड़े बांधे जाते थे, जिनमें अब कर्मचारियों के परिवार रहते हैं. आजादी के इतने वर्षों बाद भी कुछ लोग जानवरों जैसा जीवन जीने के लिए आज भी अभिशप्त हैं .

उस सड़क पर लोगों के दर्शन तभी होते जब फैक्ट्री की पाली शुरू होती या लंच के समय या पाली छुटने के समय.दिल्ली या मेरठ जाने के लिए ट्रेन पकड़ने जाते या ट्रेन से आते लोग भी दिख जाते थे. होस्टल में रहने वालों की संख्या भी न के बराबर थी---बमुश्किल आठ-दस लड़के रहते थे. दरअसल उस होस्टल का निर्माण फैक्ट्री के प्रशिक्षु अधिकारियों के लिए किया गया था. लेकिन किन्ही कारणों से वहां प्रशिक्षण स्थगित हो चुका था. अतः खाली पड़े होस्टल के कमरे जरूरतमंद बैचलर्स को मिल जाते थे.

होस्टल के सामने फैक्ट्री का जंगल, फैक्ट्री के पार खेत और होस्टल के पीछे भी जंगल दूर तक पसरा हुआ था. रात में वहां गज़ब का सन्नाटा होता और होती झींगुरों की आवाज. यहां रहते हुए मैं पूरी तरह लोगों से कटा हुआ था. सुबह नौ बजे से शाम चार बजे तक कार्यालय और शेष समय पढ़ाई. कार्यालय के लोग मेरी अभिरुचि के न थे. उनसे कम ही संवाद होता. कार्यालय में काम और खाली समय कोई पुस्तक पढ़ता रहता. दफ्तर वालों की दृष्टि में मैं एक विचित्र किस्म का युवक था जो न किसी से बातचीत करता था और न ही किसी गतिविधि में शामिल होता था. मेरी इस स्थिति को तोड़ा था फैक्ट्री में काम करने वाले स्व. प्रेमचन्द गर्ग ने. प्रेमचन्द गर्ग साहित्यकार न थे, लेकिन साहित्य और इतिहास में उनकी विशेष रुचि थी. मध्यम कद के वह सीधे-सरल व्यक्ति थे. उन्होंने बताया कि वहां के कुछ युवकों ने एक साहित्यिक संस्था 'विविधा' की स्थापना की है और वह भी उससे जुड़े हुए थे. 'विविधा' की स्थापना में जिन युवकों की भूमिका थी उनमें प्रमुख थे कथाकार-कवि सुभाष नीरव, सुधीर गौतम और सुधीर अज्ञात. गौतम और अज्ञात ने १९८० के बाद साहित्य से अपना नाता तोड़ लिया था .

गर्ग जी ने आग्रह किया कि मैं भी उससे जुड़ूं. यह जून १९७७ की बात थी.

पन्द्रह अगस्त १९७७ की सुबह मेरी पहली मुलाकात सुभाष नीरव से हुई. उस दिन नीरव के घर 'विविधा' की गोष्ठी होनी थी और उसमें शामिल होने के लिए कहने सुभाष होस्टल में मेरे पास आये थे. उन दिनों मैं प्रताप नारायण श्रीवास्तव के कथा-साहित्य पर पी-एच.डी. की तैयारी में व्यस्त था. मैं 'विविधा' की गोष्ठियों में शामिल होने लगा और यदा-कदा सुभाष नीरव और प्रेमचन्द गर्ग के घर जाने लगा था. बाद में मैं सुभाष के घर के सदस्य-सा हो गया था.

