बाबा साहेब अंबेडकर को प्रणाम / जयप्रकाश चौकसे

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बाबा साहेब अंबेडकर को प्रणाम
प्रकाशन तिथि : 25 जनवरी 2020


आजकल एक टेलीविजन चैनल पर बाबासाहेब अंबेडकर पर बेस्ड शो किश्तों में दिखाया जा रहा है। एक दृश्य में बालक अंबेडकर कहता है, ‘मैं आपसे सहमत नहीं हूं।’ तर्क आधारित असहमति वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही प्रारंभ होती है। साधनहीन परिवार में जन्मे बाबासाहेब अंबेडकर ने अपनी असाधारण प्रतिमा और परिश्रम से उच्च शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने इंग्लैंड में अध्ययन किया। स्वतंत्र भारत में उनकी अध्यक्षता में बनी कमेटी ने संविधान की रचना की। उस दौर के जानकारों का कहना है कि संविधान रचना में सबसे अधिक योगदान बाबासाहेब अंबेडकर का ही रहा।

26 जनवरी 1950 के पावन दिन संविधान लागू हुआ। इस विषय के जानकारों का कहना है कि विश्व के सर्वश्रेष्ठ संविधानों में भारत के संविधान को सम्मान दिया जाता है। समय-समय पर इसमें संशोधन किए गए हैं। इन परिवर्तन के साथ ही संविधान की आधारशिला शाश्वत जीवन मूल्य है जिन्हें कभी बदला नहीं गया।

संविधान एक महान आदर्श है परंतु यथार्थ जीवन में दलित व दमित लोग सदियों से अन्याय सह रहे हैं। कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश में एक दलित युवा को जिंदा जला दिया गया और 80% भाग के झुलस जाने से 23 जनवरी को उसकी मृत्यु हो गई। इस तरह की अनेक घटनाएं कभी प्रकाश में ही नहीं आती। व्यवस्था का शिकार दोनों ही हैं, मनुष्य और खबर। इस विषय पर फिल्में भी बनती रही हैं। अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत ‘अछूत कन्या’ संभवत: ऐसी पहली फिल्म थी। गिरीश कर्नाड की ‘संस्कार’ सर्वकालिक महान फिल्म मानी जाती है।

सत्यजीत रे ने मुंशी प्रेमचंद की कथा से प्रेरित ओम पुरी अभिनीत फिल्म ‘सद्गति’ बनाई थी। एक दलित अपनी कन्या के विवाह का मुहूर्त निकलवाने के लिए एक पंडित के घर आया। उसे आदेश दिया गया कि ब्राह्मण के आंगन में एक सूखा ठूंठ पड़ा है, जिसे वह कुल्हाड़ी से चीर दे। तेज धूप में ओमपुरी परिश्रम करता है। उसकी कुल्हाड़ी पर सदियों से जंग लगी है। सूखा हुआ ठूंठ कठोर कुरीतियों की तरह मजबूत है। ओमपुरी का बदन पसीने से तरबतर है। ब्राह्मण की चिंता यह है कि यदि जानलेवा परीक्षण से दलित मर गया तो उसकी मृत देह को परिसर से बाहर ले जाना कितना कठिन होगा और ब्राह्मण के स्पर्श से उस दलित के लिए स्वर्ग का द्वार खुल जाएगा। इस तरह के स्पर्श से ब्राह्मण के कमाए पुण्य भी घट जाएंगे। ओम पुरी की मृत्यु के साथ ही फिल्म समाप्त होती है। दमित व्यक्ति की अंत्येष्टि कभी हमारी चिंता का विषय नहीं रहा है।

श्री विग्नेश राधाकृष्णन ने ‘इकोनामिस्ट संस्था’ द्वारा गणतंत्र व्यवस्था के क्रियान्वयन पर जारी रपट पर ध्यान दिलाया है। रपट के अनुसार सत्र 2008 और 2014 के बीच भारत में संविधान की गरिमा बनी रही परंतु सत्र 2014 से आज तक यह गरिमा लगातार आहत हुई है। हिंदू अखबार जनवरी 23 के अंक में ‘डेमोक्रेसी इन रिट्रीट’ नामक लेख के साथ एक चित्र प्रकाशित हुआ है जिसमें महान संविधान की किताब पर व्यवस्था द्वारा चलाए गए तीरों को प्रस्तुत किया गया है। विगत वर्ष पतन सर्वाधिक हुआ है। राजनैतिक संस्कृति के इंडेक्स में हम शून्य पर पहुंच गए हैं। उपरोक्त आंकड़े प्रकाशित हुए हैं और कॉलम लेखक उन्हें जस का तस प्रस्तुत कर रहे हैं।

संविधान महज एक किताब नहीं है, यह आवाम के सपनों और डर को अभिव्यक्त करता है। डर के हौवे ने विश्व को घेर लिया है। आवाम इसके लिए दोषी है।

अमिया चक्रवर्ती की नूतन और बलराज साहनी अभिनीत फिल्म ‘सीमा’ में शैलेंद्र रचित गीत इस तरह है - ‘पंख है कोमल, आंख है धुंधली, जाना है सागर पार, अब तू ही हमें बतला की आए कौन दिशा से हम।’ आजादी मिलने के बाद की दशा का विवरण है कि सदियों की गुलामी के कारण पंख कोमल हो गए हैं। दुविधाग्रस्त आम आदमी जानना चाहता है कि कौन दिशा सही है। बाबासाहेब अंबेडकर में यह कहने का साहस था कि वे सहमत नहीं हैं। वर्तमान में ऐसा नजर नहीं आता।