बाबू काशीनाथ खत्री / रामचन्द्र शुक्ल

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नम्रत्वेनोन्नमन्त: परगुणकथनै: स्वान् गुणान् ख्यापयन्त:
स्वार्थान् सम्पादयन्तो विततप्रियतरारम्भयत्ना: परार्थे
क्षान्त्यैवाक्षेपरुक्षाक्षरमुखरमुखान् दुर्जनान् दूषयन्त:
सन्त: साश्चर्य्यचर्या जगति बहुमता: कस्यनाभ्यर्चनीया:?
--भत्तर्हरि

यद्यपि स्वर्गीय बाबू काशीनाथ खत्री उन लोगों में थे जो हिन्दी के बुरे दिनों में खड़े हुए थे, पर उनकी लेखनी की चाल और लोगों से निराली थी। न तो उसके मार्ग में नवोढ़ाओं की सोंधाहट ही आती थी, न परकीयाओं के कटाक्ष ही बरसते थे, न दूतियों की दौड़धूप ही दिखाई देती थी, न चारों ओर कमल ही खिले रहते थे जिन पर गूँजते गूँजते बेचारे भौंरों का मुँह सूज आता था, और न मलयानिल ही हर समय चलता था जो किसी को तो प्रेमरस में घड़ियों झुमाता और किसी को जलाकर एकबारगी ख़ाक ही कर डालता था।र् कत्ताव्यनिष्ठ, सदाचार तथा लोकहित ही का मार्ग ढूँढ़ने को इनकी लेखनी उठती थी, चाहे वह मार्ग शुष्क और नीरस सहारा के रेगिस्तान से होकर गया हो, चाहे शीतल सलिल सिंचित हरे भरे उद्यानों से। इनके विषय में जानकारी रखना न केवल हिन्दी भाषा ही के नाते उचित है वरन् मनुष्यता के नाते से भी, क्योंकि वे न केवल अच्छे ग्रन्थकार ही थे वरन् अच्छे मनुष्य भी थे। अत: उन लोगों को भी, जिन्हें ग्रन्थकारों से कुछ सरोकार नहीं, इनके जीवनवृत्तान्त द्वारा यह जानने को मिलेगा कि किस प्रकार एक सच्चरित्रा और सन्मार्गगामी पुरुष, बिना अपने चरित्र का कोई अंश दूषित किए, इस संसार में प्रतिष्ठापूर्वक सुख संचय कर सकता है।

बाबू काशीनाथ खत्री का जन्म संवत् 1906 में आगरे के माईथान मुहल्ले के एक साधारण खत्री घराने में हुआ। इनके पिता दयालदासजी के यहाँ कलाबत्तू की एक साधारण दूकान होती थी जिसके द्वारा वे सपरिवार सुखपूर्वक आगरे में निवास करते थे। बाबू काशीनाथ के छह भाई और एक बहिन थी जो पीछे से विधवा हो गई। बाबू साहब का विद्यारम्भ आगरे के एक देशी पाठशाला में हुआ। कुछ काल तक तो वे वहीं संस्कृत और हिन्दी पढ़ते रहे। उसके अनन्तर ये सेन्ट जान्स कालिजिएट स्कूल में अंगरेजी शिक्षा पाने के हेतु बैठाए गए। इनके बड़े भाई लाला कुंजबिहारी लाल इलाहबाद में लाट साहब के दफ्तर में लाइब्रेरियन (पुस्तकाधयक्ष) थे। अतएव, पन्द्रह वर्ष की अवस्था में, इनके पिता ने इन्हें प्रयाग में उन्हीं के पास भेज दिया। वहाँ जाकर ये गवर्नमेंट स्कूल में भरती हुए। संयोगवश शिक्षा समाप्त होने पर ये उसी स्कूल के एक शिक्षक नियुक्त हो गए। पर थोड़े ही दिनों में इनकी वहाँ से बदली हो गई और ये सिरसा (जि. इलाहाबाद) के हेड मास्टर नियुक्त हुए। यही स्थान अन्त में इनके सुप्रभ जीवन का केन्द्र हुआ। यहाँ पर वे बारह वर्ष तक रहे। इस बीच में इन्होंने उस कस्बे के छोटे बड़े सब लोगों को अपने विशुध्द आचरण और मृदुल व्यवहार से अपना लिया। यद्यपि इनकी शिक्षा स्कूल ही में समाप्त हुई पर विद्या की ओर इनकी रुचि दिन दिन बढ़ती ही गई, कम न हुई। अतएव, यहाँ बड़ी शान्ति से इनके दिन कटते थे। इसी समय इन्होंने संसार में सद्गुणों की खोज शुरू की, और उनके धारण करनेवालों की प्रशंसा और बड़ाई करके ये सन्तुष्ट होने लगे। याद रखिए, यही सदाचरण की पहिली सीढ़ी है। 'भारतवर्ष की विख्यात स्त्रियों के चरित्र” इसी समय में वर्णन किए गए। किन्तु इनके इस शान्तिमय जीवन प्रवाह में रुकावट पड़ी। सिरसा का अंगरेजी स्कूल टूट गया। लाचार होकर इन्हें नौकरी के लिए बाहर जाना पड़ा। इनके बड़े भाई प्रयाग में बहुत काल तक थे। इससे बड़े बड़े हाकिमों से उनका मेलजोल हो गया था। निदान बाबू काशीनाथ को इलाहाबाद में गवर्नमेंट वर्नाक्युलर रिपोर्टर का पद कुछ काल के लिए मिल गया, जिसको इन्होंने बड़ी योग्यता के साथ निबाहा। उस समय की गवर्नमेंट के असिस्टेंट सेक्रेटरी मिस्टर जे. होल्डरनेस ने इन्हें प्रशंसापत्र दिया था, उसका एक आवश्यक अंश मैं यहाँ उध्दृत करता हूँ

