बाबा भोलेनाथ की जय / प्रियंका ओम
अम्मा आंच को लकड़ी रख हटा कर कभी तेज़ कभी कम करते हुए रोटी बना रही थी। सिर दोनों घुटनों के बीच रख रोटी बेलते-बेलते बेटी के बियाह का गीत भी गा रही थी।
"हल्दी लगे, मड़वा चढ़े
अम्मा का कलेजा फटे।"
बेलते-बेलते रोटी पर आँसू गिर गया और रोटी बेलना से सट के ख़राब हो गई. अम्मा रोटी परथन पर फिरा के फिर से बेलने लगी।
वहीं बैठी गुलाबी ने पूछा "काहे रोवत हो अम्मा?"
"आंच का धुआँ है रनियाँ, लकड़ी कच्ची है।"
"हमसे काहे छुपा रही हो अम्मा? का हम नहीं समझते कि तुम बियाह का गीत गाते-गाते काहे रो रही हो?"
"रनियाँ ई तो खुसी के आँसू है।" कहके वह फिर से रोने लगी।
"ऐ अम्मा, एतना रोयेगी त हम बियाह नहीं करेंगे।" गुलाबी ने बहुत लाड़ से कहा।
"बिटिया त पर-धन होत है। अम्मा-बापू के कलेजा पर पत्थर धरे के पड़ी औउ बिटिया के जायेन के पड़ी।"
अब अम्मा गुलाबी को क्या बताती कि जो सपना वह देख रही है वह तो कब को टूट गया है और उसकी किरचन ़िजन्दगी भर गड़ेगी। अल्हड़ गुलाबी को कहाँ पता था कि उसकी अम्मा उसके बियाह की ख़ुशी से नहीं दुख से रो रही है।
एक तरफ बड़की रनियाँ है तो दूसरी ओर छोटकी। एक का जीवन संवर रहा है तो दूसरी का बर्बाद हो रहा है! कैसे बताएँ बिटिया को कि अम्मा का कलेजा तलवार के धार पर है।
आजकल जीजा का आना जाना बढ़ गया था। जब आते हैं उसके लिए कपड़ा-लत्ता, चूड़ी अउर नख-रंगा भी ले आते हैं।
जीजा उसको खुश देख कर बहुत खुश होते हैं। कभी-कभी तो हाथ पकड़ के उसको अपने पास बिठा लेते हैं।
एक दिन जीजा के आने पर जब गुलाबी खेत से हरी सब्जी तोड़ कर आई तो उसने सुना मईया, बाबू और जीजा उसके बियाह की बात कर रहे थे और वह लजा गई थी।
जब दिदिया का बियाह हुआ था तो गुलाबी ग्यारह साल की थी और जीजा का छोट भाई तेरह साल का। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते हैं। आस-पास के पांच गाँव में ये एक ही स्कूल था।
एक दो बार तो उसने गुलाबी का हाथ भी पकड़ लिया स्कूल में।
"अम्मा का पता चला तो काट देगी हमका।" कहते हुए गुलाबी ने विरोध किया था।
बियाह के ले जायेंगे तब त नहीं काटेंगी न?
तब काहे कटेंगी? लजाती हुई गुलाबी और गुलाबी हो गई थी।
उसका रंग ही ऐसा था। एकदम गुलाबी. इसलिए नाम ही गुलाबी रख दिया था अम्मा ने। उसपे जब धूप में निकलती तो गुलाबी से लाल हो जाती थी।
खड़ी नाक तलवार जैसी और आँख तो ऐसा लगता जैसे दूध से भरे कटोरे में चंद्रमा की छाया।
उसकी सूरत एकदम उसके बाबू जैसी है सब कहता है गुलाबी बहुत भाग्यशाली है।
जिस साल वह जन्मी थी उस साल बाबू की फसल भी बहुत लहलहाई थी और उसके पीछे-पीछे दो साल बाद उसका छोटा भाई भी आया। अब ये उसकी किस्मत है कि बाबू को उसके लिए लड़का भी खोजने की ज़रूरत नहीं पड़ी, रिश्ता खुद ही आया।
दिदिया का रंग ज़रा कम है लेकिन नैन-नक्श में उसका भी कोई जोड़ नहीं। इसलिए जीजा उसको कभी नहीं छोड़ते, नैहर जब भी आती हैं जीजा साथ ही आते है और साथ ले जाते हैं।
बियाह को छ: साल हो गये है लेकिन दिदिया की गोदी खाली है इसलिए अब वह आती भी नहीं। पीठ पर वार का पता नहीं चलता है लेकिन मुँह पर कोई कुछ कह दे तो सहन नहीं होगा इसलिए अब सिर्फ़ जीजा ही आते हैं।
एक दिन उसने अम्मा को बताया था "अम्मा जीजा का भाय हमें बियाहने को कह रहा था।"
अम्मा का मुँह खुला रह गया था "ई का कह रही हो?"