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१९७८ अप्रैल के उस पहले रविवार को 'विविधा' की ओर से एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था.बाबा को गोष्ठी की अध्यक्षता करनी थी. सच यह था कि अध्यक्षता के बहाने 'विविधा' वाले बाबा की कविताएं सुनना चाहते थे. इस आयोजन की रूपरेखा कब बनी मुझे जानकारी न थी. मैं तब तक उससे औपचारिक रूप से ही जुड़ा हुआ था. लेकिन अनुमान है कि बाबा को बुलाने की योजना सुभाष नीरव और सुधीर गौतम के दिमाग की उपज थी. गौतम दिल्ली में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में थे और सुभाष 'शिपिगं एण्ड ट्रांसपोर्ट मंत्रालय' में. दोनों ही दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों में शामिल होते रहते थे. उनमें किसने बाबा को मुरादनगर आने के लिए तैयार किया यह पता नहीं, लेकिन बाबा को ले आने की जिम्मेदारी सुभाष नीरव को सौंपी गयी थी. उन दिनों नागार्जुन पटेल नगर में किसी के यहां ठहरे हुए थे. दिल्ली में बाबा के ठहरने के अनेक निवास थे, जिन्हें साहित्यिक हल्के में लोग बाबा के 'अड्डे' कहते थे. किसी के यहां भी बाबा बिना सूचना जा धमकते और जब तक इच्छा होती रहते. बाबा उस परिवार का अभिन्न अंग होते---बुजुर्ग अभिभावक. गृहस्वामी -स्वामिनी को उसकी गलतियों पर फटकार लगाते और उनके बच्चों को प्यार-दुलार देते बाबा उस परिवार में घुल-मिल रहते. सादतपुर में उन्होंने १९८५-८६ में अपना मकान बना लिया था, जहां उनके पुत्र श्रीकांत आज भी सपरिवार रहते हैं, लेकिन मनमौजी बाबा जहां चाहते वहां रहते.

बाबा का स्वागत हमें संतराज सिंह के यहां करना था. संतराज फैक्ट्री में सीनियर साइण्टिफिक आफीसर थे. अफसरों के बंगले फैक्ट्री के उत्तरी दिशा में थे. अनुमान था कि सुभाष बाबा के साथ दोपहर लंच के समय तक पहुंच जायेगें. संतराज सिंह के यहां हम लगभग डेढ़ बजे पहुंच गये. बीतते समय के साथ हमारी विकलता बढ़ती जा रही थी. हम अनुमान लगा रहे थे कि शायद बाबा ने आने से इंकार कर दिया होगा या उन्होंने अपना अड्डा बदल लिया होगा और हताश सुभाष लौट रहे होगें.

"लेकिन, नीरव जी को फोन तो कर ही देना चाहिए था." गर्ग जी ने मंद स्वर में कहा. वह सदैव धीमे स्वर में -- प्रायः फुसफुसाते हुए बोलते थे. हांलाकि फोन उन दिनों दुर्लभ -सी चीज थी.

हम लगातर घड़ियां देख रहे थे. तीन बज चुके थे और नीरव का अता-पता नहीं था. तीन बजकर कुछ मिनट पर बंगले के सामने टैक्सी रुकने की आवाज हुई. संतराज, जो पांच फीट चार इंच के, सांवले, चमकती आंखों और चेहरे पर फ्रेंचकट दाढ़ी वाले पैंतीस-छत्तीस वर्षीय व्यक्ति थे और ड्राइंग रूम के ठीक सामने बैठे थे, टैक्सी देखते ही लपकर बाहर दौड़े थे.

"लगता है आ गये." खड़े होते हुए गर्ग जी फुसफुसाये और वह भी बाहर की ओर चल पड़े तो हम तीनों भी बाहर निकल आये.

सुभाष नीचे खड़े बाबा को उतरने में सहायता कर रहे थे. संतराज ने भी आगे बढ़कर उतरने में उनकी सहायता की.

बाबा का चेहरा तना हुआ था. सबने झुककर उन्हें प्रणाम किया, लेकिन बाबा चुप रहे. ड्राइंगरूम में पहुंचते ही बाबा फट पड़े, " यह है आप लोगों की व्यवस्था? इतनी गर्मी में बस में धक्के खाता हुआ आ रहा हूं. आप लोगों ने समझा क्या है? मैं अध्यक्षता का भूखा हूं?----." बाबा उबलते रहे और हम सब समवेत विनयावनत उनसे क्षमा मांगते रहे.