During the temporary absence of the Government reporter on the Vernacular Press, Babu Kashi Nath performed the duties of the office to my satisfaction...Babu Kashi Nath has a very good knowledge of English, writes a fair hand, and with more practice would translate from the Varnacular into English with accuracy and taste.

Allahabad J. HOLDERNESS

12th Nov. 1878. Asst. secry. to Govt.

इसके पीछे बाबू काशीनाथ लाट साहब के दफ्तर के पुस्तकाध्यक्ष नियत हुए। यहाँ पर उन्हें पुस्तकें और समाचार पत्रों के पढ़ने का अच्छा अवसर हाथ आया। अपनी स्वाभाविक विद्याभिरुचि के बल से इन्होंने अनेक विषयों के ग्रन्थ देख डाले; अनेक तत्तवों को बिना किसी के सहारे यथासाध्यस हृदयस्थित कर लिया। इस प्रकार इन्होंने ऍंगरेजी में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। यद्यपि इन्होंने उर्दू की शिक्षा नियमपूर्वक किसी मदरसे में नहीं पाई थी, पर अपनी उसी ग्रहणशक्ति की प्रबलता के सहारे धीरे धीरे ये उस भाषा की ग्रन्थकारमण्डली के बीच जा विराजे। इनके हृदय की भावग्राहिणी शक्ति बहुत तीव्र थी, किसी शिक्षक को बाहर से झटका देने की बहुत कम ज़रूरत थी। इनका चित्त विचारों की ओर स्वयं झुक पड़ता था; विचारों को इनके चित्त की ओर ज़बरदस्ती नहीं मोड़ना पड़ता था। संसार में जितने मनुष्य स्वयं शिक्षित हुए हैं उनका मन इसी ढाँचे का था। सारांश यह है कि जिस सुधार और उन्नति की ज्योति इनके जी में जगमगा रही थी उसे प्रवर्ध्दित करके औरों के हृदय तक पहुँचाने में जो जो उपचार इन्हें सूझ पड़े उन्हें प्राप्त करने में इन्होंने इस काल में कोई कोर कसर न की। जिस हिन्दी ग्रन्थरचना के नाते आज हम इनका चरित्र लिखने बैठे हैं वह इनके महदुद्देश्य साधन का एक उपाय मात्र था। ये शब्दकौशल दिखाने या प्रतिभा प्रदर्शन के लिए नहीं लिखते थे; लिखते थे लोकहित के लिए। यह बात इनकी पुस्तकों से साफ़ ज़ाहिर है।