"हाँ अम्मा।"
"कल उको कहना की अम्मा घरे बुलाई है।" कुछ सोचते हुए अम्मा ने कहा था।
"ठीक है अम्मा।"
"ई का सुन रहे हैं पाहून?"
आँख धरती पर गाड़े-गाड़े ही विष्णु बोला "कछु ग़लत सुने का।"
"कछु ग़लत नहीं बेटा। देखा सुना सहोदर बहिन का देऊर। एक अम्मा बाबू का खातिर ऐसे बढ़के औऊ का ख़ुसी के बात होई के उके दुन्नो बिटिया एक्के घर में रहे।"
"त फिर का परेसानी है अम्मा?" विष्णु ने उत्साहित मन से पूछा।
"परेसानी कछु नहीं पाहून बस बियाह के पहिले बदनामी का डर है।"
"तो काहे नहीं बियाह कर देती हैं? बाबू का भेज दीजिये हमरे घर।"
"तुमरा बात भी ठीक है पाहून लेकिन इको मेट्रिक कर लेने दो औ तुम भी बारह किलास कर लो, तब तक सही उमर भी हो जायेगी।"
"ठीक है तो बात तय रही। तब तक हम भी आपकी बेटी का हाथ नहीं पकड़ेंगे लेकिन देखने पर त रोक नहीं है न?"
"अम्मा की तो हँसी छूट गयी थी।"
विष्णु का मैट्रिक का फार्म भरा गया था। अब उसका स्कूल आना जाना बंद होने वाला था और शहर जाने की तैयारी शुरू हो गयी थी।
इधर गुलाबी ने सोमवार का व्रत शुरू कर दिया। अब हर सोमवार स्कूल जाने से पहले मंदिर जाती थी।
गले में सपेâद चन्दन देख कर विष्णु ने पूछा था "का मांगी हो भगवान् भोलेनाथ से?"
"हमको कछु कमी है का? ऊ तो बस एक तुमको पाने की खातिर तपस्या सुरू किये हैं।"
"तो इम्में कोई झंझट थोड़े है। बस दू साल का बात है।"
"तब तक का करें हम? किसका मुँह देखे?"
"काहे चिंता करती हो, जिस भगवान भोलेनाथ से हमको मांगी हो वही हमको मिलवायेंगे।"
"कैसे, हमको बताओ जरा?" गुलाबी की आँखें आश्चर्य से ज़रा और फ़ैल गई थीं।
"हम हर सोमवार को मंदिर में तुमसे मिलने आएंगे।"
"सच कह रहे हो?"
"एकदम सच। फिर स्कूल आने से हमको कोई मनाही थोड़े है। आ जाया करेंगे जब तुमको देखने का मन होगा।"
"अउर जब मेरा मन होगा?" इस बात पर गुलाबी खुद लजा गई थी और उसके लाल-लाल गाल पर हरी नसों का जाल साफ़-साफ़ दिखने लगा था।
विष्णु भी सोमवार को मंदिर में फूल बेल-पत्तर और दूध लेकर पहुँच जाता।
एक दो सोमवार के बाद पंडित जी जैसे कुछ ताड़ गए थे "तुम्हारे गाँव में कौनों मंदिर नहीं है का बबुआ?"