दरअसल हुआ यह था कि सुभाष बाबा को लेकर किसी प्रकार आई.एस.बी.टी. पहुंचे थे. वहां से उन्हें मेरठ की बस लेनी थी जो मुरादनगर होकर जाती थी. वह बस मिली नहीं. अब गाजियाबाद तक पहुंचने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था. सुभाष बाबा के साथ गाजियाबाद की बस में चढ़ गये. बस में इतनी भीड़ हो गई कि बाबा को उसमें पिसते हुए यात्रा करनी पड़ी. गाजियाबाद पहुंच बाबा ने आगे जाने से इंकार कर दिया. वह बिफर गये थे. किसी प्रकार सुभाष ने उन्हें मनाया था और जेब में पर्याप्त पैसे न होते हुए भी उन्हें टैक्सी से लेकर मुरादनगर पहुंचे थे.

पांच-सात मिनट धाराप्रवाह बोल लेने के बाद बाबा का गुस्सा शांत हुआ था. पानी पीकर सोफे पर पसरकर वह बैठ गये, आंखें बंद कर लीं और बुदबुदाये, "थका डाला आज आप लोगों ने."

हम सब एक दूसरे के चेहरे देखते रहे.

बाबा ने भोजन का प्रस्ताव ठुकरा दिया, "थकान में भोजन---बिल्कुल नहीं."

प्रकृतिस्थ होने में बाबा को आध घण्टा लगा. और आध घण्टा बाद वह हंस-हंसकर बातें कर रहे थे. संस्मरण सुना रहे थे. नमकीन, बिस्कुट, मिठाई का स्वाद ले रहे थे.

एक घण्टा बाद बाबा अपनी मौज में आ गये थे और उससे अच्छा अवसर अन्य न था उनकी कविताएं सुनने का. उन्होंने आपात्काल पर लिखी अपनी कुछ कविताएं सुनाईं, जिसमें एक इंदिरागांधी को केन्द्र में रखकर लिखी गई थी. उन्होंने अपनी अन्य चर्चित कविताएं भी सुनाई, जिनमें एक थी - 'नई पौध'.

बढ़ा है आगे को बेतरह पेट
धंसी-धंसी आंखें
फूले-फूले गाल
टांगे हैं कि तीलियां, अटपटी चाल
दो छोटी, एक बड़ी
लगी है थिगलियां पीछे की ओर
मवाद, मिट्टी, पसीना और वक्त---
चार-चार दुश्मनों की खाये हुए मार
निकर मना रही मुक्ति की गुहार
आंत की मरोड़ छुड़ा न पाई बरगद की फलियां,
खड़ा है नई पौध पीपल के नीचे खाद की खोज में
देख रहा ऊपर
कि फलियां गिरेंगी
पेट भरेगा
और फिर जाकर
सो रहेगा, चुपचाप झोपड़े के अंदर
भूखी मां के पेट से सटकर.

बाबा ने एक और कविता सुनाई -'नया तरीका'--

दो हजार मन गेहूं आया दस गांवों के नाम
राधे चक्कर लगा काटने, सुबह हो गई शाम
सौदा पटा बड़ी मुश्किल से, पिघले नेताराम
पूजा पाकर साध गये, चुप्पी हाकिम-हुक्काम
भारत-सेवक जी को था अपनी सेवा से काम
खुला चोर बाजार, बढ़ा चोकर चूनी का दाम
भीतर झुरा गई ठठरी, बाहर झुलसी चाम
भूखी जनता की खातिर आजादी हुई हराम.

नया तरीक़ा अपनाया है राधे ने इस साल
बैलों वाले पोस्टर सारे, चमक उठी दीवाल
नीचे से लेकर ऊपर तक समझ गया सब हाल
सरकारी गल्ला चुपके से भेज रहा नेपाल
अंदर टंगे पड़े हैं गांधी-तिलक-जवाहरलाल

चिकना तन, चिकना पहनावा, चिकने-चिकने गाल
चिकनी क़िस्मत, चिकना पेशा, मार रहा है माल
नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल.