अन्त में नौकरी छोड़ छाड़कर ये फिर गंगातटस्थ अपने प्यारे सिरसा ग्राम को लौट आए और वहाँ अन्त समय तक शान्तिपूर्वक रहे। यहाँ पर इन्होंने रुपये का कुछ लेन देन और गल्ले का क्रय विक्रय आरम्भ कर दिया था। प्रचलित पुस्तकों की भी अच्छी आमदनी थी। बड़े सुख सन्तोष के साथ ये अपने भारी कुटुम्ब को लेकर विद्वदुचित शान्तिमय जीवन के दिन बिताते थे। ये पूरे समाज संशोधन थे। पर मुँह के बल गिरनेवाले न थे। देश के राजनीतिक आन्दोलनों से भी इनकी पूरी सहानुभूति रहती थी। धार्मिक विचार इनके दृढ़ और पक्के थे। आर्यसमाज के सिध्दान्तों के ये पक्षपाती थे; पर साथ ही थिओसोफ़िकल सोसाइटी से भी सम्बन्ध रखते थे। ये दुराग्रहों और छोटी छोटी बातों पर झगड़नेवाले न थे। जो बात जहाँ पर उत्तम देखी उसे ग्रहण करने की सम्मति इन्होंने दी। किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि स्वदेशाभिमान इनमे कुछ कम था; उसकी मात्र इनमें बहुत अधिक थी। बात यह थी कि उन बातों की निन्दा करने में ये ज़रा भी न चूकते थे जिनसे इनके सुगठित सिध्दान्तों को धक्का पहुँचता था, चाहे वे उनके देश की, समाज की, जाति की अथवा कुल ही की क्यों न हों। ये देश के हितेच्छुक थे, इससे जो बातें उसके कल्याण में बाधा डालनेवाली थीं, उन्हें ये नहीं सहन कर सकते थे। सदाचार ही को ये अपने जीवन का उद्देश्य मानते थे। ये नित्य प्रात:काल उठकर कुछ ईश्वरवन्दना करते, फिर गंगातट पर स्नानादिक करने को जाते थे। वहाँ से सन्धया इत्यादि से निवृत्त होकर दो घण्टे में लौटते थे। गंगातट से इन्हें कुछ विशेष अनुराग हो गया था।

अनेक अच्छे अच्छे उपदेशक और साधू महात्मा आकर इनके यहाँ ठहरते थे। स्वामी प्रकाशानन्द सरस्वती, उपदेशक आर्यसमाज, कुछ काल तक सिरसा में इनके यहाँ रहे थे। इस बीच में उन्होंने इनकी सम्मति से गोरक्षा पर एक व्याख्यान दिया, जिसका फल यह हुआ कि उस बस्ती से प्रतिवर्ष पचास साठ रुपये हरद्वार गोशाला में जाने लगे। बाबू काशीनाथ की रुचि धर्म के कार्यों में सदा रहती थी। निज वित्तानुसार तो जो कुछ परोपकार ये करते थे वह करते ही थे, पर अपनी बस्ती के महाजनों को भी एक न एक पुण्य कार्य में लगाए रहते थे। एक बार जब राजा मांडा सिरसा में आए तब इन्होंने सिरसावालों की ओर से एक 'एडे्रस' दिया जिसमें इन्होंने अतिथियों के स्वागत के लिए धर्मशाला और रोगियों की चिकित्सा के लिए चिकित्सालय न होने पर दु:ख प्रकट किया। उक्त राजा साहब ने इनके कहने के अनुसार सिरसा में एक औषधालय खोला और धर्मशाला बनने की भी आज्ञा दे दी। बाबू काशीनाथ का यह भी एक नियम था कि प्रतिवर्ष दो चार समाजों के उत्सवों पर अनेक स्थानों में पहुँच जाते थे और नीति और समाज सम्बन्धी दो एक व्याख्यान दे आते थे। बनारस, मिरजापुर, कानपुर और आगरा आदि नगरों में इनके कई व्याख्यान हुए थे।