"मंदिर तो है। बाकी इतनी मानता वाला नहीं हैअ फिर उहाँ देवी का दर्शन नहीं होता है।" कहते हुए विष्णु ने पंडित के हाथ में पैसा रख कर उनका पैर छू लिया।
"आशीर्वाद है बेटा, मनोकामना पूरी होगी।" कहकर पंडित जी उसके सिर पर हाथ रख दिए. लेकिन ध्यान रखना बेटा "केकरो के इ़ज्ज़त के बात है।"
उसके बाद विष्णु फिर मंदिर नहीं गया। हाँ कभी-कभी स्कूल आ जाता। छुट्टी के समय भीड़-भाड़ में पता नहीं चलता कि कौन स्कूल पास कर चुका है कौन नहीं।
वो दोनों एक दूसरे को आँख भर देख लेते और कभी-कभी सबसे नजर चुरा के हँस भी लेते।
जब गुलाबी ने नौवीं कक्षा पास कर ली तो जीजा उसके बियाह की बात उठाये थे लेकिन अम्मा-बाबू "मेट्रिक का बाद" कहकर टाल दिए थे अब जब उसकी मैट्रिक की परीक्षा हो गयी है तो जीजा ज़िद कर दिये हैं।
उसको थोड़ा-थोड़ा सुनाई पड़ा था, "जीजा कह रहे थे गुलाबी का बच्चा से दिदिया का भी गोदी भर जायेगा।"
लाज तो औरत का पहला शृंगार होता है और शृंगार का सीधा सम्बन्ध लाल से होता है। गुलाबी भी लाज से लाल हो गई थी।
आगे सुनने के लिए वह रुकी नहीं। सर पर रखी लाज की गठरी से झुकी गर्दन। उसका पैर स्वत: उस ओर चल दिया जहाँ एकांत में उसका सपना दस बजिया फूल की तरह खिलता था और वह छुई-मुई जैसी हो जाती है।
"ठीके तो कहते हैं जीजा। वह अपना बच्चा दिदिया का गोद में डाल देगी।" गुलाबी ने सोचा।
एक पुरानी कहावत है "मरे माई जिये मौसी."
"हमर बच्चा भी हमसे कम भागशाली न होगा ओकर दो-दो माँ होगी, दिदिया माँ भी होगी, चाची भी औउ मौसी भी।"
उसके चेहरे पर संतोष का साथ-साथ ख़ुशी का भी भाव उभर गया था।
उ रात ऊ बहुत बढ़िया सपना भी देखी "आम औ लिच्ची का सब गाछ मंजरा गया है लड़कन सब ऊ गाछ के नीचे खेल रहे थे।" फिर उसको नींद नहीं आई, कछु ऐसा उपाय रहता कि उ दिदिया के पास पहुँच जाती।
उसके बियाह में अब बस एक हफ्ता बचा था लेकिन दिदिया अब तक आई नहीं थी।
"अम्मा दिदिया कब आएगी? दिदिया के बिना सब ख़ुशी आध लग रही है।"
"आ जाई बेटा। एक दूँ दिन में आ जाई, ओकरा त दोनों तरफ देखें के हई ना।"
"हाँ अम्मा।"
अम्मा कह रही थी बेटी गीली मट्टी होती है। उसको पहले चाक पर चढ़ना होता है फिर आग में जलना होता है। अम्मा की भीगी आवाज़ उसको गीला कर रही थी।
"ऊके बियाह से अम्मा-बापू बहुत दुखी है।" उसने बहुत लाड़ से कहा "महिना में पन्दरह दिन हम इहे रहेंगे अम्मा, कह देते है।"
"बेटी का बिदाई से नैहर से नाता ख़तम नहीं होता बिटिया।"
"तो फिर फूफू काहे नहीं आई है" झगड़ा की हो का? "
"तुमरे बियाह से पहिले तुमरी तीनो फूफू आ जाईहें बिटिया।"
"लगता है हमरा बियाह से कौनों को ख़ुशी नहीं है काहे कि अब पांच दिन बाद बियाह है लेकिन न दिदिया आई है न फूफू।"
"दू दिने बाद सोमबार के सब आ जईहे रनियाँ, मन छोटा काहे कर रही हो। काहे कि फसल का समय है न त घर से निकलने में दिक्कत होता है।"
"तो तारीख आगे का काहे नहीं निकलवाई. एतना हड़बड़ कौन बात का?"