नागर्जुन क्रान्तिकारी कवि थे. ऎसे नहीं जैसे सातवें दशक में यहां क्रान्तिकारी कवियों की बाढ़ आ गयी थी---ऎसे क्रान्तिकारी कवियों की, जो अपनी जमीन से जुड़े हुए नहीं थे. कंधे से थैला, थेगली लगी पैण्ट पर खादी का कुर्ता लटकाये ये महान(?) क्रान्तिकारी कवि रात-रात में हिन्दुस्तान में क्रान्ति हो जाने का स्वप्न देखते थे. अपनी कविताओं को 'आग का अक्षर' घोषित करने वाले इन कवियों में कुछ ने लेनिनकट दाढ़ी रख ली थी और अपनी अलग पहचान दर्शाने के लिए ये किसी युवती को अपने शब्द जाल में बांध अपने साथ लिए कनॉट सर्कस, कॉफी हाउस से लेकर विश्वविद्यालय के पार्कों में घूमते दिखाई देने लगे थे. जनता और क्रान्ति से इनका दूर का भी रिश्ता न था. अंदर से ये विशुद्ध बुर्जुआई और अवसरवादी थे. समय सबको बेनकाब कर ही देता है. मैंने इसी दिल्ली में बाबा के नाम का बेशर्मी से उपयोग करने वाले तथाकथित छद्म क्रान्तिकारियों को दौलत के लिए निकृष्टता की हद तक गिरते देखा है. शायद ऎसे ही लोगों को ध्यान में रखकर बाबा ने लिखा था:

'काश! क्रान्ति उतनी आसानी से हुआ करती.'

"काश! क्रान्तियां उतनी आसानी से हुआ करतीं.
काश! क्रान्तियां उतनी सरलता से सम्पादित हो जातीं
काश! क्रान्तियां योगी, ज्योतिषी या जादूगर के चमत्कार हुआ करतीं
काश! क्रान्तियां बैठे ठाले सज्जनों के दिवास्वप्नों -सी घटित हो जातीं.

उस दिन बाबा ने शाम सात बजे वर्कर्स क्लब में काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता की थी. फैक्ट्री एस्टेट में तीन क्लब थे. एक आफीसर्स बंगलों के साथ अफसरों के लिए, दूसरा गांधी पार्क के पास बंगाली क्लब (जिसमें बंगाली भद्र समाज का आधिपत्य था) और तीसरा होस्टल से कुछ दूर पानी की टंकी के पास जंगल में. यह वर्कर्स क्लब था, जिसमें एक पुस्तकालय भी था. यह कभी-कभी---खास अवसरों पर ही खुलता था या तब जब पुस्तकालय इंचार्ज (जो एक साहित्य प्रेमी सरदार जी थे और हिन्दी में कविताएं लिखते थे) उसे खोलते थे. उस दिन की काव्यगोष्ठी उसी क्लब में थी.

वर्कर्स क्लब में बहुत भीड़ थी. अनेक लोग अपनी कविताएं सुनाने के लिए अभिलषित थे. जगदीश चन्द्र 'मयंक' गोष्ठी का संचालन कर रहे थे. किसी भी कवि को मंच पर बुलाने से पहले मयंक स्वयं पहले अपनी एक कविता सुनाते. गोष्ठी में जितने श्रोता थे उतने ही अपनी कविताएं सुनाने वाले कविगण. छोटी जगहों की यह त्रासदी होती है. अपने को कवि मानने वाले लोगों को उनकी कविताएं सुनने और उनपर अपने विचार देनेवाले लोगों का ऎसी जगहों में अकाल होता है और जब ऎसे अवसर मिलते हैं तब वे अपनी अधिक से अधिक कविताएं सुना लेना चाहते हैं. कार्यक्रम चलते हुए लगभग तीन घण्टे बीतने को आए. बाबा अंदर ही अंदर भुन रहे थे और एक समय ऎसा भी आया जब वह अपने को रोक नहीं पाये और दोनों हाथ उठाकर चीख उठे -- "बस्स--- बहुत हो चुका. आप लोगों ने मुझे समझा क्या है? मेरे बुढ़ापे का खयाल भी नहीं---तीन घण्टे से सुन रहा हूं----" फिर वह मयंक की ओर मुड़े और गुस्सैल स्वर में बोले, " और आपने अपने को कितना बड़ा कवि समझ रखा है. किसी को भी मंच पर बुलाने से पहले अपनी एक कविता पेल देते हो...."

मयंक का चेहरा उतर गया. उन्होंने क्षमा मांगी. बाबा कुछ ढीले पड़े. बोले, "अब मैं अपनी एक कविता सुनाऊंगा."

और बाबा ने अपनी - 'अकाल और उसके बाद' कविता सुनाई.