बाबू काशीनाथ का शरीर बहुत दिनों से रोगग्रस्त रहा करता था। किन्तु सन् 1890 ई. में इन्हें सूजन की बीमारी हो गई, जिसकी कुछ दिनों तक तो इन्होंने कुछ फिक्र ही न की। जब रोग अधिक कष्टदायक होने लगा तब ये प्रयाग चले गए और दो महीने वहाँ रहकर अच्छे अच्छे डॉक्टरों से चिकित्सा कराई। पर रोग घटने के स्थान पर बढ़ता ही गया। जब इन्होंने अच्छे होने के लक्षण न देखे तब लाचार फिर सिरसा को लौट आए। यहाँ आने पर इन्हें दृढ़ विश्वास हो गया कि मेरी जीवन यात्रा अब शेष होने पर है। इन्होंने अपने प्रिय कुटुम्ब पर अपना यह विश्वास स्पष्ट रूप से प्रकट भी कर दिया और ईश्वराराधाना, गीता का पाठ, ब्राह्मणों को दानादि आरम्भ कर दिया। अन्त में 9 जनवरी, 1891 ई , शुक्रवार के दिन जब इनकी तबीयत बहुत खराब हुई तक इन्होंने अपने इष्टमित्रों को बुलाकर उनसे विदा माँगी और कहा”त्रस वक्त मैं प्रसन्नता से शरीर त्याग करता हूँ; मुझको किसी का इस समय मोह नहीं है।” देखते ही देखते देश का एक सच्चा हितैषी, मातृभाषा का एक सच्चा सेवक, सात्विकशीलता का एक सच्चा आदर्श संसार से उठ गया!

बाबू काशीनाथ के तीन पुत्र और तीन ही कन्याएँ हैं। ज्येष्ठ पुत्र बाबू केशवचन्द्र सिरसा ही में रहते हैं। दूसरे पुत्र बाबू नवलकिशोर रियासत नागौद (बुन्देलखंड) में कोतवाल हैं। तृतीय पुत्र बाबू रामकिशोर, कानपुर में, रेलवे सब इन्स्पेक्टर हैं।

इनकी लिखी निम्नलिखित पुस्तकें और प्रबन्ध हिन्दी में प्रस्तुत हैं

(1) शेक्सपियर के मनोहर नाटकों के आशय के अनुवाद।

(2) नीत्युपदेश।

(3) तीन ऐतिहासिक रूपक।

(4) भारतवर्ष की विख्यात स्त्रियों के चरित्र।

(5) योरोपियन धर्मशीला स्त्रियों के चरित्र।

(6) ग्राम पाठशाला और निकृष्ट नौकरी नाटक।

(7) विधवा विवाह के शास्त्रिक प्रमाण और बालविधवा संताप नाटक।

(8) खेती की विद्या के मूल सिध्दान्त।

(9) मन की शुध्दि (व्याख्यान)।

(10) मिट्टी द्वारा रोगों का चंगा होना।

(11) किस विधि करके मनुष्य की सन्तान में रूप, बल आदि उत्पन्न किया जा सकता है।

(12) सच्चा सुख (व्याख्यान)।

(13) मातृभाषा की उन्नति किस विधि करने योग्य है।

(14) बालविवाह की कुरीति।

(15) भारत त्रिकालिक दशा (कर्नल आलकाट के व्याख्यान का अनुवाद)।

(16) भारतवर्ष का सुधार किस विधि होना सम्भव है।

(17) इंडियन नेशनल काँग्रेस (ह्यूम साहब के व्याख्यान का अनुवाद)।

(18) देश की दरिद्रता और ऍंगरेजी राजनीति (मि. दादाभाई नौरोजी के व्याख्यान का अनुवाद)।