"जल्दी त पाहून किये रहे बिटिया।" कह के अम्मा बेटी का बिदाई का गीत गाने लगी।
" बेटी जाये ससुराल
अम्मा बापू हो कंगाल...! "
उसके बियाह की तैयारी वैसी नहीं चल रहा थी जैसा दिदिया में हुआ था।
"फूफू को न्योताने के वास्ते नाई भी नहीं गया, घर का रंगाई पोताई भी नहीं हुआ। अम्मा बाबू गुप-चुप गुप-चुप कुछो बतियाते रहते। उका आ जाने पर चुप्पी लाद लेत हैं। दोनों का मुँह भी दिन भर लटका रहता है। शादी का कौनों ख़ुशी दिखबे नहीं करता।" गुलाबी दिन भर सोचती।
उसको कछु गड़बड़ लग रहा था सो एक दिन उ पैर दाब कर अम्मा बापू का सब बात सुन ली। जीजा कहे कि गुलाबी को उका से ब्याह दें नहीं ता बड़की को भी येही धर जायेंगे।
ई सुनके त होशे उड़ गया गुलाबी का अब उ समझी काहे अम्मा बापू दुन्नो का मुँह उतरा हुआ रहता है।
आज सोमवार था। उसके बियाह से पहले का अंतिम सोमवार। फूल बेलपत्र लेकर मंदिर जाने लगी तो अम्मा रोक दीं।
"हल्दी का बाद लईकी जात के बाहर जाना सुभ नहीं है बिटिया।"
" अम्मा हम त मंदिर जा रहे है इमे का शुभ का अशुभ?
"बड़ बुजुर्ग इहे कहत रहे बिटिया।"
"दू साल से हम भोलेबाबा का सेवा कर रहे है। आज जब उ हमरा झोली भर दिए हैं तो का हम उनही को छोड़ दें?"
"ठीक है बिटिया, हो आओ लेकिन जल्दी वापस आए जायेव।" कहकर अम्मा फिर रोने लगी थी। अब का बतायें कि भोलेबाबा उका साथ इ कैसन अन्याय किये हैं।
मंदिर में गुलाबी को विष्णु कहीं नहीं दिखा। लेकिन वह जानती है बाबा भोलेनाथ उसके साथ अन्याय नहीं कर सकते हैं। सो उसने पहले पूरे मन से पूजा पाठ किया।
विष्णु अबो नहीं आया। नजर इधर उधर फिरा कर गुलाबी ने सोचा ऊ उधरे मंदिर में बैठ गई. साथ में बैठी सहेली का भी मुँह उतर गया था।
उसके अंदर बेचैनी खौलते पानी की तरह उबल रही थी। धीरे से अपनी सहेली से पूछा था " तुम खबर भिजबाई थी ना? '
भिजबाये तो थे, सहेली ने डरते-डरते कहा था। गुलाबी के दुख से ऊ भी कम दुखी नहीं थी।
दूर से विष्णु आता दिखाई दिया तो गुलाबी ने जोर से अपनी सहेली का हाथ पकड़ लिया था। फिर बहुत देर तक विष्णु और गुलाबी बतियाते रहे उसके बाद वह घर लौट गई.
आज बियाह वाला दिन था। दिदिया अब्बो नहीं आई थी हाँ फुफ्फो सब आ गई थी। ऐसे जैसे शादी में नहीं श्राद्ध में आई हो लेकिन ऊ कछु नहीं पूछी और अम्मा अपने तरफ से कछु बोली भी नहीं।
बाराती दरवाजे पर आ गया था। गाज़ा बाज़ा ऐसा जैसा मरन में होता है। मड़वा पर विष्णु कहीं नहीं दिखा।
बियाह का बाद रातों-रात विदा कर दिया गया था गुलाबी को।
ससुराल पहुंची तो दिदिया आरती उतारी। उसका चेहरा तो हँस रहा था लेकिन आँख रो रही थी। बाद में दिदिया उको उड़हुल बेली और कनेल का फूल से सजा धजा कोठरी में पहुँचा दरवाजा सटा कर कौनो दोसर कोठरी में चली गई और गुलाबी अपने दूल्हे का इंतज़ार करने लगी।
नशे में चूर जीजा जोर से दरवाजा खोल कर कमरे में घुसा था लेकिन वहाँ का दृश्य देखकर उलटे पैर भागा।
कमरे के बिस्तर पर गुलाबी औ विष्णु अर्ध-नग्न बेसुध सो रहे थे।
बियाह तो लाया साली को लेकिन उसको विष्णु का होने से रोक नहीं पाया।
बाबा भोलेनाथ की जय।