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गस्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकश्त

दाने आए घर के अन्दर कई दिनों के बाद
घुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की आंखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद

मुरादनगर की उस मुलाकात के बाद वर्षों मुझे बाबा के दर्शन नहीं हुए. १९८८ में जब मैंने सादतपुर (दिल्ली) में अपने प्लॉट में कुछ हिस्से का निर्माण करवाया तब कथाकार स्व. रमाकांत जी के यहां एक शाम बाबा से मुलाकात हुई. मैंने आधा-अधूरा मकान तो बनवा लिया और बनवाया यही सोचकर कि रहने आ जाऊंगा, लेकिन अनेक असुविधाएं देख यहां रहने नहीं आया. लेकिन पन्द्रह दिनों में एक बार यहां अवश्य आता और सुबह से शाम तक रहता. तब बाबा को यहां की गलियों मे डोलता देखता. जब वह यहां होते, प्रायः प्रतिदिन सुबह लाठी टेकते एक-एक साहित्यकार के घर जाते---बलराम, रामकुमार कृषक, वीरेन्द्र जैन, महेश दर्पण, धीरेन्द्र अस्थाना (इन सभी के मकान आसपास हैं-अब धीरेन्द्र मुम्बईवासी हैं )---सुरेश सलिल, विष्णुचन्द शर्मा, हरिपाल त्यागी---.बाबा लाठी से सबके दरवाजे ठकठकाते, मुस्कराकर घर के हाल-चाल पूछते और आगे बढ़ जाते. जब जिसके यहां बैठने की इच्छा होती वह घण्टा-दो घण्टा बैठते----नाश्ता करते-- चाय पीते और ऎसे भी अवसर होते कि किसीके यहां दो-तीन दिनों तक बने रहते बावजूद इसके कि चार कदम पर उनका अपना घर था.

रमाकांत और उनका मकान एक गली में और दस मकानों की दूरी पर होने के कारण बाबा प्रायः उनके यहां या वह बाबा के यहां उपस्थित होते. वैसे तो बाबा को मेरे मेन गेट पर ताला लटकता ही मिलता था, लेकिन जिस दिन मैं आया होता और वह इधर से निकलते गेट पर डण्डे से ठक-ठक अवश्य करते. मैं अंदर से दौड़कर आता तो घनी दाढ़ी में मुस्कराकर कहते - 'कितने दिन बाद ताला खोला?"

मैं सकुचाता हुआ मुस्करा देता.

एक दिन अपना कहानी संग्रह 'आदमखोर तथा अन्य कहानियां' भेंट करने सुरेश सलिल के यहां गया. यह १९९१ की बात है. बाबा वहां उपस्थित थे. संग्रह लेकर मैग्नीफाइंग ग्लास लगाकर बाबा उसे देखने लगे. एक-दो कहानियों पर दृष्टि डालने के बाद मुस्कराते हुए समर्पण के पृष्ठ की ओर इशारा कर कहा,

"मां को समर्पित किया है."

मैं बाबा के चेहरे की ओर देखने लगा. मुझे मुरादनगर का उनका गुस्सा याद आ गया था. सोच नहीं पा रहा था कि बाबा कहना क्या चाहते थे.

"मां का कोई नाम तो होगा ही?"

मैंने हां में सिर हिलाया, फिर मां का नाम बताया.

"तो तुमने उनका नाम क्यों नहीं लिखा?"

मैं चुप.

"आइन्दा जब भी किसी को समर्पण करो तो उसका नाम अवश्य लिखना. पाठकों को नाम मालूम होना चाहिए." बाबा की यायावरी जग-जाहिर थी. सादतपुर से वह महीनों गायब रहते. वह कहते कि वह दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न रहें लेकिन उनकी आत्मा सादतपुर में ही बसती है. मस्त और फक्कड़ थे बाबा नागार्जुन. इतने फक्कड़ कि महीनों स्नान न करते---कपड़ों की परवाह न करते. खाने के शौकीन, लेकिन अल्पाहारी. दूसरों को खिलाने में अधिक सुख पाते और ऎसी स्थिति में जिसके यहां भी ठहरे होते उस गृहस्वामिनी का काम बढ़ जाता, लेकिन बाबा अपने से मिलने आये व्यक्ति को खिलाने का सुख अनुभव करते.

शायद महान व्यक्ति ऎसे ही होते हैं.