(19) सभा में वक्तृता करने के नियम।

(20) गोरक्षा प्रबन्धक।

(21) गौगुहार।

(22) तावीजश्।

(23) आर्यशिक्षा और वर्णबोधा आदि पाठयपुस्तकें।

ऊपर की नामावली से स्पष्ट होता है कि नीति, धर्म, समाज तथा स्वदेश हित ही पर लिखने की ओर इनका ध्यासन अधिक था। बाबू साहब इस बात के लिए विशेष प्रशंसा के पत्र हैं कि उन्होंने इन विषयों पर उस समय हाथ लगाया जब लोगों की प्रवृत्ति इनकी ओर बहुत कम थी। उस समय तो लोग प्राय: हँसी दिल्लगी की लच्छेदार बातों तथा अनुप्रासांकित-प्रलम्बशब्दवल्लरी ही की ओर अधिक अनुराग दिखाते थे। 'नीत्युपदेश' सुनने के लिए वे प्रस्तुत न थे। फिर इस प्रकार की रचना के लिए उन्हें बराबर उत्साह कहाँ से मिलता रहा, जिसके कारण इनकी लेखनी अपने नियत पथ से नहीं डिगी? ऊपर कहा जा चुका है कि बाबू साहब का सम्बन्ध आर्य समाज से था। इस समाज से चाहे अभी तक और कोई उपकार न हुआ हो पर इतना तो हम निशंक कह सकते हैं कि इसके द्वारा जाति में एक नूतन बल का संचार और उन्नतिसाधन के समयोपयुक्त उपायों का प्रचार जरूर हुआ है। अतएव कुछ तो पूर्वोक्त प्रभाव के बल से और कुछ विशेष विद्यानुरागी उदार राजा महाराजाओं तथा गुणग्राही शिक्षाविभाग के अधिकारियों की सहायता से इन्हें अपनी पुस्तकों के प्रचार में कोई कठिनता न पड़ी। उनका प्रचार दिन पर दिन बढ़ता ही गया। इस बात में बाबू काशीनाथ विशेष भाग्यवान् थे; उन्होंने पुस्तक रचना से अर्थोपार्जन के साथ साथ अच्छी प्रतिष्ठा भी पाई। 'भारतवर्ष की विख्यात स्त्रियों के चरित्र' लिखने के उपलक्ष्य में इन्हें उदयपुर दरबार से 150 रुपये और एक प्रशंसापत्र, और महाराणी स्वर्णमयी से 80 रुपये पारितोषक मिला था। 'नीत्युपदेश' इन्होंने महाराजा दरभंगा को समर्पित किया था। इससे महाराजा साहब ने प्रसन्न होकर 80 रुपये 'छपाई के खर्च के लिए' भेजे थे। यह पुस्तक बिहार और पंजाब के स्कूलों में प्रचलित भी हो गई थी। (नहीं मालूम अब है या नहीं)। इनकी कई पुस्तकें इनामी किताबों की सूची में भी हैं। सन् 1885 ई में 'भाषा संवर्धनी सभा, अलीगढ़' ने इन्हें हिन्दी के उत्तम ग्रन्थकार होने के उपलक्ष्य में एक पदक दिया। उर्दू भी बाबू साहब अच्छी लिखते थे। निज़ाम हैदराबाद इनके उर्दू अनुवादों से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने 200 रुपये मासिक पर इन्हें अपने यहाँ अनुवादक के पद पर बुलाने के लिए पत्र भेजा। पर इन्होंने यह कहकर टाल दिया कि 300 रुपये मासिक निज़ाम गवर्नमेंट देना स्वीकार करे तो शायद आने का विचार कर सकता हूँ। इस लिखापढ़ी के उपरान्त ही निज़ाम के प्राइवेट सेक्रेटरी पं. रघुनाथप्रसाद चौबे का तार आया कि “I and Nawab Sahab will reach Allahabad Tuesday, come positively” (हम और नवाब साहब मंगल को इलाहाबाद आवेंगे, जरूर आइए)। ये प्रयाग गए और निज़ाम से मिले। नवाब साहब इनसे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा “अप मेरे साथ इसी समय हैदराबाद चलें, मुझे 300 रुपये मासिक देना स्वीकार है”। पर इन्हें जाने की इच्छा तो थी नहीं, इससे निवेदन किया कि यदि मुझ पर ऐसी कृपा है तो जो कुछ तरजुमे का काम हुआ करे मुझे यहीं उजरत पर मिल जाया करे। मैं इसी से अपने को धान्य मानूँगा।

इनके लेख बराबर उस समय के हिन्दी पत्रों में निकला करते थे। कर्नल आलकोट के व्याख्यान का अनुवाद 'आर्यदर्पण' में प्रकाशित हुआ था। 'ग्राम पाठशाला और निकृष्ट नौकरी नाटक' भी पहिले 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' में छपा था। अंगरेजी में भी इनके कई उत्तम उत्तम लेख हिन्दी के पक्ष में तथा और और विषयों पर 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' और 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' में निकले थे। बाबू हरिश्चन्द्र इनके लेखों का बड़ा आदर करते थे। पर सच पूछिए तो यह कोई बड़ी बात भी न थी, क्योंकि वे निरादर ही किसके लेखों का करते थे। जहाँ किसी ने हिन्दी के लिए लेखनी उठाई कि भारतेन्दुजी ने उसे सिर माथे पर बैठाया। उन्हीं महानुभाव की उदारता ने देखते देखते उनकी ऑंखों के सामने ही ऐसे ऐसे पुरुष खड़े कर दिए जिनकी कीर्ति सदा हिन्दी भाषा के साथ साथ उसके पथ पर प्रकाश डालती चलेगी और जो अपनी प्रशंसा में अधिक यही कह सकते थे कि “श्रीमुख जासु सराहना कीन्ही औ हरिचन्द।”

शेक्सपियर के नाटकों की आख्यायिका जब इनहोंने प्रकाशित की तब इनके पास मि. ग्राउस आदि कई भाषानुरागी और प्रतिष्ठित सज्जनों के प्रशंसा सूचक पत्र आए, जिनमें से दो को मैं यहाँ देना आवश्यक समझता हूँ।

(भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का पत्र)

यह अनुवाद अति प्रशंसनीय है। इसकी भाषा ऐसी स्वच्छ और सरल है किहर कोई सुगमता से समझ सकता है। बाबू काशीनाथजीक्व खत्री के परिश्रम और योग्यतासे यह आनन्द आज हमको और भाषा रसिकों को प्राप्त हुआ। उसके उपलक्ष्य में आपको एक तुच्छ वस्तु पारितोषक मैं पारसल द्वारा भेजता हूँ। आशा है कि स्वीकार होगी।

15 बैशाख 1940

हरिश्चन्द्र

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(राजा लक्ष्मणसिंह का पत्र)

मुझे आपके दोनों अनुवादों की लेख रीति सत्चित से पसन्द है। बहुत उत्तम मुहाविरे की हिन्दी भाषा है। आपके ग्रन्थ इस योग्य हैं कि सब लोग जो इस भाषा के रसिक हैं उनका यथावत् आदर करें। मुझे निश्चय है कि यह पुस्तक शीघ्र वहाँ पहुँच जायगी जहाँ इसका पूर्ण आदर होगा।

लक्ष्मणसिंह

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इनकी पुस्तकों की दी हुई सूची में केवल 6 या 7 ग्रन्थों को छोड़ शेष सब छोटे छोटे व्याख्यान, उपयोगी व्याख्यानों के अनुवाद और पैंफ्लैट ही हैं जो समय समय पर निकले हैं।

[1] शेक्सपियर के नाटकों के आशय के अनुवाद, दो भागयह पुस्तक चार्ल्स और मेरी लैम्ब लिखित शेक्सपियर के नाटकों की आख्यायिका का हिन्दी में अनुवाद है। प्रथम भाग में पात्रों के अंगरेजी नामों के स्थान पर हिन्दी नाम 'अभिप्रायानुसार' रक्खे गए हैं। पर इन हिन्दी नामों में 'अभिप्राय' वा गुण का अधिक विचार हो जाने से कुछ बनावट की झलक आ गई है, जैसेभ्रमाच्छादित सिंह, स्वामी हित साधाकराय, निज मतलब सिध्दसिंह, कृतघ्नीप्रसाद इत्यादि। अनुवाद भी बहुत ही स्वच्छन्दता से किया गया है; बहुत से जुमले छोड़ दिए गए हैं : बहुत से अपनी ओर से बढ़ा दिए गए हैं। अंगरेजी आख्यायिका के रचयिता ने उचित अवसरों पर शेक्सपियर ही की शब्द योजना रखकर उस महाकवि की भाव प्रदर्शन प्रणाली से परिचित कराने का यत्न किया है। पर उसके इस हिन्दी अनुवाद में मूल के भाव प्राय: दूसरी ही रीति से व्यक्त किए गए हैं जिससे उनकी (भावों की) यथार्थ मात्र में भी अन्तर पड़ गया है। अर्थात् कहीं तो वे अधिक तीव्र हो गए हैं और कहीं अधिक हल्केत। अनुवाद के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं।

क्व यदि यह पत्र बाबू हरिश्चन्द्र ने बाबू काशीनाथ के पास ही भेजा था तो फिर यहाँ उनका नाम क्यों आया? रा शु

What suspicious people these Christians are! Their own hard dealing teach them to suspect the thoughts of others.

(ये ईसाई लोग कैसे अविश्वासी होते हैं! उनके कठोर व्यवहार ही उन्हें दूसरों की नियत पर सन्देह करना सिखलाते हैं।)

अनुवाद”ये ईसाई लोग कैसे अविश्वासी हैं! वह अपने ही समान सबका मन जानते हैं।”

When I first imparted my love to you I freely told you all the wealth I had ran in my veins; but I should have told you that I had, less than nothing, being in debt.

(अर्थात जब मैंने पहिले पहल तुम्हें अपना प्रेम-पत्र बनाया था, मैंने बेधड़क कह दिया था कि जो कुछ धन मेरे पास है वह मेरे रुधिर, कुल और शील, ही में है; किन्तु मुझे कहना था कि मेरे पास कुछ नहीं से भी कम है, क्योंकि मैं ऋणीहूँ।)

अनुवाद”ज़ब मेरी तुम्हारी प्रीति आरम्भ हुई तो मैंने प्रथम ही तुम्हें जता दिया था कि मेरा सब धन क्षीण हो गया है और मेरे पास अब कुछ नहीं है; परन्तु मुझे इतना कहना रह गया था कि मैं ऋणी भी हूँ।”

Notwithstanding use your pleasure; if your love for me do not persuade you to come, let not my letter.

(पर अपनी खुशी से काम करना; यदि प्रेम तुम्हें आने के लिए न उघाड़े तो इस चिट्ठी के कारण मत आना।)

अनुवाद”मेरे निमित्त आप अपने विवाह के आनन्द में विघ्न न डालिएगा और न मेरा पत्र अपनी प्रिया को दिखलाइएगा!”

It is a dangerous matter for young maidens to be the confidents of handsome young dukes.

(यौवनवती क्वाँरियों के लिए सुन्दर युवा राजकुमारों का विश्वासपत्र होना डर की बात होती है)

अनुवाद”नवयौवन कुमारियों का मन सुन्दर पुरुष देखकर शीघ्र ही चलायमान हो जाता है।”

मूल का विशेष बंधन न रहने पर भी कहीं कहीं वाक्य योजना अव्यवस्थित और ऊटपटाँग हो गई है, जैसे

(1) सबका प्रीति सहित आदर करता और मीठे वचनों से सत्कार देता।

(2) आपसे मेरा इस भाँति बर्ताव करने पर क्या मुझे योग्य है...।

(3) रुपया लेकर अपने मित्र के हवाले कर दिए।

कत्तर् कई जगह छोड़ दिया गया है।

[2] नीत्युपदेशयह प्रोफेसर ब्लाकी के 'सेल्फ़कल्चर' का अनुवाद है। पर न जाने क्यों इसका नाम बदलकर 'नीत्युपदेश' रक्खा गया है। इसकी भाषा 'सरल और स्वच्छ' है। पर कहीं कहीं शब्दों की अंगरेजी बैठक ज्यों की त्यों रक्खी गई है जिससे मतलब अंड का बंड हो गया है, जैसे

(1) “मिथ्या वचन से दोनों देवता और मनुष्यों को स्वाभाविक घृणा होती है।” यहाँ दोनों शब्द'मनुष्य' के आगे चाहिए।

(2) “इन तीनों हर समय घेरनेवाले पापों से बचने के लिए लड़कों को सावधानी रखना योग्य है।”

(3) एक जगह लिखा है”युवा पुरुषों को दिखावट और दम्भ से इतना अधिक दु:ख नहीं होता जितना कायरता और साहस और धैर्य न होने के कारण हुआ करता है”। क्या कायरता के बिना युवा पुरुषों को दु:ख होता है? इस जुमले में 'कायरता' शब्द के आगे करण चिह्न 'से' रख देने से अभिप्राय स्पष्ट हो जाता।

'जब' और 'जब तक' के साथ 'तो', और 'वे' के स्थान पर 'वह' ही प्राय: इन्होंने लिखा है। 'हानि' का बहुवचन 'हानें' देखने में आता है। 'अमोल्य', 'अधार्ीय्य', 'धार्मेष्ट', और 'कौशलता' ऐसे शब्द भी बहुत मिलते हैं।

[3] परम मनोहर ऐतिहासिक (?) रूपकत्रसमें तीन रूपक सम्मिलित हैं

(क़) सिन्ध देश की राजकुमारियाँ। इसमें उस समय की एक ऐतिहासिक घटना की चर्चा है जिस समय ख़लीफ़ा उमर ने पहिले पहल मीर क़ासिम को सिन्ध में भेजा था। (ख) गुन्नौर की रानीत्रसमें भूपाल के “वर्तमान राजकुल के नींव डालनेवाले” सरदार और गुन्नौर (भूपाल के पास) के पराजित और मृत राजा की विधवा का वृत्तान्त है। (ग) लवजी का स्वप्नरघुवंश की एक कथा से लिया गया है। इन तीनों रूपकों में घटनाओं का विस्तार नहीं हुआ है। कुल मिलाकर केवल बारह पन्ने की किताब है।

[4] भारतवर्ष की विख्यात स्त्रियों के जीवन चरितत्रसमें मुसलमानों के राज्यारम्भ से लेकर आज तक की 18 प्रसिध्द रानियों (संयोगिता से स्वर्णमयी तक) के चरित्र हैं।

[5] योरपियन धर्मशीला और पतिव्रता स्त्रियों के चरित्र यह “Noble deeds of Women” का हिन्दी में अनुवाद है। 40 स्त्रियों के अद्भुत और रोचक वृत्तान्तहैं।

बाबू काशीनाथ अपनी पुस्तकों और लेखों के नाम बहुत लम्बे और बेढंगे रखते थे। अपनी पुस्तकों का विज्ञापन देने में आप कभी नहीं चूकते थे। कोई छोटी सी भी इनकी पुस्तक उठा लीजिए और उसके दोनों ओर विषय विवरण समेत इनकी पुस्तकों की सूची देख लीजिए। कहीं कहीं इस सूची के अन्त में यह प्रश्न भी मिलेगा कि “तरजुमे का काम चाहिए?”।

इनके व्याख्यानों और पैंफ्लेटों के विषय में मुझे केवल यही कहना है कि वे सब के सब उपयोगी और शिक्षाप्रद हैं। भारतवर्ष के सुधार के विषय में आपने अपना मत इस प्रकार प्रगट किया है”ज़िस भारतवर्ष के निवासियों ने प्राय: सब एशिया को धर्म और विद्या का उपदेश दिया है वे सर्वथा दूसरे देशवासियों का अनुकरण करने में ही सत्य उन्नति कर सकेंगे; भारत की उन्नति का मन्दिर जब निर्माण होगा तब उसकी प्राचीन नींव पर ही होगा। यह वह भूमि नहीं है जहाँ कोई सर्वथा विदेश का वृक्ष लाकर लगा दे और वह भलीभाँति पनपै”। नवीन दृष्टि के बाबू लोग क्षमा करें; अपने अपने विचार ही तो हैं।”

'स्वदेशी' के विषय में आप कह गए हैं

“विलायती चीज़ों के देश में फैलने से हमारे सब उद्यम नष्ट भ्रष्ट हो गए। यहाँ वालों की तो यह हीनदशा हो गई और विलायत के वणिक और कारीगर यहाँ के प्रभाव से धनधान्य से परिपूरित हो गए। हमको सूखी रोटी नहीं जुड़ती वे गुलछर्रे उड़ाते हैं।”

(सरस्वती, नवम्बर-दिसम्बर, 1906 ई )

[चिन्तामणि, भाग-3]